गुरुवार, 24 सितंबर 2015

'चरित्र-निर्माण की प्रक्रिया'' (SVHS -35 /The Process of Character-Building)

१.चरित्र-निर्माण में मन की भूमिका -किसी बिजनेस या उद्द्योग का प्रारंभ करना हो तो सबसे पहले मूलधन (या Capital) रहना चाहिये। उसी प्रकार यदि किसी को चरित्र-निर्माण के लिये उद्यम करना हो, तो उसका मूलधन क्या होगा ? उत्कृष्ट विचार ५ सुंदर भावों को चरित्रगत करना होगा, इसके लिए सर्वप्रथम  मन की भूमि (मनवस्तु या चित्त) में सद्विचारों के बीज बोने होंगे ! सुन्दर चरित्र गठन करने के लिये यदि हमें अपने आचार-विचार को शुद्ध और पवित्र रखना हो तो हमें इस कार्य में मन की सहायता लेनी ही होगी। शुद्ध आचार, शुद्ध विचार, के साथ अपने जीवन को निष्कलंक रूप में गठित करने का दृढ़ संकल्प रहेगा , तभी तो मेरा सुन्दर चरित्र-गठित हो पायेगा। इच्छा, विचार या दृढ़ संकल्प आदि मन के साथ जुड़े हुए विषय हैं। दृढ़ संकल्प और उसे क्रियान्वित करने का सामर्थ्य ही चरित्र निर्माण की पूंजी है! एक दिन के प्रयत्न से कार्य पूरा नहीं होगा, चरित्र-गठन में सफलता प्राप्त होने तक, निरन्तर प्रयास जारी रखना होगा।  चरित्र-निर्माण करने में 'मन' की सहयता लेनी ही पड़ेगी; क्योंकि मन की सहयता के बिना हम किसी भी कार्य को कुशलता पूर्वक सम्पन्न नहीं कर सकते। यजुर्वेद (३४/३) का यह शिव संकल्प सूत्र मन को नियंत्रण करने में अत्याधिक सहायक है- 
                         'यस्मान्न ऋते किं चन कर्म क्रियते तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ।'
 (यस्मात् ऋते) जिसके बिना (किंचन) कुछ (कर्म) काम (न) नहीं (क्रियते) किया जाता हैं (तन्मे मनः) वह मेरा मन (शिवसंकल्पमस्तु) शिव संकल्पों वाला हो। जसके बिना किंचित् कर्म नहीं होता, वह मेरा मन सदा शिव संकल्पकारी हो। 
किन्तु इस प्रार्थना के साथ साथ उद्द्य्म भी तो करना पड़ेगा, यही उद्द्य्म है 'विवेक-प्रयोग' का अभ्यास - जैसे ही कोई विचार बुल बुले के रूप में चित्त-भूमि से उपर उठने की कोशिश करेगा, या कोई भी शब्द जुबान पर लाने से पहले, हरेक गतिविधि या किसी भी कार्य को करने के पहले, दृढ़ निश्चय और संकल्प के साथ विवेक-प्रयोग करके यह देखने कि कोशिश करूँगा कि उससे मुझे शक्ति (हृदय में सिंह जैसा बल) प्राप्त होगी या नहीं ? मेरे उस विचार,शब्द, या कार्य से मेरा और दूसरों का कल्याण होगा या नहीं ? इस बात को भली-भाँति समझ लेने के बाद ही उस प्रकार से कुछ सोचूंगा, या कोई शब्द कहूँगा या कोई कार्य करूँगा। यदि मैं निरन्तर मन-वचन-कर्म में विवेक-प्रयोग करने में समर्थ बन सकूँ, तो मेरा चरित्र अच्छा हुए बिना रह ही नहीं सकता। और इसी प्रकार 'विवेक-प्रयोग' की चेष्टा सभी युवा भाई करते रहें, तो देश का कल्याण हुए बिना रह नहीं सकता।
पहले हमें यह समझ लेना होगा कि मन हमारा का दास है: जैसे हम अपनी पाँच इन्द्रियों के द्वारा रूप-रस-गंध-शब्द-स्पर्श आदि विषयों का सम्यक सदुपयोग करते हैं, ठीक उसी प्रकार आँख,कान,नाक,
जीभ और त्वचा के समान यह मन भी हमारी छठी इन्द्रिय (सिक्स्थ सेन्स) भी हमारा यंत्र या उपकरण एक इन्स्ट्रुमेन्ट ही है किन्तु सबसे सूक्ष्म होने के कारण सबसे शक्तिशाली इन्द्रिय है ! मन की पूरी शक्ति लगाकर हमलोग जो भी कार्य करते हैं वह सुसम्पन्न होता है। मन में अनन्त शक्ति है, किन्तु वह मेरे (आत्मा या पक्का मैं के) केवल एक अंश (पाद) में ही है, अतः उसको मेरी (अहं नहीं विवेक-सम्पन्न बुद्धि या आत्मा की) आज्ञा का पालन तो करना ही पड़ेगा। क्योंकि मन मेरा मालिक नहीं है,( मेरी विवेक-सम्पन्न अर्थात विवेक-प्रयोग करने में समर्थ बुद्धि या)  'मैं ' उसका मालिक हूँ, मन तो मेरा दास है !
