शुक्रवार, 31 जनवरी 2014

' परलोक का अनुसन्धान ' (The Inquiry into the Beyond)

धर्म का लक्ष्य-  प्राणिमात्र में विद्द्यमान एकत्व की खोज ! 
 ("एकत्व : धर्म का लक्ष्य !"स्वामी विवेकानन्द द्वारा १८९६ न्यूयार्क में दिया भाषण ) 
हमारा यह संसार -इन्द्रियों, बुद्धि और युक्ति से ससीम, सान्त (ससीम) दिखने वाला संसार --दोनों ही ओर से अनन्त, ज्ञानातीत या नित्य अज्ञात सत्ता द्वारा परिसीमित है। वह असीम जो ससीम में ही छुपा हुआ है, वह अनन्तता ही हमारी खोज है, इसीमें अनुसन्धान के विषय हैं, इसीमें तथ्य हैं और इसीसे प्राप्त होने वाले प्रकाश को संसार धर्म कहता है। इस तरह धर्म, वस्तुतः अतिचेतन या इन्द्रियातीत अवस्था में उपलब्ध होने वाली वस्तु है, ऐन्द्रिक धरातल की नहीं। 'It is beyond all reasoning and is not on the plane of intellect.'  
यह समस्त तर्क के परे है, बुद्धि के स्तर की नहीं। यह एक अलौकिक दिव्य दर्शन है, एक आकस्मिक-उद्भव (inspiration,अन्तःप्रेरणा) है, यह मानो अज्ञात और अज्ञेय के उदधि में डुबकी लगाना है, जिससे ज्ञानातीत सत्ता ज्ञात से भी अधिक ज्ञात हो जाता है। 'it can never be "known". क्योंकि वह असीम कभी इस ससीम बुद्धि के द्वारा 'जाना' नहीं जा सकता। 
जैसा कि मेरा विश्वास है, यह खोज मानवता के आदि काल से ही जारी है। विश्व के इतिहास में ऐसा समय कभी नहीं हुआ, जब मनुष्य की बुद्धि इस संघर्ष, इस अनन्त की खोज में व्यस्त न रही हो।  हमारे मन का जो नन्हा सा संसार (Little Universe) है, उसमें हम निरन्तर विचारों के बुलबुलों को उठते हुए देखते हैं। ये विचार कहाँ से आते हैं और कहाँ चले जाते हैं ?  हम नहीं कह सकते।  और बृहत् ब्रह्माण्ड और सूक्ष्म ब्रह्माण्ड (The macrocosm and the microcosm) एक ही लोक में हैं, उन्हीं अवस्थाओं को पार करते हैं, वही स्वर स्पंदित करते हैं।      
   अब तुम्हारे समक्ष हम हिन्दुओं के इस सिद्धान्त को रख रहे हैं कि धर्म कहीं बाहर से नहीं आता, बल्कि व्यक्ति के अभ्यन्तर से ही उदित होता है। मेरी यह आस्था है कि धार्मिक विचार मनुष्य की रचना में ही सन्नहित हैं, और यह बात इस सीमा तक सत्य है कि चाहकर भी मनुष्य धर्म का त्याग नहीं कर सकता, जब तक उसका शरीर है, मन है, मस्तिष्क है, जीवन है। जब तक मनुष्य में सोचने की शक्ति रहेगी, तब तक यह संघर्ष चलता ही रहेगा और तब तक किसी न किसी रूप में धर्म रहेगा ही।  इस तरह विश्व में हमें धर्म के विभिन्न रूप दिखाई पड़ते हैं। यह बात कुछ विस्मयकारी अवश्य लग सकती है, पर ऐसा नहीं कहा जा सकता, जैसा कुछ लोग कहते हैं कि यह सब निरर्थक परिकल्पना या व्यर्थ की अटकलें हैं। इस विस्वरता के मध्य एक समस्वरता भी है; इन समस्त बेसुरी ध्वनियों में समसुरता का भी एक स्वर है, और जो सुनना चाहे, वह उसे सुन सकता है। 
