शुक्रवार, 9 अगस्त 2013

$$$$$$'महामण्डल की सम्पूर्ण शिक्षा : अब अपने मन को दो भागों में बाँट दो।'(सरिसा आश्रम कैम्प ३०. १२. २००४ )

[३० दिसंबर २००५ में आयोजित सरिसा कैम्प में मनःसंयोग का अंतिम क्लास पूज्य नवनीदा ने बंगला भाषा में ही लिया था, तथा कक्षा की शुरुआत करते हुए कहा था- 'आज शीपेर मुखे पड़बे अमृत बिन्दु !' अर्थात
'आज सीपियों के मुख में अमृत बिन्दु गिरेगा।' सीपियों को यह मालूम होता है, कि स्वाति नक्षत्र कब उदित होगा, उस समय वे समुद्र की सतह पर आ जाती हैं, और मुँह खोल कर स्वाति-नक्षत्र के बून्दों की प्रतीक्षा करती रहती हैं। (सा विद्या या विमुक्तये : मनुष्य को मुक्ति दिलाये वही विद्या है/$$$स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [18] 'स्वामी विवेकानन्द तथा युवा समस्याएँ/ Tuesday, September 11, 2012/) ]
 मनुष्य कौन ? जो  वर्णाश्रम-धर्म को मानने वाले हैं , जो चार वर्णोँ और चार आश्रमों के अनुसार जो जीवन - निर्माण करने के प्रयत्न में है , उन्हीं को हम मनुष्य कहते हैं । परमात्मज्ञान की अति दुर्लभता इसलिये है , कि पहले तो चौरासी लाख योनियों में मनुष्य योनि मिलना ही दुर्लभ है । क्योंकि मनुष्य को ही - ब्रह्म को जानकर ब्रह्मविद मनुष्य बन जाने का अधिकार प्राप्त है , बाकियों को नहीं। अतः मनुष्य रूप में पैदा होना यह पहली दुर्लभता है। परमेश्वर का अति अनुग्रह होता है तभी मनुष्य शरीर मिलता है । इस बात को अच्छी तरह समझना बड़ा जरूरी है ।  वर्तमान काल में चारों तरफ योरप वालों का किया हुआ प्रचार तो है कि " हम लोग बन्दर थे , पूंछ घिस गई , इसलिये आदमी हैं ! " आदि शङ्कराचार्य ने “विवेक चूड़ामणि” नामक ग्रन्थ में तीन चीजें को अत्यन्त दुर्लभ कहा है।
 दुर्लभं त्रयमेवैतत् देवानुग्रहहेतुकम्।
 मनुष्यत्वं मुमुक्षुत्वं महापुरुशसंश्रयः॥
-अर्थात इस संसार में तीन दुर्लभ तत्व हैं-पहला मनुष्य योनि में जन्म, दूसरा संसार बन्धन से मुक्ति की कामना और तीसरा महापुरुषों का आश्रयण। इन तीनों की प्राप्ति भी तभी सम्भव होती है, जब देवता-गुरु का अनुग्रह प्राप्त हो। इसलिये आचार्य पाद् ने कि जैसे मनुष्य होना दुर्लभ है , वैसे ही मनुष्यों में परमात्मा की इच्छा करने वाला ममुक्षु होना दुर्लभ है । 
दुर्लभ मनुष्य शरीर मिल भी गया तो " सहस्रेसु " उनमें हजारों में कोई एक व्यक्ति आत्मजिज्ञासु होगा । भगवान् श्रीकृष्ण भी गीता ७/३ में कहते हैं :  'मनुष्याणाम् सहस्रेषु कश्चित् यतति सिद्धये हजारों मनुष्यों में कोई एक परमात्मा (परमसत्य) की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करता है , प्रवृत्त होता है । हमेशा परमात्मा की तरफ वृत्ति बनाने को हम टालते रहते हैं । इसलिये श्री वासुदेव श्रीकृष्ण ने कहा " कश्चित् यतति सिद्धये " , परमात्मा की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करने वाले ही लोक बहुत कम हैं । भगवान् ने तो यहाँ तक कहा कि जो सिद्धि के प्रयत्न में लगते हैं उनमें भी-  ' यतताम् अपि  सिद्धानाम्  कश्चित् माम् वेत्ति तत्त्वतः '- कोई एक ही सत्य को समझ पाता है । 
साधना में लगने वालों में भी जब तक सत्य को नहीं जान लें तब तक लगे ही रहें ऐसे लोग और कम हैं । थोड़ा प्रयत्न किया , दो चार महीने किया , चित्त शान्त नहीं हुआ तो हताश हो जाते हैं कि " बहुत मुश्किल है, हम से नहीं होगा । " जब तक साक्षात्कार नहीं हो जाये परमात्मा का जो प्रत्यगात्मा से अभिन्न रूप है उस तत्त्व को जब तक जान न लेवें , तब तक लगे रहने वाले लोग बहुत ही कम हैं। 
भगवान्  श्रीकृष्ण ने अपने श्रीमुख से एक बड़ी जबरदस्त बात कही है । " यततामपि सिद्धानां " सिद्ध का मतलब होता है जिसने चीज को प्राप्त कर लिया । भगवान् ने प्रयत्न करने वालों को ही सिद्ध कह दिया ! 
