शनिवार, 29 नवंबर 2014

१२. 'मन को देखना ' १३.' मन को आदेश देना ' १४. "मनः संयोग" [ " मनःसंयोग " लेखक श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय ]

१२. मन को देखना 
(द्रष्टामन की सहायता से दृश्यमन की गतिविधियों का पर्यवेक्षण)
             अब वास्तविक कार्य का प्रारम्भ होता है। और वह है अपने मन के रूबरू होना अर्थात मन के आमने-सामने होना। षडरिपु के कारण अपने मन की अतिरिक्त चंचलता पर विवेक-सामर्थ्य का अंकुश लगाकर  को अनुशासित करने के लिये 'यम-नियम' का पालन (24 X 7) करके पहले उसको थोड़ा शान्त और स्थिर कर लेना होगा।  फिर उसकी बिखरी हुई शक्ति-रश्मियों को संघटित कर, उन्हें एकाग्र (तीक्ष्ण या नुकीला) बनाकर, उसे किसी वस्तु या विषय में केन्द्रीभूत कर उसी स्थान में रोके रखने का कौशल सीखना होगा। इसके लिए सबसे पहले अपने मन को देखना होगा। उसमें उठने वाले विचारों को, उसकी गति को, विभिन्न विषयों में बार-बार बिक्षिप्त (Distort) होने की क्रिया का अवलोकन (Observation) करना होगा अर्थात अपने मन को ही  ग़ौर से देखना होगा।
 बाह्य वस्तुओं को हमलोग आँखों से देखते हैं। लेकिन मन को तो चर्म-चक्षुओं से नहीं देखा जा सकता। क्योंकि मन तो अत्यन्त सूक्ष्म पदार्थ है। इसलिये उसको किसी सूक्ष्म माध्यम से ही देखना होगा। परन्तु मन के जैसी सूक्ष्म, दूसरी कोई सूक्ष्म वस्तु तो है ही नहीं।  इसीलिये मन को मन के द्वारा ही देखना पड़ता है। शुरू -शुरू में यह सुनकर विस्मय होना स्वाभाविक है कि 'मन की यह दोहरी विद्यमानता' (Double Presence of Mind) कैसे संभव है ? किन्तु जाने-अनजाने हमलोग प्रायः यही तो सदैव करते रहते हैं। जब हम किसी विषय पर बहुत तल्लीन हो कर विचार कर रहे होते हैं या गहन चिन्तन में डूबे रहते हैं, तब हमें यह भी याद नहीं रहता कि हम विचार कर रहे हैं। हम उन विचारों में ही खो जाते हैं।  जब अकस्मात हमारी तंद्रा टूटती है, तब हम स्वयं अवाक् होकर सोचने लगते हैं कि अरे ! क्या मैं ही इतनी देर से इस विषय पर चिन्तन कर रहा था ? अर्थात उस समय अचानक हमारी दृष्टि मन कि ओर पड़ती है। कौन से माध्यम से यह दृष्टि पड़ी तथा यह स्मरण हुआ कि अरे! मैं ही इतनी देर से विचार कर रहा था-निश्चित रूप से मन के माध्यम से, मन के ऊपर हमारी दृष्टि पड़ी।  मानो मन का ही एक अंश इससे बाहर निकल कर, थोड़ा परे हट कर खड़ा हो शेष मन के कार्यों का अवलोकन कर रहा हो । 
अब उपरोक्त रीति से अर्धपद्मासन में बैठ जाने के बाद, इसी प्रकार द्रष्टा-मन या व्यक्तिपरक मन (Subjective Mind) की सहायता से दृश्य-मन या विषयाश्रित मन (Objective Mindकी गतिविधियों को थोड़ी देर तक पर्यवेक्षण करना है। मन में उठने वाले विचारों, चित्त की चंचलता को, और विभिन्न विषयों में मन के इधर-उधर भागने को ग़ौर से देखना होगा। एक चलचित्र की तरह न जाने क्या-क्या हमारे मन में चल रहा होता है,या अंकित रहता है। कितने शब्द, कितने चित्र, कितनी यादें और न जाने क्या- क्या! कभी-कभी तो हमें स्वयं ही अवाक् रह जाना पड़ता है कि अरे ! मेरे मन में क्या ऐसे-ऐसे विचार भी भरे हुए थे?