वर्तमान युग का सबसे बड़ा प्रश्न है : यदि इस बात को मान भी लिया जाय कि हमारा यह जगत;  जिसे हम जानते हैं-अर्थात ज्ञात है, और इसका जो कुछ हम अभी तक नहीं जान पाये हैं, किन्तु ज्ञेय है, हमारे इस ससीम जगत का आदि और अन्त, शाश्वत (सदा के लिये ) अज्ञात तथा असीम अज्ञेय द्वारा सीमाबद्ध है; तो हमें उस अज्ञात और असीम को जानने का प्रयास भी हमें क्यों करना चाहिये ? क्यों न हम इस ससीम या ज्ञात जगत को ही लेकर सन्तुष्ट रहें ? Why shall we not rest satisfied with eating, drinking, and doing a little good to society? क्यों न हम खाने, पीने और संसार की किंचित भलाई करने में ही संतुष्ट रहें ? ये प्रश्न अक्सर सुनने को मिलते हैं।  विद्वान् प्राध्यापक से लेकर तुतलाते बच्चे तक से यही सुनने को मिलता है कि , " संसार की भलाई करो; यही सारा धर्म है; परलोक में (इसके परे) क्या है, इससे सम्बन्धित प्रश्नों से व्यर्थ अपने को परेशान मत करो। " यह बात इतनी चल पड़ी है कि उसने एक कहावत या सामान्य सत्य (truism) का रूप ले लिया है। 

किन्तु सौभाग्यवश हम अनन्त के बारे में जिज्ञासा किये बिना नहीं रह सकते। यह जो वर्तमान है, व्यक्त है, वह तो अव्यक्त का अंश मात्र है। इन्द्रियों की चेतना के धरातल पर जो अनन्त अध्यात्मिक जगत् प्रक्षेपित हुआ है, यह इन्द्रिय-जगत् उसका नन्हा सा अंश है।  ऐसी स्थिति में उस अनन्त विस्तार को समझे बिना यह नन्हा सा प्रक्षेपित भाग कैसे समझा जा सकता है ? सक्रेटिस के बारे में ऐसा कहा जाता है कि एक बार एथेन्स में भाषण करते समय उससे एक ब्राह्मण की मुलाकात हुई।  वह ब्राह्मण यूनान की सैर कर चूका था।  सक्रेटिस ने उससे कहा कि मनुष्य के अध्यन का सबसे महत्वपूर्ण विषय मनुष्य ही है। इस पर ब्राह्मण ने उत्तर दिया -" तुम ईश्वर (असीम) को जाने बिना मनुष्य (ससीम) को कैसे जान सकते हो ? "  
यह ईश्वर, यह शाश्वत अज्ञेय सत्ता, यह ब्रह्म, यह अनन्त अथवा अनाम--चाहे तुम जिस किसी नाम से उसे पुकारो--ज्ञात और ज्ञेय जगत् के, वर्तमान जीवन का मूलभूत सिद्धान्त, उसकी व्याख्या की कुंजी है।  तुम अपने सामने की किसी भी वस्तु को ले लो, कोई भी अत्यन्त भौतिक वस्तु--(गुलाब का फूल) या भौतिक विज्ञानों में से ही किसी को ले लो, चाहे रसायनशाश्त्र हो अथवा भौतिक शास्त्र, चाहे नक्षत्र-विज्ञानं हो अथवा जिव-विज्ञान --उसको लेकर उसका अध्यन करो। उत्तरोत्तर यह दृश्यमान स्थूल जगत (The gross melts into the fine) सूक्ष्म में फिर सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतर तत्वों में रूपान्तरित होता जाता है। और इसी प्रकार आगे बढ़ते बढ़ते तुम एक ऐसे विन्दु पर आ जाओगे, जहाँ से आगे बढ़ने के लिये तुमको भौतिक से अभौतिक धरातल पर आना पड़ेगा। ज्ञान के हर क्षेत्र में स्थूल सूक्ष्म में समाहित हो जाता है और अन्ततः (physics into metaphysics) भौतिक-विज्ञान भी तात्विक या अध्यात्म-विज्ञान का रूप धारण कर लेता है। और इसी प्रकार बाध्य होकर, अन्त में मनुष्य को जगदातीत सत्ता के अध्यन में उतरना ही पड़ता है। (Thus man finds himself driven to a study of the beyond.)