किन्तु अनेक वर्षों से (जन्म-जन्मांतर से) हमने उसे मनमाने विषयों में जाने की छूट दे रखी थी, इसीलिये उसका स्वाभाव किसी बिगड़े हुए नादान बच्चे के समान जो बाजार पहुँच कर पानी-पूरी खाने की ज़िद ठान लेता है, या उस मदिरोन्मत्त,ईर्ष्या-बिच्छू द्वारा दंशित भूतारूढ़ बन्दर के समान बन गया है। 'बेकहल नौकर' के समान अब वह अपने मालिक को ही, अपना दास बनाने का प्रयत्न करता है। अब हमलोगों को उसे (प्यार से समझा-बुझा कर,या हल्की सी चपत लगाकर या थोड़ा बलपूर्वक, मन को स्थायी रूप से) अपना दास बना लेना होगा। 
किन्तु यह कैसे करूँगा ? पहले ही हमलोग यह जान चुके हैं कि चरित्र गठन करने में मन की सहायता लेनी ही पड़ेगी। इसके लिये मन को अपने वश में रखने या अपने नियंत्रण में रखने की बात भी कही गयी है। इसके लिये विवेक-प्रयोग के अभ्यास द्वारा मन को इन्द्रिय विषयों में जाने से रोक कर (बाज़ार की पानी-पूरी खाने की ज़िद को छुड़ा कर ) निरन्तर चरित्र-गठन के दृढ़ संकल्प पर ही एकाग्र रखने का अभ्यास करना होगा। उपरोक्त तरीके से दृढ़ संकल्प के साथ लक्ष्य पर एकाग्रता का नियमित अभ्यास करने से इच्छाशक्ति बहुत मजबूत हो जाएगी। मनसा-वाचा कर्मणा किसी भी कार्य करने-सोचने,बोलने या करने के पहले यदि हम विवेक-प्रयोग करने के बाद ही प्रत्येक कार्य करने में महारत ( Proficiency) हासिल कर लेते हैं, तो उसके बाद वाली चरित्र-निर्माण की प्रक्रिया अत्यन्त सरल है। किसी Algebra जितना, quadratic equation जितना, या किसी higher mathematics जितना, या अन्य किसी कठिन formula के जितना नहीं, बल्कि साधारण जोड़-घटाव जितना ही सहज है- चरित्र-निर्माण !  ऐसा करोगे तो यह होगा, वैसा करोगे तो वैसा होगा। जिस प्रकार २ में २ जोड़ने से ४  होता है, ४  में २  जोड़ने ६ होता है, और ६ में २  जोड़ देने से ८  हो जाता है, उसी प्रकार चरित्र भी अत्यन्त सहज वस्तु है। 
आत्ममूल्यांकन तालिका: चरित्र-निर्माण का सिद्धान्त भी न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण सिद्धान्त के अनुसार सभी देशों के सभी मनुष्यों के लिये सत्य है ! किन्तु निरन्तर इस जोड़-घटाव के के चिन्ह पर दृष्टि गड़ाय रखना, और उन्हें देते रहने की क्षमता को बनाय रखना ही कठिन हो जाता है। एक बार किया, दो बार किया; दो-चार अच्छे कार्य करके लोगों की वाहवाही प्राप्त कर लिया। कैम्प में आकर दूसरों के साथ सुन्दर व्यवहार कर लिया, क्योंकि कैम्प में आचरण ठीक नहीं रखने से सर्टिफिकेट नहीं मिलेगा, लेकिन यहाँ लौट कर घर जाने के बाद विवेक-प्रयोग करने के लिए सावधान रहने का अभ्यास करना एकदम छोड़ दूंगा। यदि ऐसा सोचोगे या करोगे तो चरित्र-गठन करना कभी संभव नहीं होगा। चरित्र-गठन करने में यही कठिनाई है। चरित्र-निर्माण की प्रक्रिया का फॉर्मूला या सूत्र तो बिलकुल सहज है, किन्तु विवेक-प्रयोग के लिये निरन्तर सजगता बनाये रखना आवश्यक है, इसकेलिये अथक प्रयास करना होता है; नहीं तो हर कदम पर पाँव फिसल जाने की सम्भावना बनी रहती है।  बहुत बार विवेक का ठीक ठीक प्रयोग किया, और अपने आचरण को ठीक रखा, किन्तु दो बार नहीं हो सका, आलस्य आ गया और एक बुरी आदत पड़ गयी। इसी प्रकार यदि बुरी आदतें पड़ती ही रहें, तो उसके नीचे अच्छी आदतें दब जाएँगी। उसी प्रकार यदि बहुत सी अच्छी आदतें एकत्रित हो गयीं, तो उसके निचे बुरी आदतें दब जाएँगी। बुरी आदतों की स्मृतियों को जड़ सहित नहीं उखाड़ सकते, उसको अच्छी आदतों के नीचे ही दबा कर  रखना पड़ता है। तथा अच्छी आदतों से दबाते दबाते ऐसा हो जाता है, कि वे फिर कभी अपना सिर उठा नहीं पातीं। जैसे किसी टेप-रेकार्डर के कैसेट में यदि एक बार रेकार्डिंग हो गया, तो पहले वाला रेकार्डिंग तुम नहीं सुन सकते।' यदि तुम बुरे कार्य करते हो, तो उसका दोष अपने बुरे चरित्र के मत्थे मढ़ कर अपनी जिम्मेवारी से बचने की चेष्टा मत करना। ' क्योंकि इतना तो हम सभी लोग समझ सकते हैं कि - चूँकि हमारा चरित्र ही हमें अच्छा या बुरा कर्म करने के लिए अनुप्रेरित करता है, ऐसा कहते हुए बुरे कर्म करने के बाद उसका समस्त दोष चरित्र के मत्थे मढ़ देने की चेष्टा करना स्वयं को ही धोखा देने के सिवा और कुछ नहीं है।