" साधकानां " नहीं कहकर " सिद्धानां " कह दिया । भगवान् ने श्रीगीता जी में अपने श्रीमुख से स्पष्ट कहा है कि मेरे रास्ते पर चल पड़ा तो आज नहीं तो कल , कल नहीं तो परसों , जरूर मुझे प्राप्त कर लेगा , जरूर सिद्धि को प्राप्त कर लेगा । परमात्मा के तरफ आप भी चलने के लिये जितने कदम उठाओगे , वे सब आपको आगे ही बढ़ायेंगे , कभी भी पीछे नहीं सरकायेंगे । इसलिये भगवान् ने कहा कि जो अभी साधक है वह सिद्ध ही है ।'यतताम् अपि सिद्धानाम् कश्चित् माम् वेत्ति तत्त्वतः' ऐसे परम साधक जिन्होंने परमात्मा के तरफ अपना कदम बढ़ाया है वे वन्दन योग्य हैं । मैं उन समस्त साधको प्रणाम करता हूँ ।
यह हमलोगों का परम् सौभाग्य ही है कि, देव-दुर्लभ यह मनुष्य  जीवन हमें बिना मांगे ही मिल गया है , और विगत कुछ दिनों से अपने 'मनुष्य-जीवन ' को सार्थक करने की इच्छा से ठाकुर-माँ-स्वामी जी चरणों में बैठकर, हमलोग उसीका उपाय जानने की चेष्टा भी कर रहे हैं। 
वह सार्वभौमिक सत्य (एकं सत्य विप्राः बहुधा वदन्ति) जो हजारों वर्ष पहले हमारे देश में आविष्कृत हुआ था, वह आज तक हमें पवित्रता प्रदान करने का कार्य करता आ रहा है।  क्योंकि उसको भूल जाने से जो सत्य केवल भारत वासियों को ही नहीं , बल्कि सम्पूर्ण मानवजाति को मुक्ति दे सकता है, उससे मानवजाति के वंचित हो जाने की सम्भावना थी। 
यदि मनुष्य योनि में जन्म लेकर भी मनुष्य नहीं बन सके तो यह अवसर व्यर्थ में नष्ट हो जायेगा। जब यह सृष्टि बनी उस समय तो देवता लोग भी नहीं थे। सृष्टि से पहले क्या था ? यह सृष्टि कैसे बनी ? कोई नहीं जानता, किन्तु मनुष्य स्वयं इस रहस्य पर से पर्दा उठा सकता है। [ किसी को देते नहीं देखा, किन्तु झोली भरी देखी!, भूमि,जल, सूर्य (अग्नि), हवा, आकाश सब मनुष्य के उपयोग के लिये मुफ्त में मिला देखा ? 