अगर हम इस जगत् के परे के तत्व को न जानें, तो जीवन रेगिस्तान बन जायगा, मानव जीवन निस्सार हो जायगा। यह कहना तो बड़ा अच्छा है कि जो सामने मिल गया है, उसी के भोग में सन्तुष्ट रहो। गाय और कुत्ते तो वैसे सन्तुष्ट हैं ही; सभी जानवर ही उस तरह सन्तुष्ट हैं, और यही उन्हें जानवर बनाये हुए है। यदि मनुष्य भी इन्हीं पशुओं की तरह अनन्त की खोज से मुँह मोड़कर वर्त्तमान जीवन में ही सन्तुष्ट रहने लगे, तो मानव जाति को एक बार फिर पशुत्व के धरातल पर जाना पड़ेगा। 'The Inquiry into the Beyond '  ' परलोक का अनुसन्धान करने लक्ष्य है-प्राणिमात्र में विद्द्यमान एकत्व की खोज ! यह धर्म ही है, 'पूर्णता' (ससीम में छुपा हुआ असीम ) की खोज ही है, जो मनुष्य को पशु से अलग करती है। ठीक ही कहा गया है, कि मनुष्य ही एकमात्र ऐसा प्राणी है, जो स्वभावतः ऊपर की ओर देखता है, अन्य सभी प्राणी स्वभावतः नीचे की ओर देखते हैं। ऊपर की ओर देखना, ऊपर उठना तथा पूर्णता की खोज करना--इसे ही मोक्ष (ब्रह्मचर्य -परमात्मा की तरह जीना ) कहते हैं। जितनी जल्दी कोई मनुष्य ऊपर उठने लगता है, उतनी ही जल्दी वह मोक्ष की ओर उन्मुख होता है। मोक्ष या मुक्ति (या ब्रह्मचर्य -परमात्मा की तरह जीना ) इस बात पर निर्भर नहीं करती कि तुम्हारे पास कितने पैसे हैं, तुम कौन सी पोशाक अथवा तुम कैसे मकान में रहते हो?  बल्कि यह इस पर निर्भर करती है कि तुम्हारे मन में कितनी बड़ी आध्यात्मिक निधि है।  यही मानव को उन्नति की ओर ले जाती है, यही भौतिक और बौद्धिक प्रगति का मूलस्रोत है, तथा यही मानव को सदैव आगे बढ़ानेवाला उत्साह, और पृष्ठभूमि में रहने वाली प्रेरक शक्ति है। 
धर्म रोटी में नहीं है, मकान में नहीं है। बार बार लोग प्रश्न करते हैं, धर्म से आखिर कौन सी भलाई होगी? क्या यह गरीबों की दरिद्रता दूर कर सकेगा ? उनके लिये वस्त्रों का प्रबन्ध कर सकेगा ? मानलो कि धर्म यह सब नहीं कर सकता। तो क्या इससे धर्म की असत्यता सिद्ध हो जायेगी ? मानलो, तुम किसी खगोलीय-सिद्धान्त पर चर्चा कर रहे हो, और कोई बच्चा आकर कहने लगे- " क्या यह अदरक पड़ी मीठा बिस्कुट (gingerbread-जिंजरब्रेड ) ला देगा ? " तुम कहोगे, "नहीं, यह नहीं लाने वाला है।" इस पर बच्चा कहेगा, " तब तो यह बेकार है।" प्रत्येक साधारण व्यक्ति का विश्व को देखने का वही वही- ' जिंजरब्रेड ला देने वाला दृष्टिकोण' है और ठीक ऐसी ही बातें संसार के ये नादान बच्चे (आम-आदमी पार्टी)' babies of the world' भी करते हैं।
