गुरुवार, 17 जुलाई 2014

' विवेकानन्द - दर्शनम् ' (4) - श्री नवनीहरण मुखोपाध्यायः

' विवेकानन्द - दर्शनम् '
 ४ 
 ' पाश्चात्य शिक्षा प्रणाली का दोष : छात्रों के ब्रह्मज्ञान के विकास की कोई सुविधा नहीं ! '(६८ वाँ स्वतंत्रता दिवस के बाद भारत की शिक्षा प्रणाली कैसी हो ?)   
(अखिल- भारत- विवेकानन्द- युवमहामण्डलम् अध्यक्षः  श्री नवनीहरण मुखोपाध्यायः विरचित )

[ In this book, within quotes, the words are of Swami Vivekananda. The ideas, of course, are all his.

इस पुस्तिका में, उद्धरण के भीतर लिखे गये शब्द स्वामी विवेकानन्द के हैं। निस्सन्देह विचार भी उन्हीं के हैं। ] 
 
' महाविद्या' श्री श्री माँ सारदा और आप ,
 मैं ...या कोई भी ... 

नमस्ते सारदे देवि दुर्गे देवी नमोsस्तुते |
वाणि लक्ष्मि महामाये मायापाशविनाशिनी ||
नमस्ते सारदे देवि राधे सीते सरस्वति |
सर्वविद्याप्रदायिण्यै संसाराणवतारिणी ||
सा मे वसतु जिह्वायां मुक्तिभक्तिप्रदायिनी ||
सारदेति जगन्माता कृपागङ्गा प्रवाहिनी ||


[ शक्ति का उपासक अन्यान्य साधना-मार्गियों की तरह शक्ति (महाविद्या-माँ सारदा देवी) को 'माया' नहीं मानता बल्कि अपनी 'माँ' समझता है जिसकी गोद में रहकर वह सदैव निर्भय रहता है क्योंकि उसकी माँ तो 'कोटि ब्रह्माण्ड नायिका' है जो प्रतिक्षण उसकी रक्षा तथा पालन करती है। वह इतनी प्रकाशमयी है कि मायारूपी अन्धकार स्वत: ही नष्ट हो जाता है।]
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[ विशुद्ध भावनाज्ञानतत्वप्रख्या च दर्शनम् ]  
४.

अन्नदानं वरं मन्ये विद्यादानं ततः परम् | 
ज्ञानदानं सदा श्रेष्ठं ज्ञानेन हि विमुच्यते ||


1.  'First of all, comes the gift of food; next is the gift of learning, and the highest of all is the gift of knowledge.' (Volume 7, Conversations And Dialogues-IX

2. 'only knowledge can make you free.'

१.  ' पहले अन्नदान; उसके बाद विद्यादान और सर्वोपरि है ज्ञानदान !'
 

२. " कोई भी कर्म तुम्हें मुक्ति नहीं दे सकता, केवल ज्ञान (सत्य) के द्वारा ही मुक्ति हो सकती है।  " 

 प्रसंग : [१.विवेकानन्द साहित्य खण्ड: ६: पृष्ठ १२१ - वार्ता एवं संलाप: २२ (Volume7, Conversations And Dialogues-IX)  २. मिस एस ई. वाल्डो द्वारा अभिलिखित 'देव-वाणी' : (१६ जुलाई, मंगलवार १८९५)]


विषयवस्तु :  ४.१- ' पहले अन्नदान; उसके बाद विद्यादान और सर्वोपरि है ज्ञानदान !' इन तीन भावों का समन्वय इस मठ  से करना होगा। अन्नदान की सेवा करते करते ब्रह्मचारियों के मन में 'Idea of practical work for the sake of others' व्यवहारिक तत्परता के साथ परार्थ कर्म करने की भावना का विकास होगा, तथा शिव मानकर जीव-सेवा का भाव दृढ़ होगा। इससे उनके चित्त धीरे धीरे निर्मल होकर उनमें सात्विक भाव (प्रेम) का स्फुरण होगा। तभी ब्रह्मचारी यथासमय ब्रह्म-ज्ञान पाने की योग्यता एवं संन्यासाश्रम में प्रवेश करने का अधिकार प्राप्त कर सकेंगे। " (विवेकानन्द साहित्य खण्ड: ६: पृष्ठ १२१ - वार्ता एवं संलाप: २२)
स्वामी विवेकानन्द ने पाश्चात्य शिक्षा प्रणाली के सबसे बड़े दोष को रेखांकित करते हुए कहा था - " द मॉडर्न सिस्टम ऑफ़ एजुकेशन गिव्स नो फैसिलिटी फॉर द डेवलपमेंट ऑफ़ द नॉलेज ऑफ़ ब्रह्मण"। 'प्रचलित शिक्षा व्यवस्था में छात्रों के 'ब्रह्मज्ञान' को विकसित करने (अर्थात ब्रह्मवेत्ता मनुष्य बनने) का कोई अवसर ही नहीं है। इराक़ में कट्टर पाशविक शक्तियों का ताण्डव नृत्य के कारण भारत समेत सम्पूर्ण विश्व की मानवता अश्रुपात करती हुई दिखाई दे रही है; और राष्ट्रसंघ निष्क्रिय, निष्प्राण-भेंड़ सा होकर टुकुरटुकुर देख रहा है।
आज सम्पूर्ण विश्व में मानव-जाति के सुयोग्य मार्गदर्शक नेताओं का घोर अभाव परिलक्षित हो रहा है। गीता में भगवान ने वादा किया है -" सम्भवामि युगे युगे!" -अर्थात जब जब मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं का अभाव होगा, मैं इस धरती पर नेता बन कर स्वयं आविर्भूत हो जाऊँगा ! इसलिये विष्णु-सहस्र नाम में भगवान का एक नाम नेता कहा गया है!
हजारों वर्षों से विश्व-मानवता के मार्ग-दर्शन का उत्तरदायित्व भारतवर्ष के उपर ही रहा है। १५ अगस्त २०१४ को हमारे प्रधानमंत्री ने लालकिले से स्वामी विवेकानन्द को उद्धृत करते हुए कहा - " मैं अपनी आँखों के सामने देख रहा हूँ भारत माता जाग चुकी है। भारत की नियति है; विश्वकल्याण!  भारत के मार्गदर्शन में विश्व के जन-जीवन में सुख-शान्ति को पुनः स्थापित करना यदि ईश्वरीय इच्छा है, तो भारत माता को विश्वगुरु के सिंहासन पर बैठाना ही होगा।
हमलोगों ने स्वामी विवेकानन्द कथित उस सिंह-शावक की कहानी पढ़ी होगी जो बचपन से ही भेंड़ों के ही झुण्ड में रहने और पले -बढे होने के कारण अपने को भेंड़ समझने लगा था ? जब सिंह-गुरु ने भेंड़ होने के भ्रम में पड़े सिंह-शावक को भेंड़ों की तरह में-में करते और मृत्यु के भय से थर-थर करते देखा तो उसे उस सिंह-शिशु पर तरस आ गया। सिंह-गुरु ने सोचा कि भ्रम में पड़े सिंह-शावक के देहाध्यास (सम्मोहन या अविवेक) को दूर करने के लिये, सबसे पहले उसमें 'सत्य-मिथ्या विवेक' जाग्रत करके उसे डीहिप्नोटाइज करना होगा अर्थात सम्मोहनावस्था से जगाना होगा। सत्य-मिथ्या विवेक प्रदान करने में समर्थ परमहंस सिंह-गुरु उस सिंह-शावक को डीहिप्नोटाइज ( 'Dehypnotize') करने के लिये एक तालाब के किनारे ले गया। 

और बोला, ' पानी में तुम मेरे चेहरे से अपने चेहरे को मिलाकर देखो- दोनों का चेहरा हांडी जैसा लगता है न ? फिर कहीं से थोड़ा मांस लाकर चखा दिया -और बोला तुम में-में करना छोड़ो और मेरे जैसा दहाड़ कर दिखलाओ ! जैसे  सिंह-शावक के मुख से वह दहाड़ निकली, उसका भेंड़पना (देह्ध्यास) मिट गया; और फिर वह भेंड़ों  झुण्ड में न लौटकर अपने परमहंस सिंह-गुरु के संग वन की ओर चल पड़ा। 
भारतमाता को पुनः जगत-गुरु के आसन पर विराजमान कराने के उद्देश्य से ही भारत में बेलपत्र के तीन  पत्ते  -' श्रीरामकृष्ण परमहंस, माँ सारदा देवी एवं स्वामी विवेकानन्द ' का आविर्भाव हो चुका है! उपरोक्त सिंह-शावक की कथा में वर्णित परमहंस सिंह-गुरु वह समर्थ मार्गदर्शक 'नेता' है, जो अपने 'ब्रह्मचारी' अर्थात आत्मजिज्ञासु शिष्य को 'सत्य-मिथ्या विवेक' देकर, ब्रह्मविद् मनुष्य बनने और बनाने का मार्ग दिखला सकता है।
स्वामी विवेकानन्द भावी पीढ़ी के युवक-युवतियों को परमहंस सिंह-गुरु श्री रामकृष्ण एवं माँ सारदा रूपी आदर्श (मॉडल या साँचे) में ढालकर विश्व-मानवता का आध्यात्मिक मार्ग-दर्शन करने में समर्थ नेताओं या ऋषितुल्य शिक्षक-शिक्षिकाओं का निर्माण करना चाहते थे। वे कुछ ब्रह्मचारी या आत्मजिज्ञासु छात्र-छात्राओं को ब्रह्मविद् मनुष्य बनने और बनाने का प्रशिक्षण देने के लिये वे एक ऐसे केन्द्रीय ज्ञान-मन्दिर या ' टेम्पल ऑफ़ लर्निंग' की स्थापना करना चाहते थे जहाँ 'चरित्र-निर्माण की प्रक्रिया और मनःसंयोग ' का प्रशिक्षण देने में समर्थ ऋषितुल्य युवा-अध्यापकों का निर्माण किया जा सके।
इसके लिये स्कूलों में प्रचलित शिक्षा व्यवस्था के साथ साथ, प्राचीन गुरु-शिष्य परम्परा पर आधारित ' मैन मेकिंग एंड कैरेक्टर बिल्डिंग एजुकेशन'- " Be and Make" अर्थात स्वयं (चरित्रवान) 'मनुष्य' बनो और दूसरों को भी 'मनुष्य' बनने में सहायता करो- ' बनो और बनाओ ' नामक शिक्षक-प्रशिक्षण कार्यक्रम या 'लीडरशिप ट्रेनिंग' को बाहर से (गैर सरकारी माध्यम से ) देने की व्यवस्था करनी होगी।
जिस गुरु-शिष्य परम्परा के अनुसार 'सत्य-मिथ्या विवेक' जाग्रत करके सामान्य मनुष्यों के देहाध्यास (सम्मोहन या अविवेक) को दूर करने या ' डी-हिप्नोटाइज' करने में समर्थ 'नेता' बनने और बनाने का प्रशिक्षण लीडरशिप ट्रेनिंग पद्धति को स्वामी विवेकानन्द ने अपने गुरु प्रथम युवा मार्गदर्शक नेता श्रीरामकृष्ण परमहंस के सानिध्य में रहते हुए सीखा था। उसी  प्राचीन गुरु-शिष्य परम्परा पर आधारित शिक्षक-प्रशिक्षण कार्यक्रम के माध्यम से बहुत बड़ी संख्या में मनःसंयोग (ब्रह्मविद्या, पराविद्या या राजयोग विद्या) का प्रशिक्षण देने में समर्थ सत्पुरुषों और मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं या ऋषितुल्य शिक्षकों का निर्माण करना होगा। उसी शिक्षक-प्रशिक्षण कार्यक्रम का सिलेबस यहाँ विस्तार से समझाया गया है।
ईसाई और मुसलमानों के मतानुसार, ईश्वर ने देवदूत और अन्य सभी प्रकार के बड़े-छोटे उड़ने वाले, डंक मारने वाले जीव-जन्तुओं की सृष्टि करने के बाद मनुष्य की सृष्टि की। और मनुष्य का सृजन करके ईश्वर बड़े प्रसन्न हुए, क्योंकि सब प्रकार के शरीरों में मानव-शरीर ही श्रेष्ठ है, मनुष्य से श्रेष्ठतर और कोई नहीं है। यह देखकर ईश्वर ने सभी देवदूतों को बुलवा भेजा, और मनुष्य के सामने सिर झुकाकर अभिनन्दन और प्रणाम करने के लिये कहा। इबलीस को छोड़कर बाकी सभी फरिश्तों ने वैसा किया। इसलिये ईश्वर ने इबलीस कहा- दूर हटो शैतान ! इससे वह शैतान बन गया। अर्थात जो 'मनुष्य' के सामने आदर से सिर नहीं झुकाता वह शैतान है।
हमारे पुराणों में भी कहा गया है -  सृष्ट्वा पुराणि विविधानि अजया आत्मशक्त्या वृक्षान् सरीसृप-पशून्-खग-दंशमत्स्यान्। तैः तैः अतुष्टहृदयः पुरुषं विधाय ब्रह्मावलोकधिषणं मुदमाप देवः॥२८॥  

सभी प्राणियों में मनुष्य ही एकमात्र ऐसा जीव है जो ब्रह्मवेत्ता बनने का अधिकारी है, जो अपने बनाने वाले 
ईश्वर या ब्रह्म को जान लेने में समर्थ है, इस मनुष्य की रचना करके सृष्टा प्रसन्न हो गए ! गुरु वह समर्थ मार्गदर्शक 'नेता' हैं, जो अपने शिष्य को ब्रह्मविद् बनने और उससे भी ऊपर भीतर में छिपे देवत्व को विकसित करने मार्ग दिखला देता है। वह भोगों की समस्त इच्छाओं को नियंत्रित करने के लिये मन पर लगाम कसने अर्थात मन को एकाग्र करने की पद्धति सिखलाकर, हमें जगत के इस मायावी प्रपंच से बचाकर उस परम ‘सत्य’ की ओर ले जाता है। बिना गुरु के ब्रह्म को जान पाना, अर्थात ब्रह्मविद् मनुष्य बनना असम्भव हैं। इसीलिये भारतीय-संस्कृति में गुरु का स्थान परमेश्वर से भी ऊँचा माना गया है। संत कबीर का एक प्रसिद्ध दोहा है-

‘‘गुरु गोविन्द दोउ खड़े, काके लागू पांय
बलिहारी गुरु आपणे, गोविन्द दिओ मिलाय।’

