बुधवार, 5 नवंबर 2014

२. कार्य क्या है ? ३. ज्ञान क्या है ? [" मनःसंयोग " लेखक श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय ]

२.कार्य क्या है ?
पिछले अध्याय में हमने देखा कि किसी भी काम को बेहतर ढंग से करने के लिए, 'मनः संयोग' कितना अनिवार्य है ! अब प्रश्न है कि 'कार्य' कहने से हम क्या समझते हैं ? आगे हम इसी बात को थोड़ा और बेहतर तरीके से समझने की चेष्टा करेंगे अर्थात इसी विषय पर मनःसंयोग करेंगे।
इस जगत में सर्वत्र एवं सर्वदा वभिन्न प्रकार की घटनाएँ घटित होती रहती हैं। इनमे से प्रत्येक घटना एक प्रकार का कार्य ही तो है ! जैसे हम देखते हैं कि- प्रातः काल में सूर्य उदित होता है, रात्रि के अंधकार को दूर हटा कर सूर्य की किरणें जगमगा उठतीं हैं, फूल खिल जाते हैं, नदी बहती जा रही हैं, बारिश से सूखी हुई मिट्टी गीली हो जाती है, सूर्य के प्रचण्ड ताप से मिट्टी का जल वाष्प बन कर उड़ जाता है,और इसी प्रकार के अन्य कितने ही कार्य होते रहते हैं। ये सभी कार्य प्रकृति के नियमानुसार घटित होते रहते हैं। इनमे से किसी भी कार्य के पीछे मनुष्य की कल्पना, इच्छा, प्रयत्न या उद्यम आवश्यक नहीं होता।
फ़िर हम यहाँ कुछ ऐसे कार्यों को भी घटित होते देखते हैं जिनमें प्रत्येक के पीछे मनुष्य की इच्छा, और प्रयत्न आवश्यक होता है।मनुष्य की आकांक्षा, इच्छा, और चेष्टा आदि का आधार मनुष्य का मन ही होता है। जैसे हम देखते हैं कि - किसान खेत में हल चला रहा है, मछुआरा मछली पकड़ रहा है, श्रमिक-कारीगर लोग कितने प्रकार के कार्य कर रहे हैं, कोई खेल रहा है तो कोई पढ़ने में लगा हुआ है आदि-आदि। इन सभी प्रकार के क्रिया-कलापों का आधार मनुष्य का मन ही तो है। मन की किसी आकांक्षा, इच्छा, लक्ष्य, उद्देश्य या संकल्प को पूरा करने के लिए मनुष्य उद्यम, अध्यवसाय,चेष्टा, श्रम या प्रयत्न करता है।
             इनमे से कोई स्वेच्छा से कार्य कर रहा होता है, तो कोई दूसरे की इच्छा से प्रेरित हो कर। क्योंकि सबको जीवन यापन करना होता है और उसके लिये सबका अर्थोपार्जन करना आवश्यक है।  इसीलिये हमें अपनी या दूसरों की इच्छा से कार्य करना पड़ता है, किन्तु दोनों ही अवस्थाओं में जो कार्य कर रहा है, उसे पहले अपने मन में कार्य विषयक चिन्तन तो करना ही पड़ेगा। और जो कार्य करना है उसके विषय में योजना बनानी होगी, कार्य को पूर्ण करने का संकल्प लेना होगा, फिर उसे पूर्ण करने के लिये चेष्टा, प्रयत्न या श्रम भी करना पड़ेगा। और इस चेष्टा तथा श्रम में  थोड़ी शक्ति भी खर्च करनी पड़ेगी। कार्य विषयक संकल्प लेने, चिंतन द्वारा उसका खाका (ब्लूप्रिन्ट) तैयार करने में जिस शक्ति का क्षय होता है उसे मानसिक शक्ति कहते हैं, जबकि काम करने में जो शक्ति लगती है वह शारीरिक शक्ति कहलाती है। परन्तु यह शारीरिक शक्ति भी मन को नियोजित करने के बाद ही क्रियाशील होती है। 
अब यदि ध्यान पूर्वक देखें तो पायेंगे कि जिस विषय या वस्तु के ऊपर कार्य किया जा रहा है, उसके रूप या स्थान में परिवर्तन हो जाता है। जैसे लकड़ी के तख्ते से कुर्सी का निर्माण हो गया, सूत से गमछा बन गया, धरती पर पड़े गोबर से जलाने वाला उपला बन गया, कोयले के चूरे से जलाऊ गोटे बन गये, हल चलाने से धरती खेती करने योग्य हो गयी आदि-आदि। इसी प्रकार मैं कोई पुस्तक पढ़ता हूँ तो पुस्तक का ज्ञान मुझे प्राप्त हो जाता है। कागज के ऊपर तूलिका घुमाने से, मन की कल्पना चित्र के रूप में साकार हो जाती है। किसी प्राकृतिक घटना पर मन को एकाग्र करके गहराई से विचार करने से, हम किसी नये नियम या नये उदाहरण का आविष्कार कर लेते हैं! ये सब भी विभिन्न प्रकार के कार्य ही हैं ! 