हमें उच्च स्तर की वस्तुओं को अपने निम्न स्तरीय मापदण्ड से नहीं मापना चाहिये। हर चीज के मापने का अपना अलग पैमाना होता है। इसलिये अनन्त या असीम की परख भी किसी अनन्त-स्तरीय  मानक के द्वारा ही की जानी  चाहिये। धर्म सम्पूर्ण मानव जीवन में परिव्याप्त है, न केवल वर्त्तमान में, अपितु भूत और भविष्य में भी। (इसीको धर्म में सनातन विशेषण लगाकर हम अपने धर्म को सनातन-धर्म या हिन्दू-धर्म कहते हैं) It is, therefore, the eternal relation between the eternal soul and the eternal God.  अतः हमलोग सनातन ब्रह्म से सनातन आत्मा के शाश्वत सम्बन्ध को सनातन ' धर्म' कह सकते हैं। इस सनातन सम्बन्ध का चार दिनों के मानव जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है, केवल इसी को आधार बनाकर धर्म का मूल्यांकन करना क्या न्यायसंगत है? बिल्कुल नहीं, ऐसे सभी तर्कों को ही कुतर्क या नकारात्मक तर्क कहा जाता है।  
अब प्रश्न उठता है कि क्या धर्म सचमुच कुछ कर सकता है ? हाँ, कर सकता है। इससे मानव अनन्त जीवन (eternal life) प्राप्त करता है। (मनुष्य अमर हो जाता है, अर्थात देवता बन जाता है !) मनुष्य वर्त्तमान में जो है, वह इस धर्म की शक्ति से ही हुआ है, और उससे ही मनुष्य नामक प्राणी देवता बन जायेगा। धर्म यही करने में समर्थ है। मानव-समाज से धर्म को हटा दो --क्या शेष बचेगा ? ऐसा होने पर संसार हिंस्र जंतुओं से भरा अरण्य बन जायगा। इन्द्रिय भोगों से मिलने वाला सुख मानव जीवन का लक्ष्य नहीं है, ज्ञान (प्रकृति-पुरुष विवेक या Wisdom) ही सकल प्राणी का लक्ष्य है। 
हम देखते हैं कि एक पशु जितना आनन्द अपनी इन्द्रियों के माध्यम से पाता है, उससे अधिक आनन्द मनुष्य अपनी बुद्धि के माध्यम से अनुभव करता है।  साथ ही साथ हम यह भी देखते हैं कि मनुष्य अपनी बौद्धिक प्रकृति से भी अधिक आनन्द अपनी आध्यात्मिक प्रकृति में प्राप्त करता है। इसलिये मनुष्य का परम ज्ञान (highest wisdom) आध्यात्मिक ज्ञान ही माना जा सकता है। इस ज्ञान के होते ही परमानन्द की प्राप्ति होती है।  संसार की सारी चीजें मिथ्या हैं, छाया मात्र हैं, वे परम ज्ञान और आनन्द की तृतीय या चतुर्थ स्तर (level) की अभिव्यक्तियाँ हैं।
 एक प्रश्न और : लक्ष्य क्या है ? आजकल हमलोग कहते हैं कि अमुक व्यक्ति दिन दूनी रात चौगुनी प्रगति कर रहा है।  किन्तु उसके समक्ष कोई ऐसा बिंदु नहीं, जिसे वह अपने पूर्णतम विकास का प्रतीक मान ले। सतत आगे बढ़ते जाओ, पर पहुँचो कहीं नहीं। इसका जो भी अर्थ हो, कितना ही अद्भुत क्यों न हो, किन्तु है एकदम अनर्गल। क्या कोई भी गति सीधी रेखा में होती है ? और यदि सीधी रेखा को अनन्त दूरी तक बढ़ाया जाय, तो वह एक वृत्त बना देती है, और आदि बिंदु पर लौट आती है।  जहाँ से तुमने प्रारम्भ किया था, वहीं लौटकर आना पड़ेगा।  अगर तुमने ईश्वर से प्रारम्भ किया है, तो अन्ततः ईश्वर के ही पास आना पड़ेगा।  तब शेष क्या रह जायेगा? तुम्हारा स्फुट कार्य। अनन्त काल तक तुमको स्फुट कार्य करते रहना पड़ेगा। 
एक दूसरा प्रश्न भी है : क्या प्रगति के पथ में हम नये धार्मिक सत्यों का भी अनुसन्धान कर सकते हैं ?
