शुक्रवार, 7 मार्च 2014

चरित्र के गुण : ११-१३: अपने भीतर का आध्यात्मिक दीपक जलाओ !

११.
' स्वच्छता'  
(Cleanliness):  
स्वच्छता  चरित्र का एक अत्यन्त ही प्रयोजनीय गुण है। हम ऐसा सोच सकते हैं कि चरित्र तो मनुष्य की आन्तरिक वस्तु है जबकि स्वच्छता  एक वाह्य वस्तु है, फ़िर यह चरित्र का गुण कैसे हो सकता है ? स्वच्छता के समान ही अन्य अनेक वस्तुएं ऐसी हैं जो प्रथम दृष्टया वाह्य वस्तु  ही प्रतीत होती है, किन्तु उनका मनुष्य के मन पर गहरा प्रभाव पड़ता है। तथा, इन्हें अपने जीवन में धारण करने से हमारा चरित्र और भी उज्जवल हो जाता है। हो सकता है कि एक-दो व्यक्ति बाहरी स्वच्छता पर ध्यान दिये बिना भी उत्तम चरित्र के अधिकारी बन  गये हों, किन्तु उन्हें अपवाद ही माना जायेगा। किन्तु, जो व्यक्ति अपने संकल्प और प्रयत्न के सहारे ही अपना  चरित्र-गठन करने का इच्छुक हो, उसे तो अवश्य ही स्वच्छता जैसे गुणों को  आत्मसात करना पड़ेगा  तभी तो उसका  चरित्र सुंदर ढंग से गठित हो पायेगा। क्योंकि हम दिखावे के लिये चरित्र गठन करना नहीं चाहते हैं, हम ऐसा नहीं सोचते हैं कि चरित्र के गुणों से युक्त हमारे व्यव्हार को देखकर लोग हमारी प्रशंसा करने लगेंगे --इसीलिये हमें चरित्र निर्माण कर लेना चाहिये। बल्कि, हमारा विश्वास तो यह है कि केवल चरित्र ही मनुष्य को अपने जीवन में सभी प्रकार के कार्यों को सुंदर ढंग से सम्पन्न करने की कला या कौशल प्रदान करता है। 
यदि हम इस कर्मकुशलता या 'आर्ट ऑफ़ लिविंग' में तो पारंगत हो जाना चाहें किन्तु, हममें यथार्थ मनुष्य कहलाने के योग्य कोई गुण ही न रहें तो हम किसी भी कार्य को सुन्दर ढंग से संपन्न नहीं कर पायेंगे; और कल्बों में जाकर सीखे गये 'आर्ट ऑफ़ लिविंग' के सारे नुस्खे धरे के धरे ही रह जायेंगे। इसीलिये चरित्र गठन का उद्देश्य सभी के साथ अच्छे  व्यवहार का दिखावा करके केवल 'प्रशंसा प्रमाण-पत्र' प्राप्त कर लेना ही नहीं है। बल्कि, अपने जीवन में सफलता अर्जित करने, अपना सुन्दर भविष्य गढ़ने, सभी कार्यों को सुव्यवस्थित ढंग से कर पाने कि क्षमता अर्जित करने के लिए  हमारे चरित्र में स्वच्छता का गुण रहना अनिवार्य है। हमें अपने प्रत्येक कार्य में स्वछता को प्रश्रय देना होगा।  ध्यान पूर्वक प्रयत्न करते रहने से इसकी आदत पड़ जाती है।
इस प्रकार से धीरे धीरे स्वच्छता का भाव हमारे मन में बैठ जायगा, तब थोड़ी सी गंदगी भी असह्य अनुभव होने लगेगी एवं सभी कार्यों को स्वच्छतापूर्वक करना हमारा स्वभाव बन जायेगा। तब हमारे द्वारा जो भी कार्य सम्पन्न होगा वह अनायास ही स्वच्छ होगा। हम पायेंगे कि हमारी वेश-भूषा, भोजन करने का ढंग, भोजन की थाली, हमारा चाल-ढाल, बात-चीत करने का ढंग, हांथों कि लिखावट सब कुछ अपने-आप धीरे-धीरे स्वच्छ और सुन्दर होता जा रहा है।