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स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " अतएव मनः संयम का पहला सोपान यह है कि कुछ समय के लिए चुप्पी साधकर बैठे रहो और मन को अपने अनुसार चलने दो। मन सतत चंचल है। वह बन्दर की तरह सदा कूद-फाँद रहा है। यह मन -मर्कट जितनी इच्छा हो, उछल-कूद मचाय, कोई हानि नहीं ; धीर भाव से प्रतीक्षा करो और मन की गति देखते जाओ। लोग जो यह कहते हैं कि ज्ञान ही यथार्थ शक्ति है, यह बिल्कुल ठीक है। जब तक मन कि क्रियाओं पर नज़र न रखोगे, उसका संयम न कर सकोगे। मन को इच्छानुसार घूमने दो।
सम्भव है, बहुत बुरी बुरी भावनाएँ तुम्हारे मन में आयें। तुम्हारे मन में इतनी असत भावनाएँ आ सकतीं हैं कि तुम सोचकर आश्चर्यचकित हो जाओगे। परन्तु देखोगे, मन के ये सब खेल दिन पर दिन कम होते जा रहे हैं, दिन पर दिन मन कुछ कुछ स्थिर होता जा रहा है। पहले कुछ महीने देखोगे, तुम्हारे मन में हजारों विचार आयेंगे, क्रमशः वह संख्या घटकर सैंकडो तक रह जायेगी। फ़िर कुछ और महीने बाद वह और भी घट जायगी, और अन्त में मन पूर्ण रूप से वश में आ जायगा। पर हाँ, हमें प्रतिदिन धैर्य के साथ अभ्यास करना होगा। " (१:८७)
" बाह्य जगत् के व्यापारों का पर्यवेक्षण करना अपेक्षाकृत सहज है, क्योंकि उसके लिए हजारों यन्त्र निर्मित हो चुके है, पर अन्तर्जगत के व्यापार को समझने में मदद करनेवाला कोई भी यन्त्र नहीं।..किन्तु फ़िर भी हम यह निश्चयपूर्वक जानते हैं कि किसी विषय का यथार्थ ज्ञान प्राप्त करने के लिए मन का पर्यवेक्षण करना अत्यन्त आवश्यक है। क्योंकि उचित विश्लेषण के बिना कोई भी विज्ञान निरर्थक और निष्फल होकर केवल बेबुनियाद (भित्तिहीन) अनुमान में परिणत हो जाता है।...द्रष्टा-मन ही अपने दृश्य-मन के अन्दर चल रहे व्यापारों का निरिक्षण-परिक्षण य़ा पर्यवेक्षण करने वाला यंत्र है। मनोयोग  की शक्ति का सही-सही नियमन कर जब उसे अन्तर जगत् की ओर परिचालित किया जाता है, तभी वह मन का विश्लेषण कर सकती है, और तब उसके प्रकाश में हम यह सही सही समझ सकते हैं कि अपने मन के भीतर क्या घट रहा है।" (१:३९)

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१३. 'मन को आदेश देना '
(२. प्रत्याहार- मन को बालक और मित्र के समान सलाह देना )
         इस प्रकार द्रष्टा-मन की सहायता से दृश्य-मन की गतिविधियों का थोड़ी देर पर्यवेक्षण करने के बाद, हमें वास्तविक कार्य की ओर एक कदम और आगे बढ़ना होगा। अब थोड़ी देर मन को उसकी मनमानी वस्तुओं की ओर जाने की छूट देने बाद, उसे समझा-बुझाकर अपने नियंत्रण में रहने को कहना होगा, उसे और मनमाने विषय अथवा वस्तु पर भटकने की छूट नहीं देनी होगी, इधर-उधर दौड़ने से रोकना होगा। मन पर धीरे धीरे विवेक-अंकुश का प्रयोग करना होगा उससे कहना होगा -  नहीं अब तुम्हें पहले जैसा इधर-उधर दौड़ने नहीं दिया जायगा।  मन को एक बालक के समान सलाह देनी होगी। 