हमें आत्मनिरीक्षण करना होगा, बुरा कर्म करने के लिये आखिर मैं उतारू क्यों हो जाता हूँ ? इसका कारण यही है कि किसी कारण से (बहुत लम्बे समय तक बुरी संगती, या गलत परिवेश में रहने से) मेरी उम्र अधिक हो गयी है, किन्तु अभी तक मेरा अपना चरित्र अच्छा नहीं बना सका है। और अब उसी बुरे चरित्र का दास बन कर, उसके वशीभूत होकर मैं कोई बुरा कार्य कर देता हूँ। यदि मेरी अवस्था सचमुच ऐसी हो गयी है, तो अब मुझे क्या करना चाहिये ? यह अवस्था थोड़ी कठिन है, क्योंकि मेरी उम्र अब अधिक हो गयी है, और अपना काफी समय मैंने नष्ट कर दिया है। उसी बुरे चरित्र के वशीभूत होकर, उसका दास होकर कार्य करते रहने के फलस्वरूप मेरे भीतर बुरे कार्यों को करने की प्रवृत्ति दृढ़ हो गयी है। मेरे अवचेतन मन पर उसकी लकीर गहरी हो गयी है। उस गहरी लकीर को मिटा कर फिर से अच्छे चरित्र का गठन करना अधिक मुश्किल काम है। वस्तुतः बुरे विचारों के दृढ़ हो जाने के बाद, या मन की गहरी परतों तक बैठ जाने के बाद, उनको मिटाया नहीं जा सकता। बल्कि जब मन में अच्छे विचारों की लकीर अधिक गहरी हो जाती है, तो उसके नीचे बुरे विचारों की लकीरें केवल दब भर जाते हैं। इसलिये बुरी आदतों के परिपक्कव हो जाने के पहले, या कम उम्र में ही यदि अच्छा चरित्र निर्मित कर लिया जाय, तो इस खतरे से बचा जा सकता है। अतः युवकों को अन्य समस्त कार्यों को छोड़ कर, सर्व प्रथम अच्छा चरित्र निर्मित करने की अनिवार्यता को समझने के लिये प्रयास करना चाहिये। फिर उन्हें प्रकृति तथा इन्द्रियों की अनेकों  प्रलोभनों पर विजय प्राप्त करने का दृढ़ संकल्प लेकर, अथक परिश्रम करते हुए एक सुन्दर चरित्र अर्जित करके उसे बहुमूल्य धरोहर के रूप में संचित कर लेना होगा। निरंतर विवेक-प्रयोग करके दुर्गुणों को हटाओ और सद्गुणों को अपनी रुझान या टेन्डन्सी में परिणत करो। 

चरित्र के १२ दुर्गुण या दोष कौन कौन से हैं जिन्हें हमें बाहर निकालना है ?-(२६ जून २००९ का ब्लॉग देखें )
 १.जीवन-स्तर के मानदण्ड का दिखावा करने में वृद्धि नहीं।
२ " कपटता नहीं "
 ३. " जंग(मोर्चा) लग कर मरना ठीक नहीं "
४. स्वर्ग जाने की चाह नहीं "
५. " असन्तोष नहीं "
६." आत्मसंतुष्टि नहीं "
७." नैराश्य नहीं "
८ ." कर्म विमुखता नहीं "
९." ज्योतिष नहीं "
१०." भय नहीं "
११." क्रोध नहीं "
१२." विद्वेष नहीं "  

अब हमलोग चरित्र क्या है, इस बात को और अधिक गहराई से समझने की चेष्टा करेंगे। हमने इस रहस्य को जान लिया है कि चरित्र हमलोगों की प्रवृत्तियों (चित्त-वृत्तियों या रुझानों) की समष्टि या योगफल है। प्रवृत्तियों (या रुझानों  propensity) की समष्टि या योगफल की कार्यकारी शक्ति से भी हमलोग परिचित हैं। प्रवृत्तियाँ कितनी शक्तिशाली होती हैं, इस बात को भी हम जानते हैं। किसी विशेष परिस्थिति में सोच-विचार किये बिना, या विवेक-प्रयोग किये बिना ही, हमलोग जिसके वशीभूत होकर कोई कार्य कर डालते हैं, उसको ही प्रवणता या प्रवृत्ति कहते हैं। किसी भी कार्य को करने के जब कई विकल्प रहते हैं, और उसमें से किसी एक विकल्प का चयन जब हमें करना होता है, तो काफी सोच-विचार करने के बाद या विवेक-विचार करके जिस गुण को मनुष्योचित समझकर चयन करते हैं, और जब बार बार उसी को  दुहराने लगते हैं तो वह गुणग्रहण हमारी आदत में परिणत हो जाता है। जब वह आदत परिपक्व हो जाती है, तो वही हमारी प्रवृत्ति या  ' tendency' बन जाती है।  किन्तु यदि हम विवेक विचार करके कोई निर्णय लिये बिना, मानो बाध्य होकर या उसी प्रवृत्ति के वशीभूत होकर उस प्रकार का कार्य करते हैं। इसी प्रकार के विभिन्न प्रवृत्तियों का योगफल हमलोगों के चरित्र का निर्माण करता है, तथा उस चरित्र के फल को हमें अनिवार्य रूप से भोगना भी पड़ता है।
कौन कौन से ऐसे सदगुण हैं जिनको अपनी आदत में ढाल कर प्रवृत्ति या टेन्डन्सी बनाई जाय ?
फिर उन गुणों को अपनी आदत में ढाल लेने से, उन्हें परिपक्व बनाने से -उन्हीं प्रवृत्तियों का योगफल मेरे अच्छे चरित्र में परिणत हो जायेगा। अतः चरित्र के गुणों की तालिका में लिखे गुणों के बारे में ठीक से समझ कर उसी प्रकार के कार्यों को बार बार दुहरा कर अपनी आदत और प्रवृत्ति में शामिल कर लूँगा। जिन अच्छे गुणों को आत्मसात करने से मेरा चरित्र निश्चित रूप से अच्छा बन जायेगा।

                                                आत्म-मूल्यांकन तालिका
श्री ---------------------------------------------------------
केवल तुम्हारा चरित्र-बल ही तुम्हें अपने लक्ष्य तक पहुँचने में सहायता प्रदान करता है. क्या तुम्हें अपना निश्चित जीवन-लक्ष्य ज्ञात है ?  यदि नहीं, तो इसी समय अपना एक निश्चित जीवन-लक्ष्य निर्धारित कर लो और यहाँ नीचे लिखो. यदि अपने अन्तर्निहित विवेक-शक्ति का प्रयोग करते हुए निम्न लिखित गुणों को जीवन में धारण कर लोगे तो तुम एक चरित्रवान मनुष्य बन सकोगे.
