मंगलवार, 21 जुलाई 2015

पंचम वेद -३ " सिद्धार्थ का बुद्ध में रूपांतरित हो जाना -' द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया ' की व्याख्या है ! "

'भगवान जगन्नाथ विशाल नेत्रों से हमें निरन्तर ऑब्जर्व कर रहे हैं - कौन मेरे निकट आ रहा है ?'
पिछले ब्लॉग में हमलोग श्रीरामकृष्ण और मास्टर महाशय के बीच प्रथम दर्शन के समय हुए वार्तालाप पर चर्चा कर रहे थे। कुछ देर बाद मास्टर ने प्रणाम किया और चलना चाहा। श्रीरामकृष्ण ने कहा फिर -"फिर आना  ! " यहाँ इस- " फिर आना "  (कम अगेन )  को समझने के लिये श्री रामकृष्ण की जीवनी पर लौटना होगा।
एक बार श्रीरामकृष्ण माँ काली के सामने प्रार्थना कर रहे थे, कि माँ विषयी लोगों से बातें करके मेरी जिह्वा जली जा रही है, इसलिये हे माँ , तुम मेरे साथ हर समय उसी प्रकार रहो जैसे किसी छोटे बच्चे साथ उसकी माँ रहती है ! बच्चा नहीं समझता कि उसकी माँ को और भी काम हो सकता  है, वह तो बस अपने साथ ही रहने की ज़िद करता है। श्रीरामकृष्ण भी उसी भाव से प्रार्थना कर रहे थे। तब जगतजननी माँ काली श्रीरामकृष्ण को गारंटीकृत (आश्वस्त) करते हुए कहती हैं -- " तुई  आर आमी ऐक, तुई भक्ति निये थाक - जीवेर मंगलेर जन्य। भक्तरा सकले आसबे। तोर तखन केवल विषयीदेर देखते होबे ना; अनेक शुद्ध कामनाशून्य भक्त आचे, तारा आसबे !"

 
" तूँ और मैं बिल्कुल एक हैं, तूँ जीवों के कल्याण के लिये भक्ति को लेकर रह। एक एक करके सारे भक्त लोग चले आयेंगे। तब तुम्हें केवल विषयी लोगों को देखना नहीं पड़ेगा; बहुत से कामनाशून्य शुद्ध भक्त (केवल सत्य को चाहने वाले) हैं, वे लोग आयेंगे !" 
उसके बाद से दक्षिणेश्वर की कालीमाता (भवतारिणी)के मंदिर में जब कभी शाम की आरती के समय, काँसे का घंटा-घड़ियाल बज उठता; उस समय श्रीरामकृष्ण अपने कमरे की छत पर चढ़ कर, गंगा की और मुँह करके (क्योंकि तब कोलकाता शहर गंगा के उस पार वाले हिस्से को कहा जाता था, जो भारत की राजधानी थी, जहाँ भारत के प्रबुद्ध लोग रहते थे।) जोर से पुकार कर कहते थे-" उरे भक्तरा, तोरा के कोथाय आचिस,शीघ्र आय!" -- " हे भक्तों, तुमलोग कौन कहाँ हो, शीघ्र चले आओ !"
भगवान आज भी अपने भक्तों को पुकार रहे है, किन्तु बहुत थोड़े से लोग ऐसे जो उनकी पुकार को सुन पाते हैं। अधिकांश लोग भगवान की पुकार क्यों नहीं सुन पाते ? क्योंकि वे सांसारिक कार्यों में अत्यधिक व्यस्त रहते हैं । जिनको पेट भरने की चिन्ता नहीं रहती है, वे भी नाम-यश-धनदौलत जमा करने की अनेक इच्छाओं से ग्रस्त रहते हैं। उधर भगवान लगातार हमारे हृदय के द्वार को खटखटाते रहते हैं, क्योंकि हमलोग भगवान से आये हैं, जब तक उनमें लौट नहीं जाते चक्र पूरा नहीं होगा। और तब तक सुख-दुःख का चक्र भी लगातार चलता रहेगा। जब हम भगवान में पहुँचेंगे तभी यह चक्र रुकेगा। उपनिषद में (कठोपनिषद् ३/१/१-२ ) एक कहानी है -
द्वा  सुपर्णा   सयुजा   सखाया   समानं  वृक्षं  परिषस्वजाते ।
  तयोरन्य: पिप्पलं स्वादु अत्ति अनश्नन्नन्यो अभिचाक शीति ।
  समाने   वृक्षे  पुरुषो  निमग्नो  नीशया  शोचति   मुह्यमान: ।
  जुष्टं  यदा  पश्यत्यन्यमीशमस्य  महिमानमिति   वीतशोक: ।

एक साथ रहने वाले तथा परस्पर सख्यभाव रखनेवाले दो पक्षी, जीवात्मा एवं परमात्मा, एक हि वृक्ष शरीर का आश्रय लेकर रहते हैं । उन दोनों में से एक जीवात्मा तो उस वृक्ष के फल, कर्मफलों का स्वाद ले-लेकर खाता है । किंतु दूसरा, ईश्वर उनका उपभोग न करता हुआ केवल देखता रहता है ।
एक ही वृक्ष पर दो पक्षी हैं, दोनों देखने बिल्कुल एक समान हैं, इसीलिये दोनों में मित्रता है।  एक चोटी पर रहता है दूसरा नीचे की डालियों पर । चोटी पर रहने वाला पक्षी शान्त, मौन, महिमाशाली और अपने ही ऐश्वर्य में मग्न है । नीचे की शाखाओं पर रहने वाला पक्षी, बारी-बारी से, मधुर और कटु फल खाता हुआ सुखी और दु:खी होता रहता है । 
कुछ काल के पश्चात् अत्यन्त कटु फल खाता है और ऊपर बैठे स्वर्ण पंख वाले पक्षी को देखता है जो कोई फल नहीं खाता । कभी अत्यंत कटु फल खाकर वह त्रस्त हो जाता है, तब नीचे वाला पक्षी ऊपर वाले पक्षी के समीप पहुँचने का प्रयत्न करता है । ऊपर वाले पक्षी के पास पहुँच कर नीचे वाले पक्षी को ज्ञात होता है कि वह केवल छाया मात्र है । वास्तविक पक्षी एक ही है । ऊपर वाला पक्षी इस विश्व का प्रभु ईश्वर है और नीचे वाला पक्षी इस संसार के मधुर और कटु फलों का भक्षक जीवात्मा है । इन्द्रिय सुखों से ऊपर उठकर जीवात्मा को पता चलता है कि वह भी स्वरूपत: ब्रह्म ही है । 
ज्ञान योग की व्याख्या उपनिषदों में की गयी है । इसीलिए इस योग के तीन ही सोपान हैं-(१)श्रवण- (उपनिषदों में कही गयी बातों को सुनना या पढ़ना); (२)- मनन (श्रवण किये गये मन्तव्य पर चिन्तन करना (३) निदिध्यासन (सभी वस्तुओं से अपना ध्यान हटाकर साक्षी पक्षी की तरह बन जाना) । स्वयं को तथा संसार को ब्रह्ममय समझने से ब्रह्म से एकत्व स्थापित हो जाता है ।
हमलोग सोचते हैं, एक नई कार आ जाने से हम सुखी हो जायेंगे, एक बढ़िया फ्लैट लेकर सुखी हो जायेंगे, इसी प्रकार भोग के वस्तुओं को जमा करते-करते जब वह परेशान हो जाता है, तब ऊपर वाले पक्षी को देखकर सोचता है -यह इतना शान्त कैसे है ? 
ऐसी घटना हम सिद्धार्थ गौतम के जीवन में देखते हैं। वे राजकुमार थे, २५ वर्ष की उम्र में राजकुमारी यशोधरा से विवाह हुआ। एक दिन जब सिद्धार्थ रथ पर शहर भ्रमण के लिये निकले थे तो उन्होंने मार्ग में जो कुछ भी देखा उसने उनके जीवन की दिशा ही बदल डाली। उन्होंने एक वृद्ध दुर्बल व्यक्ति को, एक रोगी को और एक शव को देख कर वे, सोचने लगे क्या एक दिन मेरी भी यही अवस्था होगी ? हर प्रश्न पर भीतर से उत्तर आया - अवश्य ! वे संसार से और भी अधिक विरक्त तथा उदासीन हो गये। फिर उन्होंने एक प्रसन्नचित्त संन्यासी को देखा। वह भी एक मनुष्य था किन्तु उसके चेहरे पर शांति और तेज की अपूर्व चमक विराजमान् थी। सिद्धार्थ उस प्रसन्न-चित्त संन्यासी को देख कर अत्यधिक प्रभावित हुए।
उन्होंने भी सांसारिक बंधनों को छिन्न-भिन्न करने और गृहत्याग करने का निश्चय किया।  एक रात्रि को २९ वर्ष के युवक सिद्धार्थ ज्ञान प्रकाश की तृष्णा को तृप्त करने के लिये,सुंदर पत्नी यशोधरा, दुधमुँहे राहुल और कपिलवस्तु जैसे राज्य का मोह छोड़कर सिद्धार्थ तपस्या के लिए चल पड़ा। 