                             जो करने से किसी वस्तु में कोई रूपान्तरण, परिवर्तन या स्थानान्तरण हो जाता है, तथा जिसमें शक्ति भी खर्च करनी पड़ती है, और जिसे करने में मनुष्य का मन अनिवार्य रूप से लगा होता है, कार्य कहलाता है। मनुष्य के मन में ही वह कल्पना-शक्ति रहती है जिसके बल पर किसी वस्तु का रूपांतरण या स्थानान्तरण होता है। मनुष्य का मन ही यह जनता है कि किस प्रकार किस प्रकार किसी वस्तु से सर्वाधिक लाभ प्राप्त किया जा सकता है, फिर उसी लाभ को प्राप्त करने के लिये वह शक्ति की खोज करता है। चेष्टा, धैर्य, अध्यवसाय, उद्यम, निष्ठा आदि प्रवृत्तियाँ मनुष्य के मन से ही संबन्धित हैं। मन की इच्छा, संकल्प आदि को पूरा करने के लिये ही उसका शरीर चेष्टा, प्रयत्न या श्रम करता है और उसके मन की कल्पना को साकार रूप दे देता है। इस प्रकार निष्कर्ष यह निकला-  कि मन की कल्पनाओं को साकार रूप देना ही 'कार्य' है; तथा किसी भी कार्य को करने का सबसे बड़ा साधन मन ही है। 
इसी मन को यदि हम पूर्ण रूप से कार्य में नियोजित करने में सक्षम हो जायें, उसे शान्त और संयमित करके उसकी शक्ति को बढ़ा सकें,तथा मन केवल न्यायसंगत विचारों (शिव-संकल्प) से ही भरा रहे, कल्याणकारी कल्पना करने में सक्षम हो तो जो भी कार्य हम हाथ में लेंगे उसे बड़े सुन्दर ढंग से सम्पन्न कर सकेंगे। इस तथ्य को समझ लेने में अब कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए।
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३. ज्ञान क्या है ?
किसी भी वस्तु या विषय के बारे में जानकारी प्राप्त कर लेने को ही उस वस्तु या विषय का ज्ञान कहा जाता है। किन्तु जो भी ज्ञान हम अर्जित करते है, वह मन की सहायता से ही करते हैं। मन के बिना हम कोई भी ज्ञान नहीं प्राप्त कर सकते हैं। इस जगत में अनगिनत वस्तुएँ एवं विषय जानने योग्य हैं। सुदूर अपरिमेय आकाश (अंतरिक्ष) में खचित ग्रह-नक्षत्र से लेकर सूक्ष्म अणु-परमाणु तक। इनके मध्य असंख्य ज्ञातव्य वस्तुएँ बिखरी हुई हैं। उसी प्रकार अभिरुचि के अनुसार जानने योग्य सैकड़ों प्रकार के विषय भी हैं। इनमें से जिन विषयों एवं वस्तुओं के बारे में हमको जानकारी है, उसको ही उस वस्तु या विषय का ज्ञान कहा जाता है।
यह पृथ्वी, देश-विदेश, समुद्र-पर्वत, घर-बार, पशु-पक्षी, मानव-शरीर और उसका स्वास्थ्य, रोग-व्याधि, उसका निदान, मनुष्य का इतिहास, उसकी घृणा-प्रेम आदि वृत्तियाँ, मनुष्य जीवन और उसका सुख-दुःख तथा ऐसी ही कितनी ज्ञातव्य वस्तुयें और विषय हैं -इनका कोई अन्त नहीं है ? इन समस्त विषयों के सार अथवा मर्म को जानने की जिज्ञाषा मनुष्य को सदैव रहती है, और चेष्टा करके वह जितना जान पाता है , उसी को ज्ञान कहा जाता है। इस ज्ञान अर्जन का एकमात्र साधन मनुष्य का मन ही है। जो मन जितना अधिक उन्नत होता है, वह उतना ही उत्कृष्ट कोटि का ज्ञान अर्जित करने में समर्थ होता है। पुनः मन को ज्ञातव्य विषय में जितने अच्छे तरीके से एकाग्र (संयुक्त) किया जाता है, उस विषय का ज्ञान उतने ही स्पष्ट रूप से मन में अंकित हो जाता है। 