अर्थात मेरे सामने गुरु और गोविन्द (निराकार ब्रह्म) दोनों खड़े हैं। मैं दोनों को ही पाना चाहता हूं। लेकिन मैं उस गुरु (मार्गदर्शक नेता) पर बलिहारी जाता हूँ, जिन्होंने मुझे गोविन्द से मिला दिया।  क्योंकि गुरु परिवर्तनशील होने के कारण इस 'मिथ्या’ जगत और अपरिणामी ब्रह्म के बीच अन्तर को जानने और पहचानने की विवेक-दृष्टि प्रदान कर ब्रह्मवेत्ता मनुष्य बना देता है। 
आदिगुरु शंकराचार्य ने अनुभव किया कि ज्ञान की अद्वैत भूमि पर जो परमात्मा निर्गुण निराकार ब्रह्म है, वही द्वैत की भूमि पर सगुण साकार है। उन्होंने निर्गुण और सगुण दोनों का समर्थन करके निर्गुण तक पहुँचने के लिए सगुण की उपासना को अपरिहार्य सीढ़ी माना। ज्ञान और भक्ति की मिलन भूमि पर यह भी अनुभव किया कि अद्वैत ज्ञान ही सभी साधनाओं की परम उपलब्धि है। उन्होंने ‘ब्रह्मं सत्यं जगन्मिथ्या’ का उद्घोष भी किया और शिव, पार्वती, गणेश, विष्णु आदि के भक्तिरसपूर्ण स्तोत्र भी रचे, ‘सौन्दर्य लहरी’, ‘विवेक चूड़ामणि’ जैसे श्रेष्ठतम ग्रंथों की रचना की। प्रस्थान त्रयी के भष्य भी लिखे। अपने अकाट्य तर्कों से शैव-शाक्त-वैष्णवों का द्वंद्व समाप्त किया और पंचदेवोपासना का मार्ग प्रशस्त किया। उन्होंने आसेतु हिमालय संपूर्ण भारत की यात्रा की और चार मठों की स्थापना करके पूरे देश को सांस्कृतिक, धार्मिक, दार्शनिक, आध्यात्मिक तथा भौगोलिक एकता के अविच्छिन्न सूत्र में बाँध दिया। उन्होंने समस्त मानव जाति को जीवन्मुक्ति का एक सूत्र दिया- 
दुर्जन: सज्जनो भूयात सज्जन: शांतिमाप्नुयात्। 
शान्तो मुच्येत बंधेम्यो मुक्त: चान्यान् विमोच्येत्॥
अर्थात दुर्जन सज्जन बनें, सज्जन शांति बनें। शांतजन बंधनों से मुक्त हों और मुक्त अन्य जनों को मुक्त करें।
ऐसा नेता (सद्गुरु) अपने अनुयायियों को दुर्जन को सज्जन बनने का प्रशिक्षण कैसे देता है ? क्योंकि किसी सामान्य या दुर्जन मनुष्य को किसी ब्रह्मवेत्ता गुरु के सानिध्य में रहकर अपने ब्रह्मज्ञान को विकसित करके चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने का प्रशिक्षण नहीं प्राप्त होता वह मनुष्य की आकृति में एक पशु ही रहता है। कहा गया है -
आहार निद्रा भय मैथुनं च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम् ।
धर्मो हि तेषामधिको विशेष: धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः ॥

आहार, निद्रा, भय और वंश-विस्तार की चेष्टा - सभी प्राणियों मे समान रूप से पाये जाते हैं। मनुष्य शरीर में जन्म लेने का वैशिष्ट्य - धर्म का पालन करने में ही है। ' धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः '--यदि हमलोग धर्म का पालन न कर सकें, तो भले ही हमारा ढाँचा मनुष्य का हो, किन्तु ' मनुष्य' कहलाने के लायक नहीं होंगे। अपने आप को हमलोग किस श्रेणी में देखते हैं? हमलोग क्या हैं -मनुष्य हैं अथवा पशु? यदि मनुष्य हैं, तो क्या हमलोग धर्म-पालन करते हैं ?
धर्म किसे कहते हैं ? रामनवमी-मुहर्रम में डांडा भांजना? या जन्माष्टमी में दही-हाण्डी फोड़ना ? धार्यते इति धर्म: अर्थात धर्म चरित्र के उन गुणों को कहते हैं जिन्हें अपने जीवन धारण करने से हमें मनुष्य कहलाने का अधिकार प्राप्त होता है। हम चाहे हिन्दू हों या मुसलमान या अन्य किसी सम्प्रदाय मेँ जन्म ग्रहण क्यों न किये हों; बाहरी वेश-भूषा चाहे जैसी भी हो, हमारा चरित्र ही हमारे मनुष्यत्व को धारण किये रहता है। हम अपने जीवन मेँ जिन अनुशासनों का पालन करते हैं, प्रति मुहूर्त अपने आचरण में जिन यम (five don't doe's )- नियम (5 doe's) आदि का अभ्यास करते रहने में समर्थ होते हैं, चरित्र के वे गुण ही हमलोगों के मन को पशु या राक्षस बनने की सीमा मेँ जाने से रोकता है, मनुष्यत्व की सीमा मेँ धारण किये रखता है; और उसी को धर्म कहते हैं।
 यदि हमलोग इस धर्म का पालन नहीं करें, तो हमलोग पशु बन जायेंगे। पशु प्रकृति का अनुकरण करता है, प्रकृति के विरुद्ध संग्राम नहीं करता। पशु अपने जैविक-प्रवृत्तियों को तुष्ट करने के लिये जितना अवश्यक हो उतना ही संग्राम करता है। केवल मनुष्य ही है जो प्रकृति के विरुद्ध संग्राम कर्ता है। और अपने आदर्श नेता के निर्देशानुसार मन को जीतकर अंतर्निहित देवत्व या ब्रह्मत्व को विकसित कर- 'सद्ब्रह्मात्मविद् मनुष्य' बन सकता है। यदि मनुष्य अपने भीतर मे छिपे देवत्व को विकसित नहीं कर सका-तो उसका मनुष्य जीवन धारण करना ही व्यर्थ हो गया, सार्थक नहीं हुआ। हमलोग मनुष्य क्यों बनें, पशु क्यों नहीं बने ? इसिलिये हमलोगों को मनुष्य के जैसा आचरण करके दिखलाना होगा कि हमलोग पशु नहीं हैं।   
ऐसा सद्गुरु या सत्पुरुष अथवा मानवजाति का मार्ग दर्शक नेता कैसा होता है जो पशुमानव को देवमानव में रूपान्तरित कर सके ? आचार्य शङ्कर मानवजाति के मार्गदर्शक नेता का गुण बतलाते हुए कहते हैं  -
१. " परमकारुणिकम् " - बिना किसी अपेक्षा के ही सब पर करुणा करने वाले ।
२. " सद्ब्रह्मात्मविदम् " - उस मूल " एकमेवाद्वितीयम् सत् " को अपनी आत्मा के रूप में जानने वाले ।
३. " विमुक्त बन्धनम् " - जिसके जीवन में कोई बन्धन न हो , जो स्वयं मुक्त हो और दूसरों को बन्धनमुक्त कर सके ।
४. " ब्रह्मनिष्ठम् " - जो ब्रह्मनिष्ठ हो । जिसकी बुद्धि इस निश्चय से विचलित न होती हो कि " मैं ब्रह्म हूँ "  तथा मुझ अखण्ड ब्रह्म में यह दृश्यमान जगत् सत् से व्यतिरिक्त होकर कुछ नहीं {असत्} है ।

शिष्य में भी ये चार लक्षण तो होने ही चाहिए - पण्डित हो , बताये हुए रास्ते को भली प्रकार याद भी रखे और अन्य मार्गोँ को उत्सुकतावश ग्रहण न करे अन्यथा वह मंजिल पर नहीं पहुँच पायेगा । चौथे उसे अपने लक्ष्यवेध { अपने मूल ग्राम गांधार यानी सत्स्वरूपावस्थिति } की व्याकुलता होनी चाहिए । जैसे भुखा - प्यास व्यक्ति व्याकुल होकर अन्न - जल के लिए चिल्लाता है वैसी व्याकुलता सद्गुरु की प्राप्ति के लिये होनी चाहिए ।
जब यह मोहान्ध व्यक्ति इस देहारण्य में पड़कर चिल्लाता है - मैं अमुक का पुत्र हूँ , ये मेरे बान्धव हैं, मैं सुखी हूँ , मैं दुःखी हूँ , मैं मूढ़ हूँ , पण्डित हूँ , धार्मिक हूँ , बुद्धिमान हूँ , बन्धुमान हूँ , मैं उत्पन्न हुआ हूँ , पुण्यात्मा हूँ , मरने वाला हूँ , पापी हूँ , पुण्यात्मा हूँ , अरे मेरा पुत्र मर गया , मेरी पत्नी या पति मर गया , अब मैं कैसे जिन्दा रहूँगा ?  मैंने पाप किये हैं अवश्य नरक में जाऊँगा , मैंने पुण्य किये हैं अवश्य स्वर्ग जाऊँगा । इसी प्रकार सैकड़ों अनर्थ जालों से युक्त होकर वह रोता हुआ इधर - उधर भटकता है कि कोई उसे इन दुःखों से मुक्त कर दे। तब कोई महापुण्य उदय होने पर किसी सत्पुरुष ( विवेकानन्द या श्रीनवनीहरण मुखोपाध्याय) की प्राप्ति हो जाती है ।
ऐसा नेता (सद्गुरु) अपने अनुयायियों को सांसारिक विषयों में दोष - दर्शन का मार्ग (सत्य-मिथ्या विवेक) दिखाता है जिससे वह पुरुष पहले तो विरक्त हो जाता है । फिर उसको वह सत्पुरुष समझाता है –
" नासि त्वं संसारि अमुष्य पुत्रत्वादि धर्मवान्। सद् यत् त्वमसि ।"
 -अरे तू संसारी नहीं है और न किसीके पुत्रत्वादि धर्म वाला है, जो सत् है वही तू है । इस प्रकार के उपदेश से , आदेश से अविद्यामय मोह - पट जो उसकी बुद्धि पर पड़ा हुआ था वह हट जाता है और वह क्रम - क्रमसे ज्ञान की भूमिकाओं को पार करता हुआ अपने सद् - रूप (गांधार देश) इन्द्रियातीत अवस्था  पहुँचकर अपने सदात्माको प्राप्त होकर अपने गुरुजी (नेता) के समान सुखी और शान्त (नेता) हो जाता है। अर्थात दूसरों को मनःसंयोग का प्रशिक्षण देने में समर्थ शिक्षक या नेता बन जाता है।
अतः श्रुतिभगवती ने ठीक ही कहा है कि " आचार्यवान् पुरुषो वेद "-  आचार्यवान पुरुष ही सत्य को जान पाता है।  जिसको गुरु-शिष्य परम्परा (रामकृष्ण-विवेकानन्द शिक्षक प्रशिक्षण पद्धति ) के अनुसार सत्ततत्त्व का ज्ञान है ऐसे अकारण ही करुणा करने वाले सद्गुरु (नेता) को प्राप्त करके ही कोई शिष्य अपने उस सत्स्वरूप का अनुभव कर पाता है ।
उद्दालक ऋषि कहते हैं, " जो कालातीत अविनाशी सत्ता (ह्रदय में विराजमान प्रेमस्वरूप सच्चिदानन्द 'T' ) है - वही सत्य है ; वह आत्मा है;  हे श्वेतकेतु ! - " तत्त्वमसि ” तू , अर्थात् तेरा आत्मा ” तत्त्व ” है , तेरा शरीर या मन (अहम् ) 'तत्त्व' – अविनाशी "वस्तु ” नहीं । जैसे जल में डाला गया लवण अर्थात् नमक घुल जाने से दृष्टिगोचर नहीं होता , वैसे ही ब्रह्म सर्वत्र व्याप्त होनेपर भी दृष्टिगोचर नहीं होता । जैसे हवा या हमारा यह मन अत्यंत सूक्ष्म और रुपरहित होने के कारण चक्षु से गृहीत नहीं होता, किन्तु उसके कार्यों को देखकर उसका अनुभव किया जा सकता है; उसी प्रकार वह परम सत्य (निरपेक्ष ब्रह्म 'T') भी ” न चक्षुषा गृह्यते ” रूपरहित होने  कारण चक्षु से गृहीत नहीं होता ।

उसे केवल अपने ह्रदय में ही अनुभव किया जा सकता है। ज्ञान होने पर जनक के प्रति अतिधन्य श्री याज्ञवल्क्य महर्षि ने यही कहा ," अभयं वै जनक प्राप्तोसि" । हे जनक ! निश्चय है तू अभय पदको प्राप्त हुआ है, ' ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति'- अर्थात ब्रह्मवेत्ता मनुष्य ब्रह्म ही होता है ! ” तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः ” एकत्व देखनेवाले को मोह कहाँ और शोक कहाँ? क्योंकि " द्वितीयाद्वै भयं भवति " अपने से कोई दूसरा (पराया) होगा तो वह भय का कारण जरूर बनेगा ।
अभय पद अद्वितीय पद है इसलिये अद्वितीय परमात्मा ही एकमात्र अभय है । जब हम दूसरे प्राणियों को अभय देते हैं तो वस्तुतः उस काल में हम ब्रह्म के साथ अपने अभेद का चिन्तन ही करते हैं । अभयदान का अर्थ प्रायः आदमी समझ लेता है कि " मैं किसी को कुछ नहीं कहूँगा तो अभय हो गया । " यह भी कह देते हैं कि " मैं अपने बच्चों को कुछ भी नहीं कहता , उनको पूरी स्वतन्त्रता दे रखी है फिर भी पता नहीं क्यों वे घर को अपना नहीं समझते। " यह शिकायत बहुत से माता - पिताओं की होती हैं। 
कुछ न कहना अभय का स्वरूप नहीं है । आप जब उनको दूसरा (पराया ) समझेंगे तभी आप उनसे कुछ नहीं कहेंगे । आवश्यकता से अधिक कहना भी द्वितीय - भाव (पराया समझना ) और बिल्कुल न कहना भी द्वितीयभाव (परायापन) है। विचार करें कि आपके मन में जब कोई बुरा विचार आता है तब आप क्या अपने मन को कहते हैं कि " खूब अच्छी तरह डटकर बुरी बात सोच ले " या तुरन्त उस मन को आप कहने लगते हैं कि " अरे मन , क्यों ऐसा करता है ? इस प्रकार की बात से न तेरा इस लोक में कोई फायदा है , न परलोक में कोई फायदा होना है । फिर क्यों बेकार का चिन्तन करता है - मेरे बाबा ? "
 इसी प्रकार शरीर ठीक से क्रिया नहीं करता तो शरीर को भी आदमी दण्ड देता है। जिसको पालथी मारकर बैठने की आदत ज्यादा न हो वह कभी पालथी मारकर बैठता है तो उसका पैर सो जाता है । सुन्न हो जाता है । वह उस पैर को घूँसा मारता है कि यह पैर ठीक हो जाये । पैर ने ठीक से काम नहीं किया तो उसे घूँसा मारता हैं लेकिन क्या ऐसा करने पर पैर के प्रति उसका द्वितीयभाव है?
मनुष्य वहीं कुछ नहीं कहता है जहाँ द्वितीयभाव (परायापन का  भाव)  होता है । जिस किसी को अपने से पराया  समझेगा उसे दण्ड नहीं देगा । घर में आपका अपना लड़का समय पर भोजन करने को न आ जाये तो उसे आप कहते हैं " यह क्या बात है ? समय पर भोजन करने नहीं आते ? " घर में कोई मेहमान आया हो तो क्या उसे भी आप कहते हो कि " समय पर भोजन करने आया करो , यह क्या खेल मचा रखा है ? " नहीं कहते , क्योँकि मेहमान के प्रति " यह दूसरा है " यह भाव है । घर का कोई आदमी देरी से उठता है तो आप टोकते हैं। बाहर से आये मेहमान को नहीं टोकते क्योँकि द्वितीय - भाव है ।
प्रायः जो आधुनिक लोग यह समझ लेते हैं कि " किसी को मैंने कुछ नहीं कहा तो अभय दे दिया " वह अभय नहीं दिया , भय दे दिया क्योँकि " द्वितीयाद्वै भयं भवति " उसके मन में तो आपने द्वितीयता का भाव दे दिया कि आपने उसे अलग समझ रखा है । जब उसको अपने से द्वितीय नहीं समझेंगे तभी उसे अभयदान मिलेगा ।
जब उसे द्वितीय नहीं समझेंगे तब उससे आपको भी भय नहीं होगा । तात्पर्य है कि जिस किसी से व्यवहार हो उसे मुझसे और मुझे उससे भय न हो - यही अभयदान है । उससे आप डरते रहें और कहें कि " मैँ उसे अभय दे रहा हूँ " यह नहीं हो सकता क्योँकि द्वितीयभाव (परायापन) की निवृत्ति नहीं है । अभय जो परमात्मा का स्वरूप है उसका दान बहुत बड़ा दान है ।
जैसे - जैसे प्राणियों (अपने नाते-रिश्तेदारों ) को आप अभयदान देते जायेंगे वैसे - वैसे क्या होगा ? महामुनि नारद अभयदान का बड़ा विचित्र फल बताते हैं " अभयं सर्वभूतेभ्यो दत्वा नैष्कर्म्यमाचरेत् " जब तुम दूसरे प्राणियों को अभय देते हो तब उनके साथ तुम्हारा जो व्यवहार है वह " नैष्कर्म्य " हो जाता है ।
गुरु विवेकानन्द कहते हैं - मनुष्य के तीन प्रमुख उपादान हैं - ' शरीर, मन और ह्रदय ' या 3H - हैण्ड,हेड और हार्ट ! कहते हैं । इनमें से शरीर और मन सतत -परिवर्तनशील होने  कारण नश्वर है- इसलिये मिथ्या है! प्राण ही मन को बाँधने वाला खूँटा है । यह प्राण ही उसका (मन-बुद्धि-चित्त-अहंकार का) सत् रूप है जिसमें जीव सुप्तावस्था के समय पहुँच जाता है ।  " मनोऽस्य दैवं चक्षुः " - मन इस आत्मा का दिव्य चक्षु है। जबकि ह्रदय में रहने वाली सहानुभूति या प्रेम अविनाशी है और कालातीत है-इसीलिये सत्य है ईश्वर को प्रेम स्वरूप कहा गया है। वेदों में कहा गया है कि उसकी (ह्रदय, प्रेम, ब्रह्म या सत्य की) शक्ति पाकर ही इन्द्रियाँ - मन ये सब वर्क करते हैं।