 
गृहत्याग के बाद सिद्धार्थ ज्ञान की खोज में भटकने लगे। वे गया के निकट एक वटवृक्ष के नीचे आसन लगा कर बैठ गये और निश्चय कर लिया कि भले ही प्राण निकल जाए, मैं तब तक समाधिस्त रहूँगा, जब तक ज्ञान न प्राप्त कर लूँ।  सात दिन और सात रात्रि व्यतीत होने के बाद, आठवें दिन वैशाख पूर्णिमा को उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ और उसी दिन वे तथागत बुद्ध हो गये।  जिस वृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ वह आज भी 'बोधिवृक्ष' (बनारस के निकट ऊँच ?? ) के नाम से विख्यात है।  ज्ञान प्राप्ति के समय उनकी अवस्था ३५ वर्ष थी।
सिद्धार्थ गौतम की इस कहानी से हमें यह बोध होता है कि भगवान सुख-दुःख भेजकर लगातार हमें पुकार रहे हैं। सिद्धार्थ ने उसे सुना, उसे समझ लिया फिर उसका प्रतिउत्तर भी दिया; और वे सिद्धार्थ गौतम से गौतम बुद्ध में रूपान्तरित हो गए । बुद्ध उसे कहते हैं जिसे आत्मज्ञान प्राप्त हो गया हो। किन्तु अधिकांश लोग भगवान की पुकार को सुन ही नहीं पाते, क्योंकि वे अत्यंत बीजी हैं।
 एक भक्त सभी प्रकार की जोग-तप साधना से थक कर अंत में माँ सारदा के पास पहुंचे, श्रीचरणों में प्रणाम करने के बाद उन्होंने कहा -" माँ मुझे संसार-चक्र (जन्म-मृत्यु) में घूमने मत देना।" माँ बोलीं, 'बच्चे तुम स्वयं कितने दिनों से मुझे भूल कर यहाँ-वहाँ घूम रहे थे, कभी मुझे याद नहीं किया ? अब तुम मेरे पास आये हो ? ' बहुत धक्के खा लेने के बाद ही हम भगवान के शरणागत हो पाते हैं। एक बंगला गाना है- बल्कि हमारे हृदय से निकली एक प्रार्थना है, जो गीत बन कर निकली है -

आमि सकल काजेर पाई हे समय तोमारे डाकिते पाई ने। 
आमि चाहि दारा सूत सुख सम्मिलन तव संग सुख चाई ने॥ 
आमि कतई ये करि वृथा पर्यटन तोमार काछे तो जाई ने। 
आमि कत कि जे खाई भस्म आर छाई तव प्रेमामृत खाई ने॥ 
आमि कत गान गाहि मनेर हरषे तोमार महिमा गाई ने । 
आमि बाहिरेर दूटो आँखि मेले चाई ज्ञान आँखि मेले चाई ने॥ 
आमि कार तरे देई आपना विलाये ओ पदतले बिकाई ने । 
आमि सबारे शिखाई कत नीति कथा मनेरे शुधू शिखाई ने ॥