                 साथ-साथ स्वयं को (अहं को) भी समझाना होगा कि अब तक हम नासमझ बने हुए थे, जिसके कारण मन के चलाये चल रहे थे। मन की गुलामी कर रहे थे, मन को जो अच्छा लग रहा था, उसको ही मुझे अच्छा लग रहा है-ऐसा मान बैठे थे। अबतक जो कुछ मन ने देखना चाहा,सुनना चाहा, करना चाहा, वह सब कुछ देखा, सुना और किया। अब यह समझ गया हूँ कि यह तो मन का दास होना है; अब आगे  ऐसा नहीं होने दूँगा। मन तो मेरा ही एक शक्तिशाली उपकरण (Powerful Instrument) या साधन है, अतः उसे मेरी आवश्यकता और प्रयोजनीयता के अनुसार ही कार्य करना चाहिए। अतः अब मन के ऊपर अपना प्रभुत्व जमाना होगा। हमने शुरू से ही उस पर शासन नहीं चलाया जिसके फलस्वरूप वह इतना शरारती हो गया है कि मेरी कोई बात सुनना ही नहीं चाहता, हर समय मनमानी करने पर उतारू रहता है। किन्तु अब इसे मेरा आदेश पालन करने के लिये किसी आदेशपाल (अर्दली) की तरह सदैव तत्पर रहना होगा। इसे प्रेमपूर्वक सिखाने से यह सीख सकता है और हमारी बात मानने लगता है। 
[ लालयेत् पंच वर्षाणि दश वर्षाणि ताडयेत्।
प्राप्ते षोडशे वर्षे पुत्रे मित्रवदाचरेत्॥
अर्थ- पाँच वर्ष की अवस्था तक पुत्र को लाड़ करना चाहिए, दस वर्ष की अवस्था तक (उसी की भलाई के लिए) उसे ताड़ना (डाँटना और कान खींचना) भी दिया जा सकता है; किन्तु उसके सोलह वर्ष की अवस्था प्राप्त कर लेने पर उससे मित्रवत व्यहार करना चाहिए] . 
मन के साथ एक बालक के समान या  एक मित्र के समान बात-चीत करनी होगी। कहना होगा- मेरे मन ! शान्त होओ ! इतना दौड़ते रहना ठीक नहीं है। आज तक तेरा कहना मानकर मैं भटक रहा था, अब तू एक बार मेरा कहना मानकर तो देख ! शास्त्र के वचन तो मानकर तो देख कि नरक में भी वैसा दुःख नहीं जैसा  चित्त के घोर चंचल रहने से होता है। और वैसा सुख स्वर्ग में भी नहीं जैसा निश्चल चित्त में प्रकट होता है। ऐ मन ! तेरा चंचल होना तेरा और मेरा विनाश है और तेरा स्थिर होना हम दोनों के परम् कल्याण का हेतु है। अतः ऐ मेरे मन मान जा। इसी में तेरा कल्याण है।
            इस प्रकार अगर मनःसंयोग की इच्छा बहुत बलवती हो, और इस संकल्प पर  दृढ़ रहा जाय, यम-नियम का पालन प्रतिमुहूर्त करते रहा जाय, 'वासना और धन ' का ययाति जैसा भोग करने की घोर आसक्ति को त्याग दिया जाय, यदि इसी लगन के साथ मनःसंयोग का अभ्यास करने के लिये नियमित चेष्टा की जाय, और पूरे लगन के साथ मनःसंयोग का अभ्यास करने की नियमित चेष्टा की जाय, तो हमें यह देखकर ख़ुशी होगी कि मन धीरे-धीरे कहना मानना सीख रहा है। हम यह भी देखेंगे कि मन  शान्त और स्थिर रहने लगा है तथा  मेरे वश में ही रहता है (स्वप्न में भी ?)। ऐसे आज्ञाकारी मन को बाह्य विषयों से खींचकर, एकाग्र बनाकर अपनी इच्छा और प्रयोजनीयता के अनुसार किसी भी विषय में केन्द्रीभूत किया जा सकता है!