इसके लिये वाह्य प्रकृति और अन्तः प्रकृति को वशीभूत करने का विज्ञान - 'मनःसंयोग' को  सीखना ही सम्पूर्ण शिक्षा है।  
विगत हजारों वर्षों में वायुमण्डल में जितने हानिकारक रसायन एकत्रित हुए थे, आज वायु-प्रदुषण के कारण दोगुने हो चुके हैं।  यहाँ तक कि अब उससे प्राणों के भी नष्ट हो जाने की सम्भावना देखि जा रही है।  अभी हाल में कनाडा में वायु-प्रदुषण समस्या को लेकर जो विश्व-स्तरीय सम्मेलन हुआ था, उसमें यह निष्कर्ष निकाला गया कि विश्व के समस्त विकसित देशों को वायु प्रदुषण की मात्रा में कमी लाने का प्रयास करना पड़ेगा। तभी मानवता की रक्षा हो सकेगी। 
किन्तु आज विश्व का जो सर्वाधिक धनी देश है-'अमेरिका', वह अपनी धन-संपदा में और वृद्धि करने के लिये सभी अविकसित या विकासशील देशों को अपना भोजन समझता है।  और कल-कारखानों के माध्यम से इतनी मात्रा में कार्बन का उत्सर्जन करता है, कि उसकी तुलना नहीं हो सकती। किन्तु वह देश वायु प्रदुषण कम करने के समझौते पर इसीलिये दस्तखत नहीं किया, कि वाय-प्रदुषण के माध्यम से ही तो उसके धन-संपदा में इतनी वृद्धि हुई है। सम्पूर्ण विश्व को ऋण के बोझ में इतना दबाये रखता है कि अब भारत के भी ऋण-मुक्त होने की सम्भावना कम होती जा रही है। वह सबसे धनी देश अमेरिका अपने को U.N.O से भी बड़ा समझता है, उसकी सलाह मानने को भी तैयार नहीं होता। उसकी जब और जहाँ मर्जी होगी बम गिरकर निरीह नागरिकों की हत्या करके उस देश की सम्पत्ति आदि पर कब्जा कर सकता है।  
पहले विश्व की कैसी अवस्था थी, आज कैसी स्थिति हो गयी है, आगे कैसा हो जाने की सम्भावना दिख रही है ? पहले के नेता कैसे हुआ करते थे, अब उनके स्थान पर कैसे कैसे नेता आ गये हैं ? (अभी तो तोतरहावा रक्षा मंत्री है गूँगा प्रधान मंत्री है.) आम आदमियों को कम से कम दो शाम भोजन तो चाहिये, इसके लिये कोई विद्या सीखकर रोजी-रोजगार तो कमाना है, किन्तु नेता कहते हैं, रोजगार अगर नहीं मिलता है तो हमारे पार्टी का कैडर बन जाओ।  जाहे किसी भी विभाग में कर्मचारी हों, राजनितिक दल का दासत्व स्वीकार नहीं करने पर प्राणों तक की शंका हो जाएगी।
कितने वर्षों पूर्व स्वामीजी ने हमें चेतावनी दी थी।  किन्तु हमने उनके  परामर्श पर ध्यान नहीं दिया। वे कौन थे ? वे क्या कोई धर्मनेता थे, ब्रह्मज्ञ पुरुष थे, या कोई देशभक्त थे ? उनको न तो ब्रह्मज्ञ होने की आवश्यकता थी, न नेता बनने की आवश्यकता थी। जब वे विदेशों में गये थे, तो वहां उन्होंने वेदान्त और धर्म की बात की थी, परन्तु भारत लौटने के बाद देश के मनुष्यों को उनहोंने नवजागरण का सन्देश दिया था। प्रगति -विकास के साथ आगे बढ़ते जाना होगा, किन्तु आगे की यात्रा शुरू करने के पहले एक बार सिंहावलोकन भी तो करो।  यदि भारत की प्राचीन बिरासत की मजबूत नींव पर भविष्य का निर्माण नहीं किया तो पतन हो जायेगा।
 स्वामी विवेकानन्द को गुरु कहना आवश्यक नहीं है, उनका नाम-जप ध्यान करना भी जरुरी नहीं है - जिनका ध्यान करते हो, जिनकी पूजा करते हो, वही हो जाना पड़ेगा। ' देवो भूत्वा देवं यजेत '- अर्थात स्वयं देव बनकर देव का यजन करना चाहिये। ब्रह्म मुझे अस्वीकार न करे, मैं ब्रह्म को अस्वीकार न करूँ। उनकी सत्ता मुझमें आ जाये, जिसे मैं जीवन में प्रयोग कर सकूँ। एक ही वस्तु विभिन्न रूपों में दिखाई दे रही है, एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य में कोई भेद नहीं है, कोई बूढ़ी माता यदि कम्बल के आभाव में ठंढ से काँप रही हो, तो क्या उसका दुःख मेरे ह्रदय को द्रवित नहीं कर देता ? स्वामीजी ने तो मानव कल्याण के लिये अपनी मुक्ति तक को विसर्जित नहीं कर दिया था ? 