पुस्तकों-कॉपियों को आलमारी में रखने का हमारा तरीका, पढने का टेबल, पुस्तकों के पन्ने पलटने के  ढंग में भी अपने-आप ही सौंदर्यबोध झलकने लगा है। फिर तो हमारे मन में केवल स्वच्छ और पवित्र विचार ही उठेंगे। इस प्रकार के स्वच्छ विचारों के द्वारा सभी समस्याओं का सटीक विश्लेष्ण कर उसके तह तक जाने की क्षमता प्राप्त हो जाती है। स्वच्छ वेश-भूषा, स्वच्छ भाषा तथा सभी कार्य स्वच्छतापूर्वक करने की आदत हो जाने पर हमारा सम्पूर्ण जीवन ही स्वच्छ-शुद्ध हो जाता है। और यह वाह्य स्वच्छता हमारे अंतस् के सौन्दर्यबोध को जाग्रत कराकर पवित्रता की ओर अग्रसर करा देती है। इससे यह अच्छी तरह से समझा जा सकता है कि स्वच्छता का गुण चरित्र के लिए कितना प्रयोजनीय है।
अपने वाह्य जीवन में स्वच्छता का अभ्यास करते रहने से जब स्वच्छ रहना हमारा स्वभाव बन जाता है, तब हमारे मन में केवल सत् विचार ही उठते हैं और बुरी इच्छाएं हमारे मन को कलुषित नहीं कर पातीं।  'ज्ञान' के आलोक से मन हमेशा उज्ज्वल बना रहता है तथा हमलोग ईमानदारी, नैतिकता और सत्य की दिशा में निरन्तर अग्रसर होते रहते हैं।
विवेकानन्द कहते हैं, " अगर तुम्हारे कमरे में अँधेरा है, तो तुम छाती पीट-पीट यह तो नहीं चिल्लाते कि हाय ! अँधेरा है, अँधेरा है बड़ा अँधेरा है ! अगर तुम उजाला चाहते हो, तो एक ही रास्ता है-तुम दिया जलाओ और अँधेरा अपने आप ख़त्म हो जायेगा। जो प्रकाश तुम्हारे परे है, उसे पाने का एक ही साधन है, तुम अपने भीतर का आध्यात्मिक दीपक जलाओ, पाप और अपवित्रता का तमिस्र स्वयं भाग जायेगा। " (२/२३६)
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१२. 
अनुशासन  
(Discipline): 
स्वच्छता के सामान ही  एक अन्य महत्वपूर्ण  गुण है-- अनुशासन या आत्मानुशासन। प्रथम दृष्टि में यह भी एक बाह्य गुण जैसा ही प्रतीत होता है किन्तु, धीरे-धीरे यही गुण हममें अपने आन्तरिक जीवन में भी नियम पालन करने की बुद्धि  को जागृत कर देता है। स्वेच्छा से नियमों का पालन करने की आदत बनाने या अनुशासित जीवन जीने का अभ्यास करने से आत्म-संयम का गुण भी स्वतः ही चला आता है। किसी भी प्रकार की शक्ति यदि अनियंत्रित हो जाय तो वह मनुष्य  के लिए क्षतिकर हो  जाती है।
इसीलिए कोई व्यक्ति यदि अपनी आंतरिक शक्तियों का अनुशासित एवं संयमित उपयोग न कर उसे यूँ ही विनष्ट  करता रहे तो अन्त में उसका जीवन भी संकट में पड़ सकता है। अपने हित अहित को समझकर संयमित रहने और दण्ड के भय से संयमित रहने में आकाश-पाताल का अन्तर है। दण्ड के भय से संयम तो गुलामी के सामान है, वहाँ अपनी इच्छा से कुछ भी करने की स्वतंत्रता नहीं रहती, जैसे दूसरों के द्वारा बन्दी बना लिए जाने के बाद कोई मनुष्य अपनी इच्छा से कोई भी कार्य करने की शक्ति को खो देता है। जबकि, अपनी इच्छा से शक्ति प्रवाह को पूर्ण नियंत्रण में रखने, या आवश्यकतानुसार उसका सदुपयोग करने की क्षमता को संयम कहते हैं। तथा इसी वाह्य अनुशासन का पालन करने से, हमें इस क्षमता को अर्जित करने में सहायता मिलती है। अतः अब से हमें जन-कल्याण की दृष्टि से बने सभी नियमों का अवश्य पालन करना चाहिए।