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 [यत्ने कृते यदि न सिध्यति कोऽत्र दोषः।-पंचतंत्र 
अर्थात यत्न करने पर भी यदि काम सिद्ध न हो रहा हो, तो आत्मनिरीक्षण करो और देखो कि दोष कहाँ रह गया था? स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- " जो इच्छा मात्र से अपने मन को (मस्तिष्क में स्थित) समस्त स्नायू केन्द्रों में संलग्न करने अथवा उनसे हटा लेने में सफल हो गया है, उसीका प्रत्याहार सिद्ध हुआ है। प्रत्याहार का अर्थ है-एक ओर आहरण करना अर्थात खींचना। मन कि बहिर्गति को रोककर, इन्द्रियों की अधीनता से मन को मुक्त करके उसे भीतर की ओर खींचना। इसमे कृतकार्य होने पर हम यथार्थ में चरित्रवान होंगे; .... इससे पहले तो हम मशीन (रबोट) मात्र हैं। " (१:८६)]
जनक-विचार
श्रीयोगवाशिष्ठ ग्रन्थ में वशिष्ठजी कहते हैं- ‘हे रामजी ! फिर उस महीपति ने अपने मन से कहा- ऐ मेरे मन ! आज तक मैं तेरे कहने में रहा और तूने जो कहा वह मैंने स्वीकार किया। तूने जो वासना की वह मैंने पूर्ण की। ऐ मेरे मन !   ऐ मन ! तू शान्त हो जा। राज्य तेरा नहीं। पुत्र-परिवार तेरा नहीं। यह शरीर भी तेरा नहीं। जिसका सब कुछ है वह परमात्मा तेरा है। ऐ मेरे चित्त ! तू उसी परमात्मा में शान्त हो जा। तेरा भला होगा।’
ऐ मेरे चित्त ! तेरा सच्चा राज्य तो आत्मा का राज्य है। इस जनकपुरी में तो कई राजा आये। जिसने यहाँ राज्य किया वह जनक कहलाया। तू कब तक इस झूठे पद-प्रतिष्ठा पृथ्वी-राज होने का गर्व करके अपने को धरती का राजा मानेगा ? तू इस पृथ्वी का पति नहीं, महिपति नहीं, तू तो इस पृथ्वी का एक ग्रास मात्र है। तेरे जैसे तो कई राजा आ-आकर इस पृथ्वी में दफनाये गये। उनकी हड्डियाँ भी गल गईं। 'माटी कहे कुम्हार से तू क्या रौंदे मोय।एक दिन ऐसा आयगा मैं रौंदूगी तोय।।'
महिपति अपने चित्त को समझाता हैः ‘ऐ चित्त ! तू परमात्मा की शान्ति में शान्त हो जा। नहीं तो ऋषि लोग मेरी हँसी करेंगे। कहेंगेः समझदार होकर मूर्खों की नाईं आयुष्य बिता दिया। बुद्धिमान होकर पशुओं की नाईं शरीर को पालने-पोषने में जीवन गँवा दिया। ऐ मेरे मन ! जिस परमात्मा ने तुझे अनुराग का दान दिया है उससे संसार के विषय तू क्या माँगता है ? उससे नश्वर चीजों की चाह तू क्यों करता है ? अब तू शान्त पद का आश्रय ले। जैसे ज्ञानवान संत पुरूष आत्म-विचार करते शान्त पद का आश्रय लेकर संसार-समुद्र से तर जाते हैं, तू भी उस आत्मपद का आश्रय़ ले।"
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१४. "मनः संयोग"
( मन को अन्य विषयों से हटाते हुए एक विशेष ध्येय की ओर स्थिर करना)
 (Fixing the mind on a particular subject धारणा-१)
पिछले अध्याय में बताये गये विधियों के अनुसार मन को बार-बार समझा-बुझाकर नाना प्रकार के विषयों से खींच कर अपने सामने खड़ा करना होगा। परन्तु मन तो कभी खाली नहीं बैठता, उसे किसी न किसी वस्तु पर अवश्य ही लगाना पड़ेगा। इसीलिये मन में धारणा करने योग्य किसी-न-किसी वस्तु या विषय को पहले से निर्धारित करना होगा। मन को अन्य विषयों से हटाते हुए, एक विशेष 'ध्येय-वस्तु' या विषय की ओर स्थिर करने को ही धारणा (Concentration) या एकाग्रता कहते हैं। [पतंजलि कहते हैं -' देशबन्धः चित्तस्य धारणा ' अर्थात चित्त को देश-विशेष में बाँधना धारणा है।] धारणा का उद्देश्य है किसी ध्येय वस्तु पर चित्त को एकाग्र करना । इसके द्वारा मानसिक शक्ति के प्रवाह को एक ही विषय की ओर प्रेरित करना सम्भव हो जाता है।