भक्त प्रह्लाद ने भी अपनी मुक्ति त्याग कर दिया था. जब हिरण्यकश्यपू के वध के लिये नृसिंहावतार हुआ तो कोई भी देवी देवता उस भयंकर मूर्ति को शान्त करने के लिये उसके पास जाने में भी डर रहे थे, उनका उग्र रूप देखकर लक्ष्मी देवी भी शांत नहीं कर स्किन तो, प्रह्लाद को भेज गया. नृसिंह भगवान ने जब देखा कि नन्हा सा बालक मेरे चरणों में पड़ा है, तब उन्होंने प्रह्लाद को गोदी में उठा लिया और उसके सिर पर वात्सल्य से हाथ फेरने लगे।  उस समय प्रह्लाद ने ४० श्लोकों में जो भगवान की स्तुति की है, वह पूरा वेदान्त है। प्रह्लाद से ज्ञान की बातों को सुनकर नारायण बहुत प्रसन्न हुए और उनसे कोई भी वर मांगें को कहा।  तो प्रह्लाद ने कहा मेरी कोई निजी इच्छा नहीं है, मैं अपने लिये मुक्ति भी नहीं चाहता। कुछ लोग जंगल में जाकर मुक्ति के लिये तपस्या करते हैं, पर सब लोग यहाँ बंधन में पड़े रहेंगे, और मैं अपने लिये मुक्ति चाहूँगा, यह मुझसे नहीं होगा। स्वामीजी ने भी कहा है, मेरी मुक्ति की इच्छा की १४ पीढ़ियों का नाश हो गया है. और हमलोग क्या अपनी मुक्ति बात सोचेंगे ? 
स्वामी रंगनाथानन्द जी अभी शरीर में नहीं हैं. अंतिम समय में उनके एक सेवक ने पूछा था कि महराज मुझे फिर से कोई दूसरा शरीर तो नहीं धारण करना पड़ेगा ? अर्थात मेरा पुनर्जन्म तो नहीं होगा ? इस पर महराज ने कहा था, नहीं तुम्हें और जन्म नहीं लेना पड़ेगा, पर यदि तुम्हें जन्म लेना होगा तो मुझे भी लेना होगा। माँ की जो सन्तानें पहले से हैं, और जो बाद में आयेंगे उन्हें कौन देखेगा? उनके लिये तो यह जीवन अर्पण करना होगा। उनकी सेवा कौन करेगा ? मुक्ति मत चाहो, माँ की संतानों की सेवा कैसे सदा सर्वदा होती रहे इसकी युक्ति खोजो। अपना भला करने से पहले दूसरों का भला करो। इन्द्रियों को भगवान ने इस प्रकार बनाया ही है कि वे हमें बहिर्मुखी बना देती हैं-
पराञ्चि खानि व्यतृणत् ‌ स्वयंभूस्तस्मात्पराङ् ‍ पश्यति नान्तरात्मन् ‍ । कश्चिद्‌धीरः प्रत्यगात्मानमैक्षदावृत्तचक्षुरमृतत्वमिच्छन् ‍ ॥ 
 कठोपनिषद् ‍ २ .१ .१
स्वयं भू (स्वयं प्रकट होने वाले) परमेश्वर ने समस्त इन्द्रियों को बहिर्मुखी (बाहर विषयों की ओर जानेवाली) बनाया है। इसीलिए (मनुष्य) बाहर देखता है, अन्तरात्मा को नहीं (देखता)। अमृतत्व (अमरपद) की इच्छा करने वाला कोई एक धीर (बुद्धिमान् पुरुष) अपने चक्षु आदि इन्द्रियों को बाह्य विषयों से लौटाकर प्रत्यगात्मा (अन्त:स्थ,सम्पूर्ण विषयों को जानने वाला आत्मा) को देख पाता है। 
किन्तु अमृतत्व प्राप्त करने से भी ऊँची स्थिति में जाया जा सकता है, इससे भी बड़ी अवस्था में जाने का उपाय ठाकुर-माँ-स्वामीजी ने सिखाया है कि सामान्य मनुष्यों को सदमार्ग दिखने वाले नेता को, अमृतत्व को भी त्याग देना चाहिये। कुछ ऐसे लोग भी होते हैं, जो ईश्वर का कार्य करने के लिये अमृतत्व को त्याग कर मृत्यु का वरण करने के लिये प्रस्तुत रहते हैं. दोनों में कौन महान है ? यदि मेरे द्वारा दूसरों की मुक्ति होती हो, तो मुझे अपनी मुक्ति भी नहीं चाहिये। वास्तव में हमलोग वही वस्तु हैं। 