[আমি সকল কাজের পাই হে সময় তোমারে ডাকিতে পাই নে,
আমি চাহি দারা সুত সুখ সম্মিলন তব সঙ্গ সুখ চাই নে।।]
 'मेरे पास अन्य सभी काम के लिये समय है, किन्तु तुम्हें स्मरण करने के लिये मेरे पास समय नहीं है'- - अधिकांश लोगों के जीवन को देखिये आप उन्हें पाठ चक्र में आने के लिये कहिये, वे कहते हैं उनके पास दूसरे बहुत से कार्य हैं। किन्तु अगर उनसे कहें कि -रोटरी क्लब का इंस्टालेशन समारोह हो रहा है, उसमें फिल्म के हीरो-हीरोइन आ रही है, वहाँ का निमंत्रण भी है।  तुम उनके साथ बात कर सकते हो और खाना भी खा सकते हो। तो क्या वे समय की कमी का बहाना बनायेंगे ? बहुत थोड़े से लोग वहाँ जाने में असमर्थता जताएंगे, अधिकांश लोग यह सुनकर ख़ुशी से उछल पड़ेंगे। क्योंकि उनके लिये वहीं पर आकर्षण है। इन्द्रिय भोगों के पांचो विषय -रूप,रस,शब्द,गंध,स्पर्श आदि हमारे मन को निरन्तर बहिर्मुखी बनाये रखते हैं।
इसीलिये यह स्वाभाविक है कि अधिकांश लोग भगवान के आह्वान -'फिर आना, कम अगेन' की अनसुनी कर देते हैं। 
किन्तु जब मास्टर महाशय को श्रीरामकृष्ण ने कहा -" फिर आना । " यही वह आह्वान है, जिसे भगवान हर भक्त  से करते रहते हैं ! श्रीरामकृष्ण की यह विशेषता थी, कि जैसे ही मास्टर महाशय उनसे मिलते हैं, वे उनसे इस प्रकार वार्तालाप करना प्रारम्भ करते हैं, मानो वे उन्हें काफी लम्बे समय से जानते हों ! 
मास्टर लौटते समय चकित से होकर सोचने लगे- "हू  इज दिस श्रेन-लुकिंग मैन हू इज  ड्राइंग मी बैक टू हिम? 'ये प्रशान्त से दिखने वाले पुरुष कौन हैं ? मेरा मन बार बार उनके पास लौट जाना क्यों चाहता है? क्या बिना पुस्तकों को पढ़े भी मनुष्य महान बन सकता है ? ' इज इट पॉसिबल फॉर अ मैन टु बी ग्रेट विदाउट बीइंग अ स्कॉलर? कितना आश्चर्य है, मुझे यहाँ फिर आने की इच्छा हो रही है, इन्होने भी कहा- 'फिर आना ' कल या परसों सबेरे फिर आऊँगा।
जिसको हम प्रेम करते हैं, उससे मिलने की इच्छा होती है। हमलोग भगवान से प्रेम नहीं करते हैं, इसलिये उनके निकट जाने की इच्छा नहीं होती। जीवन में जब कोई समस्या आती है, तो उस प्रॉब्लम को सौल्भ करने बाबाधाम चले जाते हैं।
दूसरे दर्शन के समय जब श्रीम जाते है, तो श्रीरामकृष्ण मास्टर से पूछते हैं -क्यों जी, तुम्हारा घर कहाँ है ?
मास्टर - जी कलकत्ते में।
[वराहनगर उस समय कोलकाता में नहीं था,वराहनगर तब एक छोटा सा शहर था। बागबाजार तक कोलकाता था, जहाँ मायेर बाड़ी है, उसके आगे नहीं । हालाँकि अब कोलकाता में आ गया है, मास्टर कोलकाता में रहते थे ]
श्रीरामकृष्ण -यहाँ कहाँ आये हो ?
मास्टर- यहां वराहनगर में बड़ी दीदी के यहाँ आया हूँ -ईशान कविराज के यहाँ।
श्रीरामकृष्ण -ओहो, ईशान के यहाँ।
अर्थात वे ईशान को जानते थे,श्रीरामकृष्ण एक धार्मिक मनुष्य होकर भी समाज के प्रबुद्ध लोगों को जानते थे। समाज के प्रमुख अगुआ लोगों से जाकर मिलते भी थे -क्योंकि उनका एक मिशन था। वह मिशन क्या था ? ' टू अवेकेन पीपल दैट दे वेयर नॉट आर्डिनरी पीपल दे वेयर डिभाइन '  उनका एकमात्र मिशन लोगों को उनकी अन्तर्निहित दिव्यता के प्रति जाग्रत करना था, उन्हें बताना था कि तुम कोई मरणधर्मा साधारण जीव मात्र नहीं हो, तुम तो अनन्त आनन्द के भागीदार हो, सच्चिदानन्द स्वरूप हो ! उस दिव्यता को जाग्रत करने के उद्देश्य से भगवान (ठाकुर) स्वयं उनके घर जाते थे, उनसे प्रश्न पूछते थे , बातें करते थे, उन्हें अपने ब्रह्मत्व को विकसित करने के लिए प्रोत्साहित करते थे ।
इसीलिये अगला प्रश्न करते हैं - क्यों जी, केशव अब कैसा है -बहुत बीमार था ।
मास्टर -जी हाँ, मैंने भी सुना था कि बीमार हैं, पर अब शायद अच्छे हैं।
मास्टर महाशय कोलकाता के रहने वाले थे, और केशव वहाँ के एक प्रतिष्ठित व्यक्ति थे, इसीलिये ठाकुर ने अनुमान लगाया कि म भी उनके संबंध अवश्य जानते होंगे। आज के शहरी जीवन में एक ही अपार्टमेन्ट में रहने वाले भी एक दूसरे को नहीं जानते हैं, जबकि पहले ऐसा नहीं था।
श्रीरामकृष्ण - मैंने तो केशव के लिये माँ के निकट -'नारियल (डाभ ) और चीनी की पूजा' मानी थी।
भारत की प्रथा है, यदि भगवान कोई मनोकामना पूर्ण कर दें, तो प्रसाद चढ़ाते हैं। सीर्फ डाभ का पानी पीने से उतना अच्छा नहीं लगेगा, उसमें थोड़ा चीनी मिला देने से मीठा लगेगा। केशव के प्रति भगवान को इतना प्रेम क्यों था ? वे उस ब्राह्म समाज के नेता थे, जो लोगों को हमारे सनातन धर्म या हिन्दू धर्म का परित्याग करके ब्राह्म बन जाने के लिये प्रोत्साहित करते थे। फिर भी श्रीरामकृष्ण उनके स्वास्थ्य के लिये इतने चिंतित क्यों थे ? 
उस समय भारत में अंग्रेज लोग काफी थे किन्तु थियोसोफिकल सोसायटी के संस्थापक कर्नल आल्काट (Colonel Alcott: 1832–1907) तब भारत में रहने वाले एकमात्र अमेरिकन थे। जब विवेकानन्द अमेरिका जाने का निश्चय किये तो उनसे मिलने उनके घर गए थे, ताकि वे उनको वहाँ के किसी प्रसिद्द व्यक्ति के नाम पत्र दें जो उन्हें वहाँ कुछ सहायता दे सके। तब उन्होंने कहा था -'यदि तुम मेरे धर्म में धर्मान्तरित हो जाओगे, तभी मैं तुम्हारी सहायता करूँगा।' स्वामीजी ने मना कर दिया था। उससे क्रोधित होकर उन्होंने अपने थिओसोफी के मित्रों को पत्र में लिखा -' लेट द डेविल डाई ऑफ़ हंगर एंड कोल्ड, एंड आवर कॉज इस सेफ.’ स्वामीजी ने कहा -'दिस डेविल इज नोट बॉर्न टू डाई लाइक दैट'। इस प्रकार हम देखते विश्वबंधुत्व की बात करने वाले थिओसोफी के धार्मिक व्यक्ति होकर भी  कर्नल आल्काट कितने संकीर्ण मानसिकता वाले रोगी थे। 
दूसरी तरफ एक अन्य धार्मिक व्यक्ति श्री रामकृष्ण हैं, जो अपनी ईष्टदेवी से उस व्यक्ति को निरोगी कर देने का 'मनता' माँग रहें हैं, जो उनके धर्म का अनुयायी नहीं था। वैसा व्यक्ति जो हिन्दू धर्म का परित्याग करके ब्राह्म बन जाने के लिये प्रोत्साहित करते थे, उसके लिये भी श्रीरामकृष्ण कहते थे -   " कभी कभी जब रात को नींद उचट जाती थी, तब माँ के पास रोकर प्रार्थना करता था,--'माँ, केशव की बीमारी अच्छी कर दे। केशव अगर न रहा तो मैं कलकत्ते जाकर बातचीत किससे करूँगा ?'- मदर, प्लीज मेक केशब वेल अगेन.' इसी से तो डाभ-चीनी मानी थी।
प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह साइंटिस्ट हो, डॉक्टर हो, लेखक हो या साहित्यकार हो उसे अपने स्तर के व्यक्ति से बातचीत करने में आनन्द आता है, और जी खोल कर, उसके साथ घंटों बातचीत कर सकता है। नहीं तो १०-१५ मिनट तक बातचीत करने में ही मन ऊब जाता है। फिर धार्मिक व्यक्ति होकर भी समाज में होने वाली प्रमुख घटनाओं से पूर्ण परिचित हैं, इसका परिचय देते हुए; मास्टर से पूछते हैं -'क्यों जी, कलकत्ते में क्या कोई कुक साहब आया है ? 'इज इट ट्रू दैट ही इज गिविंग लेक्चर्स? क्या यह सच है कि वह व्याख्यान आदि देता है ? एक बार केशब मुझे स्टीमर पर चढ़ाकर ले गया था, और यह कुक साहब भी साथ में था।' 
जबकि अधिकांश धार्मिक-नेता अपने को देश-विश्व की सम-सामयिक सूचनाओं से दूर रहने को ही वैराग्य समझते हैं; देश में समाज में अभी क्या हो रहा है, इससे भला मुझे क्या मतलब ? मैं तो बस राम से ही मतलब रखता हूँ !  
श्री रामकृष्ण चाहते थे, धार्मिक नेता या मानवजाति के मार्गदर्शक नेता को सर्वदा ऐक्टिव रहना चाहिये उसके साथ साथ अनासक्त भी रहना चाहिये। माँ सारदा भी समस्त वर्तमान मुद्दों की जानकारी रखती थीं, स्वामीजी भी ऐसा ही कहते थे। ठाकुर भी यह सब प्रश्न पूछ कर जानना चाह रहे थे कि म में लीडरशिप क्वालिटी थी या नहीं ? मास्टर उस समय एक साधारण विद्यालय में शिक्षक थे, और केशव, कुक साहब आदि हाई सोसाइटी के विख्यात लोग थे। यह स्वाभाविक ही था कि श्रीम ने उनका नाम सुना था,किन्तु उनसे कभी मिले नहीं थे। वे बोले -'उनके विषय में ज्यादा कुछ मैं नहीं जानता'। 
हठात विषयान्तर करते हुए, किसी भावी गृहस्थ नेता को पहले अपने गृहस्थ एवं पिता के उत्तरदायित्व को निभाना - स्वधर्म का पालन अवश्य आना चाहिये। उसकी अनिवार्यता पर बल देते हुए श्री रामकृष्ण कहते हैं -" प्रताप का भाई आया था। कुछ दिन यहाँ रहा। कुछ काम-धाम करता नहीं था, कहता है मैं यहीं रहूँगा। ' आई केम टू नो दैट ही हैड लेफ्ट हिज वाइफ एंड चिल्ड्रन विथ हिज फादर-इन-लॉ.' मैंने सुना कि उसने अपनी स्त्री और बच्चों के अपने ससुर के यहाँ ही छोड़ रक्खा है। उन सबकी पूरी चिंता उसके ससुर को ही करनी पड़ती है। मैंने उसे खूब डाँटा ! भला देखो तो, लड़के-बच्चे हुए हैं, उनकी देख-रेख. उनका पालन-पोषण तुम न करोगे तो क्या कोई गाँववाला करेगा ? शर्म नहीं आती, बीबी बच्चों को ससुर के यहाँ रख दिया है, उन्हें कोई और पाल रहा है !' आई स्कोल्डेड हिम वेरी हार्ड ऐंड आस्क्ड हिम टू लुक फॉर अ जॉब.' मैंने उसे कस कर डांट लगाई और काम-काज खोज लेने को कहा, तब वह यहाँ से जाने को तैयार हुआ । " 
यदि 'तुम विवाहित हो, और सिद्धार्थ (किसी राजा का पुत्र ) नहीं हो'- तो तुम्हें पहले स्वधर्म का पालन करना ही होगा। बच्चा-बीबी ससुर के यहां छोड़ कर जंगल में सन्यासी बनने मत जाओ ! श्रीरामकृष्ण द्वारा प्रतिपादित धर्म-साधना की शिक्षा यहाँ बिल्कुल आश्चर्यजनक तरीके से प्रारम्भ होती है। 
 भगवान बुद्ध ने कहा है, चार आर्य सत्य हैं -
 १. दुख: इस दुनिया में सबकुछ दुःख है। जन्म, जरा (बुढ़ापा), बीमारी, मौत- मृत्यु, या इच्छित वस्तुओं का न मिलना -- सब दुख है।