" मेरा निश्चित जीवन लक्ष्य है-----------------------------------"   
चरित्र के गुण
१. आत्म-श्रद्धा
२. आत्म-विश्वास
३. सच्चाई
४. स्पष्ट-विचारण
५. साहस
६. संकल्प
७. ईमानदारी
८. निष्कपटता
९. उद्दम
१०. अध्यवसाय
११. साधन-सम्पन्नता
१२. सहन-शीलता
१३. भद्रता
१४. सहानुभूति
१५. विश्वसनीयता
१६. आत्म-संयम
१७.आत्म-निर्भरता
१८. धैर्य
१९. सेवा परायणता
२०.संतुलन
२१. निःस्वार्थपरता
२२. अनुशासन की भावना
२३. स्वच्छता
२४. सामान्य बुद्धि
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प्रत्येक निश्चित अन्तराल के बाद आत्म-समीक्षा करो और उपरोक्त गुणों के सामने जो तुम अपनाने योग्य समझते हो, एक " श्रेणीकरण चिन्ह " या मानांक लगाओ.
८० % व अधिक के लिये -  ' A '
७० % व अधिक के लिये -' B'
६० % व अधिक के लिये -  ' C  '
५० % व अधिक के लिये - ' D
 ४०% से कम के लिये -      ' E '
हर एक गुण के मानांक को क्रमशः बढ़ाते जाओ तथा आगे के मार्गदर्शन हेतु महामण्डल के सम्पर्क में रहो.
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 स्मरण रखो कि इनमें से प्रत्येक गुण तुम्हारे लिये आवश्यक है, एवं केवल तुम स्वयं अपने संकल्प और चेष्टा से ही इन गुणों को बढ़ा सकते हो. इन गुणों पर चिन्तन करो और प्रतिदिन कोई भी कार्य या व्यव्हार करते समय विवेक का प्रयोग करके इस प्रकार करो, जिससे इन गुणों में से कोई एक या एकाधिक गुण को बढ़ाने में सहायता मिलती हो.
विवेक-प्रयोग का अभ्यास जिस प्रकार सर्वदा सभी अवस्था में करोगे, उसी प्रकार प्रतिदिन/ प्रतिसप्ताह/१५ दिन बाद या महीने में एक बार आत्म-समीक्षा भी करो कि तुमने कौन से गुण को कितना अर्जित किया है; फिर उसको तालिका में अंकित कर दो. ऐसा करते रहने से तुम देखोगे, कि कुछ महीनों में ही तुमने चरित्र-निर्माण में कितनी उत्तम प्रगति कर ली है !
इस प्रयक्ष-प्रमाण को देखने से तुमको एक ऐसे अपूर्व आनन्द का अनुभव होगा, जो तुम्हें आत्म-विकास में निरन्तर आगे बढ़ते रहने के लिये अदमनीय उत्साह और उर्जा से भरपूर कर देगा.
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                                मनसि वचसि काये पुण्यपीयूषपूर्णाः
                                  त्रिभुवनमुपकारश्रेणिभिः प्रीणयन्तः |
                               परगुणपरमाणून् पर्वतीकृत्य नित्यम्
                             निजहृदि विकसन्तः सन्ति सन्तः कियन्तः
||8||-भर्तृहरिः
कुछ सन्त ऐसे भी देखे जाते हैं, जिनका मन वचन और कर्म पुण्यरूप अमृत से परिपूर्ण हैं और जो विभिन्न उपकारों के द्वारा त्रिभुवन के प्रति प्रेम वितरण करते हुए, दूसरों के परमाणु तुल्य गुण  अर्थात अत्यन्त स्वल्प राई जितने गुण को भी पर्वतप्रमाण बढ़ाकर अपने हृदयों का विस्तार करने की साधना में रत रहते हैं ! (४/३०५)    

[ अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल, खरदह, २४ परगना, (पश्चिम बंगाल ) द्वारा प्रसारित]
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इन गुणों की एक तालिका बना कर इनका अभ्यास करने से इन समस्त गुणों को आत्मसात किया जा सकता है।  गुणों को आत्मसात करने के लिये, इन्हें आदत और फिर प्रवृत्ति में ढाल लेने की प्रक्रिया बिल्कुल वैज्ञानिक सूत्र (Scientific Formula ) के जैसा है, तथा हमलोग इनको अपने जीवन में उतार कर दिखला सकते हैं। 

चमत्कार जो आप कर सकते हैं ! (ऑटो-सजेशन): मनःसंयोग (मन को नियंत्रण में रखने की प्रक्रिया) कोई धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है। वर्तमान युग में इस विज्ञान को  साइकालजी या मनोविज्ञान भी कहते हैं। किन्तु हमारे देश में यह बहुत प्राचीन समय से विद्यमान था। इस विषय का  सबसे प्रमाणिक ग्रन्थ है, ऋषि पतंजली रचित अष्टांग-योग, या योग-सूत्र। मन को इन्द्रिय विषयों में जाने से रोक कर उसे वश में लाकर, उसे अपने लिये उपयोगी कैसे बनाया जाता है, उसकी पद्धति को इस ग्रन्थ में सूत्र-बद्ध किया गया है।