किन्तु यह ध्येय (ध्यान का विषय) क्या हो ? हम अपनी श्रद्धा के अनुसार किसी भी वस्तु का चुनाव कर सकते हैं। हम अपने मन को दीपक की लौ पर, दीवार पर वृत्त बनाकर उसके केन्द्र पर, या अन्य किसी पवित्र प्रतीक  'ॐ' (या 786/ पवित्र काबा) पर भी मन को लगाने का प्रयत्न कर सकते हैं। लेकिन किसी ऐसे मूर्त आदर्श पर मन को बैठना ज्यादा अच्छा होता है जिस पर हमारे मन में स्वाभाविक रूप से श्रद्धा-भक्ति हो। किसी ऐसे देवी-देवताओं, महापुरुष या इष्ट की मूर्ति या चित्र पर मन को केन्द्रीभूत करना अधिक सहज होता है, जिन्हें हम पवित्रता स्वरूप या प्रेम-स्वरूप मानकर श्रद्धा-भक्ति के साथ पूजने योग्य (या परिक्रमा करने योग्य) मानते हैं। ऐसे ध्येय (मूर्त-आदर्श) पर मन को स्थिर रखने की चेष्टा करने से मनोविज्ञान के 'साहचर्य का नियम' (Law of Association) के अनुसार उस आदर्श के सदगुणों (पवित्रता और प्रेम) का विचार भी हमारी कल्पना में आने लगते हैं। इसलिये किसी मूर्त-आदर्श पर मन को केन्द्रीभूत करना अधिक श्रेयस्कर होता है। 
           यदि अभी तक हमने किसी पूजनीय मूर्ति या श्रद्धेय महापुरुष को अपने आदर्श के रूप में सतत ध्यान करने का पात्र नहीं चयन किया हो तो अब बिना देर किये चयन कर लेना चाहिये। हमलोग चरित्र के गुणों को अपने में धारण कर यथार्थ मनुष्य बनना चाहते हैं तथा देश-सेवा से जुड़कर अपना जीवन धन्य करना या सार्थक करना चाहते हैं। यदि ऐसा ही लक्ष्य है तो भारत सरकार द्वारा घोषित युवा-आदर्श स्वामी विवेकानन्द की मूर्ति या जीवन्त छवि हमारे लिये एक अत्यन्त प्रेरणादायी आदर्श हो सकती है। जितना उनका धारणा-ध्यान सिद्ध था वैसा ही कर्म भी था। वे चरित्र के सभी गुणों के वे मूर्तरूप लगते हैं। फ़िर समस्त मानव जाति के लिए उनके ह्रदय कितना प्रेम था ! उन्होंने अपने उपदेशों में बहुत सरल भाषा में मनुष्य जीवन का उद्देश्य तथा यथार्थ मनुष्य बनने के उपाय ही नहीं सुझाया है- बल्कि वैसा करके और बनके  दिखा भी दिया है। उन्होंने मन या जगत का दास न बन कर संयमी बनने का निर्देश दिया है। मन को एकाग्र करने की शिक्षा को ही उन्होंने सर्वोपरि शिक्षा माना है। उन्होंने तैंतीस कोटि देवता पर विश्वास करने से पहले 'आत्मविश्वासी' बनने की शिक्षा दी है। इसलिये उनकी छवि पर मनः संयोग का अभ्यास करने से- अर्थात 'विवेक-दर्शन' का अभ्यास करने से ममें भी इसी प्रकार का आत्मविश्वास पैदा होगा। उन्होंने कहा है-" मनुष्य सब कुछ कर सकता है, मनुष्य के लिए असंभव कुछ भी नहीं है।"वे मानव-मानव के बीच जाति या धर्म के आधार पर किसी प्रकार का भेद नहीं देखते थे। जाती, धर्म, शिक्षा, धन-संपत्ति आदि के आधार पर वे किसी भी मनुष्य को अपने से अलग नहीं मानते थे।उनके लिए सभी मनुष्य एक समान थे। अतः किसी भी जाति और धर्म में जन्मा मनुष्य उन्हें अपना आदर्श मान सकता है और उनकी छवि पर 'मनः संयोग' का अभ्यास कर सकता है। 
जिस लक्ष्य (ध्येय-वस्तु) पर मनः संयोग का अभ्यास करना है, आँख बन्द करने से पहले उस लक्ष्य को खूब ध्यानपूर्वक थोड़ी देर तक देखते रहना चाहिए। ऐसा करने से यह होगा कि आँखें बन्द करने के बाद भी वही छवि या आकृति मन में बस जायेगी। (जैसे गुलाब का ध्यान करने से उसकी सुगन्ध नासिका में बस जाती है।) उसी तरह आराध्य के श्रीचरण हृदय में बस जायेंगे। तदुपरांत जैसा हम पहले जान चुके हैं - मन को समझाकर समस्त विषयों से खींच कर पूर्व चयनित आदर्श की मूर्ति या पवित्र - प्रतीक पर मन को एकाग्र रखने का प्रयास करेंगे। 