अपनी आँखों से मैं जब कोई फूल, या कोई पक्षी,भूखे व्यक्ति, बिच्छू या बिल्ली को देखता हूँ; तो आसानी   पहचान लेता हूँ,किन्तु इन्हें पहचानने के लिये मुझे पहले से ही बहुत सारा ज्ञान एकत्रित करना पड़ा है,तथा उनकी स्पष्ट छवि भी हमारे मन में है। तथा एक विशिष्ठ मनोयोग (साहचर्य के नियमानुसार) उन्हें वगीकृत कर लेता हूँ । क्योंकि हमारा मन जाने पहचाने प्रत्येक वस्तु को धीरे-धीरे इसी प्रकार वर्गीकृत करना सीख लेता है और क्रमशः गहराई से विश्लेषण करके उन्हें और भी अच्छी तरह से जान लेता है; जिसके फलस्वरूप प्रत्येक मनुष्य के मन में संचित ज्ञान की परिधि उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है। 
साहचर्य के नियम के अनुसार न केवल प्राप्त जानकारी का वर्गीकरण होता है बल्कि इसके अतिरिक्त छोटे टुकड़ों में प्राप्त जानकारी या ज्ञान के विभिन्न अंशों के बीच एक सम्यक श्रृंखला भी विकसित हो जाती है। इससे न केवल जगत के विभिन्न वस्तुओं और विषयों का ज्ञान होता है तथा क्रमशः विकसित होता जाता है बल्कि वह ज्ञान सर्वव्यापी भी हो जाता है। मानो एक ही नज़र में विश्व की कई सूचनायें एक साथ प्राप्त करने की क्षमता मन में उत्पन्न हो जाती है। किन्तु लघु (पिण्ड) से क्रमशः बृहद (ब्रह्म) का ज्ञान भी मन की शक्ति के द्वारा प्राप्त होता है। सारांशतः हम कह सकते हैं कि इस मन को जितना अधिक उन्नत और  शक्तिशाली बनाया जायगा तथा जितने परिमाण में किसी वस्तु या विषय पर एकाग्र किया जायगा उतनी ही मात्रा में हमलोग ज्ञान भी अर्जित कर सकेंगे। 
             हमलोग प्रत्येक कार्य किसी- न- किसी उद्देश्य से करते हैं। हम वैसा ही कार्य करते हैं जिससे हमें लाभ होता है। यदि उन कार्यों को हम यथोचित ज्ञान के साथ करते हैं तभी कार्यों में सफलता प्राप्त होती है और इन कार्यों के पीछे जो हमारा उद्देश्य या आकांक्षा होती है, वह पूरी हो पाती है। अतः किसी कार्य में सफलता के लिए ज्ञान नितान्त आवश्यक है। और हम पहले ही देख चुके हैं कि केवल मन की सहायता ही हम कार्य कर पाने में समर्थ होते हैं तथा ज्ञानपूर्वक (विवेक-विचार युक्त ) कार्य करने के लिये मन की एकाग्रता अथवा 'मनःसंयोग' अनिवार्य है। इस प्रकार हम समझ सकते हैं कि जीवन को धारण करने के लिये, एवं उसे सार्थक करने के लिये 'मनः संयोग' कितना आवश्यक है ! अतएव अन्य किसी विषय का ज्ञान प्राप्त करने के पहले 'मनःसंयोग' का ज्ञान प्राप्त करना ही सबसे ज्यादा जरुरी है। इसीलिये स्वामी विवेकानन्द ने 'मन की एकाग्रता' को ही शिक्षा की आधारभूत सामग्री कहा है। 
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" ज्ञान क्या है ? ज्ञान का अर्थ है, (पूर्व में देखी-सुनी) वस्तुओं की साहचर्य प्राप्ति।" तुमने बहुत से मनुष्यों को देखा है, और प्रत्येक ने तुम्हारे मन पर एक संस्कार (छाप) डाला है, और तुम जैसे ही इस मनुष्य को देखते हो, इसेअपने चित्त (या स्मृति के भंडार घर) से सम्बद्ध करते हो, और वहाँ तुमको इसी प्रकार के बहुत से चित्र दिखाई पड़तेहैं। और उनके साथ इस नए चित्र को भी रख देते हो। (तब पहचान जाते हो कि दो हाथ दो पैर वाला यह एलियन नहीं मनुष्य है ) साहचर्य की इसी अवस्था को ज्ञान कहते हैं।
