शनिवार, 8 मार्च 2014

चरित्र के गुण : १७-१८: चातुर्य' (Resourcefulness) या उपयोग बुद्धि 'तीसरी-आँख' है।

१७ .साहस (Courage): आत्मविश्वास के साथ-साथ अदम्य साहस का गुण भी हमारे चरित्र में रहना चाहिये। जो व्यक्ति सदा नाना प्रकार की आशंकाओं से भयभीत रहता हो, वह कभी कुछ नहीं कर पाता। इसीलिये हमें समस्त समस्याओं का सामना अदम्य साहस के साथ करना चाहिये। नहीं तो किसी भी कार्य में सफलता नहीं प्राप्त हो सकती। अंग्रेजी की कहावत है "Success is never final; Failure is never fatal." सफलता कभी अन्तिम नहीं है, विफलता कभी जानलेवा नहीं है। " वास्तव में असफलता तो सफलता के प्रारंभिक सोपान हैं, संस्कृत का एक सुन्दर श्लोक में तीन प्रकार के मनुष्यों की बात कही गयी है -
प्रारभ्यते न खलु विघ्नभयेन नीचैः
प्रारभ्य विघ्नविहिता विरमन्ति मध्याः|
विघ्नैःपुनः पुनरपि प्रतिहन्यमानाः
प्रारब्धमुत्तमजना न परित्यजन्ति||
(मुद्राराक्षस २/१७)