२. दुख प्रारंभ : तृष्णा या चाहत ही दुख का कारण है।

३. दुख निरोध : तृष्णा से मुक्ति पाई जा सकती है।

4. दुख निरोध का मार्ग : तृष्णा से मुक्ति आर्य अष्टांग मार्ग के अनुसार जीने से पाई जा सकती है।

किन्तु इस 'दुनिया में सबकुछ दुःख है' - यह बात किसके लिये सत्य है ? फॉर दोज हू हैज अंडरस्टुड ऐंड नॉट फॉर ऑल ! जिनको अपने जीवन में इसका अनुभव हो गया है, और वे समझ चुके हों। यदि किसी व्यक्ति को संसार के दुःखमय स्वरूप का अनुभव नहीं हुआ हो, और उसे तुम जबरन बुलाओ, इसी विचार को जबरन उसके ऊपर थोप दो, तो क्या होगा ? वे लोग वैरागी होने का केवल दिखावा ही नहीं करेंगे, बल्कि उच्च आदर्श से उनका पतन भी हो जायेगा। बौद्ध धर्म में वैसा हुआ भी था, बिना पात्रता की जाँच किये, जबरन गेरुआ वस्त्र पहना देने से हजारों लोग मठ के संन्यासी नहीं बन सकते । श्रीरामकृष्ण ठीक इसके विपरीत कह रहे हैं । 
मास्टर तो अनजान व्यक्ति थे, उनसे ठाकुर यह क्यों कह रहे थे कि प्रताप का भाई यहीं रहना चाहता था, मैंने उसे खूब डाँटा ? वास्तव में श्री'म' ठाकुर के लिए अपरिचित व्यक्ति नहीं थे, इस बात को हम आगे समझेंगे। ठीक इसी प्रकार जब वे श्रीकृष्ण थे तो अर्जुन को भी गीता २/३ में डाँटा था - 
क्लैव्यं मा स्म गम: पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते ।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परंतप ।।
 हे अर्जुन ! नपुंसकता को मत प्राप्त हो, तुझमें यह उचित नहीं जान पड़ती। तुम एक क्षत्रिय हो, तुम्हारा स्वधर्म है युद्ध करना, हे परन्तप ! हृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्याग कर युद्ध के लिये खड़ा हो जा ।  
श्री रामकृष्ण ने माँ सारदा को शिक्षा देते हुए कहा था, तुम कभी किसी के सामने कुछ माँगने के लिये अपना हाथ मत पसारना ! उसके बदले अपने हाथ को ऊपर रखते हुए किसी के हाथों में कुछ डालने की ही चेष्टा करना। क्यों ? क्योंकि इससे तुम्हारा आत्मविश्वास नष्ट हो जायेगा, तुम दूसरों पर निर्भर रहने लगोगे। गृहस्थ लोगों को धन का उपार्जन करना चाहिये, कभी भीख नहीं माँगनी चाहिये !
वही श्रीरामकृष्ण स्वामी विवेकानन्द को सिखाते हैं -जाओ कुछ घरों से भिक्षा माँग कर लाओ ! क्यों ? क्योंकि मधुकरी भिक्षा माँगना संन्यासियों का दिव्य कर्तव्य है। उन्हें नौकरी या बिजनेस करके धन उपार्जन नहीं करना है। जिस प्रकार भँवरा हर फूल से थोड़ा थोड़ा मधु इकट्ठा करता है, कुछ घर से माँग कर लाओ। और बदले तुम्हें कुछ ऐसा कार्य करना होगा, जो समाज के लिये कल्याणकारी हो ! 
कहीं कहीं हम देखते हैं, कुछ संस्थायें भक्तों से दान लेकर, किसी राजा या बड़े बड़े व्यापारियों जैसे बहुत विशाल सुन्दर भवनों का निर्माण करते हैं। इसके बदले उन्हें दान से मिले एक एक पैसे को समाज के कल्याण में, जीवित ईश्वर की पूजा में खर्च करना चाहिये। यही शिक्षा श्री रामकृष्ण यहाँ दे रहे हैं, और मास्टर महाशय से कुछ प्रश्न पूछते हैं - क्या तुम्हारा विवाह हो गया है ? 
उन दिनों १५-१६ की आयु में लड़कों की शादी हो जाती थी, वयस्क हो जाने के बाद गौना होता था। उनकी भी शादी इसी प्रकार हुई थी। मास्टर -जी हाँ। 
श्रीरामकृष्ण (चौंक कर)-अरे रामलाल, अरे अपना विवाह तो इसने कर डाला ! रामलाल श्रीरामकृष्ण के भतीजे और काली जी के पुजारी हैं, उनकी शादी भी हो चुकी है। मास्टर घोर अपराधी जैसे सिर नीचा कर चुपचाप बैठे रहे। सोचने लगे, विवाह करना क्या इतना बड़ा अपराध है ?
श्रीरामकृष्ण ने फिर पूछा -"क्या तुम्हारे लड़के-बच्चे भी हैं ? 
मास्टर का कलेजा काँप उठा। डरते हुए बोले - " जी हाँ, लड़के-बच्चे हुए हैं । "
श्रीरामकृष्ण ने फिर दुःख के साथ कहा -" अरे लड़के भी हो गए ! "
इस तरह तिरस्कृत होकर मास्टर चुपचाप बैठे रहे। उनका अहंकार चूर्ण होने लगा। म सोचते थे कि यही तो जीवन का सबकुछ है। वे एक स्कूल में प्रधान शिक्षक थे। कुछ देर बाद श्री रामकृष्ण सस्नेह कहने लगे - " देखो, तुम्हारे लक्षण अच्छे हैं, यह सब मैं किसी के ललाट, आँखे आदि को देखते ही जान लेता हूँ !' -यह एक बहुत महत्वपूर्ण बात है। श्रीरामकृष्ण के पास समुद्रविद्या का आश्चर्यजनक ज्ञान था। कभी कभी वे ऊँगली से लेकर केहुनी तक के हाथ को तौल कर भी समझ लेते थे कि यह किस प्रकार का व्यक्ति है। यह एक आश्चर्यजनक विद्या है, एक जगह श्रीरामकृष्ण कहते हैं, " मैंने तुमको चैतन्य के दल में देखा है। " चैतन्य महाप्रभु तो पाँच सौ साल पहले हुए थे ? श्री रामकृष्ण कैसे चैतन्य महाप्रभु को देखे ? लोगों को आश्चर्य होगा ही! केवल उनको ही नहीं उनके दल में जितने लोग थे, उन सबको वे जानते थे। कैसे जानते थे ? 
पूरी में भगवान जगन्नाथ का मन्दिर है। जगत मतलब विश्वब्रह्माण्ड के नाथ ! नाथ का अर्थ है रचयिता -रचना करने वाले भगवान। किन्तु विशेष बात यह है कि इस भगवान के हाथ नहीं हैं। उनको पैर भी नहीं हैं। उनको केवल दो बहुत बड़ी बड़ी ऑंखें हैं। दो बड़ी बड़ी ऑंखें क्यों हैं ? वे हमें निरंतर बड़े गौर से -साक्षी भाव से देखते रहते रहते हैं, कौन मेरे निकट आ रहा है ? यहीं पर कर्मफल के सिद्धान्त का जन्म होता है। विदेशियों को भगवान जगन्नाथ की ऐसी मूर्ति देखने से बड़ा आश्चर्य होता है।
 