इसी मनोवैज्ञानिक (Psychological ) अथवा वैज्ञानिक पद्धति (Scientific Method ) के द्वारा हमलोग पहले अपना चरित्र गढ़ने के लिये एक महती इच्छाशक्ति (Will -Power ) का निर्माण करेंगे, दृढ़ निश्चय (Resolution या संकल्प) का निर्माण करेंगे, तथा चरित्र-गठन हो जाने तक निरन्तर प्रयासरत रहने की शक्ति -अध्यवसाय (Perseverance या धुन) का निर्माण करेंगे। हमलोग मानवजीवन को सुंदर बनाने वाले अच्छे अच्छे भावों (आत्मश्रद्धा, निर्भीकता, निःस्वार्थता,त्याग और सेवा आदि) के विषय में जानकारी प्राप्त करेंगे तथा मन की सहायता से उन गुणों को अर्जित करने की कोशिश (उद्यम ) करते जायेंगे।
बस, साधारण मामला है एकदम Practical -Method (प्रयोगात्मक-पद्धति) है, कोई भी व्यक्ति इसका प्रयोग घर बैठे कर सकता है। इसके लिये जंगल जाने या गुफा में बैठने की कोई जरुरत नहीं है। इस वैज्ञानिक पद्धति का प्रयोग करने पर परिणामी उत्पाद (उपज) होगा एक सुन्दर चरित्र ! जो कोई भी व्यक्ति चरित्र-निर्माण के इस वैज्ञानिक पद्धति का प्रयोग करेगा उसको एक ही परिणाम प्राप्त होगा।
मन की भूमि (चित्त) में सद्विचारों के बीज बोने से, केवल सद्कर्म ही करूँगा जिसका परिणामी पैदावार (भरपूर फसल) होगा-मेरा सुन्दर चरित्र! बीज के अनुसार फल मिलेगा ही मिलेगा, प्राकृतिक नियम है, होने को बाध्य है।

जो इसका परिक्षण करेगा, वह स्वयं यह देख पायेगा कि मात्र छः महीनों में ही उसका चरित्र पहले से कितना अच्छा बन चूका है ! जो भी व्यक्ति व्यग्रता के साथ दृढ़ संकल्प लेकर, इन गुणों को आत्मसात करने का प्रयत्न करेगा, वह जरुर सफल होगा जिस प्रकार प्रयोग शाला में सही प्रयोग करने से सभी को एक समान परिणाम प्राप्त होता है। किन्तु चरित्र-गठन के अपने संकल्प पर अटल रहने के लिये जैसा दृढ़ संकल्प मेरे भीतर रहना चाहिये उसे कैसे प्राप्त किया जा सकता है ? उसे प्राप्त करने की भी एक वैज्ञानिक -प्रक्रिया (Formula ) है।
कोई किसी को ' विवेक-दर्शन ' का नियमित अभ्यास और निरंतर 'विवेक-प्रयोग' करने के लिये बाध्य नहीं कर सकता है, ' जावत बाँची तावत सीखी ' निरंतर अभ्यास करके हमें स्वयं ही सीखना होगा। चरित्र-गठन के लिये श्रद्धा, विवेक-प्रयोग, जीवन की सार्थकता को ध्यान में रखने के बाद ही कुछ सोचने-बोलने-करने की  सरल वैज्ञानिक-पद्धति सामने रख दी गयी है, अब यह पूरी तरह से मुझपर निर्भर करता है कि मैं इसे प्रयोग में लाता हूँ या नहीं ? यदि हम इसे प्रयोग में नहीं अपनायें , तो अन्य किसी भी उपाय से समाज का कोई भला होना असम्भव है- इस तथ्य को हमें कभी भूलना नहीं चाहिए। इस पद्धति को प्रयोग में लाने से हममें से प्रत्येक का जीवन भी सुन्दर, सम्पूर्ण, सार्थक और कल्याणकारी होगा। यदि विवेक-प्रयोग को अभ्यास में नहीं उतारा गया, तो मनुष्य-जीवन विफल हो जायेगा, और समाज भी दुःख में डूबा रहेगा। यदि मैं अपने सभी सगे-सम्बन्धियों को, समाज और देश को प्यार करता हूँ, यदि स्वयं से भी सच्चा प्रेम करता हूँ, तो मैं आज और अभी से ही, अपना सुन्दर चरित्र गढ़ने के लिये बिना आलस्य किये परिश्रम करता रहूँगा, तथा मनुष्य जीवन के स्वाद को चख कर स्वयं धन्य होऊंगा, तथा दूसरों के जीवन के दुःख को अपने सुन्दर चरित्र के द्वारा हटाने के कार्य में न्योछावर कर सकूँगा। 
स्वामी विवेकनन्द ने कहा है -  " शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य है, सच्चरित्र मनुष्य का निर्माण। वैसा ' मनुष्य ' बनो जो अपना प्रभाव सब पर डालता है।  जो अपने संगियों के उपर मानो जादू सा कर देता है, जो इच्छाशक्ति का एक महान केंद्र (Dynamo) है, और जब ऐसा मनुष्य तैयार हो जाता है, वह जो चाहे कर सकता है...महान धर्माचार्यों या पैगम्बरों (बुद्धदेव, ईसामसीह, मोहम्मद, नानक, श्रीरामकृष्ण आदि) के जीवन को देखो, उन्होंने अपने जीवन-काल में ही सारे देश को झकझोर कर रख दिया था...उन महापुरुषों में ऐसा क्या था कि शताब्दियों के बाद भी लोग उनके बताये रस्ते पर चलने की बातें करते हैं ?  उनका वैसा सुंदर चरित्र और व्यक्तित्व ही था जिसने यह अन्तर पैदा किया " (४/१७२) 
ऐसे ही उज्ज्वल-चरित्र मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं या पैगम्बरों युवाओं का निर्माण करने वाली ' स्वाधीन भारत की राष्ट्रिय शिक्षा-नीति ' ऐसी हो जिससे " Be and Make " आन्दोलन को भारत के गाँव-गाँव तक फैलाया जा सके! और इसी स्वामीजी द्वारा सौंपे इसी मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माण आन्दोलन से आजीवन जुड़े रहने एवं यथार्थ मनुष्य बन जाने के लिये हमें दृढ़ संकल्प लेना होगा। चरित्र-गठन के कार्य को हमें स्वयं करना है, इसके लिये हमलोगों को दृढ़ संकल्प लेना होगा, तथा इस संकल्प पर अटल रहने के लिये अध्यवसाय के साथ प्रयत्न करते रहना होगा। क्योंकि,सर्वप्रथम अपने संकल्प को परिपक्व कर लेने के बाद ही मैं चरित्र-निर्माण के कार्य सफलता प्राप्त कर सकूँगा। और दृढ संकल्प अर्जित करने का सूत्र :आत्म-सुझाव या " स्व-परामर्श सूत्र " है - 