 हाँ, और नहीं भी।  पहले तो हम धर्म के विषय में इससे अधिक अब नहीं जनसकते। जो ज्ञेय था, वह ज्ञात हो चूका। संसार के सभी धर्म घोषित करते हैं, कि हम सबों में एकता का कोई न कोई सूत्र अवश्य है। अगर हम उस दैवी सत्ता से एक हो चुके हैं, तो इस अर्थ में आगे प्रगति नहीं हो सकती।  ज्ञान का अर्थ है, विविधता में इस एकता की उपलब्धि। मैं तुम लोगों के बीच स्त्री-पुरुष (भेद) देखता हूँ, यह हुई भेद-दृष्टि (अविवेक) । यदि मैं तुम सब लोगों को एक ही वर्ग में रखकर मानव कहूँ --तो यह वैज्ञानिक-दृष्टि या ज्ञान (विवेक) कहा जायगा। 
दृष्टान्त के लिये रसायनशास्त्र को लो।  रसायनशास्त्री सभी ज्ञात पदार्थों को उनके मौलिक तत्वों में विश्लेषित करना और यदि सम्भव हो, तो उस एक तत्व को खोज लेना चाहते हैं, जिससे ये सब उद्भूत हुए हैं, ऐसा समय आ सकता है, जब वे इस एक तत्व को जान लेंगे। उसका पता चल जाने पर वे और आगे नहीं जा सकेंगे, रसायनशास्त्र पूर्ण हो जायेगा। ठीक यही बात, आध्यात्मिक विज्ञान के साथ भी है। यदि हम इस मौलिक एकता को जान लेते हैं (अभेद-दृष्टि प्राप्त कर लेते हैं), तो और आगे प्रगति नहीं हो सकती। (अर्थात हमने जीवन-लक्ष्य कप प्राप्त कर लिया है !) इसके बाद प्रश्न यह है; इस प्रकार का एकात्मबोध या अभेद-दृष्टि प्राप्त करना क्या सम्भव है? 
भारतीय दर्शन (सांख्य दर्शन) और आधुनिक विज्ञान: भारत में अत्यन्त प्राचीन काल से ही धर्म और दर्शन को एक रूप से वैज्ञानिक धरातल पर खड़ा करने के लिये, अध्यात्म-विज्ञान में भी अविष्कार का प्रयत्न चल रहा है।  क्योंकि पाश्चात्य देशों में जिस प्रकार धर्म को दर्शन से अलग मानकर देखा जाता है, हिन्दू उस प्रकार धर्म को दर्शन से अलग नहीं मानते। हम धर्म (religion) और दर्शन (philosophy या आध्यात्मिक-विज्ञान) को एक ही वस्तु के दो भाव मानते है; जिन्हें समानरूप से युक्ति और वैज्ञानिक सत्य ( reason and scientific truth) में आधारित होना चाहिये।  
सांख्य दर्शन केवल भारत का क्यों, समग्र जगत् का सर्वप्राचीन दर्शन है। इसके महान व्याख्याता कपिल सकल हिन्दू अध्यात्म-विज्ञान (मनोविज्ञान) के पितामह हैं, और वे जिस प्राचीन दर्शन-प्रणाली का उपदेश दे गये हैं, वह इस समय भी भारत के वर्त्तमान सर्वमान्य दर्शन-प्रणाली की आधार शीला है।  इन सब दर्शनों के अन्य विषयों में चाहे जितना भी मतभेद क्यों न हो, सबने सांख्य का आध्यात्म-विज्ञान  ही ग्रहण किया है। वेदान्त भी सांख्य के युक्तिसंगत परिणामरूप (logical outcome of the Sankhya) सिद्धान्तों को लेकर ही और अधिक दूर तक (जानने की अन्तिम सीमा -अद्वैत तक) अग्रसर हुआ है !  कपिल के द्वारा उपदिष्ट सांख्य के ब्रह्माण्ड विज्ञान (cosmology) के साथ सहमत होने पर भी आचार्य शंकर का 'अद्वैत -वेदान्त' द्वैतवाद (dualism) में समाप्त होने में परितुष्ट नहीं हुआ। लेकिन प्रत्येक मनुष्य वेदान्त के सहारे उस अन्तिम एकत्व की खोज में, जो विज्ञान और धर्म के समान लक्ष्य है, निरन्तर अग्रसर रह सकता है।  

 
 