तुम्हारा मन समारम्भ के लिये- एक ' अनुत्किर्ण फलक ' (Tabula Rasa या कोरा स्लेट) नहीं है।अपने पास पहले से ज्ञान का एक भण्डार होना चाहिये, जिसके साथ किसी नये संस्कार को सम्बद्ध किया जा सके।कोई नवजात शिशु (जन्म से) पहले एक ऐसी अवस्था में अवश्य रहा होगा, जब कि उसके पास ( संचित अनुभवोंका ) कोई ज्ञान-कोष था। इस प्रकार ज्ञान कि वृद्धि शाश्वत रूप से होती रहती है।..यह एक गणितीय तथ्य है।" ... (४:२०६)
" Knowledge is the ' recognition ' of the new- by means of associations already existing in the mind. Recognition - is finding associations with similar impressions that one already has. Nothing further is meant by Knowledge.Knowledge means finding the association; that is why a drunken man naturally gravitates to the lowest slums of the city. "(C.W.2:447,78 )
" किसी व्यक्ति के पास पहले से जो संस्कार हैं, उनके तुल्य संस्कारों कि साहचर्य- प्राप्ति ही प्रति-अभिज्ञा (Recognition या मान्यता) कहलाती है। ज्ञान का अर्थ है, साहचर्य-प्राप्ति । इससे भिन्न ज्ञान का कोई दूसरा अर्थ नहीं है। 
यह दृष्टिगोचर जगत् तभी जाना जा सकता है, जब हम इसके साह्चर्यों को पा सकने में सफल हो जायेंगे। इसकी सच्ची पहचान, प्रतिभिग्या (Recognition) तो हम तभी कर पायेंगे जब हम इस विश्व एवं चेतना के परे चले जायेंगे और तब विश्व हमे स्वतः व्याख्यात हो जाएगा।
हमारी वर्त्तमान चेतना से पृथक, विश्व का यह टुकड़ा हमारे लिये विस्मयकारी नूतन पदार्थ है, क्योंकि हम अभी तक इसके साह्चर्यों को न पा सके हैं। अतएव हम इससे संघर्ष कर रहे हैं, और इसे भयावह, दुष्ट तथा बुरा समझते हैं- हमारा विचार सदैव यही रहता है कि यह अपूर्ण है।...क्योंकि चेतना का यह साधारण स्तर हमे इसके एक ही स्तर (Dimension) का प्रत्यक्ष बोध प्रदान कर पाता है। यही बात ईश्वर के सम्बन्ध में हमारे विचारों के लिये है। ईश्वर का जो कुछ  हमे दिखाई पड़ता है, वह अंश मात्र है, उसी प्रकार जिस प्रकार हम विश्व का केवल एक अंश (नाम-रूप) देखते हैं और शेष (अस्ति, भाति, प्रिय) मानव बोध से परे है। यही कारण है कि ईश्वर हमें अपूर्ण दिखाई पड़ता है, और हम उसे समझ नहीं पाते। ' उसे ' तथा विश्व को समझने का एकमात्र उपाय यह है कि हम इस बुद्धि एवं चेतना के परे चले जायें।...जब हम इनके परे जाते हैं, तब हमें सामंजस्य की प्राप्ति होती है, इसके पूर्व नहीं।