 ज्ञान-शक्ति-भक्ति [नॉलेज एंड पावर एंड डिवोशन '3H' --  'बुद्धिबल, बाहुबल और आत्मबल'] सभी मनुष्यों में पूर्ण भाव से अन्तर्निहित है, किन्तु हम विभिन्न व्यक्तियों में उनके विकास की न्यूनाधिकता को देखकर किसी को बड़ा तो किसी को छोटा मानने लगते हैं। सभी प्राणियों के मन पर एक आवरण पड़ा है, जो उसके सच्चे स्वरूप की अभिव्यक्ति को दृष्टि से ओझल कर देता है। वह हटा कि बस सब कुछ हो गया।
मन की चहारदीवारी (अहं) को एक बार तोड़कर तुम यदि एक बार निकल गये, " व्हाटेवर यू वांट, व्हाटेवर यू विल डिजायर, विल कम टु पास. "तो तुम्हारी जो भी इच्छा होगी, जो भी तुम चाहते हो, वह सब तुम्हारे पास आ जाएगा!" 

'निरवधिगगनाभम्' अनंत के साथ एकात्मता का अनुभव करते ही तू उस भूमानन्द में प्रतिष्ठित हो जायगा जो आसमान की तरह असीम है ! जड़-चेतन (सोल एंड मैटर) में सर्वत्र अपनी उपस्थिति को देखकर तू दंग रह जायेगा ! स्तब्ध होकर तू गूँगा (स्ट्रक डम्ब) बन जायेगा ! 'होल सेंशेन्ट एंड इन्सेशेन्ट वर्ल्ड'  सम्पूर्ण स्थावर (जड़) और जंगम (सचेतन) सम्पूर्ण जगत तुझे अपनी ही आत्मा जैसा अनुभव होने लगेगा। उस समय जिस प्रकार तू अपने आप के प्रति दया (करुणा) दिखाता है, उतनी ही करुणापूर्ण नेत्रों से तू सबको देखे बिना रह ही नहीं सकेगा। वास्तव में यही तो व्यवहारिक वेदान्त है !
(कर्म के बीच में वेदान्त की अनुभूति करते हुए शिवज्ञान से जीव सेवा करना है!) Do you understand me? समझते हो भई ? वह ब्रह्म एक होकर भी व्यावहारिक रूप से अनेक रूपों में हमारे समक्ष विद्यमान हैं! 'नाम' तथा 'रूप' ही इस सापेक्षता (माया) का कारण है। जिस प्रकार घड़े का नाम-रूप छोड़ देने से क्या दीखता है ? -केवल मिट्टी, जो उसकी वास्तविक सत्ता है। इसी प्रकार भ्रम में पड़कर ही तू यह सोचता है कि मैं एक घड़ा (घट या शरीर), एक पट, एक मठ को देख रहा हूँ।
प्रतीयमान जगत इसी 'nescience' (नेशाइन्स) अविद्या या अज्ञान (इग्नोरेन्स विशेष रूप से रूढ़िवादी मान्यताओं का)  पर निर्भर है, जो ज्ञान को ढँक लेती है; किन्तु वास्तव में उसका अस्तित्व ही नहीं है। अर्थात ज्ञान-प्रतिबन्धक यह जो अज्ञान है, उसकी कोई वास्तविक सत्ता नहीं है, फिर भी उसी को लेकर लोक-

व्यवहार चलता रहता है। इस वैविध्य-पूर्ण जगत में स्त्री-पुत्र, देह-मन आदि जो कुछ भी भिन्नता दिख रही है, वह नाम-रूप की सहायता से अविद्या द्वारा निर्मित है।  ''ऐज सून ऐज दिस नेशाइन्स इज रिमूव्ड "  ज्योंही अज्ञान का पर्दा हटा, त्योंही ब्रह्म सत्ता की अनुभूति हो जायगी।
शिष्य - यह अज्ञान (नेशाइन्स) आया कहाँ से ?
स्वामीजी - कहाँ से आया यह बाद में बताऊँगा। तू जब रस्सी को साँप मानकर भय से भागने लगा था - तब क्या रस्सी साँप बन गयी थी ? -या तेरी अज्ञानता (ignorance) ने ही तुझे उस प्रकार भगाया था?
शिष्य- अज्ञता ने ही वैसा किया था ।
स्वामीजी -तो फिर सोचकर देख, तू जब फिर रस्सी को रस्सी जान सकेगा, उस समय अपनी पहलेवाली अनभिज्ञता का चिन्तन कर तुझे हँसी आयगी या नहीं, नाम-रूप मिथ्या जान पड़ेंगे या नहीं?
शिष्य -जी हाँ !
स्वामीजी - तब, नाम-रूप मिथ्या हुए कि नहीं ? इस प्रकार ब्रह्म-सत्ता (अस्ति-भाति-प्रिय) ही एकमात्र सत्य रह गयी। केवल अज्ञान के धुंधले प्रकाश (twilight-गोधूलि वेला) में ही तू (नाम-रूप के भ्रम ) सोचता है कि यह मेरी पत्नी है, वह मेरी बहन है, मेरा पुत्र है, यह मेरा अपना है, वह पराया है! और इसी मान्यता के कारण तू उस आत्मा के अस्तित्व का अनुभव नहीं कर पाता, जो प्रत्येक जड़-चेतन का प्रकाशक है। ' व्हेन थ्रू दि गुरु'ज  इन्स्ट्रक्शन्स एंड योर ओन कन्विक्शन'-जिस समय तू गुरु के उपदेश और अपने विश्वास के द्वारा इस नाम-रूपात्मक जगत को न देखकर, इसकी मूल सत्ता का ही अनुभव करेगा, उस समय आब्रह्मस्तम्ब ' फ्रॉम दि क्रिएटर डाउन टु अ क्लम्प ऑफ़ ग्रास' सभी पदार्थों में तुझे आत्मानुभूति होगी। उसी समय -गुरुदेव की कृपा से हृदय की ग्रन्थि छिन्न हो जाती है, सब संशय कट जाते हैं और सर्व कर्म नष्ट हो जाते हैं;वाली स्थिति प्राप्त होती है।
' भिद्यते हृदयग्रन्थिः छिद्यन्ते सर्वसंशयाः। क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन् दृष्टे परावरे॥'
ह्रदय-ग्रन्थि कट जाती है और समस्त संशय नष्ट हो जाते हैं ' - मुण्डक उपनिषद् २.२.८
शिष्य - महाराज मुझे इस अज्ञान 'nescience' (माया) के आदि-अन्त की बातें जानने की इच्छा है। (उस सिंह-शावक में अपने को भेंड़ समझने का भ्रम कैसे उत्पन्न हो गया था ?)
स्वामीजी - (देहाध्यास के कारण सम्मोहित होकर ? ) जो वस्तुएं बाद में नहीं रहती वह झूठी (मिथ्या) है, यह तो समझ गया ? जिसने वास्तव में ब्रह्म को जान लिया है, वह कहेगा- अज्ञान फिर कहाँ है ? वह रस्सी को रस्सी ही देखता है, साँप नहीं। जो लोग रस्सी में साँप देखते हैं, उन्हें भयभीत देखकर उसे हँसी आती है। इसीलिये अविद्या माया (नेशाइन्स -नामरूप द्वारा उत्पन्न सापेक्षिक या प्रतीयमान जगत) का वास्तव में कोई 'एब्सलूट रियलिटी' निरपेक्ष यथार्थता नहीं है।  अज्ञान को ' नाइदर रियल, नॉर अनरियल , नॉर अ मिक्सचर ऑफ़ बोथ" 'सत्' भी नहीं कहा जा सकता, 'असत्' भी नहीं कहा जा सकता-न तो दोनों का मिश्रण ही कह सकते हैं।
जो चीज (नाम-रूप ) इस प्रकार असत्य (मिथ्या) प्रमाणित हो चुकी हो, उसके सम्बन्ध में क्या प्रश्न है, और क्या उत्तर है ? उस विषय में प्रश्न करना भी उचित नहीं हो सकता। क्यों, यह सुन- यह प्रश्न भी उसी नाम-रूप या या देश-काल (टाइम एंड स्पेस) की भावना से किया जा रहा है। जो ब्रह्म-वस्तु, नाम-रूप या देश-काल से परे है, उसे प्रश्नोत्तर द्वारा कैसे समझाया जा सकता है ? इसीलिये शास्त्र, मंत्र आदि व्यावहारिक रूप से (रिलेटिवली-अपेक्षाकृत रूपसे ) सत्य हैं, किन्तु परमार्थिक रूप से (एब्सलूट्ली) नहीं ! अज्ञान का कोई स्वरुप ही नहीं है, उसे फिर समझेगा क्या ? जब ब्रह्म का प्रकाश होगा, जब वे स्वयं को प्रकट कर देंगे, उस समय फिर इस प्रकार के प्रश्न करने का अवसर ही न रहेगा।
श्रीरामकृष्ण की ' मोची-मुटिया '-'शूमेकर कुलीमज़दूर ' वाली कहानी सुनी है न ? - एक बड़े विख्यात पण्डित जी अपने किसी चेले के गाँव में जा रहे थे। उन्हें बोझ उठाकर साथ चलने के लिये किसी OBC (अन्य पिछड़ा वर्ग) में जन्मे एक कुली-नौकर (नाई) की तलाश थी। बहुत खोजने पर भी उन्हें OB C में जन्मा कोई व्यक्ति (नाई, धोबी, माली, कुम्हार, कहार आदि) नहीं मिला तो अन्त में उन्होंने एक SC (चमार) को ही अपने साथ ले लिया। वह व्यक्ति पहले तो उनके साथ जाने से इस आधार पर इनकार कर दिया कि वह एक अछूत जाति (untouchable caste) में जन्मा व्यक्ति है। किन्तु ब्राह्मणदेवता उसको अपने साथ ले जाने पर जोर देने लगे, उन्होंने उसे सिखाया कि यदि तुम बिल्कुल चुप रहोगे तो किसी को तुम्हारी जाति का पता ही नहीं चलेगा। अन्त में वह व्यक्ति साथ चलने को तैयार हो गया।
और जब वे गाँव पहुँचे तो पण्डितजी अपने जूते खोलकर नित्यक्रम के अनुसार संध्या-वंदन करने लगे। वह नौकर भी उनके पास ही बैठा रहा। पण्डित जी को वापस लौटते देखकर चेले ने इस नौकर को हुक्म दिया, " अरे जा, वहाँ से पण्डित जी के जूते तो ले आ। " पण्डित जी ने नौकर को जैसा सिखाया था, उसने सोचा कि चुपचाप बैठे रहना ही अच्छा है, अतः उसने आदेश को अनसुना कर दिया। चेले ने दुबारा आदेश दिया, पर वह फिर भी नहीं उठा और न कुछ बोला ही। इस पर उसे बड़ा क्रोध आया, उसने डाँटते हुए चिल्लाकर कहा - " तूँ चमार है (शूमेकर है) क्या रे, कहने से भी नहीं उठता ? " वह चमार-नौकर हक्का-बक्का होकर चीखा - " ऐ बाबा, मेरी असली जाति का इनको पता चल गया है, अब यहाँ मैं और नहीं ठहर सकता। " बस वह भागा, और ऐसा भागा कि उसका पता ही न चला। ठीक उसी प्रकार जब माया पहचान ली जाती है तो वह भी भाग जाती है, एक क्षण भी नहीं टिकती। "
शिष्य- परन्तु महाराज, यह अज्ञान आया कहाँ से ? (माया क्या है ? इसे स्पष्ट करें !)
स्वामीजी - जो चीज है ही नहीं, वह फिर आएगी कैसे ? हो, तब तो आयेगी ? (जिसे स्पष्ट रूप से बोलकर नहीं समझाया जा सकता है वही माया है !)
 सन्नाप्यसन्नाप्युभयात्मिका नो महाद्भुताऽनिर्वचनीयरूपा॥ विवेक-चूड़ामणि १०९॥