मंगलवार, 28 जनवरी 2014

केवल पूर्णता प्राप्त व्यक्ति को ही दायित्व-ज्ञान होता है।



विद्या और पाण्डित्य (Learning and wisdom ) बाह्य आड्म्बर हैं, और बाह्य भाग केवल चमकता भर है; किन्तु सब शक्तियों का सिंहासन हृदय होता है। ज्ञानमय, शक्तिमय तथा कर्ममय आत्मा का निवास-स्थान मस्तिष्क में नहीं वरन हृदय में है। शतं चैका च हृदयस्य नाड्यः -हृदय की नाड़ियाँ १०१ है, कठ०।मुख्य नाड़ी का केन्द्र जिसे सहानुभूति नाड़ीग्रन्थि ' Sympathetic Ganglia '  कहते हैं, हृदय के निकट होता है; और यही आत्मा का निवास दुर्ग है। जितना अधिक तुम हृदय का विकास कर सकोगे, उतनी अधिक तुम्हारी विजय होगी। इसमें कोई सन्देह नहीं।
मस्तिष्क की भाषा तो कोई कोई ही समझता है, परन्तु हृदय की भाषा, ब्रह्मा से लेकर घास क तिनके तक सभी समझ सकते हैं। परन्तु अपने देश में तो हमें, ऐसे लोगों को जाग्रत करना है, जो मृतप्राय हैं। इसमें समय लगेगा, परन्तु यदि तुममें असीम धीरज और उद्द्योगशक्ति है, तो सफलता निश्चित रूप से प्राप्त होगी।
अनेकानेक अतीत जन्मों के फलस्वरूप जिसके ह्रदय में जैसा संस्कार गठित हुआ है, उसे तदनुसार उपदेश दो। ज्ञान, योग, भक्ति और कर्म --इनमें से चाहे जिस भाव को मूल आधार बनाओ, किन्तु अन्यान्य भावों की भी साथ ही साथ शिक्षा दो। ज्ञान के साथ भक्ति का सामंजस्य करना होगा, योगप्रवण स्वाभाव के लोगों को युक्ति-विचार के साथ सामंजस्य करना होगा, और कर्म मानो सभी पंथों का अंगस्वरूप है। जो जहाँ पर है, उसे वहाँ से ठेलकर आगे बढ़ाओ। धर्म-शिक्षा विनष्टकारी न होकर सर्वदा सृजनकारी ही होनी चाहिये।
जब तुम ज्ञान की शिक्षा देते हो तो तुम्हें ज्ञानी होना होगा, और जो अवस्था शिष्य की होती है, तुम्हें मन ही मन ठीक उसी अवस्था में पहुँचना होगा। गम्भीरता के साथ उदारता का अर्जन करो, किन्तु उसे खो मत दो।अन्यान्य योगों में भी तुम्हें ठीक ऐसा ही करना होगा। ज्ञान की उपलब्धि इस भाव से करो कि ज्ञान को छोड़कर मानो कुछ है ही नहीं; उसके बाद भक्तियोग, राजयोग और कर्मयोग को भी लेकर इसी भाव से साधना करो. तरंग को छोड़कर समुद्र की ओर जाओ, तभी तुम स्वेच्छानुसार विभिन्न प्रकार के तरंगो का उत्पादन कर सकोगे। तुम अपनी मनरूपी सरोवर को संयत रखो, ऐसा किये बिना तुम दूसरों के मनरूपी सरोवर का तत्व कभी न जान सकोगे। 