             हो सकता है कि ('वासना और धन' आदि विषयों से) खींचकर कर लाया गया मन पुनः वहीँ-वहीं भाग जाय, इसलिये मन की चालाकियां आपको पकड़नी पड़ेंगी। यह तभी संभव होगा जब मन पर आप पैनी नजर रखें। आप द्रष्टा मन से दृश्य मन पर पैनी नजर गड़ाये रखिये । हां ! अभी यह विवेक-दर्शन में लगा हुआ था, लेकिन अचानक यह आपको चकमा देकर सांसारिक प्रपंच में चला गया। चूंकि आप मन के प्रति सजग और सचेत हैं, इसलिए उसे पुनः विवेक-दर्शन में अनुप्रेरित कीजिये, पास खींच लाइए। इसमें ऊबने से काम नहीं चलेगा। उस स्थिति में मन का तब तक पीछा करना होगा, जब तक वह बैठ न जाए। उसे फ़िर से आदेश देते हुए अपने इष्ट का चिन्तन करने के लिए सम्भालना होगा। कभी-कभी ऐसा भी हो सकता है कि मन अपने इष्ट वस्तु से हट कर अन्य बातों का चिन्तन में इतना रम जाये कि हम कहाँ और क्यों बैठे हैं, यह भी हमें स्मरण नहीं रहे। अगर ऐसा होता है, तो भी हतोत्साहित होने की आवश्यकता नहीं है। हम जान चुके हैं कि मन का स्वभाव ही वैसा है। उसे आज तक कभी भी संयम का पाठ पढ़ाया ही नहीं गया था, तभी तो उसका यह हाल बन गया है। यदि मन कि चंचलता से बहुत असुविधा होने लगे तो पुनः आँखे खोल कर मनः संयोग के लक्ष्य को खूब ध्यान से, निर्बाध दृष्टि से देखने के बाद पुनः मन को लगाना सहज हो जाता है।
जिस लक्ष्य या इष्ट वस्तु पर मनः संयोग करना चाहते हैं, उसी पर मन को लगाने का अर्थ क्या है ? हमलोग पहले ही जान चुके हैं कि मन की अदृश्य शक्ति-रश्मियों को चारों ओर से समेट कर,अन्तर्मुखी बना कर एक ही (स्नायु) केन्द्र में निवेशित रखना मनः संयोग है। हमारी पाँच इन्द्रियाँ हैं जो जगत के रूप, रस, गंध,शब्द और  स्पर्श आदि पाँच विषयों के संवाद हम तक पहुँचाते रहते हैं। अभी सिर्फ़ एक इन्द्रिय के कार्य पर विचार करें। मान लो कि मैं अभी आँखों से विवेक-दर्शन का अभ्यास कर रहा हूँ, या विवेकानन्द की छवि पर मनःसंयोग कर रहा हूँ। जब तक यह विचार मन में रहता है कि मैं विवेक-दर्शन कर रहा हूँ, तब तक यह समझना चाहिए कि मन अपने आराध्य-देव का दर्शन करने में ही लगा हुआ है। इसका अर्थ यह हुआ कि नेत्रों कि दृष्टि जिस वस्तु पर पड़ रही है, मन की दृष्टि भी उसी वस्तु के ऊपर केन्द्रीभूत है। किन्तु कभी-कभी ऐसा भी तो होता है, कि आँख की दृष्टि जिस वस्तु पर पड़ रही है, मन की दृष्टि उस वस्तु पर नहीं पड़ रही है, अर्थात उस समय मन की शक्ति रश्मियाँ दूसरी ओर जा रही होती हैं। उस समय ऑंखें कुछ देख ही नहीं सकेंगी। इसीलिये वस्तु को नेत्र दृष्टि के सम्मुख रहने पर भी हम उसे देख नहीं पाते हैं।
                            मनः संयोग का अर्थ है मात्र मनमाने ढंग से किसी भी व्यक्ति या विषय के चिंतन में तल्लीन (
engrossed) हो जाना नहीं है- (जैसे शकुंतला दुष्यंत की याद में इतनी लीन हो गयी थी कि उसे दुर्वासा ऋषि के पधारने का पता ही नहीं चला ....)  बल्कि हमारी इच्छा और प्रयास से आँखों की दृष्टि और मन की दृष्टि दोनों को किसी प्रयोजनीय विषय में लगाये रखने (तल्लीन रखने)  का सामर्थ्य प्राप्त कर लेना है। अर्थात मनःसंयोग के लिये जिस लक्ष्य-वस्तु का चयन किया है, अर्थात 'विवेक-दर्शन' का अभ्यास करने के लिये स्वामी विवेकानन्द की जिस छवि (शिकागो पोज) को पहलीबार १२ जनवरी १९८५ को टी.वी पर एक बार देखते ही अपने एकमात्र आदर्श के रूप में अपने मन में बसा चुका हूँ; अब उन्हीं के ऊपर बलपूर्वक इस प्रकार से केन्द्रीभूत करना है कि मन की शक्ति-रश्मियों का छोटा सा कण भी अन्य किसी विषय में जाने न पाये! 