{नरेन्‍द्रनाथ दत्‍त (भविष्य के गुरु स्वामी विवेकानन्द) :  दक्षिणेश्‍वर जाया करते थे और रामकृष्‍ण परमहंस को अपना गुरु भी मानते थे किंतु अभी ब्राह्म समाज के प्रभाव में थे। अत: मूर्ति पूजा को स्‍वीकार तो नहीं ही करते थे, प्रतिमा को पुत्‍तलिका कहा करते थे। उनके कष्‍टों को देख कर प्राय: रामकृष्‍ण परमहंस प्राय: उन्‍हें मां काली के मंदिर में जाने को कहा करते थे। एक दिन यहां तक कह बैठे कि तू माँ के राज्‍य में रहता है और उन्‍हें मानता नहीं है, तो कष्‍ट तो पाएगा ही। नरेन्‍द्रनाथ दत्‍त बोले, यह नहीं कि मैं मां को मानता नहीं, मैं उनको जानता ही नहीं हूं। तो रामकृष्‍ण परमहंस ने उत्‍तर दिया, तो जा जानने का प्रयत्‍न कर। जान-पहचान बढ़ा। 
''सत्‍य के लिए संस्‍कृत शाब्‍द है 'सत्'। हमारी वर्तमान दृष्टि से जगत्‍प्रपंच, इच्‍छा और ज्ञानशक्ति के प्रकाश के रूप में प्रतीत होता है। सगुण ईश्‍वर स्‍वयं अपने लिए, उतना ही सत्‍य है, जितने हम अपने लिए हैं, इससे अधिक नहीं। ईश्‍वर को भी उसी प्रकार साकार भाव में देखा जा सकता है, जैसे हमें देखा जा सकता है। जब तक हम मनुष्‍य हैं, तब तक हमें ईश्‍वर का प्रयोजन है; हम जब स्‍वयं ब्रह्मस्‍वरूप हो जाएंगे। तब हमें ईश्‍वर का प्रयोजन नहीं रह जाएगा।  
इसलिए श्री रामकृष्‍ण परमहंस देव उस जगज्‍जननी (विद्या माया-अविद्द्या माया) को सदा-सर्वदा वर्तमान देखते थे। वे अपने आसपास की सभी वस्‍तुओं की अपेक्षा, उन्‍हें अधिक सत्‍य रूप में देखते थे। 
किंतु समाधि की अवस्‍था में उन्‍हें आत्‍मा के अतिरिक्‍त, और किसी वस्‍तु का अनुभव नहीं होता था। सगुण ईश्‍वर क्रमश: हमारी ओर अधिकाधिक आता जाता है, अंत में मानों वह गल जाता है। उस समय न ईश्‍वर रह जाता है, न 'अहं'। सब उसी आत्‍मा में लय हो जाता है। ''जो अपने वास्‍तविक स्‍वरूप को पहचानता है, उसके लिए दूसरी कोई सत्‍ता नहीं रह जाती। अनन्‍यता के होते ही शेष सारी सत्‍ताओं का लोप हो जाता है। यह अनन्‍या भक्ति तभी सिद्ध होती है।'' अद्वैत वेदांत मानता है कि अस्तित्‍व केवल ब्रह्म का ही है। रामकृष्‍ण परमहंस ने कहा था कि ''वे ही सब कुछ हुए हैं।]
जब किसी भाग्यवान मनुष्य के लिए श्रीराम की कथा पौराणिक कल्‍पना न हो कर जीवन्‍त इतिहास हो जाती है। तो उसे भक्ति का मूल तत्‍व - महत्तव (राम ब्रह्म परमारथ रूपा) की अनुभूति हो जाती है । इस अनुभूति के साथ ही दैन्य अर्थात् अपने लघुत्व की अनुभूति का उदय होता है। प्रभु के सर्वगत होने का ध्‍यान करते करते भक्त अन्त में जाकर उस अवस्था को प्राप्त करता है जिसमें वह अपने साथ साथ समस्त संसार को एक अपरिच्छिन्न सत्ता में लीन होता हुआ देखने लगता है, और दृश्य भेदों का उसके ऊपर उतना जोर नहीं रह जाता।
तर्क या युक्ति ऐसी अवस्था की सूचना भर दे सकती है- 'वेदों के चार महावाक्य' ब्रह्मवस्तु की जानकारी भर दे सकती है, अनुभव नहीं करा सकती. भक्ति अनुभव करा सकती है.अपने अनुभव से यह जान लेने के बाद नेता (बुद्ध ) के ह्रदय में अपने पीछे रह गए भाइयों के लिये असीम प्रेम का झरना फूट पड़ता है। और वह भी जगत को ब्रह्म का साकार रूप समझकर -
सीयराममय सब जग जानी | करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी ॥ 1-7-1 ॥
ऋषि संत तुलसीदास जी इस दृष्टिगोचर जगत को सीता और राम से भिन्न नहीं देखते थे, उनके अनुसार यह सम्पूर्ण विश्व ही सीताराममय है, और जब वे प्रत्येक मनुष्य के आगे शीश झुका सकते हैं, तो भला वे इसे मिथ्या या असत्य कैसे समझ सकते हैं ? }
विनय-पत्रिका-१११  में सन्त तुलसी दास जी - मैं वास्तव में कौन हूँ ? पहले इस प्रश्न का समाधान करने का उपदेश देते हुए कहते हैं -
कोउ कह सत्य, झूठ कह कोउ - जुगल प्रबल कोउ मानै। 
तुलसीदास परिहरै तीनि भ्रम सो आपुन पहिचानै
अनासक्‍त भक्ति से ईश्‍वर के साथ एक हो जाने के पश्‍चात् द्रष्‍टा, दृष्टि और दृश्‍य - सब एक हो जाते हैं। ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय का तादात्‍म्‍य हो जाता है। किंतु जब तक मनुष्‍य उस स्थिति तक विकसित नहीं होता, तब तक भक्ति का रूप है - परम प्रेम। भक्‍त, ईश्‍वर पर इतना निर्भर है कि वह मानता है कि वह स्‍वयं अपने बल पर ईश्‍वर को नहीं जान सकता। उसके लिए ईश्‍वर की कृपा आवश्‍यक है : ''सोई जानत, जेहू देहि जनाई।'
इसमें मायावाद आदि सब दार्शनिक मतों को अपूर्ण कहकर केवल उनके द्वारा आत्मानुभूति असम्भव कही गई है। सच्ची भक्ति से ही क्रमश: वह अवस्था प्राप्त हो सकती है, जिससे जीव का कल्याण होता हे। जहाँ तक समझ में आता है गोस्वामीजी का मतलब यह नहीं जान पड़ता कि ये सब मत बिलकुल असत्य है। कहने का तात्पर्य यह समझ पड़ता है कि ये सब पूर्ण सत्य नहीं हैं-अंशत: सत्य हैं। इनमें से किसी एक को पूर्ण सत्य मानकर दूसरे मतों की उपेक्षा करने से सच्ची तत्वशदृष्टि नहीं प्राप्त हो सकती। 
नरेन्द्र कोहली लिखते हैं -विदेशी मुस्लिम आक्रमणकारी मुहम्‍मद बिन कासिम ( 712 ई.) और उसके पश्‍चाकत मुहम्‍मद गज़नवी, मुहम्‍मद गौरी, बाबर, तैमूर, अहमदशाह अब्‍दाली तथा अंग्रजों के आक्रमण के पश्‍चात् भी हिंदू समाज ने कभी स्‍वयं को पराजित नहीं माना और 1300 वर्षों तक स्‍वतंत्रता का अपना संघर्ष जारी रखा। आज से केवल एक शताब्‍दी पूर्व, रामेश्‍वरम जिस रियासत का अंग था, उसका नाम रामनाड अर्थात् 'राम का देश' था। तमिल नाड का वह जिला आज भी 'रामनाड' ही है। स्‍वामी विवेकानन्द रामनाड के राजा से मिले। राजा का नाम भास्‍कर सेतुपति था। 1960 ई. तक तो धनुषकोडि स्‍टेशन भी था। इतना कुछ होने पर भी कभी राम-सेतु के संबंध में वैसे विचार नहीं उठे, जैसे नासा द्वारा खींचे गए चित्र को देख कर हुए। उस चित्र को देख कर राम-सेतु एक जीवंत अस्तित्‍व के रूप में मन में बैठ गया। वह ऐतिहासिक निर्माण के रूप में सामने आया। जैसे ताजमहल एक भवन है, जैसे  कुतुब मीनार एक मीनार है, वैसे ही रामसेतु समुद्र के बीच में बनाया गया एक सेतु है, जो रामकथा को कथा से इतिहास बना देता है। ]
शिष्य- तो फिर इस जीव-जगत (souls and matter) की उत्पत्ति कैसे हुई ?
स्वामीजी - एक मात्र ब्रह्म-सत्ता ही तो मौजूद है ! तू एक ही वस्तु को (अपनी मान्यता के अनुसार) मिथ्या नाम-रूप देकर उसे नाना रूपों और नामों में देख रहा है।
शिष्य- यह दृष्टिगोचर नाम-रूप भी क्यों है, और वह कहाँ से आया ?
स्वामीजी- हमारे शास्त्रों में चित्त की गहराइयों में समाये हुए इस नाम-रूपात्मक संस्कार या अज्ञान को प्रवाह के रूप में नित्यप्राय कहा गया है। परन्तु उसका अन्त है। और वह ब्रह्म-सत्ता तो सदा रस्सी की तरह अपने स्वरुप में ही वर्तमान है। इसीलिये वेदान्त शास्त्र का सिद्धान्त है कि यह निखिल ब्रह्माण्ड  " ब्रह्म में अध्यस्त,  इन्द्र-जाल वत" बाजीगर के जादू जैसा प्रतीत हो रहा है। 'सुपरइम्पोज्ड ऑन ब्रह्मण --अपियरिंग लाइक अ जगलर्स् ट्रिक.' इससे ब्रह्म के स्वरुप में किंचित भी परिवर्तन नहीं हुआ; समझते होभाई ?
शिष्य-एक बात अभी भी नहीं समझ सका ।
स्वामीजी -वह क्या ?
शिष्य- यह जो अपने कहा कि यह 'सृष्टि-स्थिति-लय' आदि ब्रह्म में -अध्यस्त (सूपरइम्पोज्ड-या आरोपित)  है, तथा उसकी अपनी कोई परमार्थिक सत्ता (एब्सलूट् एग्ज़िस्टेन्स) नहीं है--किन्तु यह कैसे हो सकता है ? किसी व्यक्ति ने जिस चीज को पहले कभी नहीं देखा, उस चीज का भ्रम उसे हो ही नहीं सकता। जिसने कभी साँप देखा ही नहीं हो, उसे रस्सी में सर्प का भ्रम भी नहीं होता। इसी प्रकार जिसने इस सृष्टि को नहीं देखा, उसे ब्रह्म में सृष्टि का भ्रम क्यों होगा ? इसीलिये यह सृष्टि अवश्य थी, या अभी है, इसीलिये सृष्टि का भ्रम हो रहा है; इसीसे द्वैत की आपत्ति उठ रही है।
स्वामीजी - आत्मबोध प्राप्त कोई व्यक्ति, ब्रह्मज्ञ (बुद्ध -दि मैन ऑफ़ रियलाजेशन ) व्यक्ति पहले तेरी आपत्ति का खण्डन यह कहते हुए करेंगे कि उनकी दृष्टि में तो सृष्टि-स्थिति-लय जैसी कोई वस्तु बिल्कुल दिख ही नहीं रही है। उसे तो सर्वत्र केवल ब्रह्म ही ब्रह्म दिखाई देता है। रस्सी ही देख रहे हैं; साँप नहीं देख रहे हैं। यदि तू कहेगा, ' मैं तो यह सृष्टि या साँप देख रहा हूँ' --तो तेरी दृष्टि के दोष को दूर करने के लिये वे तुझे 'विवेक-अंजन' देकर रस्सी के सच्चे स्वरुप को समझा देने की चेष्टा करेंगे।
जब तू उनके उपदेश (इन्स्ट्रक्शन्स) और अपनी स्वयं की विचार-शक्ति (रीजनिंग) इन दोनों के बल पर तू 'दि ट्रूथ ऑफ़ दि रोप' 'रज्जु' के सत्य को (या श्रीरामकृष्ण के ) या यथार्थ स्वरुप को या ब्रह्म-सत्ता को अनुभव करने में सक्षम हो जायेगा, उस समय साँप या सृष्टि का भ्रामक विचार गायब हो जायगा। उस समय इस सृष्टि, स्थिति,प्रलय रूपी भ्रमात्मक ज्ञान को ब्रह्म में आरोपित (सूपरइम्पोजिशन ऑन दि ब्रह्मण) कहने के अतिरिक्त, तू और क्या कह सकता है ?
अनादि प्रवाह के रूप में सृष्टि की यह प्रतीति यदि चली आयी है तो आती रहे, इस प्रश्न को निपटा देने से भी कोई लाभ होने वाला नहीं है। 'करामलक' की तरह ब्रह्म-तत्व का प्रत्यक्ष न होने तक इस प्रश्न की पूरी मीमांसा नहीं हो सकती; और उस अवस्था जब किसी को आत्मानुभूति हो जाती है, प्रश्न भी नहीं उठता, उत्तर की आवश्यकता भी नहीं होती ! उस क्षण ब्रह्म-तत्व का आस्वाद गूँगे के गूड़ की तरह -'मूकास्वादन' की तरह होता है; जो गूड़ के मिठास का वर्णन करने में असमर्थ होता है।
शिष्य - तो फिर इतना युक्ति-तर्क करके क्या होगा ?
स्वामीजी- बुद्धि के द्वारा उस विषय को समझने के लिये युक्ति-तर्क की आवश्यकता होती है। परन्तु सत्य वस्तु विचार के परे है - 'एषा मतिः तर्केण न आपनेया अन्येन प्रोक्ता एव सुज्ञानाय ' को कण्ठस्थ कर लें।
यमाचार्य नचिकेता से कहते हैं - हे परमप्रिय, यह बुद्धि, जिसे तुमने प्राप्त किया है, तर्क से प्राप्त नहीं होती। अन्य अर्थात किसी विद्वान् परमहंस सिंह-गुरु  के द्वारा कहे जाने पर भली प्रकार समझ में आ सकती है। वास्तव में, नचिकेता, तुम सत्यनिष्ठ हो (अथवा सच्चे निश्चयवाले हो)। तुम्हारे सदृश जिज्ञासु हमें मिला करें।
 कार्य क्या है,कैसे होता है ? वेद कह रहा है-

न तत्र् सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोयमग्नि :।
तमेव भानतमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति।।
इसलिए ये इन्द्रिया मन बुद्धि वहां नहीं जा सकती। ये इन्द्रिय मन बुद्धि की गति वहां जाने की नहीं है ।  मत ले जाना इनको, मर जाओगे, डूब जाओगे। जैसे गहरे पानी में तैरना नही जानता हो तो लोग कहते हैं ए आगे मत जाना, डूब जायेगा और जो नहीं माना गया, वो डूबा। बहुत से लोग नहीं माने, गये और डूब गये। अर्थात नास्तिक हो गये और उनका यह बहुमूल्य मानवजीवन व्यर्थ ही चला गया । संशयात्मा विनश्यति ।। 
फिर समझ में आता है कि मनःसंयोग के लिये प्रारम्भ में किसी  प्रेमस्वरुप सगुण-साकार मूर्त आदर्श पर प्रत्याहार- धारणा का अभ्यास करना क्यों जरुरी है ! प्रारम्भ में किसी महापुरुष या सगुण ईश्वर की उपासना करने पर बल देते हुए संत तुलसीदास जी कहते हैं - जगत प्रकाश्य प्रकाशक रामू। मायाधीश ज्ञान गुन धामू।।
अपने अनुभव से यह जान लेने के बाद नेता (बुद्ध ) के ह्रदय में अपने पीछे रह गए भाइयों के लिये असीम प्रेम का झरना फूट पड़ता है।