  श्री सुदर्शन भगवान, बलभद्र, देवी सुभद्रा
 जो विश्व-ब्रह्माण्ड के सृष्टिकर्ता हैं, उनकी ऐसी बिना हाथ-पैर की मूर्ति क्यों ? ऐसी मूर्ति बनाने के पीछे रहस्य है उ उपनिषदों के ज्ञान को सरलता से समझाना है। ईशावास्‍योपनिषद् ५ में कहा गया है -विश्वास रखिए, ‘ईश है, और उसका साक्षात्कार होगा।’ 
 तदेजति तन्नैजति तद् दूरे तद्वन्तिके।
तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यतः।। 
अन्‍वय: - तत् एजति, तत् न एजति ।  तत् दूरे, तत् उ अन्तिके तत् अस्‍य सर्वस्‍य अन्‍त:, तत् अस्‍य सर्वस्‍य उ बाह्यत: ।
 सरलार्थ - तत् ( वह परमेश्वर- नॉट ही ऑर शी, आत्मा का लिंग नहीं होता, वह तो सर्वव्याप्त चेतना है ) एजति (गतिं करोति, विश्व का संचालन करता है,चलता है) तत् (वह स्वयं) न एजति (कहीं आता-जाता नहीं है)  तत् दूरे ( वह दूर से भी दूर स्थान में है- स: दूरादपि दूरमस्ति)  तत् उ ( वह ही निकट से भी निकट में है,स: निकटादपि सन्निकटमस्ति) । तत् (वह) अस्य सर्वस्य अन्तः (इस जगत में सबके अन्दर वही व्याप्त है, अस्‍य जगत: अन्‍त: सर्वत्र व्‍याप्‍तमस्ति )। तत् उ (वह ही) अस्य सर्वस्य बाह्यतः ( इस गो-गोचर जगत के परे भी है)। 
क्योंकि भगवान सर्वव्याप्त हैं, इसीलिये भगवान जगन्नाथ की मूर्ति में पैर नहीं बने हैं। वे एक ही समय में बिना पैरों के हर जगह पहुँचे हुए हैं । हमलोगों को कार्य करने के लिये हाथों की जरूरत होती है, वे संकल्प मात्र से सृष्टि करते हैं ! तथा वे ही बिल्कुल हमारे जैसे मानव-शरीर धारण करके धरती पर अवतरित भी होते हैं, इसी तथ्य को साधारण व्यक्ति को समझाने के लिये कई दारू-ब्रह्म भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा के ऊपर कई कहानियाँ भी हैं। बलराम जीव के प्रतिक, देवी सुभद्रा योगमाया हैं, जो जीव को भगवान श्रीकृष्ण से मिलवा देती हैं । 
इस बार १८ जुलाई २०१५ को आयोजित भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा इसलिए अधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि १९ साल बाद दारू-ब्रह्म (काष्ठ प्रतिमाओं) को बदला जा रहा है। इसे नव कलेवर महोत्सव कहा जाता है। शास्त्रों में वर्णन आता है कि भगवान कृष्ण ने आषाढ़ अधिमास के दौरान बहेलिये का बाण लगने से देह त्यागा था। इसीलिये जिस वर्ष दो आषाढ़ आता है, उस वर्ष भगवान जगन्नाथ के काष्ठ विग्रहों (लकड़ी की मूर्तियों) को नए रूप में पुनः निर्मित किया जाता है। यह इस बात का सूचक है कि भगवान भी बदलाव से बचे नहीं हैं। जब उन्हें भी बदलाव प्रिय है, तो क्यों न हम भी अपने जीवन में आने वाले हर परिवर्तन को स्वीकार करें।
कहा जाता है कि जगन्नाथ जी की दिव्य लीलाओं में नवकलेवर भी एक मानवधर्मी लीला है। देश के अन्य मंदिरों में स्थापित पाषाण विग्रहों के विपरीत भगवान जगन्नाथ आम मानव शरीर की भांति ही पुराना शरीर त्यागकर नया शरीर धारण करते हैं। यह प्रक्रिया नवकलेवर महोत्सव के रूप में जानी जाती है। इस बात का वर्णन स्कन्दपुराण में मिलता है। महाभारत युद्ध में अपने परिजन और कुटुंबीजनों के वध से विचलित अर्जुन को श्रीकृष्ण ने यह कहते हुए समझाया था कि आत्मा नित्य है, शरीर अनित्य। जैसे वस्त्र पुराना होने पर लोग उसे त्यागकर नया वस्त्र धारण कर लेते हैं, वैसे ही जीवात्मा जीर्ण शरीर त्यागकर नूतन शरीर में प्रवेश करती है। भगवान जगन्नाथ का नवकलेवर महोत्सव भी गीता के इस संदेश की ही पुष्टि करता दिखाई देता है। 
इसिलये श्रीरामकृष्ण जैसे ही मास्टर महाशय को देखते हैं, उन्हें पहचान लेते हैं, कहते हैं -" मैंने तुमको चैतन्य के दल में देखा है। " केवल उनको ही नहीं जब वे नरेन्द्रनाथ को देखते ही, दोनों हाथ जोड़ कर कहते हैं -" मैं जानता हूँ प्रभु, आप वही नर ऋषि हैं, नारायण के अवतार हैं; लोगों के दुःख और कष्ट दूर करने के लिये जगत में आये हैं। " आई नो यू आर, माई लार्ड. यू आर  'नर', द एन्सिएंट   सेज, द इंकार्नेशन ऑफ़ नारायणा.यू हैव कम टू अर्थ टु  टेक अवे द सफरिंग्स ऐंड  सौरोज  ऑफ़ मैनकाइंड." 
(" Then with folded hand he said: "I know who you are, my Lord. You are Nara, the ancient sage, the incarnation of Narayana. You have come to earth to take away the sufferings and sorrows of mankind.") 
 स्वयं नरेन्द्र को ही उनकी इस बात पर सन्देह हुआ था, तब  श्रीरामकृष्ण कहते हैं - तुममें १८ वैसी शक्तियाँ हैं, जिनमें से सिर्फ एक शक्ति रहने के कारण केशव इतना विख्यात हो गया है। जबकि तुम्हारे भीतर १८ शक्तियाँ हैं ! नरेन्द्र बोले महाशय आप ऐसी बातें क्यों करते हैं ? केशव कितने विद्वान हैं  उनके सामने मैं अभी केवल एक छात्र हूँ । आपको ऐसा नहीं बोलना चाहिये नहीं तो लोग आपको पागल कहेंगे ' मैं क्या करूँ ? माँ मुझे ऐसा ही दिखला रही है ! उसी प्रकार जब उन्होंने राखाल महाराज (स्वामी ब्रह्मानन्दजी) को देखा तो वे तुरन्त पहचान गए कि यह श्रीकृष्ण के साथ रहता था।  बाबुराम महाराज के विषय में कहा वे राधा के अंश से जन्मे हैं। 
( "If Keshab possesses one virtue which has made him world famous, Naren is endowed with eighteen such virtues. I have seen in Keshab and Vijay the divine light burning like a candle flame, but in Naren it shines with the radiance of the sun."
Narendra later vehemently protested to the Master: "Sir, people will think you are mad if you talk like that. Keshab is famous all over the world. Vijay is a saint. And I am an insignificant student. How can you speak of us in the same breath? Please, I beg you, never say such things again."