मनुष्य की प्रत्येक प्रवृत्ति (आदत) उसकी अतीत कर्मसमष्टि की उस त्रिज्या (radius) की परिचायक हैं, जिस पर मनुष्य को चलते रहना चाहिए।  सभी अर्धव्यास केन्द्र में ले जाते हैं।  किसीकी प्रवृत्ति को पलट देने का नाम तक मत लो, उससे गुरु और शिष्य दोनों को हानि पहुँचती है।  .…हम अनन्तस्वरुप हैं-- हम सभी किसी भी प्रकार की सीमा के अतीत हैं। अतएव हम परम निष्ठावान मुसलमान के समान प्रखर और सर्वाधिक घोर नास्तिक के समान उदार भावापन्न हो सकते हैं। सच्ची सहानुभूति के बिना हम कभी भी सम्यक शिक्षा नहीं दे सकते। 
 इस धारणा को छोड़ दो, कि मनुष्य एक दायित्वपूर्ण प्राणी है; केवल पूर्णता प्राप्त व्यक्ति को ही दायित्व-ज्ञान होता है। सब अज्ञानी व्यक्ति मोह-मदिरा पीकर मत्त हुए हैं, यह उनकी स्वाभाविक अवस्था नहीं है। तुम लोगों ने ज्ञान-लाभ किया है--तुम्हें उनके प्रति अनन्त धैर्यसम्पन्न होना होगा। उनके प्रति प्रेमभाव छोड़कर अन्य किसी प्रकार का भाव मत रखो; वे जिस रोग से ग्रसित होकर जगत को भ्रान्त दृष्टि से देखते हैं, पहले उस रोग का निदान करो, उसके बाद उनकी सहायता करो, जिससे उनका रोग मिट सके और ठीक ठीक देख सकें।
शनैः पन्थाः,  सब अपने समय पर होगा। बूँद-बूँद करके घड़ा भरता है। कोई बड़ा काम होता है, जब नींव पड़ती है या मार्ग बनता है, जब दैवी शक्ति की आवश्यकता होती है- तब एक या दो असाधारण मनुष्य विघ्न और कठिनाइयों के पहाड़ को पार करते हुए चुपचाप और शान्ति से काम करते हैं। जब सहस्रों मनुष्यों का लाभ होता है, तब बड़ा कोलाहल मचता है और पूरा देश प्रशंसा से गूँज उठता है। परन्तु तब तक वह यंत्र तीव्रता से चल चूका होता है और कोई बालक भी उसे चलने का सामर्थ्य रखता है, या कोई मुर्ख उसकी गति में वृद्धि कर सकता है।
किन्तु यह अच्छी तरह समझ लो कि एक या दो गाँवों का..... (जनिबिगहा,फुलवरिया,आदि का) जो उपकार हुआ है, ……तथा वे ही दस-बीस कार्यकर्ता --नितान्त पर्याप्त हैं, और यही वह केन्द्र बनता है, जो कभी नष्ट होने का नहीं। यहाँ से लाखों मनुष्यों को समय पर लाभ पहुंचेगा। अभी हमको आधे दर्जन सिंह चाहिये, उसके बाद सैकड़ों गीदड़ भी उत्तम काम कर सकेंगे। भागलपुर में केन्द्र खोलने के लिये जो तुमने लिखा है, वह विचार --विद्यार्थियों को शिक्षा देना इत्यादि --निःसन्देह बहुत अच्छा है, परन्तु हमारा संघ दीन-हीन, दरिद्र, निरक्षर किसान तथा श्रमिक समाज के लिये है, और उनके लिये सबकुछ करने के बाद जब समय बचेगा, केवल तब कुलीनों की बारी आयेगी। प्रेम के द्वारा तुम उन किसान और श्रमिक लोगों को जीत सकोगे। इसके पश्चात वे स्वयं थोड़ा सा धन संग्रह करके अपने गाँव में ऐसे ही संघ (विवेकानन्द ज्ञान मन्दिर-पाठचक्र) बनाएँगे, और धीरे धीरे उन्हीं लोगों में शिक्षक (मानवजाति का मार्गदर्शक नेता) पैदा हो जाएंगे। कुछ ग्रामीण लड़के और लड़कियों को विद्या के आरम्भिक सिद्धान्त (मनः संयोग) सिखा दो, और अनेक उच्च भाव उनकी बुद्धि में बैठा दो। इसके बाद प्रत्येक ग्राम के किसान रुपया जमा करके अपने अपने ग्रामों में एक एक संघ स्थापित करेंगे। 