स्वामी विवेकानन्द भावी पीढ़ी के युवक-युवतियों को परमहंस सिंह-गुरु श्री रामकृष्ण एवं माँ सारदा रूपी आदर्श (मॉडल या साँचे) में ढालकर विश्व-मानवता का आध्यात्मिक मार्ग-दर्शन करने में समर्थ नेताओं या ऋषितुल्य शिक्षक-शिक्षिकाओं का निर्माण करना चाहते थे। वे कुछ ब्रह्मचारी या आत्मजिज्ञासु छात्र-छात्राओं को ब्रह्मविद् मनुष्य बनने और बनाने का प्रशिक्षण देने के लिये वे एक ऐसे केन्द्रीय ज्ञान-मन्दिर या ' टेम्पल ऑफ़ लर्निंग' की स्थापना करना चाहते थे जहाँ मनुष्य के तीन प्रमुख अवयव- ' 3H ' शरीर, मन और ह्रदय (Hand,Head, Heart)- इन तीनो को विकसित करने का प्रशिक्षण देने में समर्थ ऋषितुल्य युवा-अध्यापकों का निर्माण किया जा सके।
वे चाहते थे कि उस " लंगरखाना आधारित टेम्पल ऑफ़ लर्निंग" का आदर्श वाक्य हो -"Be and Make!" अर्थात तुम "स्वयं चरित्रवान मनुष्य बनो और दूसरों को भी चरित्रवान मनुष्य बनने में सहायता करो!" उपरोक्त अपने महावाक्य ' मनुष्य बनो और बनाओ' के अर्थ को स्पष्ट करते हुए स्वामी विवेकानन्द कहते हैं कि छात्रों को किशोरावस्था से ही 'कर्म और उपासना ' का प्रशिक्षण साथ साथ देना होगा। क्योंकि जिस व्यवहारिक तत्परता के साथ मनुष्य अपने स्वार्थ को पूरा करने के लिये कर्म करता है, उसी तत्परता के साथ जब वह परार्थ कर्म करने करने का प्रयास करता है, तो क्रमशः उसका चित्त शुद्ध होने लगता है और उसके मन में सात्विक विचारों का स्फुरण होने लगता है। मन पवित्र होने पर 'सत्य-मिथ्या विवेक' दृढ़ हो जाता है। और उसके ह्रदय में चारो महावाक्य का जो सत्यसार -'प्रेम' है; वह  प्रकट हो जाता है। क्योंकि ईश्वर प्रेमस्वरूप हैं ! इसलिये वे दिल में आते हैं समझ में नहीं आते (ईश्वर,नेता या हीरो ह्रदय रूपी दर्पण में आते हैं, समझ में नहीं आते; इसलिये स्वामी विवेकानन्द को दिल से समझा जा सकता है , बुद्धि से नहीं। 
भारत की परम्परागत जाति-व्यवस्था स्किल डेवलपमेन्ट के लिये थी, छुआछूत को प्रोत्साहित करने के लिये नहीं थी। प्रतिवर्ष भारत के विभिन्न प्रान्तों से, विभिन्न जाति और धर्म तथा विभिन्न भाषाएँ बोलने वाली 'शिक्षक प्रशिक्षण शिविर' में आई हुई प्रशिक्षणार्थी माताओं तथा बहनों के लिये समान लंगरखाना आधारित 'सारदा नारी संगठन' के केन्द्रीय टेम्पल ऑफ़ लर्निंग के द्वारा पश्चिम बंगाल में विगत २०-२५ वर्षों से ' वार्षिक नारी प्रशिक्षण शिविर' आयोजित करती आ रही हैं। इस प्रशिक्षण-शिविर में बेलुड़ मठ की सिस्टर कन्सर्न 'सारदा मठ' से पधारी (सन्यासिनी) प्रव्राजिका मोक्षप्राणा माताजी एवं ' सारदा नारी संगठन' की ऋषि-तुल्य प्रशिक्षिकाएँ (प्रिन्सिपल चिन्मयी नन्दी आदि) नारियों को माँ सारदा देवी के साँचे ढाल कर नई पीढ़ी की छात्राओं को -मनुष्य बनने और बनाने का प्रशिक्षण देती हैं। 'सारदा नारी संगठन' द्वारा आयोजित गार्गी एवं मैत्रेयी तुल्य नारी ऋषियों के निर्माण का नेतृत्व प्रशिक्षण देने के लिये 'शिक्षिका प्रशिक्षण शिविर' के प्रश्नोत्तरी कार्यक्रम को 'अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल' के अध्यक्ष श्री नवनीहरण मुखोपाध्यायजी भी सम्बोधित करते हैं।
स्वामी-शिष्य संवाद में स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रदत्त यह सूत्र ' पहले अन्नदान; उसके बाद विद्यादान और सर्वोपरि है ज्ञानदान ' वास्तव में प्राचीन भारतीय शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रम का पाठ्यक्रम (syllabus) ही है। इस प्राचीन भारतीय 'शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रम ' के सिलेबस के अनुसार जो भी  आत्मजिज्ञासु छात्र, किसी ब्रह्मज्ञ ऋषि-तुल्य शिक्षक के सानिध्य में 'गुरु-गृहवास' करते हुए '3H'-विकास का प्रशिक्षण प्रशिक्षण प्राप्त करता है, वह यथासमय स्वयं ब्रह्मविद् मनुष्य बनकर दूसरों को भी ब्रह्मज्ञ मनुष्य बनाने की योग्यता अर्जित कर लेता है। उसकी पात्रता को पहचान कर परमहंस सिंह-गुरु उसे भी - मानवजाति का मार्ग-दर्शक नेता बनने और बनाने का अधिकार (डिग्री या चपरास) प्रदान कर देते हैं। 
इसी प्राचीन भारतीय शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रम (Teacher Training Program) को महामण्डल की भाषा में 'नेतृत्व प्रशिक्षण' या 'लीडरशिप ट्रेनिंग' कहा जाता है। प्राचीन भारतीय ब्रह्मज्ञ गुरु-शिष्य परम्परा के सिलेबस के आधार पर 'ब्रह्मविद् मनुष्य' या मानवजाति का मार्गदर्शक नेता कैसे बना जाता है ? जगत के समक्ष उसका आदर्श- उदाहरण प्रस्तुत करने के लिये ही   जगतगुरु श्रीरामकृष्ण परमहंस ने अपने त्यागी और गृही दोनों प्रकार के शिष्यों- 'निवृत्ति मार्ग' के ऋषि नरेन्द्रनाथ दत्त एवं ' प्रवृत्ति मार्ग' के ऋषि राखाल महाराज (स्वामी ब्रह्मानन्द) को दक्षिणेश्वर के काली-मन्दिर एवं काशीपुर बगीचे के मकान में ब्रह्मविद् मनुष्य या मानवजाति का मार्गदर्शक नेता 'बनने और बनाने' का प्रशिक्षण दिया था। इस 'लीडरशिप-ट्रेनिंग' के पाठ्यक्रम (Syllabus) को स्वामी विवेकानन्द ने 'श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द गुरु-शिष्य परम्परा ' के आधार पर स्वयं तैयार किया था। 
इस प्रशिक्षण-शिविर  को संचालित करने के लिये पहले कुछ ऊर्जावान ब्रह्मचारियों को ' बनो और बनाओ लीडरशिप ट्रेनिंग'  में प्रशिक्षित करना होगा। वह मानवजाति के भावी मार्गदर्शक नेताओं को अपने ह्रदय का विस्तार करने के "टेम्पल ऑफ़ लर्निंग" (प्रशिक्षण शिविर) के लंगरखाने में यथायोग्य धर्मार्थ सेवायें अर्पित करनी होंगी। उस लंगरखाने में जो प्रशिक्षु युवा अपनी सेवायें देगा, उसको अपने सभी प्रशिक्षणार्थी भाइयों या अन्य जरुरतमंद लोगों को साक्षात् नारायण मानकर उनकी सेवा करने का प्रशिक्षण देने की व्यवस्था रहेगी। इस 'श्रीरामकृष्ण होम ऑफ़ सर्विस' नामक लंगरखाने में धर्मार्थ सेवा देना ही प्रशिक्षुओं के ह्रदय (Heart)-विस्तार या ब्रह्म-ज्ञान को विकसित करने का प्रथम व्यवहारिक प्रशिक्षण होगा।
 'श्रीरामकृष्ण होम ऑफ़ सर्विस' के धर्मार्थ लंगरखाने में पाँच से दस वर्ष का प्रशिक्षण समाप्त होने पर ही वे ज्ञान-मंदिर के विद्व्त्ता प्रदान करने वाले प्रशिक्षक के रूप में ऑडिटोरीअम (प्रेक्षागृह) में प्रवेश करने का अधिकार पा सकेंगे। इस प्रकार 'श्रीरामकृष्ण होम ऑफ़ सर्विस' के लंगरखाने में पाँच वर्ष धर्मार्थ सेवा और पाँच वर्ष फिल्ड में ' गार्डड्यूटी प्रशिक्षण'  कुल दस वर्ष तक प्रशिक्षण ग्रहण करने के बाद ही महामण्डल के अध्यक्ष के द्वारा चुने जाने के बाद शिविर के ऑडिटोरीअम में लीडर-ट्रेनिंग के प्रशिक्षक बनने की योग्यता प्राप्त कर सकेंगे।
किन्तु शर्त होगी कि वे स्वयं मानवजाति का मार्गदर्शक नेता बनने की इक्षुक हों और महामण्डल के अध्यक्ष उन्हें योग्य अधिकारी (अटूट आत्मजिज्ञासु) समझकर गृही होने पर भी आत्म-सन्यस्थ नेता का बैज देना चाहें। किन्तु महामण्डल के अध्यक्ष किसी किसी विशेष सद्गुणी ब्रह्मचारी आत्मजिज्ञासु (Leader Trainees) के संबंध में इस नियम का उल्लंघन करके भी उन्हें जब इच्छा हो, ऑडिटोरीअम में लीडर-ट्रेनिंग का प्रशिक्षक नियुक्त कर सकेंगे। 
(Ordinary Campers) परन्तु साधारण आत्मजिज्ञासुओं को, जैसा मैंने पहले कहा है, (पाँच वर्ष तक लंगरखाने में धर्मार्थसेवा और पाँच वर्ष तक फिल्ड में परेड और गार्ड-ड्यूटी कुल १० वर्ष तक प्रशिक्षण लेने के बाद, जब वे एकान्त निष्ठावान ब्रह्मचारी अर्थात 'सत्य-मिथ्या विवेक ' का अनुभव करने के प्रबल आग्रही ब्रह्मवेत्ता मनुष्य बनने का दृढ़ निश्चय कर लेंगे, मन और इन्द्रियों को पूर्णतया नियंत्रण में रखना सीख लेंगे तभी उन्हें लीडर-ट्रेनिंग (Leader Trainees) का प्रशिक्षक नियुक्त किया जा सकेगा । मेरे मस्तिष्क में इस प्रशिक्षण-शिविर का पूरा ख़ाका मौज़ूद है।
 स्‍वामी विवेकानन्‍द ने भी सहस्रद्वीपोद्यान में अपने शिष्‍यों से कहा था कि आंख सबको देख सकती है किंतु स्‍वयं अपने आप को नहीं देख सकती। इसलिए इन चर्म चक्षुओं से ब्रह्म को देख पाना संभव नहीं है।
भगवान् श्रीरामकृष्ण की शरण में जाना ही भक्ति है; और बिना उनकी शरण में जाए, भक्ति हो नहीं सकती। उस 'एक' के अनेक होने की प्रक्रिया को जान लेना विज्ञान है; और इस सृ‍ष्टि के असंख्‍य नाम-रूपों के भीतर एक ही तत्‍व विद्यमान है, इसका बोध हो जाना ज्ञान है। वह जो त्रिगुणातीत है, सर्वव्‍यापी है, वह कैसे अनेक हो गया। उस एक तत्‍व का अपने जीवन में प्रत्‍यक्ष अनुभव कर लेना ही ज्ञान-विज्ञान है-साक्षात् अनुभव कर लेना।
 
 ४७ वें वार्षिक शिविर में उपस्थित ' त्यागी और गृही ' मानवजाति के दो मार्गदर्शक 'नेता'!
निवृत्ति-मार्ग के परमहंस सिंह-गुरु रामकृष्ण मठ-मिशन के उपाध्यक्ष स्वामी स्मरणानन्दजी महाराज के साथ मंच पर विराजमान प्रवृत्ति मार्ग के परमहंस सिंह-गुरु अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल के उपाध्यक्ष श्री बासुदेब चटर्जी ! 
Annual All India Youth Training camp: भेंड़ होने के भ्रम में पड़े सिंह-शावक के भेंड़त्व या देहाध्यास को नष्ट करने में समर्थ परमहंस सिंह-गुरु या मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं (ऋषि-तुल्य शिक्षकों) का निर्माण करने का प्रशिक्षण अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल, ( 6/1A, न्यायमूर्ति मन्मथ मुखर्जी पंक्ति, कोलकाता 70009,  Akhil Bharat Vivekananda Yuva Mahamandal," 6/1A, Justice Manmatha Mukherji Row, Kolkata-70009, Phone- 033-23506898) द्वारा आयोजित 'वार्षिक अखिल भारतीय युवा प्रशिक्षण शिविर' में विगत ४७ वर्षों से दिया जा रहा है।
महामण्डल के सिस्टर कन्सर्न 'सारदा नारी संगठन' के  'शिक्षक प्रशिक्षण शिविर ' में आकर देखना चाहिये कि वहाँ माँ सारदा देवी द्वारा डकैत अमज़द को पंखा हांक कर भोजन कराते हुए चित्र का महत्व क्या है, उसे वहां क्यों लगाया गया है ?