"I cannot help it," replied the Master. "Do you think these are my words? The Divine Mother showed me certain things about you, which I repeated. And she reveals to me nothing but the truth."

"How do you know it was Mother who told you?" Narendra objected. "All this may be fiction of your own brain. Science and philosophy prove that our senses often deceive us, especially when there is a desire in our minds to believe something. You are fond of me and you wish to see me great – that may be why you have these visions."

The Master was perplexed. He appealed to the Divine Mother for guidance, and was told: " Why do you care what he says? In a short time he will accept every word of yours as true."

श्री रामकृष्ण वचनों को सुन कर जैसा सन्देह नरेन्द्र के मन में उठा था, वैसा ही सन्देह अर्जुन के मन भी उठा था जब उन्होंने गीता ४/१ में कहा था -
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् ।
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ।।

मैंने इस अविनाशी योग को सूर्य से कहा था, सूर्य ने अपने पुत्र वैवस्वत मनु  से कहा और मनु ने अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकु  से कहा । अर्जुन के मन सन्देह हुआ कि आप और मैं तो लगभग एक ही उम्र हैं, फिर यह कैसे सम्भव है कि हजारों वर्ष पूर्व जन्में लोगों को भी आपने ही योग सिखाया था ? तब श्रीकृष्ण गीता ४/५ में उत्तर देते हैं-
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन ।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परंतप ।

हे परन्तप अर्जुन! मेरे और तेरे बहुत-से जन्म हो चुके हैं। उन सबको तू नहीं जानता, किंतु मैं जानता हूँ । इन बातों से यह सिद्ध होता है कि ईश्वर ने ही हमारी रचना की है, 'बाई चांस ' संयोगवश हमारा जन्म नहीं हो गया है! उनके साथ हमारा प्रगाढ़ संबंध है, फिर यहाँ कोई सुखी कोई दुःखी क्यों है ? अच्छी-बुरी तरह तरह के गुण विभिन्न मनुष्यों में कैसे आ जाते हैं ? 
हमलोगों के भीतर जो भी अच्छे या बुरे गुण हैं उनका संबन्ध हमारे पूर्वजन्मों से है। पूर्वजन्मों में हमने जैसे कर्म किये हैं, वैसी आदत हो गयी, उसी प्रवृत्ति से कर्म करने से हमारा भला या बुरा चरित्र निर्मित हो गया है। अतः हम केवल सतकर्म करके अपने चरित्र को बदल भी सकते हैं ! इसीलिये हमारे सभी धर्मशास्त्रों, गीता, उपनिषद आदि में रमणीयचरणा - अर्थात रमणीय आचरण या प्रशंसा-योग्य आचरण पर बल दिया गया है।  छान्दोग्य उपनिषद [५.१०.७] की श्रुति प्रसिद्ध है- 
" रमणीयचरणा रमणीयां योनिमापद्यन्ते । कपूयचरणाः कपूयां योनिमापद्यन्ते "
 अर्थात- शास्त्रविहित आचरण करने वाले व्यक्ति उत्तम योनियों को प्राप्त होते हैं और पापाचारी पाप योनियों को प्राप्त होते हैं। यही कर्मानुसार जीवन की विविध गतियों का रहस्य है। 
रमणीय आचरण क्या है ? किसी भी मनुष्य को वाणी से या हाथों से कष्ट नहीं पहुँचाना । किसी भी व्यक्ति से चाहे वह अपरिचित ही क्यों न हो, उसे देखकर चेहरे पर मुस्कान और आँखों में प्रसन्नता लाने का अभ्यास करना चाहिए। यही मानवोचित गुण है, हमें दूसरों से व्यवहार करते समय विनम्रता और शिष्टाचार  का अभ्यास करना चाहिये। जबकि हमलोग दूसरों को ऐसी नजर से घूरते हैं, या कुछ पूछने से ऐसा उत्तर देते हैं कि वह डर जाता है। 
दूसरा है कपूअ  आचरण - यह क्या है ? बुरा कर्म करने से नीच योनियों की प्राप्ति होती है, गीता २/२२ में भगवान ने कहा है - 
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा
न्यन्यानि संयाति नवानि देही ।।