उद्धरेदात्मनात्मानम--'अपनी आत्मा का अपने उद्द्योग से उद्धार करो। ' यह सब परिस्थितियों में लागू होता हैहम उनकी सहायता इसीलिये करते हैं, जिससे वे स्वयं अपनी सहायता कर सकें।  किसान और श्रमिक समाज मरणासन्न अवस्था में हैं, इसलिये जिस चीज की आवश्यकता है, वह यह कि धनवान उन्हें अपनी शक्ति को पुनः प्राप्त करने में सहायता दें और कुछ नहीं। फिर किसानों और मजदूरों को अपनी समस्याओं का सामना और समाधान स्वयं करने दो। इन उग्र दुर्भिक्ष, बाढ़, रोग और महामारी के दिनों में कहो तुम्हारे काँग्रेस वाले कहाँ हैं ? क्या यह कहना पर्याप्त होगा कि ' राजशासन हमारे हाथ में दे दो ?' और उनकी सुनेगा भी कौन ? धनवान श्रेणी के लोग दया से गरीबों के लिये जो थोड़ी सी भलाई करते हैं (फ़ूड सेक्योरिटी बिल आदि), वह स्थायी नहीं होती और अन्त में दोनों पक्षों को हानि पहुँचाती है। परन्तु तुम्हें सावधान रहना चाहिये कि ग़रीब किसान-मजदूर और धनवानों में परस्पर कहीं वर्ग-संघर्ष (class-strife ) का बीज न पड़ जाय।  यह ध्यान रखो कि धनिकों के प्रति दुर्वचन न कहो- स्वकार्यमुद्धरेत्प्राज्ञः --ज्ञानी मनुष्य को अपना कार्य अपने उद्द्योग से करना चाहिये।


[राष्ट्रसन्त तुकडोजी महाराज का एक गीत है-

 
हर देश में तू , हर भेष में तू , तेरे नाम अनेक, तू एकही है ।
  तेरी रंग भुमि यह विश्व धरा, सब खेलमें मेलमें, तु ही तो है ॥ टेक  
सागर से उठा, बादल बनके, बादल से बहा, जल हो कर के ।  
फ़िर लहर बनी नदियाँ गहरी, तेरे भिन्न प्रकार, तू एकही है ॥१॥  
चींटी से भी अणु-परमाणुबना, सब दिव्य जगत् का रूप लिया । 
 कहिं पर्वत वृक्ष, विशाल बना, सौंदर्य तेरा, तू एकही है ॥२॥ 
तेरी रंगभुमि यह विश्व धरा, सब खेलमें मेलमें, तु ही तो है ॥ टेक॥
  यह दिव्य, दिखाया है जिसने, वह है, गुरुदेवकी पूर्ण कृपा । 
तुकड्या कहे कोई न और दिखा, बस! मै और तू सब एकही है ॥३॥ 
तेरी रंगभुमि यह विश्व धरा, तेरे रूप अनेक, तु एक ही है। 
 हर देश में तू , हर भेष में तू , तेरे नाम अनेक, तू एकही है । ॥ टेक॥ ]
 
 जो जगज्जननी के इस कार्य में सहायता करेगा उस पर उनकी कृपा होगी और जो उसका विरोध करेगा वह केवल --अकारण ही दारुण वैर का आविष्कार ही न करेगा, वरन अपने भाग्य पर भी कुठाराघात करेगा। यह निश्चित रूप से जानो कि जो काम करेगा, वह मेरे सिर की मुकुट-मणि होगा। 
-----स्वामी विवेकानन्द (वि० सा ० ख० ७)