३० दिसम्बर, २०१३ को ४७ वां वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर  
के सायंकालीन सत्र में रामकृष्ण मठ-मिशन के उपाध्यक्ष स्वामी स्मरणानन्दजी महाराज के साथ मंच पर विराजमान अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल के उपाध्यक्ष श्री बासुदेब भट्टाचार्य ! 
द्रष्टव्य है कि अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल के मार्गदर्शन में मनुष्य-निर्माण तथा चरित्र-निर्माण का आन्दोलन 'Be and Make' भारतवर्ष के १२ राज्यों में ३१५ केन्द्रीय शाखायें (टेम्पल ऑफ़ लर्निंग या विद्या-भवन) कार्यरत हैं। महामण्डल के ' वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर में ' 'लीडरशिप ट्रेनिंग' प्राप्त कुछ युवा-अध्यापकों के एक दल द्वारा बिहार, झारखण्ड में दो गाँवों में  सभी जाति और धर्म के छात्रों के लिये " समान लंगरखाना आधारित टेम्पल ऑफ़ लर्निंग " में चरित्रवान मनुष्य ' बनने और बनाने' के लिये शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाया जा रहा है। 
विगत १८ वर्षों से 'जानीबिगहा विवेकानन्द ज्ञान मन्दिर' गया, बिहार में एक उच्च माध्यमिक विद्यालय चल रहा है; और जानीबिगहा के ऋषि-तुल्य कुछ शिक्षकों के सहयोग से पहाड़पुर, डोमचांच (झारखण्ड) में भी एक माध्यमिक विद्यालय 'स्वामी विवेकानन्द आइडियल पब्लिक स्कूल' स्थापित किया गया है। रामकृष्ण विवेकानन्द शिक्षक प्रशिक्षण सिलेबस के आधार पर मानवजाति के भावी मार्गदर्शक 'नेताओं' (Leaders) के निर्माण का जो प्रयोग इन दो विद्यालयों में चल रहा है, वह आगे चलकर देश भर के युवाओं के लिये अनुप्रेरक सिद्ध हो सकता है।
चरित्रवान मनुष्य 'बनने और बनाने' वाली- इसी सिलेबस '3H' निर्माण पर आधारित 'शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रम' को आधुनिक शिक्षा व्यवस्था में समावेशित करने से मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं (ऋषि-
तुल्य शिक्षकों) या यथार्थ 'मनुष्य' का निर्माण करना सम्भव हो सकता है। उसी शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रम के सिलेबस को विवेकानन्द साहित्य के दस खण्डों में से खोजकर महामण्डल के अध्यक्ष परमहंस सिंह-गुरु श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय ने अपनी संस्कृत रचना- "विवेकानन्द दर्शनम् " के २६ श्लोकों में बड़े ही सुन्दर ढंग से पिरो दिया है। "विवेकानन्द दर्शनम् " पुस्तिका के उपरोक्त श्लोक संख्या-४ में  उसी सिलेबस को विस्तार से समझाकर कहा गया है।]
[1.अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल रूपी टेम्पल ऑफ़ लर्निंग में 'लीडर-ट्रेनी' एवं 'आर्डिनरी-ट्रेनी' को जो प्रशिक्षण दिया जाता है; उस प्रशिक्षण-शिविर की आयोजन पद्धति एवं सिलेबस का सम्पूर्ण विवरण निम्नलिखित वार्ता एवं संलाप: २२ (विवेकानन्द साहित्य खण्ड ७) में इस प्रकार दिया गया है - स्थान: बेलूर,किराए का मठ परिसर: वर्ष १८९८]  
आज दिन में करीब दो बजे के समय शिष्य पैदल चलकर मठ में आया है। अब मठ को आलमबाजार से उठाकर नीलाम्बर बाबू के बगीचेवाले मकान (garden-house) में लाया गया है। इस मठ की ज़मीन भी थोड़े दिन हुए खरीदी गयी है। स्वामीजी शिष्य को साथ लेकर दिन के करीब चार बजे मठ की नयी ज़मीन में घूमने निकले हैं। मठ की ज़मीन उस समय भी जंगलों से पूर्ण थी। उस समय उस ज़मीन के उत्तर भाग में एक एकमंजिला पक्का मकान था। उसीका संस्कार करके वर्तमान मठ-भवन निर्मित हुआ है। 

स्वामीजी शिष्य के साथ मठ की भूमि पर भ्रमण करने लगे और वार्तालाप के सिलसिले में भावी मठ की रुपरेखा तथा नियम आदि पर चर्चा करने लगे। धीरे धीरे उस एकमंजिले मकान के पूर्व के बरामदे में पहुँचकर घूमते घूमते स्वामीजी कहने लगे, " यहीं पर साधुओं (ब्रह्मविद् शिक्षकों या मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं) के रहने का स्थान होगा। यह मठ आध्यात्मिक साधना तथा ज्ञान की संस्कृति का प्रधान केन्द्र होगा, यही मेरी इच्छा है। यहाँ से जिस आध्यात्मिक शक्ति की उत्पत्ति होगी, वह पृथ्वी भर में फैल जायेगी, और वह मनुष्य के जीवन की गति को उच्चतर लक्ष्य की दिशा में मोड़ देगी। ज्ञान, भक्ति, योग, कर्म के समन्वय स्वरुप सम्पूर्ण मानवता के लिये कल्याणकारी उच्च आदर्श यहाँ से प्रसृत होंगे। इस मठ में जो यथार्थ मनुष्य निर्मित होंगे, उनकी आज्ञा से एक समय में पृथ्वी के सुदूरवर्ती देशों में भी प्राण संचारित होने लगेगा। समय आने पर यथार्थ धर्म (आध्यात्मिकता) के सच्चे जिज्ञासु यहाँ आकर एकत्र हो जायेंगे। " …इसि प्रकार के हजारों विचार मेरे मन में उठ रहे हैं।
" वह जो मठ के दक्षिण भाग की ज़मीन देख रहा है, वहाँ पर विद्या का केन्द्र बनेगा। व्याकरण, दर्शन, विज्ञान, व्याख्यान विद्या (rhetoric), स्मृति, भक्ति शास्त्र के साथ साथ अँग्रेजी की शिक्षा भी यहाँ दी जायगी। प्राचीन काल की पाठशालाओं (गुरु-गृह वास या टोलों) के अनुकरण पर यह विद्या-मन्दिर (ज्ञान-मन्दिर) स्थापित होगा। जो लड़के बचपन से ही ब्रह्मचारी (अर्थात आत्मजिज्ञासु) हों, वे यहाँ ऋषितुल्य आचार्यों के सानिध्य में रहकर शास्त्रों का अध्यन करेंगे। उनके भोजन-वस्त्र का प्रबन्ध मठ की ओर से किया जायगा। वे सब ब्रह्मचारी पाँच वर्ष तक शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् यदि चाहेंगे तो घर लौटकर गृहस्थी कर सकेंगे। यदि इच्छा हो तो मठ के वरिष्ठ संन्यासियों की अनुमति लेकर संन्यास ले सकेंगे। इन ब्रह्मचारियों में जो उच्छृंखल या दुश्चरित्र पाये जायेंगे, उन्हें मठ के अधिकारी उसी समय बाहर निकाल देंगे। 
टेम्पल ऑफ़ लर्निंग या विद्या-मन्दिर : में सभी जाति या पंथ (caste or creed) की परवाह किये बिना शिक्षार्थियों को शिक्षा दी जायगी। यहाँ सभी जाति और पंथ के लोगों को एक ही साथ बैठकर भोजन पकाना और खाना पड़ेगा, तथा अध्यन भी करना पड़ेगा। इसमें जिन्हें आपत्ति होगी उन्हें नहीं लिया जायगा, किन्तु जो लोग अपनी जाति या वर्णाश्रम के आचार को मान कर चलना चाहेंगे, उन्हें अपने भोजन आदि का प्रबन्ध स्वयं करना होगा। वे केवल अध्यन ही दूसरों के साथ करेंगे। उनके चरित्र के संबन्ध में मठ के अधिकारी सदा कड़ी दृष्टि रखेंगे। यहाँ पर शिक्षित न होने से कोई संन्यास का अधिकारी न बन सकेगा। धीरे धीरे जब इस प्रकार मठ का काम प्रारम्भ होगा, उस समय कैसा होगा, बोल तो ! "
प्रचलित पाश्चात्य शिक्षा-पद्धति में दोष- छात्रों के ब्रह्मज्ञान को विकसित करने की कोई सुविधा
 शिष्य --तो क्या आप प्राचीन काल की तरह गुरुगृह में ब्रह्मचर्याश्रम की प्रथा को देश में फिर से प्रचलित करना चाहते हैं ?
स्वामीजी- और नहीं तो क्या ? " द मॉडर्न सिस्टम ऑफ़ एजुकेशन गिव्स नो फैसिलिटी फॉर द  डेवलपमेंट ऑफ़ द नॉलेज ऑफ़ ब्रह्मण." आधुनिक शिक्षा पद्धति में छात्रों के ब्रह्म-ज्ञान (ह्रदय Heart) को विकसित करने की कोई सुविधा नहीं है। पहले के समान ब्रह्मचर्याश्रम
स्थापित करने होंगे। किन्तु इस समय उसकी नींव व्यापक आधार पर रखनी होगी, कहने का तात्पर्य है कि समयानुसार उसमें अनेक उपयुक्त परिवर्तन करने होंगे। उसके बारे में मैं तुमसे बाद में (१९६७ या १९८५ में इस शिक्षक-प्रशिक्षण शिविर में विवाहित युवाओं को भी 'कुटीचक अवस्था' में रहते हुए तीनों एषणाओं से मुक्त ब्रह्मविद् मनुष्य बनने और  बनाने (Be and Make) का प्रशिक्षण दिया जायगा।) बात करूँगा। 
शिक्षक प्रशिक्षण शिविर: लंगरखाने में धर्मार्थ सेवा देना :  स्वामीजी फिर कहने लगे -" मठ के दक्षिण में वह जो जमीन है,
उसे भी किसी दिन खरीद लेना होगा। वहाँ पर मठ का लंगरखाना (किचन-रूम, स्टोर और डाइनिंग हॉल)  रहेगा। वहाँ पर वास्तविक गरीब-दुखियों को नारायण मानकर उनकी सेवा करने की व्यवस्था होगी।
वह लंगरखाना भी श्रीरामकृष्ण के नाम पर स्थापित होगा।  जैसा धन जुटेगा पहले उसी के अनुसार लंगरखाना खोलना होगा। ऐसा भी हो सकता है कि पहले-पहल दो ही तीन व्यक्तियों (inmates सह-वासी ऋषि तुल्य युवा अध्यापकों) को लेकर काम (प्रशिक्षण) प्रारम्भ किया जाय। उत्साही ब्रह्मचारियों अर्थात आत्मजिज्ञासुओं को (लीडरशिप ट्रेनिंग देकर) इस लंगरखाने का संचालन सिखाना होगा। उन्हें कहीं से भी प्रबन्ध करके, आवश्यक हो तो भीख माँगकर भी इस लंगरखाने को चलाना होगा। इस मामले में मठ किसी प्रकार की आर्थिक सहायता नहीं कर सकेगा। ब्रह्मचारियों को ही उसके लिये धन संग्रह करके लाना पड़ेगा। 
इस प्रकार धर्मार्थ लंगर में पाँच वर्ष का प्रशिक्षण समाप्त होने पर वे ' विद्या-मन्दिर शाखा' में प्रवेश करने का अधिकार पा सकेंगे। लंगरखाने में पाँच और विद्या-मंदिर में पाँच, कुल दस वर्ष प्रशिक्षण ग्रहण करने के बाद मठ के स्वामियों द्वारा दीक्षित होकर वे संन्यास आश्रम में प्रविष्ट हो सकेंगे-केवल शर्त होगी कि वे संन्यासी बनने के इच्छुक हों, और मठ के अध्यक्ष उन्हें योग्य अधिकारी समझकर संन्यास देना चाहें। परन्तु मठाध्यक्ष किसी किसी विशेष सद्गुणी ब्रह्मचारी (लीडर ट्रेनी) के सम्बन्ध में इस नियम का उल्लंघन करके भी उन्हें जब इच्छा हो, संन्यास में दीक्षा दे सकेंगे। परन्तु साधारण ब्रह्मचारियों को, जैसा मैंने पहले कहा है, उसी क्रम में संन्यास आश्रम में प्रवेश करने का अधिकार मिल सकेगा। मेरे मस्तिष्क में ये सब विचार मौज़ूद हैं। 
शिष्य--महाराज, मठ में इस प्रकार तीन शाखाओं की स्थापना का क्या उद्देश्य होगा ? 
स्वामीजी --समझा नहीं ? * 'First of all, comes the gift of food; next is the gift of learning, and the highest of all is the gift of knowledge.' पहले अन्नदान; उसके बाद विद्यादान और सर्वोपरि ज्ञानदान ! इन तीन भावों का समन्वय इस मठ (युवा प्रशिक्षण शिविर) से करना होगा। अन्नदान की सेवा करते करते ब्रह्मचारियों के मन में 'Idea of practical work for the sake of others' व्यवहारिक तत्परता के साथ परार्थ कर्म में तत्परता तथा शिव मानकर जीव-सेवा का भाव दृढ़ होगा। इससे क्रमशः उनकी चित्त शुद्धि होगी, और उसमें सात्विक विचार अभिव्यक्त होने लगेंगे। तभी ब्रह्मचारी यथासमय ब्रह्म-ज्ञान पाने की योग्यता एवं संन्यासाश्रम में प्रवेश करने का अधिकार प्राप्त कर सकेंगे। 
शिष्य -- महाराज, जैसा आपने कहा कि ज्ञान दान ही सर्वश्रेष्ठ दान है, तो फिर अन्नदान और विद्यादान की शाखायें स्थापित करने की क्या आवश्यकता है ? 
स्वामीजी - तू अभी तक मेरी बात नहीं समझा ! सुन -इस अन्नाभाव (food scarcity) के युग में यदि तू दूसरों के लिये सेवा के उद्देश्य से गरीब-दुःखियों को, भिक्षा मांगकर या जैसे भी हो, दो ग्रास अन्न दे सका तो जीव-जगत का तथा तेरा तो कल्याण होगा ही, साथ ही साथ तू इस सत्कार्य के लिये सभी की सहानुभूति भी प्राप्त कर सकेगा। इस सत्कार्य के लिये तुझ पर विश्वास करके काम-कांचन (lust and wealth) में बँधे हुए गृहस्थ लोग भी तेरी सहायता के लिये अग्रसर होंगे। तू विद्यादान या ज्ञानदान करके जितने लोगों को आकर्षित कर सकेगा, उसके हजार गुने लोग तेरे इस अयाचित (बिना मांगे) अन्नदान द्वारा आकृष्ट होंगे। इस कार्य में तुझे जन-साधारण की जितनी सहानुभूति प्राप्त होगी, उतनी अन्य किसी कार्य में नहीं  सकती। यथार्थ सत्कार्य में मनुष्य के सहायक भगवान भी होते हैं। इसी तरह लोगों के आकृष्ट होने पर ही तू उनमें विद्या तथा ज्ञान (आध्यात्मिकता) प्राप्त  करने की आकांक्षा को उद्दीप्त कर सकेगा। इसीलिये पहले अन्नदान ही आवश्यक है। 
शिष्य- महाराज, खैराती लंगरखाना खोलने के लिये पहले स्थान चाहिये; उसके बाद मकान आदि बनवाना पड़ेगा, फिर काम चलाने के लिये धन चाहिये। इतना रुपया कहाँ से आयेगा ?
स्वामीजी - मठ का दक्षिणी भाग मैं अभी छोड़ देता हूँ और उस बेल के पेड़ के नीचे एक झोपड़ा खड़ा कर देता हूँ। तू एक या दो अन्धे-लूले खोज कर ले आ और कल से ही उनकी सेवा में लग जा। स्वयं उनके लिये भिक्षा माँग कर ला। स्वयं पका कर उन्हें खिला। इस प्रकार कुछ दिन करने पर ही देखेगा -तेरे इस कार्य में सहायता करने के लिये कितने ही लोग अग्रसर होंगे; कितने ही लोग धन देंगे।

पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते ।
 न हि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति ।।गीता ६/४०।।
क्योंकि हे तात ! आत्मोद्धार के साथ साथ दूसरों का भी कल्याण करने की इच्छा किया जाने वाला कर्म- 'Be and Make ' अर्थात शिव ज्ञान से जीव सेवा करने वाला करने वाला मनुष्य कभी  दुर्गति को प्राप्त नहीं होता ।
शिष्य -  हाँ, ठीक है। परन्तु उस प्रकार लगातार  कर्म करते करते समय पर कर्म-बंधन भी तो आ सकता है ?
स्वामीजी- इस लोक (नाम-यश) या परलोक (स्वर्ग-प्राप्ति ) में अपने लिये किसी फल प्राप्त करने के प्रति यदि तेरी दृष्टि न रहे और सभी प्रकार की कामना तथा वासनाओं के परे जाने के लिये यदि तुममें एकान्त आग्रह रहे; तो वे सब सत्कार्य (कैम्प आदि) तेरे कर्म-बंधन काट डालने में ही सहायता करेंगे।  
 ऐसे निःस्वार्थ कर्म से कहीं बंधन आयेगा ? यह  तू कैसी बात कह रहा है ? दूसरों के लिये किये हुए इस प्रकार के कर्म ही पूर्व जन्मों में किये हुए स्वार्थपूर्ण कर्मों द्वारा उत्पन्न कर्म-बंधनों की जड़ को काटने के लिये एक मात्र उपाय है ! नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय ॥ (इसके अतिरिक्त कोई दूसरा मार्ग नहीं है
शिष्य - महाराज, अब तो मैं धर्मार्थ लंगर और सेवाश्रम के सम्बन्ध में आपके मनोभाव को विशेष रूप से सुनने के लिये और भी उत्कण्ठित हो रहा हूँ । 
स्वामीजी - गरीब दुःखियों के लिये छोटे छोटे ऐसे कमरे बनवाने होंगे, जिनमें हवा आने-जाने की अच्छी व्यवस्था रहे। एक एक कमरे में दो या तीन व्यक्ति रहेंगे। उन्हें अच्छे बिछौने और साफ कपड़े देने होंगे, उनके लिये एक डॉक्टर रहेगा। वह सप्ताह में एक या दो बार सुविधानुसार उन्हें देख जायेगा। धर्मार्थ लंगरखाने के भीतर सेवाश्रम भी एक विभाग की तरह रहेगा। इसमें रोगियों की सेवा-सुश्रूषा की जायगी। धीरे धीरे जैसे जैसे धन आता जायगा, वैसे वैसे एक बड़ा रसोईघर बनाना होगा। लंगरखाने में केवल 'दीयतां भुज्यताम'- अर्थात ' दीजिये दीजिये, लीजिये लीजिये ' यही ध्वनि उठेगी। ( राजसूय यज्ञ भी मानवजाति के मार्गदर्शक नेता श्रीकृष्ण की उपस्थिति में संपन्न हुआ था। उस यज्ञ के धर्मार्थ लंगरखाने में constant shouts of food demanded and supplied यही ध्वनि ' दीयतां भुज्यतां चेति वाचोऽश्रूयन्त सर्वशः।।' सुनाई पड़ती थी। )
इस प्रकार धर्मार्थ लंगरखाना बना देखकर मेरे प्राणों को शान्ति मिलेगी। शिष्य ने कहा, ' आपकी जब ऐसी इच्छा है, तो सम्भव है समय आने पर वास्तव में ऐसा ही हो।' शिष्य की बात सुनकर स्वामीजी गंगा की ओर थोड़ी देर तक ताकते हुए मौन रहे।
फिर प्रसन्न मुख से कहने लगे, ' तुममें से कब किसके भीतर से सिंह जाग उठेगा, यह कौन जानता है? यदि तुममें से किसी एक में भी माँ उस ज्ञानाग्नि को प्रज्ज्वलित के दें तो पृथ्वी भर में वैसे कितने ही लंगरखाने बन जायेंगे।
स्वामीजी फिर कहने लगे - ' यदि ईश्वर ने चाहा तो, हमलोग इस मठ को सर्वधर्म-समन्वय का महान केन्द्र बना देंगे। हमारे भगवान (श्रीरामकृष्ण परमहंस) स्वयं सर्वधर्म-समन्वय के दृश्य अवतार हैं, मूर्तमान रूप हैं। यदि हमलोग इस सर्वधर्म-समन्वय के आदर्श को यहाँ (इस संगठन में) जाग्रत रख सकें तो श्रीरामकृष्ण सम्पूर्ण विश्व में स्थापित हो जायेंगे। सारे मत, सारे पंथ, ब्राह्मण-चाण्डाल सभी जिससे यहाँ पर अपने अपने आदर्श को देख सकें, वह करना होगा।
उस दिन जब मठभूमि पर मैंने श्रीरामकृष्ण की प्राण-प्रतिष्ठा की, तब ऐसा लगा मानो यहाँ से उनके भावों का विकास होकर (पहले भारत की सांस्कृतिक राजधानी-बनारस में और फिर) चराचर विश्व भर में छा गया है। मुझसे जितना हो सकता है, कर रहा हूँ और करूँगा; तुम लोग भी श्रीरामकृष्ण के उदार भावों को (मनुष्य-निर्माकारी शिक्षा पद्धति को ) भारत के गाँव -गाँव तक पहुंचा दो। केवल वेदान्त पढ़ने से कोई लाभ नहीं होगा। हमें अपने व्यवहारिक जीवन में शुद्ध-अद्वैतवाद की सत्यता को प्रमाणित करना होगा। आचार्य शंकर इस अद्वैतवाद को जंगलों और पहाड़ों (मठों) में रख गये हैं; मैं अब उसे वहाँ लाकर संसार और समाज में प्रसारित करने के लिये आया हूँ। घर घर में, घाट-मैदान में, जंगल-पहाड़ों में इस अद्वैतवाद का गंभीर नाद उठाना होगा। तुम लोग मेरे सहायक बनकर काम में लग जाओ।
शिष्य - महाराज, ध्यान की सहायता से उस भाव का अनुभव करने में ही मानो मुझे अच्छा लगता है। उछल-कूद करने (कैम्प के लिये चन्दा माँगने, गाँव-गाँव पाठचक्र खोलने) की इच्छा नहीं होती।
स्वामीजी- वह तो भांग खाकर के बेहोश पड़े रहने की तरह हुआ। केवल ऐसे रहकर क्या होगा ? अद्वैतवादी अनुभूति की ख़ुमारी में कभी ताण्डव नृत्य कर तो कभी समस्त इन्द्रियों को अन्तर्मुखी करके निश्चल हो जा। कोई अमृत-तुल्य मिठाई अकेले खाकर मुख पोछ लेने से कभी सुख मिलता है ? दस आदमियों में उस अनुभूति को वितरित करने की चेष्टा करनी चाहिये। आत्मानुभूति करके यदि तू मुक्त हो गया तो इससे दुनिया को क्या लाभ होगा ? अपने इस शरीर को छोड़ने के पहले त्रिजगत् को मुक्त करना होगा। महामाया के राज्य में आग लगा देनी होगी; तभी नित्य सत्य में प्रतिष्ठित होगा । क्या उस परमानन्द की बराबरी अन्य किसी से हो सकती है, मेरे बच्चे ?]
शिक्षा का उद्देश्य है यथार्थ मनुष्यों का निर्माण करना; किन्तु आधुनिक शिक्षा पद्धति में विद्दयालय या महाविद्यालय - किसी भी स्तर पर, चरित्र-निर्माण करने या मनुष्य बनने का प्रशिक्षण देने की कोई व्यवस्था नहीं है। इस वर्ष दिल्ली विश्वविद्यालय के उपकुलपति एवं यू.जी.सी में इसी बात को लेकर काफी दिनों तक विवाद चलता रहा, कि बारहवीं कक्षा पास करने के बाद ग्रेजुएसन कोर्स तीन वर्ष का होना चाहिये या चार वर्ष का? इसी चरित्र-निर्माण कारी शिक्षा के अभाव में  आज का मानव, दानव बन गया है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति में छात्र-जीवन से ही चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने का प्रशिक्षण देने की कोई व्यवस्था न रहने के कारण ही भारत के नागरिकों में काम, क्रोध, मद, लोभ आदि आसुरी-गुणों का प्राबल्य सर्वत्र परिलक्षित हो रहा है एवं दैवी-गुणों- दया, करुणा, अहिंसा, प्रेम, सत्य आदि का तीव्र गति से क्षरण हो रहा है।
पाश्चात्य-शिक्षा पद्धति भौतिक विज्ञान के नये नये आविष्कारों के माध्यम से हमारे बाह्यजगत् के जीवन को तो समृद्ध बना देती है, किन्तु हमारा अन्तर्जगत या आध्यात्मिक जीवन उसी अनुपात में दरिद्र होता जा रहा है। कहना न होगा कि पाश्चात्य दृष्टि भोगवादी, जड़वादी है। इसी ओछी, स्वार्थी, जड़वादी दृष्टि के नेताओं ने विश्व में एकतरफा  बर्बर, व्यापक हिंसा बरपाने वाले युद्ध थोप दिये हैं। खुली बाजार व्यवस्था, बाज़ारवाद या आर्थिक ग्लोबनाइजेसन वास्तव में अमीर देशों द्वारा विश्व के पिछड़े देशों को लूटने वाली शोषक-अर्थतन्त्र है। जिसके कारण आज के समाज में  घोर असन्तुलन पैदा हो गया है। मनुष्य भूखा है। बेहाल है। विस्थापित है। मानव- शरीर के रूप, रंग, लिंग, जाति, वर्ण, वंश, भाषा, देश-प्रदेश आदि के विभिन्न भेद के आधार पर पाश्विक नर-संहार बे-खौफ, बेरोक-टोक बरपाये जाते हैं। आज तो विज्ञान की विनाशकारी एवं संहारक उपलब्धियों ने विश्व को विनाश के उस अन्तिम छोर तक पहुँचा दिया है जहाँ सम्पूर्ण विश्व का जन-जीवन ही रक्तरंजित, उत्पीड़ित, दुखित, शोषित दिखाई दे रहा है। अशान्ति, भय, विद्वेष एवं पारस्परिक संघर्ष का ऐसा जाल फैलता जा रहा है कि मानवता विलुप्त होती दिखाई दे रही है। इराक़ में कट्टर पाशविक शक्तियों का ताण्डव नृत्य के कारण भारत समेत सम्पूर्ण विश्व की मानवता अश्रुपात करती हुई दिखाई दे रही है; और राष्ट्रसंघ निष्क्रिय, निष्प्राण-भेंड़ सा होकर टुकुर-टुकुर देख रहा है। 
आर्थिक एवं सामरिक दृष्टि से समृद्ध बनने के साथ ही साथ, 'आध्यात्मिक ग्लोबनाइजेसन' करने के लिये भारत के १२५ करोड़ देशवासियों को व्यक्ति-चरित्र निर्माण के द्वारा राष्ट्रीय चरित्र-निर्माण की प्रक्रिया - " Be and Make " में जुट जाना होगा। तभी एक बार पुनः भारतवर्ष को राष्ट्र-संघ का नेतृत्व अपने हाथों में लेने का सौभाग्य मिलेगा और विश्व में स्थायी शांति स्थापित होगी ।
हमारे शिक्षानीति निर्धारकों ने स्वामीजी की उपरोक्त योजना - '3H' निर्माण - को ठीक से समझे बिना ही बच्चों के शरीर को पुष्ट बनाने के लिये सरकारी स्कूलों में-"पहले अन्नदान" या 'Midday Meal',  'मध्याह्न भोजन  योजना' को लागू कर दिया।  किन्तु अन्नदान -विद्यादान और ज्ञानदान करने में समर्थ ऋषि-तुल्य शिक्षकों के निर्माण करने के लिये " लंगरखाना आधारित शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रम " के सिलेबस को समझने का कोई प्रयास नहीं किया गया। और 'शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रम ' को समझे बिना ही,  'मध्याह्न भोजन  योजना' लागु करने का परिणाम स्वरुप - बच्चों का पौष्टिक आहार या तो बाजार में बेच दिया जाता है, या आये दिन बच्चों के मध्याह्न भोजन में मरा हुआ साँप, छिपकिली या जहर मिलता है, जिसे खाकर हजारों बच्चे बीमार पड़  जाते हैं, यहाँ तक कि कुछ बच्चे तो मर भी जाते हैं।
इस बार के शिक्षा बजट में ८३७७१ करोड़ रुपया आवंटित किया गया है। किन्तु आवंटन-राशि से अधिक महत्वपूर्ण है, आवंटन को ईमानदारी के साथ खर्च करने की योग्यता रखने वाले यथार्थ मनुष्यों का निर्माण। और केवल चरित्र-सम्पन्न मनुष्य ही ऐसा कर सकते हैं। शायद ऐसा ही सोचकर राष्ट्रिय स्तर पर चरित्रवान लोगों का निर्माण करने के लिये इसबार के बजट में एक महत्वपूर्ण कदम  ने उठाया है वह है ' मदन मोहन मालवीय शिक्षक प्रशिक्षण योजना।' 
इस शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रम को मदन मोहन मालवीयजी के नाम से जोड़ा गया है। अतः नई पीढ़ी के लोगों को उनके बारे में थोड़ी जानकारी होनी चाहिये। महामना पंडित मदन मोहन मालवीय (जन्म-1861 प्रयाग; मृत्यु-1946) अपने महान कार्यों के चलते 'महामना' कहलाये। उन्होंने दलितों के मन्दिरों में प्रवेश निषेध की बुराई के ख़िलाफ़ देशभर में आंदोलन चलाया। सामाजिक विषयों पर उनका आर्य समाज से मतभेद था। समस्त कर्मकाण्ड, रीतिरिवाज, मूर्तिपूजन आदि को वे हिन्दू धर्म का मौलिक अंग मानते थे। इन्हीं प्रयत्नों के फलस्वरूप पहले 'भारतधर्म महामण्डल' और पीछे 'अखिल भारतीय सनातन धर्म' सभा की नींव पड़ी। उनका जीवन और दर्शन 'श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रम' में समाहित भारतीय परम्परागत पंथनिरपेक्षता तथा सर्वधर्म समन्वय की भावना से ओतप्रोत था। वे स्वामी विवेकानन्द से दो वर्ष बड़े थे, किन्तु उनको वे अपना आदर्श मानते थे। उनके अनुसार, शिक्षा से तात्पर्य बालक और मनुष्य के शरीर, मन और आत्मा में सर्वश्रेष्ठ तत्त्वों का विकास है। जिन मूल्यों को मालवीयजी ने जीया था वे भारत की परम्परागत पंथनिरपेक्षता तथा सर्वधर्मसमन्वय के जीवन्त उदाहरण बनेंगे, और देश के सभी जाति और धर्म के युवा अध्यापकों को नई दिशा तथा स्फूर्ति प्रदान करेंगे। ब्रह्मज्ञ मनुष्य निर्माणकारी शिक्षा के प्रति तथा मानवजाति के मार्गदर्शक नेता या शिक्षक बनने और बनाने के प्रति युवाओं में आकर्षण बढ़ेगा। स्कूलों से लेकर विश्वविद्यालयों तक ब्रह्मज्ञ ऋषि तुल्य अध्यापकों या मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं की कमी नई पीढ़ी के साथ अन्याय है और इसे शीघ्रताशीघ्र दूर करना होगा।  
स्कूल से लेकर उच्च शिक्षा संस्थानों तक सबसे महत्वपूर्ण होता है-चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने में पूरी तरह प्रशिक्षित, क्षमतावान, कर्मठ तथा कार्यशील युवा अध्यापकों का समूह ! यदि बड़े स्तर पर सोचा जाय तो जीवन के हर क्षेत्र में गुणवत्ता का बीज (चरित्र के २४ गुणों का बीज) तो ब्रह्मज्ञ सद्गुरुओं के द्वारा वास्तव में ' शिक्षक प्रशिक्षण' के दौरान ही बोया जाता है। इसलिये इस शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रम के सिलेबस को 'श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रम' के अनुसार सभी जाति और धर्म के लोगों के लिये समान लंगरखाना आधारित "टेम्पल ऑफ़ लर्निंग योजना" को ठीक से समझने के बाद निर्मित नहीं किया गया, तो इस योजना का हश्र भी 'मिड-डे मिल योजना' की तरह होने को बाध्य होगा। 
इस वर्ष के बजट में ' बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ ' के नाम से भी एक योजना प्रारम्भ की गयी है। आज जो व्यवहार बेटिओं के साथ हो रहा है वह कई बार इतना शर्मनाक होता है कि समाज के सभ्य होने पर प्रश्नचिन्ह लग जाता है। हमारी नारी शिक्षा नीति और सामाजिक व्यवस्था की भारी कमियों को उजागर करता है। इसीलिये भारत की वर्तमान शिक्षामन्त्री श्रीमती स्मृति ईरानी, जो स्वयं एक नारी हैं, उनको 
ऐसा भी हो सकता है कि पहले-पहल दो ही तीन व्यक्तियों (inmates सह-वासी ऋषि तुल्य युवा अध्यापकों) को लेकर काम (प्रशिक्षण) प्रारम्भ किया जाय। उत्साही ब्रह्मचारियों अर्थात आत्मजिज्ञासुओं को (' शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रम ' या  इस लंगरखाने का संचालन सिखाना होगा।