' चमत्कार जो आपकी आज्ञा का पालन करेगा '

" मैं पूरी दृढ़ता के साथ संकल्प लेता हूँ कि मैं एक चरित्रवान मनुष्य बनूंगा,
क्योंकि केवल इसी प्रकार मैं जगत का सर्वाधिक कल्याण करने में सक्षम हो सकता हूँ। मेरा सुन्दर चरित्र ही एक सुन्दर-समाज का निर्माण कर मेरी प्रिय मातृभूमि भारत को सुन्दर और महान बनाने में मेरी सहायता करेगा। मैं जानता हूँ कि चरित्रवान मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता होता है, अतः इसी चरित्रबल से मैं अपना भी सर्वाधिक कल्याण कर पाउँगा। चरित्र ही धर्म है, इसलिये  चरित्रबल (श्रद्धा-निर्भीकता-निःस्वार्थपरता -त्याग और सेवा) के बिना लौकिक उन्नति अथवा आध्यात्मिक उन्नति के किसी भी क्षेत्र में सफलता प्राप्त करना सम्भव नहीं है। 
" क्योंकि स्वामी विवेकानन्द अपनी शिक्षाओं की प्रतिमूर्ति हैं, इसीलिये  'विवेक-दर्शन' का अभ्यास करने से  'विवेक-स्रोत' उद्घाटित हो जाता है। और विवेक-दर्शन का अभ्यास करने से हमारा आत्मविश्वास  इतना प्रबल हो जाता है कि हम जब चाहें, वैराग्य का फाटक लगाकर मन के इच्छाशक्ति के प्रवाह की दिशा को निरन्तर एकाग्र (अंतर्मुखी या उर्ध्वगामी) बनाये रखने में समर्थ मनुष्य बन जाते हैं ! मैं प्रति दिन उनके चित्र पर अपने मन को इस तरह एकाग्र करने का अभ्यास करूँगा कि उनका जीवन्त स्वरुप मेरे चित्त की गहरी परतों में बस जाये।"
" मैं जानता हूँ कि मैं स्वयं को एक चरित्रवान मनुष्य के साँचे में ढाल सकता हूँ। इसी लिये इस उद्देश्य को सिद्ध करने के मार्ग में आने वाले किसी भी बाधा या विघ्न को कभी प्रश्रय नहीं दूंगा; तथा धैर्य और अध्यवसाय के साथ बिना आलस्य किये इस उद्देश्य के सिद्ध हो जाने तक निरन्तर प्रयत्न करता रहूँगा। मैं अवश्य सफल होऊंगा, क्योंकि मैं उस अनन्त शक्ति के प्रति अटूट विश्वास रखता हूँ जो मुझमें अन्तर्निहित है।"

दिनांक /हस्ताक्षर 
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उपरोक्त कथन को एक कागज पर लिखिए तथा उसके नीचे अपना हस्ताक्षर करके आज की तारीख डाल दीजिये। अपनी इस वचनबद्धता को प्रतिदिन कई बार पढिये, विशेष रूप से रात में सोने से पहले तथा सुबह नीन्द से उठने के तुरन्त बाद बहुत ध्यान पूर्वक पढिये, तथा आपने जो प्रतिज्ञा की है उसको साकार करने के कार्य में जुट जाइये।
 आप देखेंगे कि केवल छः महीनों में ही आपका चरित्र पहले से अच्छा बन गया है, और आपका आत्मविश्वास बहुत बढ़ चूका है। इस प्रक्रिया की सफलता के सम्बन्ध में कोई सन्देह ही नहीं है, आप इसका परिक्षण करके स्वयं देख सकते हैं। इस प्रक्रिया को अपनाने से सुन्दर चरित्र बनता ही है-यह कोई चमत्कारपूर्ण बात नहीं है। यह एक ऐसा प्राकृतिक नियम है, जो आपकी आज्ञा का पालन करने को बाध्य है। 

'चरित्र-निर्माण की प्रक्रिया -'२': अप्रियस्य तू पथस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभ:। [महामण्डल के लीडर ट्रेनी को बहुत निष्ठा के साथ महामण्डल के वार्षिक शिविर में लीडरशिप ट्रेनिंग लेना होगा, मानवजाति के किसी सच्चे मार्गदर्श नेता के रूप में कई आवश्यक बातें अपने भावी नेताओं से कहनी होगी! किन्तु अपनी विद्वता प्रदर्शन करने की जरुरत नहीं अपने जीवन को सुंदर रूप में गठित करना होगा।]  