..सूक्ष्म ब्रह्मांड (यापिण्ड -सूक्ष्म शरीर) के हम केवल एक अंश- मध्य भाग- को ही जानते हैं। अभी हम न अवचेतन को जानते हैं, न अतिचेतन को। हम केवल चेतन को ही जानते हैं। ' यदि कोई व्यक्ति कहता है, 'मैं पापी हूँ ', तो वह मिथ्या कथन करता है; क्योंकि वह अपने को नहीं जानता।' क्योंकि वह जिस भूमि पर है, उसका ज्ञान केवल उसके एक ही पक्ष को स्पर्श करता है। ... यही बात विश्व के सम्बन्ध में है, बुद्धि द्वारा इसके केवल एक अंश को जानना सम्भव है, सम्पूर्ण को नहीं; क्योंकि विश्व का निर्माण अवचेतन, चेतन, अतिचेतन अथवा व्यक्तिगत महत्, सार्वभौम महत्, तथा परवर्ती परिणामों से होता है।"(४:२०६-२०७)
" सापेक्ष-ज्ञान को- ' पूर्ण ज्ञान ' का एक छोटा सा अंश कहा जा सकता है। जिस प्रकार सोने की मुहर को भुना कर रुपया, आना, पैसा में बदला जा सकता है। उसी प्रकार इस पूर्ण ज्ञान की अवस्था (अतिचेतन) से सब प्रकार के ज्ञान में जाया जा सकता है।  इस अतिचेतन अवस्था को ज्ञानातीत या पूर्ण-ज्ञान की अवस्था कहते हैं- चेतन और अचेतन दोनों उसके अर्न्तगत आ जाते हैं। जो व्यक्ति इस पूर्ण ज्ञानावस्था को प्राप्त हो जाता है, उसमे यह सापेक्ष साधारण ज्ञान भी पूर्णरूप से विद्यमान रहता है। जब वह ज्ञान की दूसरी अवस्था - अर्थात हमारी परिचित सापेक्ष ज्ञानावस्था का अनुभव करना चाहता है, तो उसे एक सीढ़ी नीचे उतर आना पड़ता है। यह सापेक्ष ज्ञान तो एक निम्नतर अवस्था है- केवल माया (नाम-रूप या देश-काल-निमित्त) के भीतर ही इस प्रकार का ज्ञान हो सकता है। ( १०:३९७)
" जो ऐसी अवस्था को प्राप्त हो गए हैं, - जहाँ न सृष्टि है, न सृष्ट, न स्रष्टा - जहाँ न ज्ञाता है, न ज्ञान और न ज्ञेय, जहाँ न 'मैं' है, न ' तुम ' और न ' वह ', जहाँ न प्रमाता है, न प्रमेय और न प्रमाण, जहाँ ' कौन किसको देखे '- वे पुरूष सबसे अतीत हो गये हैं, और वे वहाँ पहुँच गये हैं- ' जहाँ न वाणी पहुँच सकती है, न मन ' और श्रुति जिसे नेति,नेति कहकर पुकारती है।....जब प्रह्लाद अपने आपको भूल गये, तो उनके लिए न सृष्टि रही और न उसका कारण, रह गया केवल नाम-रूप से अविभक्त एक अनन्त-तत्व। पर ज्यों ही उन्हें यह बोध हुआ कि मैं प्रह्लाद हूँ, त्योंही उनके सम्मुख जगत और कल्याणमय अनन्त-गुणागार ' जगदीश्वर ' प्रकाशित हो गये। "(४:१२)
" अद्वैतवादी कहते हैं, ' नाम-रूप को अलग कर लेने पर क्या प्रत्येक वस्तु ब्रह्म नहीं है ? ' (४:३३)
" इस अवस्था को प्राप्त कर लेने के बाद....तुम में इर्ष्या अथवा दूसरों पर शासन करने का भाव नहीं रहेगा; तब प्रेम इतना प्रबल हो जायेगा कि मानवजाति को सत्पथ पर चलाने के लिये फ़िर चाबुक कि आवश्यकता नहीं रह जायेगी। "(२:४१)
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " जिसके ह्रदय में अथाह प्रेम है, और जो सभी अवस्थाओं में ' अद्वैत तत्त्व' का साक्षात्कार करता है, वही सच्चा ज्ञानी है। "(१०:३७४)