इन नियमों का पालन न करने से जहाँ दूसरों को कई तरह की असुविधा हो सकती है वहीं हमें भी हानि उठानी पड़ सकती है। जैसे यदि सड़क पर बायीं ओर चलने के नियम का पालन न करें तो दूसरों को तो असुविधा होगी हमारा अपना जीवन भी खतरे में पड़ सकता है। जैसे -- खेल के कुछ  सर्वमान्य  नियम होते हैं, यदि  कोई इस नियम को नहीं माने तो खेल हो पाना असंभव हो जायगा। उसी प्रकार जो कार्य संघबद्ध होकर या सामूहिक रूप से किये जाते हैं,  उसमें  संगठन का एक भी सदस्य यदि नियमों की अवहेलना करे, तो वह सामूहिक प्रयास विफल होने को बाध्य हो जायगा।  नियमों की अनदेखी करने से सब कुछ अनियंत्रित हो जाता है। अनुशासन या नियम पालन करना दुर्बलता का चिन्ह नहीं बल्कि सबलता का द्योतक है। क्योंकि मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति बेतरतीब ढंग से जीने की होती है। विवेक-प्रयोग एवं संयम के बल पर ही मनुष्य अनुशासित हो सकता है।  अपने सभी कार्यों को सफलतापूर्वक सम्पादित करने तथा अभी के कल्याण के लिए --अनुशासन अत्यन्त आवश्यक गुण है।  
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१३. 
समयनिष्ठता 
 (Punctuality): 
 समयनिष्ठता या समय की पाबंदी भी चरित्र का एक अत्यन्त महत्वपूर्ण गुण है। सभी कार्यों को ठीक समय पर करने की आदत को ही समयनिष्ठता कहते हैं। वास्तव में यही गुण जीवन में सफलता प्राप्त करने की कुंजी है। जो व्यक्ति समय का पाबन्द नहीं होता, वह जीवन के अन्तिम पड़ाव पर आकर देखता है कि सारा जीवन तो व्यर्थ में ही व्यतीत हो गया ! क्योंकि समय अत्यन्त ही द्रुत गति से व्यतीत हो जाता है, इसलिये यदि जीवन में सफलता प्राप्त करनी हो तो उसके साथ उतनी ही द्रुत गति के साथ उसके ताल से ताल मिलाना आवश्यक हो जाता है। यदि हम समय के साथ-साथ नहीं चले तो तो पीछे छूट जायेंगे तथा समय के पीछे छूट जाने वाले पुनः कभी उसे पकड़ नहीं सकते, और जीवन में कभी आगे नहीं बढ़ सकते।
बहुत से लोग सोंचते हैं कि- ' यदि आज का दिन यूँ ही बीत भी गया तो उससे क्या बिगड़ गया ? कल यही सूर्य पुनः उदित होगा तथा मुझे फिर से एक और दिन तो मिल ही जायगा।' किन्तु, वे यह नहीं सोचते कि - जो दिन आयेगा, वह तो अभी भविष्य (काल) के गर्भ में है, किन्तु, आज का दिन जो व्यतीत हो गया उसे फ़िर दुबारा कभी नहीं पाया जा सकता ! आज ही जिस कार्य को निपटा दिया जा सकता था उसको अगले दिन के लिए टाल देने से अगले दिन जो हो सकता था, वह तो नहीं हो पायेगा। यह एक दिन जो व्यतीत हो गया उसे जीवन में दुबारा कभी नहीं प्राप्त किया जा सकता है। इसीलिए जो कार्य अभी हो सकता है, उसे कल पर कभी नहीं टालना चाहिए क्योंकि, अभी वाला कार्य बाद में करने से, उस दिन जिस कार्य को निपटा देते सो तो नहीं ही हो पायेगा ? अतः किसी भी कार्य में टाल-मटोल करना स्वयं को धोखा देना ही कहलायेगा। किसी भी कार्य को कल पर टालते रहने की बुरी आदत, एक बहुत बड़ा दुर्गुण है - इसी को 'दीर्घसूत्रता' (Procrastination) कहते हैं। एक ही कार्य में अधिक समय बर्बाद कर देना दीर्घसूत्रता कहलाती है। जिस किसी भी व्यक्ति के चरित्र  में यदि यह दुर्गुण प्रविष्ट हो गया हो, तो उसका जीवन असफल रह जाने के लिये बाध्य है।  