मनःसंयोग का अभ्यास करने के साथ ही साथ हमलोग निरन्तर अपना चरित्र गठन करने का प्रयत्न करते रहेंगे। प्रतिदिन हमलोग अपने मन को चरित्र के गुणों के विषय में सुनाते रहेंगे। हमलोगों की ' आत्म मूल्यांकन तालिका ' में चरित्र के २४ गुणों के नाम लिखे हुए हैं। कम से कम उन सभी गुणों के नाम को दिन में एक बार जरुर पढेंगे, तथा रात में सोने से पहले अपना आत्मविश्वास बढ़ाने के लिये अपने मन को कहेंगे- हमलोग बलवान हैं, दुर्बल नहीं है। अपना चरित्र गठित करने के लिये हमने दृढ़ संकल्प लिया है, क्योंकि चरित्र गठित नहीं करने से जिस प्रकार हमारा अपना जीवन विफल हो जायेगा, उसी तरह हमलोग जनकल्याण करने योग्य भी नहीं बन पाएंगे। क्योकि बिना अपना चरित्र गढ़े (५ भावों को आचरण में धारण किये ) ही कोई व्यक्ति यदि राजनीती या समाज-सेवा के किसी भी क्षेत्र में कार्य करने लगे तो वह सफल नहीं होगा। इसीलिये हम स्वयं से निरन्तर कहते रहेंगे, " मेरा शरीर स्वस्थ,शक्तिशाली और मन प्रबल इच्छाशक्ति सम्पन्न है। मैं इसी शरीर और इसी मन द्वारा, इसी जीवन में अपना सुन्दर चरित्र गठित कर लूँगा। मैं जानता हूँ कि मेरे भीतर अनन्त शक्ति विद्यमान है,वह मुझे अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में मेरी सहायता करे।" यह बात हमलोग अपने आप को दिन भर में कम से कम दो बार अवश्य सुनायेंगे।
प्रातःकाल नीन्द से जगने के बाद हमलोगों का मन स्वभावतः ही शान्त रहता है, उस समय उसमें अन्य कोई विचार नहीं रहता है। इसीलिये उस अवसर पर हमें अपने मन के कोटर में (गहरी परतों या चित्त में) पवित्र विचारों को प्रविष्ट कराना होगा। उसी प्रकार रात में सोने से ठीक पहले भी करना होगा।

इस अभ्यास के बारे में जिस प्रकार हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों ने कहा है, उसी प्रकार आधुनिक मनोविज्ञान का भी यह एक परीक्षित सत्य है। नींद से उठने के बाद हमलोगों का मन अत्यन्त सौम्य (कोमल) रहता है। उस समय उसमें किसी विचार की छाप आसानी से पड़ती है। वह समय, मन में किसी पवित्र विचार को प्रविष्ट कराने का सबसे उपयुक्त समय होता है। नीन्द से उठने के बाद यदि कुछ पवित्र भावों के विषय में मन को सुनाया जाय, तो मन उसको आसानी से ग्रहण कर लेता है, और यदि वे विचार मन की गहराईयों तक खुद जाएँ तो फिर आसानी से भूलती नहीं। उसी प्रकार सोने से ठीक पहले हमलोग अपने मन को कहेंगे, " मैं चरित्रवान मनुष्य बनूंगा। क्योंकि चरित्रवान बन जाने में ही मेरा सबसे अधिक मंगल है, और केवल तभी दूसरों का मंगल करने में भी मैं समर्थ हो सकूँगा।" 
इस संकल्प-प्राप्ति की पद्धति हल्के में नहीं लेना है, किन्तु इसको यदि एक खेल के जैसा बना लिया जाय, तो सचमुच यह खेल बहुत लाभदायक होगा। यदि  हम अपने जीवन को सत्य नहीं है - ऐसा समझते हैं; और  जगत हमारे लिये एक खेल के जैसा प्रतीत होता हो, तब इस स्वपरामर्श-सूत्र के अभ्यास को सत्य समझ कर खेलना ही उचित होगा। 
 हो सकता है कि बोलने में थोड़ा संकोच लगे। क्योंकि इतना उमर तो बीत गया, और अब अचानक यह कहने लगूँ कि मैं चरित्रवान बनूंगा, मैं मनुष्य बनूंगा; और कहूँगा, मेरे भीतर जो अनन्त शक्ति है, वह जाग उठे, मैं निश्चय ही सफल होऊंगा, क्योंकि मुझमें प्रबल आत्मविश्वास है ? हो सकता है, यह सब कहने में संकोच लगे। किन्तु यदि हमलोग यह सब कह सकें, तो ये विचार मन में इस प्रकार छप जायेंगे, कि फिर कभी वहाँ से बाहर ही नहीं निकलेंगे। उसके बाद हम अपने जीवन के सामान्य विविध कर्मों को कर रहे होंगे, उस समय स्वतः यही सब विचार मन में उठने लगेंगे, क्योंकि ये विचार मन की गहराई तक, हमारे अवचेतन मन में प्रविष्ट हो चुके हैं। इसीलिये अब यदि कोई अपवित्र विचार मन में प्रविष्ट करना भी चाहेगा, तो ये विचार उस समय उससे युद्ध करने पर उतारू हो जायेंगे, और गन्दे विचारों को मन में घुसने से रोक देंगे। यही है चरित्र-गठन का उपाय। 
 यह बिल्कुल सच है कि कोई भी मनुष्य अपना सुंदर चरित्र गढ़ सकता है। किन्तु आज तक तो यह किसी ने नहीं बताया कि कैसे सुन्दर चरित्र गढ़ा कैसे जाता है ? सभी लोग यही कहते हैं कि अच्छा बनना होगा, अभी तक हमलोग केवल यही सुनते आये हैं कि अच्छा मनुष्य बनना होगा। सभी लोग सलाह देते हैं - सत्यवादी, आत्मविश्वासी, ईमानदार, साहसी मनुष्य बनना होगा। वर्णाक्षर सीखते समय से ही - हमलोग कॉपी में लिखते आये हैं - ' सदा सत्य बोलो '। किन्तु जैसा स्वामी विज्ञानानन्दजी ने विद्यासागर की बाल पुस्तिका को उद्धृत करते हुए कहा था- यह तो लिखा हुआ है, पर क्या तुम सत्य बोलते हो ? उसी प्रकार सभी कहते हैं, यह करना होगा, वह करना होगा, उसे करना होगा, किन्तु करूँगा किस प्रकार ? यह बात तो कोई बताता नहीं है। चरित्र-निर्माण करना होगा, देश का उद्धार करना होगा, किन्तु उसकी व्यावहारिक पद्धति क्या है, यह कौन बतायेगा ? 