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2.  'Only knowledge can make you free !' कोई भी कर्म तुम्हें मुक्ति नहीं दे सकता, केवल ज्ञान (सत्य) के द्वारा ही मुक्ति हो सकती है। 
 इस तात्विक प्रसंग का उल्लेख स्वामीजी की एक शिष्या मिस एस ई. वाल्डो द्वारा अभिलिखित 'देव-वाणी' : (१६ जुलाई, मंगलवार १८९५) में इस प्रकार मिलता है: "ज्ञान अप्रतिरोध्य (irresistible) है ! मन (बुद्धि) में इतनी क्षमता ही नहीं कि वह इसे ग्रहण कर सके या रद्द कर सके ! जब ज्ञानोदय होगा, तब मन को उसे ग्रहण करना ही पड़ेगा। मन (बुद्धि) में इतनी क्षमता ही नहीं कि वह इसे ग्रहण कर सके या रद्द कर सके !
मन या किसी व्यक्ति के अनुकम्पा पर ज्ञान (सत्य) निर्भर नहीं करता अतएव यह ज्ञान-लाभ मन का कार्य नहीं है। किन्तु मन में इस ज्ञान का स्फुरण होता अवश्य है। कर्म और उपासना का फल इतना ही है कि वे तुम्हें अपने स्वरुप में फिर पहुंचा देते हैं। आत्मा देह है, मैं शरीर हूँ --यह सोचना बिल्कुल भ्रम है; अतएव हम इसी शरीर में मुक्त हो सकते हैं। देह के साथ आत्मा का किंचित सादृश्य नहीं है। माया का अर्थ ' कुछ नहीं ' नहीं है; मिथ्या को सत्य समझकर ग्रहण कर लेना ही माया है।"७/६४-६६
"unseen cause" या अदृश्य कारण अर्थात पूर्व-जन्मों से चित्त की गहराई में बड़े पैमाने पर संचित संस्कारों के सूक्ष्म छाप (subtle impressions) हमें यज्ञ-याग और उपासना (सत्य का अन्वेषण) करने के लिये बाध्य कर देता है, उससे एक के बाद एक व्यक्त फल (हाथ की लकीरें,२० वर्ष की आयु में विवाह आदि परिणाम) उत्पन्न होता है। किन्तु मुक्ति-लाभ करने के लिये हमें ब्रह्म (श्री रामकृष्ण) के संबन्ध में 'first hear, then think or reason, and then meditate upon Brahman.' पहले श्रवण, फिर मनन, उसके बाद निदिध्यासन करना होगा।
कर्म का फल तथा ज्ञान का फल -एक दूसरे से बिल्कुल भिन्न होते है! "Do" (पाँच नियम )and "Do not do" (पाँच यम) - ' यह करो ' और 'यह मत करो' अर्थात यम-नियम का पालन ही समस्त नैतिकता (चरित्र-निर्माण) का मूल है। किन्तु इनका सम्बन्ध वास्तव में देह (Hand) और मन (Head) के साथ ही है, ह्रदय (Heart) के साथ नहीं। सुख और दुःख इन्द्रियों के साथ अविच्छिन्न रूप से संबद्ध रहते हैं, इसीलिए सुख-दुःख का भोग करने के लिये शरीर की आवश्यकता होती है।
जिस व्यक्ति का शरीर जितना श्रेष्ठ (बलवान और पवित्र) होगा, उसके नैतिकता (चरित्र के गुणों) का मानदण्ड (आदर्श) भी उतना ही श्रेष्ठतर होगा- यही विधान ब्रह्मा तक पर लागू है। किन्तु 'मनुष्य' (ब्रह्मविद्) बनने के लिये सभी को (देवताओं को भी) शरीर धारण करना पड़ता है, और जब तक शरीर है, तब तक सुख-दुःख रहेगा ही; केवल देहातीत या विदेह होने पर ही सुख-दुःख का पूर्ण रूप से अतिक्रमण हो सकता है।
 आचार्य शंकर कहते हैं, 'Atman is bodiless' - आत्मा विदेह है। 'No law can make you free'- कितना भी विधि-निषेध (यम-नियम) का पालन क्यों न करें, उससे मुक्ति-लाभ नहीं हो सकता। तुम तो सदा  मुक्त हो। यदि तुम पहले से ही मुक्त न होते तो तुम्हें किसी भी तरह मुक्ति नहीं दी जा सकती। The Atman is self-illumined.आत्मा स्वयं प्रकाश है। कार्य-कारण (Cause and Effect) आत्मा को स्पर्श नहीं कर सकता- इस विदेह अवस्था (this disembodied-ness ) का नाम ही मुक्ति है।
'ब्रह्म' भूत, भविष्य, वर्तमान (मन की चहारदीवारी) इन सबसे परे (कालातीत) है। यदि मुक्ति किसी कर्म (यम-नियम) का परिणाम होती, तो उसका कोई मूल्य ही न होता, यदि मुक्ति एक यौगिक वस्तु (compound) होती, तो उसके भीतर बंधन का बीज (seeds of bondage-अहं भाव) भी निहित होता। यह मुक्ति ही आत्मा का एकमात्र नित्य-संगी है, उसको प्राप्त नहीं किया जाता, वह तो आत्मा का यथार्थ स्वरुप है। तो भी, आत्मा के उपर जो आवरण पड़ा रहता है, (जिसके कारण शरीर और मन के साथ जो वह तादात्म्य कर लेता है) उस तादात्म्य - माने हुए बंधन और भ्रम को दूर करने के लिये, (चित्त-शुद्धि) के लिये - कर्म और उपासना का प्रयोजन होता ही है।
ये दोनों चीजें (कर्म और उपासना) यद्द्पि मुक्ति नहीं दे सकतीं, फिर भी यदि हम अपनी और से प्रयत्न ही न करें तो हमारी आँखें नहीं खुलेंगी, और हम अपने स्वरुप को पहचान नहीं पायेंगे। शंकर आगे और भी कहते हैं, 'Advaita-Vedanta is the crowning glory of the Vedas' अद्वैतवाद (वेदान्त-ज्ञान) ही वेद का गौरवमुकुट-स्वरुप है; किन्तु वेद के निम्न भागों का भी प्रयोजन है। क्योंकि वे हमें कर्म और उपासना का उपदेश देते हैं, और इनकी सहायता से भी अनेक लोग भगवान के निकट पहुँचते हैं। फिर इस प्रकार के भी बहुत से व्यक्ति हो सकते हैं, जो केवल अद्वैतवाद की सहायता से ही उस अवस्था में पहुँच सकते हैं। अद्वैतवाद जिस अवस्था में ले जाता है, कर्म और उपासना भी उसी अवस्था में ले जाती है।
शास्त्र 'ब्रह्म' के विषय में कुछ नहीं सिखा सकते, किन्तु वे अज्ञान दूर कर दे सकते हैं; उनका कार्य निषेधात्मक है। आचार्य शंकर की महान उपलब्धि यही है कि उन्होंने जहाँ एक ओर शास्त्रों को स्वीकार किया है, उसके साथ-साथ उन्होंने (गीता, ब्रह्मसूत्र, उपनिषद पर भाष्य लिख कर) मुक्ति का मार्ग भी खोल दिया है। किन्तु (सगुण-साकार की उपासना पद्धति या मनः संयोग सीखे बिना) अन्ततः है वह बाल की खाल ही निकालना। 
पहले मनुष्य के समक्ष कोई ' concrete' मूर्त अवलम्बन (अनुकरणीय आदर्श) रखो, बाद में उसे धीरे धीरे सर्वोच्च अवस्था (विदेह अवस्था) में ले जाओ। विभिन्न प्रकार के धर्म यही चेष्टा करते हैं; प्रत्येक धर्म मनुष्य के विकास के किसी न किसी चरणों के लिये अनुकूल हैं, तभी तो इस बात की व्याख्या हो जाती है कि ये सभी धर्म (मजहब या संप्रदाय) अभी भी क्यों विद्यमान हैं ? शास्त्र-या ग्रन्थ जिस अविद्या को दूर करने में सहायता करते हैं, वे स्वयं उसी अविद्या का एक हिस्सा हैं। शास्त्र का कार्य है, ज्ञान के उपर अज्ञानरूपी आवरण पड़ गया है, उसे दूर करना।
"Truth shall drive out untruth." 'सत्य' का ज्ञान ही 'असत्यता'  (मिथ्या-ज्ञान या भ्रम) को दूर कर कर देगा। तुम मुक्त ही हो, तुम्हें और कौन मुक्त करेगा ? जब तक तुम किसी सम्प्रदाय-विशेष (creed -मत या पंथ) से बन्धे हुए हो, तब तक तुमने ईश्वर (ब्रह्म) को प्राप्त नहीं किया है। "He who knows he knows, knows nothing." जो व्यक्ति मन महि मन में यह सोचता रहता है, मैं (सत्य को) जानता हूँ, वह नहीं जानता ! Who can know the Knower? जो स्वयं ज्ञातास्वरुप हैं, उनको कौन जान सकता है ?
'अस्तित्व' में दो अविनाशी तथ्य हैं- ईश्वर और जगत (ब्रह्म और ब्रह्माण्ड)। उन दोनों में ईश्वर (ब्रह्म) अपरिवर्तनीय (unchangeable-अविकारी) हैं, और ब्रह्माण्ड (जगत) परिवर्तनशील है। किन्तु जगत (विश्व-ब्रह्माण्ड) भी अनंत काल से रहता है ! दुनिया सदा से मौज़ूद है। (जब तक तुम अपने मन की चहारदिवारी को तोड़ कर बाहर नहीं निकल जाते तब तक) जब तुम्हारा मन लगातार होने वाले परिवर्तन को समझ नहीं पाता, तुम उसे अनंत कहते हो !
'जगत' और 'ब्रह्म' (ब्रह्म और ब्रह्माण्ड) एक हैं अवश्य, किन्तु एक ही समय में (simultaneously- युगपत् रूप से या साथ-साथ) तुम दो पदार्थों को इकट्ठे नहीं देख सकते --एक पत्थर के उपर शिवजी की मूर्ति खुदी हुई है, जब तुम्हारा ध्यान पत्थर (ख़ुदा) की ओर होगा, तो खुदाई की ओर नहीं रहेगा और यदि खुदाई का ध्यान दो, तो पत्थर का ध्यान नहीं रहेगा।  
तुम क्या एक क्षण के लिये भी अपने (मन) को स्थिर (एकाग्र) कर पाते हो ? सभी योगी कहते हैं--ऐसा कर सकना सम्भव है।
सबसे बड़ा पाप है, अपने को दुर्बल समझना। तुमसे बड़ा और कोई नहीं है; सत्य मानो कि तुम ब्रह्मस्वरूप हो ! Nothing has power except what you give it. जिस किसी वस्तु में तुम शक्ति का विकास देखते हो, वह शक्ति तुम्हारी दी हुई है। हम सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, इतना ही नहीं समस्त विश्व- ब्रह्मांड से भी परे (बृहत) हैंTeach the Godhood of man. सम्पूर्ण मानवजाति को उसकी अन्तर्निहित दिव्यता (ब्रह्मत्व) का उपदेश दो ! 
'Deny evil, create none.' कोई भी मनुष्य दुष्ट या त्याज्य नहीं है, अपनी ओर से किसी मनुष्य में अशुभता का सृजन मत होने दो। अपने पैरों पर खड़े हो जाओ- और घोषणा कर दो, ' मैं प्रभु हूँ (अर्थात मन-इन्द्रियों का गुलाम नहीं हूँ), मैं सभी का प्रभु हूँ! ' We forge the chain, and we alone can break it. हमने ही जंजीरे गढ़ी हैं, और केवल हम ही इसे तोड़ सकते हैं।
(हमने स्वयं ही अपने को शरीर स्त्री-पुरुष मान लिया है, इस भ्रम को हमें स्वयं हो तोडना होगा!) कोई भी कर्म तुम्हें मुक्ति नहीं दे सकता, केवल ज्ञान (सत्य) के द्वारा ही मुक्ति हो सकती है।  " No action can give you freedom; only knowledge can make you free, Knowledge is irresistible; the mind cannot take it or reject it."
ज्ञान अप्रतिरोध्य (irresistible) है ! मन (बुद्धि) में इतनी क्षमता ही नहीं कि वह इसे ग्रहण कर सके या रद्द कर सके ! जब ज्ञानोदय होगा, तब मन को उसे ग्रहण करना ही पड़ेगा।{मन के अनुकम्पा पर ज्ञान (सत्य) निर्भर नहीं करता} अतएव यह ज्ञान-लाभ मन का कार्य नहीं है। किन्तु मन में इस ज्ञान का स्फुरण होता अवश्य है। 
कर्म और उपासना का फल इतना ही है कि वे तुम्हें अपने स्वरुप में फिर पहुंचा देते हैं। आत्मा देह है, मैं शरीर हूँ --यह सोचना बिल्कुल भ्रम है; अतएव हम इसी शरीर में मुक्त हो सकते हैं। देह के साथ आत्मा का किंचित सादृश्य नहीं है। माया का अर्थ ' कुछ नहीं ' नहीं है; मिथ्या को सत्य समझकर ग्रहण कर लेना ही माया है। 
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