इसीलिए सभी कार्यों को ठीक समय पर करने की आदत डाल लेनी चाहिए, तथा इस 'समयनिष्ठता' को अपनी प्रवृत्तियों में सबसे पहला स्थान देना चाहिए। सभी कार्यों को ठीक समय पर करने की आदत जब गहरी होकर हमारी सहज-प्रवृत्ति बन जायेगी, तो यह देखकर हम आश्चर्यचकित हो जायेंगे कि समय का कितना अधिक सदुपयोग हो सकता है। कुछ भी अर्जित करने के लिये परिश्रम करना ही पड़ता है, बिना परिश्रम किये कोई भी वस्तु प्राप्त नहीं हो सकती। 'श्रम करने' - का अर्थ ही है, किसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए विशेष रूप से कार्यरत रहना। और कार्य करने में समय लगता ही है। यदि हम समय का कोई हिसाब न रखें तो साधारण से काम में ही  हमारा सारा समय व्यतीत हो जायगा तथा शेष समय में जो काम हम कर सकते थे - वह नहीं हो पायेगा। समय का ध्यान न रखने पर उस कार्य के द्वारा जितना कुछ अर्जित हो सकता था, वह तो नहीं ही हो सकेगा तथा अन्त में हम स्वयं को ही ठगा हुआ अनुभव करेंगे।
अतः मनुष्य मात्र के लिये जीवन के एक-एक क्षण का सदुपयोग करना-अर्थात समय को नष्ट न करके ऐसा कार्य में लगाना जिससे की कुछ अर्जित हो सके परम-आवश्यक है। क्योंकि यदि हमलोग समय का सदुपयोग करने की कला को सीख जायें तो पढाई-लिखाई के साथ-साथ खेल-कूद, चित्रकला, गीत-संगीत, अपनी मातृभाषा के अतिरिक्त अन्य कोई भाषा (संस्कृत-उर्दू-स्पेनिश-फ्रेंच) आदि बहुत कुछ सीख सकते हैं । इस प्रकार हम जो सीख लेंगे उसका प्रयोग तो अपने जीवन में करेंगे ही, और उस अतिरिक्त ज्ञान के माध्यम से अपने बन्धु-बान्धवों के जीवन को भी सुंदर एवं सफल बनाने में सहायता कर सकेंगे ।
यदि हम समय का सदुपयोग करना चाहते हों तो हमें समयनिष्ठ-मनुष्य या समय का पाबन्द व्यक्ति बनना ही पडेगा। जिस समय जिस कार्य को करना उचित एवं आवश्यक प्रतीत होता हो, ठीक उसी समय कर डालने का अभ्यास करना अत्यन्त अनिवार्य है। यदि समय से विद्यालय नहीं पहुँचा जाये तो ठीक से पढ़ा-लिखा मनुष्य भी नहीं बना जा सकता है। समय से खेल के मैदान में न पहुँचा जाये तो हो सकता है कि प्रथम दल के साथ खेल में भाग लेने से वंचित रहना पड़े। समय से रेलवे स्टेशन न पहुँचें तो ट्रेन छूट सकती है । इस लेट-लतीफी के कारण कभी भारी संकट का सामना भी करना पड़ सकता है। ठीक समय से सब कार्य निपटा लेने की आदत डाल लेने पर अन्य कई प्रकार के कार्यों के लिए भी समय मिल जाता है। इससे विश्राम या मनोरंजन के लिए भी समय निकल आता है। तथा मन में भी हर समय आनन्द का भाव बना रहता है। सभी कार्यों में उत्साह मिलता है तथा पूरे जीवन की गति ही मानो बढ़ जाती है।
यदि हम स्वच्छतापूर्वक समय की गति के साथ कदम से कदम मिलाते हुए जगत के कल्याण के जितने भी नियम हैं उनका पालन करते हुए जीने की आदत डाल लें तब चरित्र के अन्य दूसरे गुणों को भी आत्मसात करना सहज हो जाता है। इस प्रकार हम अच्छे चरित्र का अधिकारी बन कर अपने जीवन को सार्थक बना  सकते हैं।
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