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स्वामी विवेकानन्द कहते हैं-" कुछ काल तक प्रत्याहार की साधना करने के बाद, उसके बाद की साधना अर्थात धारणा का अभ्यास करने का प्रयत्न करना होगाधारणा का अर्थ है - 'मन को देह के भीतर या उसके बाहर किसी स्थानविशेष में धारण या स्थापन करना।'  मन को स्थानविशेष में धारण करने का क्या अर्थ है? इसका अर्थ यह है कि मन को शरीर के अन्य सब स्थानों से अलग करके किसी एक विशेष अंश के अनुभव में बलपूर्वक लगाये रखना। मान लो, मैंने मन को हाथ में धारण किया। तब शरीर के अन्यान्य अवयव विचार के विषय के बाहर हो जायेंगे। जब चित्त अर्थात मनोवृत्ति किसी निर्दिष्ट स्थान में आबद्ध रहती है, तब उसे धारणा कहते हैं। इस धारणा के अभ्यास के समय किसी कल्पना की सहायता लेने से काम अच्छा सधता है। मान लो,हृदय के एक बिन्दु में मन को धारण करना है। इसे कार्य में परिणत करना बड़ा कठिन है। अतएव सहज उपाय यह है कि हृदय में एक पद्म की भावना करो और (तथा उस अष्टदल रक्तवर्ण कमल पर अपने इष्ट को बैठा हुआ देखने की) कल्पना करो कि वह आदर्श आत्म-ज्योति से पूर्ण है (वाइब्रेन्ट या जीवन्त है)-चारों ओर उस ज्योति की आभा बिखर रही है। उसी जगह मन की धारणा करो । " (१:८७)
[और दुर्वासा ऋषि ने अपना  यथोचित स्वागत सत्कार नहीं  होता देखकर इसे अपना अपमान समझा और क्रोधित हो कर बोले, “बालिके! मैं तुझे शाप देता हूँ कि जिस किसी के ध्यान में लीन होकर तूने मेरा निरादर किया है, वह तुझे भूल जायेगा।” दुर्वासा ऋषि के शाप (curse) को सुन कर शकुन्तला का ध्यान टूटा और वह उनके चरणों में गिर कर क्षमा प्रार्थना करने लगी। शकुन्तला के क्षमा प्रार्थना से द्रवित हो कर दुर्वासा ऋषि ने कहा, “अच्छा यदि तेरे पास उसका कोई प्रेम चिन्ह होगा तो उस चिन्ह को देख उसे तेरी स्मृति हो आयेगी।”एक सरोवर में आचमन करते समय महाराज दुष्यंत की दी हुई शकुन्तला की अँगूठी, जो कि प्रेम चिन्ह थी, सरोवर में ही गिर गई। उस अँगूठी को एक मछली (fish) निगल गई |मछुआरे ने उसे काटा तो उसके पेट अँगूठी निकली। मछुआरे ने उस अँगूठी को महाराज दुष्यंत के पास भेंट के रूप में भेज दिया। अँगूठी को देखते ही महाराज को शकुन्तला का स्मरण हो आया। ]
  

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