महामण्डल के शिविर में क्लास लेते समय यदि वक्ता ने पूरी लगन से तैयारी नहीं की हो, या स्वयं के जीवन में उसे नहीं उतारा हो, सही पद्धति ज्ञात नहीं हो, तो हमलोग इधर-उधर की बातें करके समय बिता देंगे। किन्तु वैसा करने से महामण्डल का कार्य नहीं हो सकता है। हमें तो सही ढंग से कार्य करना होगा, कठोर परिश्रम करना होगा। महाभारत में महात्मा विदुर धृत्रराष्ट्रसे कहते हैं -
सुलभा: पुरुषा राजन् सततं प्रियवादिन:।
अप्रियस्य तू पथस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभ:।।
 महात्मा बिदुरजी कह रहे हैं, हमेशा अच्छी अच्छी बातें कहने वाले मनुष्य जगत में बहुत से पाये जाते हैं, किन्तु क्या अप्रिय वचनों को सुनना भी अच्छा लगता है ? स्वामी विवेकानन्द बार बार कहते हैं - " मन का संयम करो,अपने हृदय को उखाड़ कर रक्त बहाते हुए भी साधारण मनुष्यों का कल्याण करो" - ये सब कैसी बातें हैं ? किन्तु सुनने में अच्छी न लगने पर भी ये बातें पथ्य जैसी हित करने वाली हैं, इसमें हमलोगों का सच्चा हित छुपा हुआ है। किन्तु इस तरह की बातों को कहने वाले लोग तो बहुत कम होते ही हैं, सुनने वाले लोग भी कम ही होते हैं।  “ हे राजन, प्रिय बोलनेवाले व्यक्ति आपको सुलभतासे प्राप्त हो जाएँगे; परंतु ऐसा वक्ता जो ऐसा सत्य बोलता हो जो कटु हो और सामनेवालेके हितमें हो वह बोलनेवाला और उसकी बातको सुननेवाला दुर्लभ ही मिलता है”।  
हमलोगों को आवश्यक बातें कहनी होंगी, और उसी तरह से कार्य भी करने होंगे। बहुत से बड़े बड़े कोटेशन को रट लेने की जरूरत नहीं है। हमें अपने मन को पवित्र विचारों से आप्लावित कर देना होगा, तथा जीवन में निरन्तर विवेक-प्रयोग की सहायता से मन,वाणी और कर्म द्वारा  जो अच्छा हो वही करना होगा।
 क्या अच्छा है, क्या बुरा है -इसे कैसे समझेंगे ? जिस में अपना कोई स्वार्थ नहीं हो, वही अच्छा है, जिससे मेरा मनुष्यत्व बढ़े, उसी को अच्छा समझना चाहिये। जिस कार्य द्वारा अन्य मनुष्यों का, जीवों का हित होता हो, उसी कार्य को अच्छा समझना होगा। अच्छे-बुरे विचारों की यही पहचान है। उसी तरह के पवित्र विचार मन में रखने होंगे। बुरे विचार यदि उठने लगें, अर्थात जिस विचार के मन में उठने से हम अपने को कमजोर महसूस करें, या ऐसा लगे कि वैसा विचार करने से मेरे चरित्र-गठन में कोई सहायता नहीं मिलेगी, जिस विचार से दूसरे मनुष्यों का अकल्याण होता हो, जिस विचार का परिणाम मुझे स्वार्थी बना देता हो, उस प्रकार के विचारों को मैं आने नहीं दूंगा।
सभी कर्मों, सभी बातों जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में यदि हमलोग इसी प्रकार करते रहें, तथा हमलोगों के आचरण में अच्छे गुणों में वृद्धि हो जाये -ऐसी चेष्टा करें, यदि हमेशा सत्य बोलें, यदि कभी झूठी बातें कहने का प्रलोभन मन में जगे, तो मनः संयम के अभ्यास से जिस विवेक-प्रयोग के द्वारा हमने प्रबल इच्छाशक्ति को अर्जित किया है, उसी शक्ति की सहायता से झूठ कहने से बच जाएँ।  इसी प्रकार प्रत्येक क्षेत्र में -भय के क्षेत्र में भी इसी शान्त (सचेत) मन से किसी भय को भी यदि जीत सकें।  तथा एक बार उस भय को जीत लेने के बाद, जिस साहस, आनन्द, शान्ति को प्राप्त करूँगा, वह मुझे इससे भी बड़े बड़े भय को जीतने में सहायता करेगा। इसी प्रकार विवेक-प्रयोग की सहायता से आत्म मूल्यांकन तालिका में उल्लिखित प्रत्येक गुण को बढ़ाने में सक्षम हो जाऊँगा। यह कार्य करूँगा कैसे ? मनःसंयोग की पद्धति को पूर्णतया सीख लेने से हम सच्चे महामण्डल कर्मी बन सकते हैं।

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