'नजरें तेरी बदली तो नजारे बदल गए, कश्ती ने रुख मोड़ा तो किनारे बदल गए'! हमें परिणाम की चिंता छोड़कर कर्म करना चाहिए। यदि कर्म पूरे मन से किया गया होगा, तो उसका अच्छा फल मिलना निश्चित है। इसलिए कभी भी कर्म के प्रति उदासीन नहीं होना चाहिए, अपनी क्षमता और विवेक के आधार पर हमें निरंतर कर्म करते रहना चाहिए। यह ध्यान रखना चाहिए कि हमारा कर्म उत्कृष्ट हो।  " कपटधार्मिकः बकः– छद्म-धर्मी बगुला" (Pseudo-righteous Heron)  राम चलते चलते पंपा सरोवर पहुंचे। उन्होंने सरोवर में मंथर गति से चलते हुए बगुलों की ओर इशारा करते हुए लक्ष्मण को कहा कि-“पश्य लक्ष्मण पम्पायां बकोयं परमधार्मिकः। शनैः शनैः पदं धत्ते जीवानां वधशंकया॥” अर्थात लक्ष्मण, देख इस पम्पा सरोवर में बगुला कितना धार्मिक है। कहीं मेरे पांवों से जीवों का वधन न हो जाए, इसीलिए कैसा धीरे-धीरे पैर रखते हुए चल रहा है। यह बात सरोवर की मछलियों ने सुनी। उन्होंने कहा- "सहवासी विजानाति सहवासी विचेष्टितम्।बकोऽयं वर्ण्यते राय तेनाहं निष्कुलीकृतः॥ नहीं नहीं रामजी, आप किसकी प्रशंसा कर रहे हैं ? कोई सहचारी या संगत में रहने वाला ही सहचारी के व्यवहार को देखकर उसके चरित्र को ठीक ठीक पहचान सकता है। जिस बगुले की प्रशंसा की जा रही है। उसने हमारा कुल उजाड़ दिया, सारा कुल नष्ट कर दिया।
" मनुष्य तभी वास्तव में प्रेम करता है, जब वह देखता है कि उसके प्रेम का पात्र कोई क्षुद्र मर्त्य जीव नहीं है। ...वे ही लोग अपने महान शत्रुओं के प्रति भी प्रेमभाव रख सकेंगे, जो जानेंगे कि ये ' शत्रु ' भी साक्षात् 'ब्रह्म' स्वरूप हैं। वे ही लोग अत्यन्त अपवित्र व्यक्तियों से भी प्रेम करेंगे जो यह जान लेंगे कि इन महा दुष्टों (कपटधार्मिकः बकः) के पीछे भी वे ही प्रभु विराजमान हैं। जिनका क्षुद्र अहं एकदम मर चुका है और उसके स्थान पर ईश्वर ने अधिकार जमा लिया है, वे ही लोग जगत के प्रेरक (नेता ) हो सकते हैं। उनके लिये समग्र विश्व दिव्य भाव में रूपांतरित हो जाएगा। (२:४०)
" कोई भी चीज उन्हें बदला लेने के लिये प्रवृत्त नहीं कर सकती। वे सर्वदा अनन्त प्रेमस्वरूप हैं, और प्रेम की शक्ति से सर्व शक्तिमान हो गये हैं। ... योगी के अतिरिक्त अन्य सभी तो मानो गुलाम हैं। खाने-पीने के गुलाम, अपनी स्त्री के गुलाम, अपने लड़के-बच्चों के गुलाम, जलवायु परिवर्तन के गुलाम,इस संसार के हजारों विषयों के गुलाम। जो मनुष्य इन बन्धनों में से किसी में भी नहीं फंसे, वे ही यथार्थ मनुष्य हैं- यथार्थ योगी हैं। जिनका मन साम्य भाव में स्थित है, उन्होंने यहीं संसार पर जय प्राप्त कर ली है। ब्रह्म निर्दोष और सम्भावापन्न है, इसलिए वे ब्रह्म में अवस्थित हैं। " (१०:३९१) गिता ५/१९
स्वामी विवेकानन्द स्वयं प्रश्न उठाते हैं- " इस तरह के ज्ञान की उपयोगिता क्या है ? पहले तो, ज्ञान स्वयं ज्ञानका सर्वोच्च पुरस्कार है ; दूसरे, इसकी उपयोगिता भी है। यह (आत्म-ज्ञान) हमारे समस्त दुखों का हरण  करेगा।...मृत्यु-भय और अपूर्ण वासना ही समस्त दुखों का मूल है। पूर्वोक्त अवस्था प्राप्त होने पर मनुष्य समझ जाता है कि उसकी मृत्यु किसी काल में नहीं है, तब उसे फ़िर मृत्यु-भय नहीं रह जाता।...इस ज्ञान की प्राप्ति के लिए एकमात्र उपाय है, एकाग्रता। " (१:४०) ]
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