 
जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर दूसरे नये वस्त्रों को ग्रहण करता है, वैसे ही जब यह शरीर बूढ़ा और दुर्बल जाता है, तो वह आत्मा जो इस शरीर में रहती है, वह जीवात्मा जो परमात्मा का ही अंश है - पुराने शरीरों को त्याग कर दूसरे नये शरीरों को प्राप्त होता है ।  
अगर पुनर्जन्म सत्य है, तो फिर पिछले जन्म की बातें याद क्यों नहीं रहती हैं ? क्या तुम्हें अपने बचपन के दिनों में, जब तुम अपनी माँ की गोद में रहते थे, उस समय घटित हुई सभी बातों का स्मरण है ? भूख लगने पर या कोई तकलीफ होने पर कौन तुम्हारा ध्यान रखता था ? याद है ? नहीं, तो क्या हम यह कह सकते हैं, कि शैशव अवस्था होती ही नहीं है ? 
भगवान श्रीरामकृष्ण जब गले के कैंसर से कष्ट पा रहे थे, और उनके कष्ट को देखकर उनके शिष्य नरेन्द्रनाथ सोंच रहे थे -कि क्या इस समय वे कह सकते हैं कि मैं अवतार हूँ ? उन्होंने तत्क्षण उनके मन को देख लिया और कहा, 'पहले जो राम बनकर आये थे, कृष्ण बनकर आये थे वे ही अभी इस शरीर में रामकृष्ण के रूप में हैं !' इस प्रकार हम देखते हैं कि ईश्वर हर युग में विभिन्न नाम और रूप धारण कर के मानवता के कल्याण हेतु अवतरित होते रहते हैं ! 
माँ सारदा मणि देवी भी जब रामेश्वरम तीर्थ गयी थीं, वहाँ बालू द्वारा निर्मित शिवलिंग  देखकर बोली थीं , सीता बनकर जब वे आयीं थी और वह शिवलिंग बनाई थी, ' जेमोन टी रेखे गेची तेमन टी आचे ' जैसा मैंने बनाया था, अभी भी ठीक उसी तरह रखा हुआ है। लंका युद्ध के पहले भगवान श्रीराम भगवान शिव की पूजा करना चाहते थे, हनुमान जी शिवलिंग लाने गए थे, किन्तु उनको आने में देरी हो रही थी, तब माता सीता ने बालू से शिवलिंग का निर्माण किया था। माँ जब वृंदावन गयीं थी, तो उन्हें अनुभव हुआ कि वे ही राधा थीं। यह विश्वास हम में दृढ भाव से गूँथ जाये ! 
कभी कभी हमलोग भी किसी नए व्यक्ति को देखते हैं, तो ऐसा लगता है, इसे कभी देखा जरूर है ! किसी वस्तु को देखते ही हम समझ लेते हैं कि यह अमुक वस्तु ही है, क्योंकि पहले हमने उसे देखा हुआ होता है। एक हिन्दू शिशु, के रूप में हमारा व्यवहार, शिक्षक के रूप में हमारा व्यवहार - अलग ही ढंग का होता है। क्योंकि पूर्वजन्म की बातें हमारे चित्त में संचित रहती हैं ।  एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य के गुणों में जो अंतर रहता है, वह उसके पूर्व जन्म कृत कर्मों के फलस्वरूप होता है।  विभिन्न मनुष्यों में अलग अलग कार्यों के प्रति जो झुकाओ होता है, वह पुनर्जन्म के सिद्धान्त को प्रमाणित करता है। 
"Has He endowed some with more power and others with less?"
श्रीरामकृष्ण एक बार ईश्वरचन्द्र विद्यासागर के यहाँ गए थे, वे इतने ज्ञानी मनुष्य थे कि उन्हें विद्यासागर- 'ओशेन ऑफ़ नॉलेज' का सर्टिफिकेट मिला था। उन्होंने श्रीरामकृष्ण से पूछा - 'क्या ईश्वर ने किसी को अधिक शक्ति दी है और किसी को कम ? 
श्रीरामकृष्ण, जो कभी स्कूल नहीं गये थे- तुरन्त कहते हैं, " फिर मैं विशेष कर तुमसे ही मिलने क्यों आया हूँ?  ऐज द ऑल परभेडिंग स्पिरिट ही  एग्झिस्ट्स इन ऑल बीइंग्स, इभेन इन द ऐन्ट। एक सर्वव्यापी सत्ता के रूप में परमेश्वर सब प्राणियों में है - चींटियों तक में है। पर शक्ति का तारतम्य होता है; नहीं तो क्यों कोई दस आदमियों को हरा देता है, और कोई एक ही आदमी से भागता है ? ' ऐंड व्हाई डू ऑल पीपल रेस्पेक्ट यू? हैव  यू ग्रोन अ पेयर ऑफ़ हॉर्न्स? यदि ऐसा नहीं तो इतने लोग तुम्हें ही इतना सम्मान क्यों देते हैं ? क्या तुम्हारे सिर में दो सींग निकले हैं ? 
(हास्य  तुम दूसरों से भिन्न हो, क्यों अलग हुए ? कर्मफल के कारण !) औरों की अपेक्षा तुममें अधिक दया है, विद्या है, इसीलिये तुमको लोग मानते हैं और देखने आते हैं। क्या तुम यह बात नहीं मानते हो ? 
इस प्रकार हम देखते हैं कि पुनर्जन्म का सिद्धान्त स्वाभाविक रूप से कर्मफल के सिद्धान्त का समर्थन करता है। कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो बहुत अच्छे होते है, जीवनभर केवल शुभ कर्म ही करते हैं, किन्तु आत्मानुभूति या आत्मसाक्षात्कार होने के पहले ही मर जाते हैं। 
आजीवन उन्होंने उच्च आध्यात्मिक साधनाओं का अभ्यास किया है, फिर भी वे अपने चरम लक्ष्य को नहीं प्राप्त कर सके हैं, उनका क्या होता है ? वे लोग ब्रह्मलोक में जाते हैं, मोक्ष के अत्यन्त निकट पहुँच जाते हैं, वहाँ से धरती पर आकर यदि वे पुनः सद्कर्म करेंगे तो उन्हें मुक्ति प्राप्त हो जाएगी। पुनः सद्कर्म ही करना होगा नहीं तो निम्नतर योनियों में भी जा सकते हैं। मुण्डको उप० १।२।१० में कहा गया है -
नाकस्य पृष्ठे ते सुकृतेऽनुभूत्वेमं लोकं हीनतरं वा विशन्ति ॥
 नाकस्य माने स्वर्ग जाने की इच्छा से, रुग्णालय बनवाना, गरीबों को भोजन कराना, आदि स्मृति-विहित कर्म ’पूर्त’ कर्म कहाते हैं । पूर्त कर्मों को ही आजकल ’परोपकार’ समझा जाता है ।  इन पुण्यकर्मों के कारण, वे स्वर्ग के उच्चतम पद को प्राप्त कर वहां के सुखों का अनुभव करके, पुन: इस लोक में पूर्व की मनुष्य योनि में, या उस से भी हीन योनियों में प्रवेश करते हैं ।
जैसे कोई व्यक्ति बैंक में रखे सारे धन को क्रेडिट कार्ड से खर्च करता रहे, तो एक दिन बैंक नोटिस भेज देगा आपका अकाउंट बंद किया जाता है। उसी प्रकार प्रत्येक धर्म में कुछ 'फोर्बिडन ऐक्शन' निषिद्ध कर्म बतलाया गया है, जिसे करने से दण्ड मिलेगा। 