-अर्थात निम्नकोटि के लोग विघ्नों के डरसे किसी भी कार्य का आरम्भ ही नहीं करते, मध्यम श्रेणी के मनुष्य कार्य का आरम्भ तो कर देते हैं, किन्तु कोई विघ्न आ जाने पर उसे बीच में ही छोड़ देते हैं। परन्तु, उत्तम गुणों वाले  मनुष्य प्रारब्धवश बार-बार विघ्न आने पर भी अपना (प्ररम्भ किया हुआ) कार्य कभी बीच में नहीं छोड़ते। 
स्वामी विवेकानन्द ने अपने साथ घटी एक घटना का उल्लेख करते हुए कहा था -' एकबार स्वामीजी सड़क से होकर कहीं जा रहे थे, अचानक एक विशाल बन्दर कहीं से उतर कर आया और भय दिखाते हुए उनका पीछा करने लगा। विवेकानन्द जितनी तेजी से भागने की कोशिश कर रहे थे, बन्दर भी उतनी ही तेजी से पीछा कर रहा था। स्वामीजी की ऐसी अवस्था देखकर एक वृद्ध साधू ने कहा -'बेटा, भागो मत ! घूमकर उसका सामना करो।' उनकी बात मानकर स्वामीजी ने ज्यों ही रुक कर घूमते हुए बन्दर का सामना किया, बन्दर डर कर भाग खड़ा हुआ। " 
हर समय अनागत की आशंका से भयभीत व्यक्ति के लिये किसी भी कार्य में सफलता पाना सम्भव नहीं होता। 
किन्तु, मनुष्य में साहस के साथ-साथ थोड़ी सामान्य बुद्धि भी रहनी चाहिये। मूर्खतापूर्ण दुस्साहस को धृष्टता या ढिठाई कहा जाता है, वैसा करना ठीक नहीं है। जिस कार्य को बिना अतिरिक्त उतावलापन (rashness) दिखाये भी सूसम्पन्न किया जा सकता हो, वहाँ भी निरर्थक  उतावलापन दिखाने को धृष्टता कहा जाता है। वैसा करने से अकारण ही जीवन नष्ट हो सकता है या बहुत बड़ी क्षति भी हो सकती है। किन्तु, किसी महान उद्देश्य को प्राप्त करने के लिये अतिरिक्त जिद या उत्साह से भरे रहना सत्-साहस बन जाता है। इसे धृष्टता या ढिठाई नहीं कह सकते। 
 खेल-कूद में हाथ-पैर टूट सकता है यह सोचकर कोई खेल-कूद से मुख मोड़ ले, या सड़क पर चलते समय एक्सीडेंट होने के भय से कोई सड़क पर चलना ही छोड़ दे - तो यह किस बात का परिचायक होगा ? इसको कहा जायगा साहस का नितान्त आभाव। इतना डरपोक (Timid) व्यक्ति जीवन के किसी भी क्षेत्र में सफलता नहीं प्राप्त कर सकता। उसी प्रकार मान लो कि मैं सड़क से जा रहा हूँ, और सामने से कोई ट्रक आ रहा है, तभी मेरे मन में विचार आ जाय कि मैं तो बहुत ही साहसी हूँ, ट्रक आ रहा है तो आ जाय - मैं तो सामने नहीं ही हटूँगा ! इसको ही दुस्साहस या धृष्टता कहा जायगा। क्योंकि यदि मैं खुद को बचाने के लिये सड़क से किनारे नहीं उतरा तो उस ट्रक से कुचलकर अकारण ही मेरी जान भी जा सकती है। अतः जीवन में कुछ कर दिखाने के लिये ढिठाई या दुस्साहस नहीं, बल्कि साहस रहना चाहिये।                                                                                                                                                         
१८. " उपयोग बुद्धि या चातुर्य "(Resourcefulness) उपयोग बुद्धि या चातुर्य भी चरित्र का एक मूल्यवान गुण है। उपयोग कुशल बनने का अर्थ है किसी वस्तु या व्यक्ति को अपने कार्य सिद्धि के लिए उपयोगी बना लेने का कौशल रखना। किन्तु, इस चतुराई या कौशल का उपयोग अच्छे कार्य के लिये भी हो सकता है और बुरे कार्य के लिये भी। अच्छे कार्य में इस कौशल का उपयोग करें तो उसको ' सदुपयोग' कहा जायगा तथा इसका उपयोग यदि बुरे कार्य के लिये किया जाय तो उसे 'दुरूपयोग' कहना पड़ेगा। उदहारण के लिए आग कितनी उपयोगी वस्तु है, किन्तु यह तभी उपयोगी है जब हम इसका सदुपयोग करें। नहीं तो यही आग विध्वंसक भी सिद्ध हो सकता है। यहाँ तक कि इससे जान भी जा सकती है। निश्चित ही आग के ऐसे उपयोग को- 'दुरूपयोग' ही कहेंगे।
अपनी बुद्धि, गुणों या उपलब्ध को व्यवहार में लाकर उनका सदुपयोग करके अपना एवं दूसरों का कल्याण भी किया जा सकता है। तथा वैसा न करके यदि इनका दुरूपयोग करने लगूँ, तो ये ही वस्तुएं मुझे या दूसरों को क्षति भी पहुँच सकती है। कभी-कभी ऐसा भी हो सकता है कि मैं अपनी क्षमता, ज्ञान या किसी वस्तु का ऐसा उपयोग इस चतुराई के साथ करूँ कि, उससे मुझे तो लाभ हो किन्तु दूसरों कि क्षति हो। इसको अपने पद-रसूख या बुद्धि-बल का सदुपयोग नहीं दुरूपयोग ही कहा जाएगा। क्यों कि अपने स्वार्थ को सिद्ध करने के लिए मैंने दूसरों को क्षति पहुंचाई। किन्तु, यहाँ यह भी जान लेना अच्छा होगा कि वैसा करने से भले ही मुझे कुछ तात्कालिक लाभ प्राप्त हो जाय जाय किन्तु, अन्त में वह मेरे लिए भी नुकसानदेह ही सिद्ध होगा। क्योंकि दूसरों को ठगने वाले या अकल्याण करने वाले व्यक्ति का कभी भला होते आजतक नहीं देखा गया है। बहुत बार तो अंततोगत्वा हम स्वयम ही ठगे जाते हैं। पहला नुकसान तो यह होगा कि मैं मनुष्यत्व से नीचे गिर जाऊँगा, फ़िर दूसरों को क्षति पहुँचा कर, स्वयं को लाभान्वित करने की वासना इतनी अधिक बढ़ जायगी कि- अन्त में मैं ऐसे किसी भारी संकट में फंस जाऊँगा जिसके कारण मेरा सारा सांसारिक लाभ भी एक बड़े नुकसान में परिणत हो जायगा।
स्वामीजी पाप-पुण्य के ऊपर उतना जोर देने के लिए नहीं बोलते थे। किन्तु, यह अवश्य कहते थे कि  " शक्ति का सदुपयोग ही पुण्य है, तथा उसका असद् उपयोग ही पाप है।" परहित को भी ध्यान में रखते हुए उपयोग बुद्धि का प्रयोग करते रहने से ऐसी क्षमता प्राप्त हो जाती है कि हम कैसी भी वस्तु का प्रयोग केवल सद्कर्मों के लिये करने का सामर्थ्य प्राप्त कर लेते हैं। मानो मुझमें कोई 'तीसरी-आँख' खुल गई हो, और अब कोई पराया दीखता ही नहीं हो ! मान लो मैं किसी विषय के बारे में थोड़ी-बहुत जानकारी रखता हूँ, किन्तु उतनी भी जानकारी न रहने के कारण यदि कोई व्यक्ति कष्ट में पड़ गया हो तो मैं उतनी ही जानकारी से भी दूसरों की सहायता कर सकता हूँ। कोई वस्तु सामने पड़ी हुई है उसे काम की वस्तु न समझकर हो सकता है कोई उसे फेंक दे, किन्तु उपयोग बुद्धि रहने पर  उसी वस्तु को ऐसे कार्य में लगाया जा सकता जिससे कि तत्काल ही कोई  बड़ी असुविधा दूर हो जाय। उसी प्रकार यदि चतुराई के साथ समय का भी सदुपयोग किया जाय तो कितने ही कार्यों को यथासमय सुसंपन्न किया जा सकता है। जिसके पास 'सर्वोपयोगी चातुर्य'
(Resourcefulness)या उपयोग बुद्धि नहीं होती वह अपने महत्वपूर्ण कार्यों के लिए भी समय नही निकाल पाता। यदि अपनी तीसरी आँख को खोलकर, अर्थात कोई पराया नहीं है, सभी अपने हैं की दृष्टि के साथ अपनी उपयोग बुद्धि अर्थात चतुराई को जीवन भर केवल सद्कर्म में य़ा अच्छे-अच्छे कार्यों में व्यवहार किया जाय तो, तो हमारा मानव-जीवन सार्थकता से मण्डित हो जाता है। 

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