अभी आप भले किसी मठ के सेक्रेटरी हों, निषिद्ध कर्म करने से आपको भी निम्न योनि का शरीर मिलेगा, कुत्ता, बिल्ली में जन्म हो सकता है। मठ में एक कुत्ता रहता था, स्वामी जी उसको प्यार करते थे। एक दिन किसी बात से नाराज होकर उन्हों सेवक से  कहा इस कुत्ते को गंगा के उस पार छोड़ आओ ! ताकि वो दुबारा नहीं आ सके, लोग उसको नाव से उस पार लेजाकर कोलकाता में छोड़ दिए। पर वह कुत्ता स्वयं तैर कर दुबारा मठ में लौट आया और स्वामी जी के पास बैठकर उन्हें देखने लगा। उसी तरह मंदिर में कुछ बिल्लियाँ भी रहती हैं, जो भगाने से भी लौट आती हैं। इसकी व्याख्या कैसे करेंगे ? पूर्व जन्म में वे भी मनुष्य रहे होंगे, कोई बहुत जघन्य कर्म किये होंगे इसीलिये उनको इस जन्म में निम्न योनि मिला है। इसीलिये धार्मिक मनुष्य को भी सदा सतर्क रहना चाहिये। उससे भी जघन्य अपराध करने से 'जायस्व-मृयस्य ' मच्छड़-खटमल रोज पैदा होने और मरने की योनि में जन्म होता है। जैसा हम बोते हैं वैसा ही काटना पड़ता है। यही कर्म का सिद्धान्त है। 
इसलिये मास्टर महाशय ने पूर्व जन्म में अच्छे कर्म किये थे, जिसके फल स्वरुप उन्हें भगवान श्रीरामकृष्ण के सानिध्य में रहने का सौभाग्य मिला था। कब, जब वे अपने सांसारिक जीवन बिल्कुल अनासक्त हो गए थे, तब वे ठाकुर के पास पहुंचे थे। और श्री रामकृष्ण देख रहे थे, कि उनमें कुछ बहुत अच्छे गुण हैं, यदि वह अपने सांसारिक कर्तव्य से बंधा हुआ न रहेगा, तो मैं उन गुणों का उपयोग मनुष्य-निर्माणकारी आन्दोलन के प्रचार-प्रसार में करूँगा, जिससे बहुत से मनुष्यों का कल्याण होगा। 
एक बार श्रीरामकृष्ण को यह सुनने में आया कि नरेन्द्रनाथ की शादी हो सकती है ,कोई बहुत धनी व्यक्ति यह प्रयास कर रहा था कि यदि ये मेरी पुत्री से शादी कर लेंगे तो मैं इनके लंदन जाने का पूरा खर्च दूंगा। ताकि वे वहाँ बैरिस्टर बन सकें। जब ठाकुर ने यह सुना तो दौड़ कर माँ काली के पास गए और उनसे प्रार्थना किये, ' माँ ओके बाँधीस ने ' माँ काली ही श्रीरामकृष्ण हैं, और श्रीरामकृष्ण ही भगवान हैं,  फिर वे वैसा क्यों किये ? लोगों के समक्ष उदाहरण प्रस्तुत करने के लिये,  ताकि भविष्य में कोई व्यक्ति यदि  संन्यास ग्रहण करने की सोचे तो कोई उसे बुरा-भला न कहने लगें, कि ठाकुर स्वयं विवाहित थे, मास्टर महाशय भी विवाहित थे इसको क्यों संन्यास लेना चाहिये ? चाहे कोई व्यक्ति विवाहित हो या अविवाहित हो, यदि वह संसार के किसी विषय-भोगों में थोड़ा भी आसक्त न हो, तभी वह श्रीरामकृष्ण के मिशन - ' BE AND MAKE ' आंदोलन का नेता बन सकता है। गृहस्थ या संन्यासी होने से फर्क नहीं पड़ता  इसीलिये प्रत्येक संध्या आरती के समय हमलोग ' त्याजी -रिनाउंसिंग व्हाट? ' जाती, कुल और मान' उच्च जाती का गर्व, ऊँची फैमिली का गर्व, मान अर्थात अहंकार--- इन तीन चीजों को बिल्कुल निंदनीय वस्तु समान त्याग देना होगा। 
 यह प्रार्थना स्वयं स्वामीजी के शब्द हैं, जो श्रीरामकृष्ण से बिल्कुल एक थे, वे हमें शिक्षा दे रहे हैं अतः प्रार्थना के समय एक एक शब्द के अर्थ पर मनन करते हुए प्रार्थना करनी चाहिए नहीं तो संध्या-आरती भी तबले हारमोनियम के साथ एक इन्टरटेर्मेंट संगीत बन जायेगा। क्योंकि प्रार्थना के समय वे शब्द अत्यंत तीव्र गति से निकलते हैं - ' खण्डन भव बंधन - सांसारिक बंधन,  कट द बॉन्डेज ऑफ़ जाती, कुल मान  ! 
बहुत से लोग कहते हैं, मैं तो बंगाली नहीं हूँ, इस आरती को कैसे समझूँ ? किसी भक्त के मुख से ऐसे शब्द नहीं निकलने चाहिये। जो भी श्रीरामकृष्ण  का नाम लेता है, वह मेरा गुरु है ! स्वामी विवेकानन्द कहते हैं , जो कोई भी मनुष्य श्रीरामकृष्ण का नाम ले रहा है, मैं उसके दास के दास का भी दास हूँ ! क्यों ? क्योंकि जब तक आप इस साधारण से दिखने वाले मनुष्य को साक्षात् भगवान के रूप में नहीं देखते, पुरे हृदय से ठाकुर, माँ, स्वामीजी की शिक्षा पर विश्वास नहीं करते ; आप कभी ईश्वर को प्राप्त नहीं कर सकेंगे। उनके उपदेश भी सुनने में अत्यंत सरल हैं, पर उनका अर्थ बहुत गहरा है, तुम्हें ईश्वर लाभ करने के लिए कुछ नहीं करना है, बस इतना समझ लेना है कि - ' तुम कौन हो, और मैं कौन हूँ ? ' इस पंचम वेद श्री रामकृष्ण वचनामृत में हम इन बातों को बार बार सुनेंगे कि भगवान जब स्वयं मनुष्य रूप में अवतरित होते हैं तो किस प्रकार मनुष्यों को अपना सच्चा स्वरूप जानने के लिये प्रोत्साहित करते है ! स्वामी अभेदानन्द जी महाराज द्वारा रचित प्रणाम मंत्र है - शब्दों पर ध्यान दें  -
ॐ निरंजनं नित्यमनन्तरूपं
भक्तानुकम्पा धृतविग्रहं वै ।
ईशावतारं परमेशमिड्यं
  त्वं रामकृष्णं शिरसा नमामि ।। 
[फॉर स्टडी सर्कल : सार संक्षेप - रमणीय आचरण, कपूअ  आचरण ! सद्कर्म ही करना होगा नहीं तो निम्नतर योनियों में भी जा सकते हैं। 'फोर्बिडन ऐक्शन' निषिद्ध कर्म बतलाया गया है, जिसे करने से दण्ड मिलेगा। बुरा कर्म करने से नीच योनियों की प्राप्ति होती है, लोग तुम्हें ही इतना सम्मान क्यों देते हैं ? क्या तुम्हारे सिर में दो सींग निकले हैं ?   तुम दूसरों से भिन्न हो, क्यों अलग हुए ? कर्मफल के कारण !
  श्रीरामकृष्ण जैसे ही मास्टर महाशय को देखते हैं, उन्हें पहचान लेते हैं, कहते हैं -" मैंने तुमको चैतन्य के दल में देखा है। " केवल उनको ही नहीं जब वे नरेन्द्रनाथ को देखते ही, दोनों हाथ जोड़ कर कहते हैं -" मैं जानता हूँ प्रभु, आप वही नर ऋषि हैं, नारायण के अवतार हैं; लोगों के दुःख और कष्ट दूर करने के लिये जगत में आये हैं। "  ' माँ ओके बाँधीस ने '' पहले जो राम बनकर आये थे, कृष्ण बनकर आये थे वे ही अभी इस शरीर में रामकृष्ण के रूप में हैं !'  ' खण्डन भव बंधन - सांसारिक बंधन,  कट द बॉन्डेज ऑफ़ जाती, कुल मान  !  
जो भी श्रीरामकृष्ण  का नाम लेता है, वह मेरा गुरु है ! मैं उसके दास के दास का भी दास हूँ ! भगवान जगन्नाथ आम मानव शरीर की भांति ही पुराना शरीर त्यागकर नया शरीर धारण करते हैं। ' 
सिद्धार्थ का बुद्ध में रूपांतरित हो जाना -' द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया 'की कथा है ! 'दुनिया में सबकुछ दुःख है' - यह बात किसके लिये सत्य है ? फॉर दोज हू हैज अंडरस्टुड  ऐंड नॉट फॉर ऑल ! 
 जब तक आप इस साधारण से दिखने वाले मनुष्य को साक्षात् भगवान के रूप में नहीं देखते, पुरे हृदय से ठाकुर, माँ, स्वामीजी की शिक्षा पर विश्वास नहीं करते ; आप कभी ईश्वर को प्राप्त नहीं कर सकेंगे।]
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