पर मनुष्य योनि में जन्म लेने पर एकमात्र कार्य है, समय रहते -जीवन रहते समय ही उस तरह के मार्गदर्शक बनने लायक जीवन को गठित कर लो। अपनी शक्ति सदुपयोग 3H को सही रूप से विकसित करने में करो, उसे व्यर्थ के भोगों में नष्ट मत होने दो।  यदि हमलोग अपना एक भी दिन भोग में नष्ट कर देते हैं, तो वह दिन दुबारा लौट कर नहीं आएगा। समय रूपी काल देखते देखते शरीर को खा रहा है, आयु क्षीण हो रही है।  अबतक जितनी शक्ति को तुमने भोगों में नष्ट कर दिया, उतना तो चला गया. अब पुनः शक्ति का संचय कर 3H को सुन्दर रूप से गढ़ने का प्रयास करना होगा। 
ईश्वर लाभ ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है।  किन्तु अभी ईश्वर को तो जानता ही नहीं हूँ, उसको पाने की साधना करना कितना कठिन है. इसीलिये जैसा स्वामीजी ने कहा है-प्रयत्न ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है. ईश्वर को चाहता भी कौन है ? यदि सचमुच ईश्वर सामने आकर खड़े हो जाएँ, तो पता नहीं किस रूप में खड़े होंगे, और हम उनको देखकर कहीं भयभीत तो नहीं हो जायेंगे ? पता नहीं उनके ८ हाथ होंगे, कि हजार हाथ होंगे ? माँ न जाने किस दुखियारी बुढ़िया का भेष बनाकर घर के सामने वाले गेट पर बैठकर कहेगी- बहुत ठंढा लग रहा है, बेटा मारता है, खाने को भी नहीं देता। कमर को टेढ़ा करके बूढ़ी बनकर शिकायत करने आयेगी? जहाँ भी ह्रदय को बड़ा करने का अवसर मिले उसका सदूपयोग अवश्य करना चाहिये। 
जब राक्षस महिषासुर दुर्गाजी से पराजित होने लगा तब भी अपनी चालाकी से बाज नहीं आया- उसने कहा माँ एक वर मुझे दो-तुम जहाँ भी रहो इसी तरह मैं तुम्हारे पैरों के नीचे पड़ा रहूँ। उसी लिये हमलोग आज भी जब दुर्गा पूजा करते हैं, तो उनके साथ साथ असुर की पूजा भी हो जाती है।  उसी तरह हमें भी प्रार्थना करना चाहिये कि माँ मैं जीवन भर तुम्हारे ही चरणों के तले पड़ा रहूँ। हमारा मन भी असुरों के जैसा है, माँ या तो तुम अपने अस्त्र से उसे मारो या मुझे अपने अस्त्र से उसे मारने में समर्थ बना दो।  श्रीचरणों का दर्शन करके मेरे मन की जो प्रवृत्ति है, वह सदा के लिये शान्त हो जाये। और सदा के लिये तुम्हारे चरणों में स्थिर हो जाये। भोगाकांक्षा, लोभ, कामना-वासना मुझे फिर से मोहित न कर ले।  मेरे मन की दृष्टि सर्वत्र निर्मल पवित्र बनी रहे।  जहाँ भी ह्रदय को बड़ा करने का अवसर मिले मेरा मन तत्काल ही उसका सहयोगी बन जाये। इसी लिये माँ मुझे पहले मनुष्य बना दो ! 
3H के गठन में यदि हम स्वयं को नियोजित कर दें, तो हम अपने जीवन को सार्थक बना सकते हैं।  सबों की सेवा में अपने जीवन को अर्पित कर सकते हैं।  इसके लिए सर्वप्रथम हमें अपने मन की उदग्र वासनाओं को शान्त करना होगा। अशुभ इच्छाओं को उठने के पहले ही शुभ-संक्ल्प से रोक दूँगा। मैं अब से त्याग और सेवा का ही जीवन व्यतीत करूँगा, क्योंकि भोग में नहीं त्याग में ही अमृत है।  आग में घी डालने से आग और भड़कता है। भोग करने से विषय-वासना और भड़कती है, कम नहीं होती। लौकिक सुख तथा अलौकिक सुख दोनों प्रकार के सुखों को त्याग देने से जो आत्मबल प्राप्त होता है, वह जीवन को और अधिक ऊँचाई पर पहुंचा देता है।  इस त्याग से सबसे बड़ा आनन्द प्राप्त होता है।  हमारा लक्ष्य है, क्षूद्र अहं के त्याग से मिलने वाले भूमानन्द को प्राप्त करना। यदि किसी कुत्ते के पिल्ले या बिल्ली के बच्चे के सामने रोटी का एक टुकड़ा फेंक दो, तो वह कितने आनन्द से खता है ! उस दिन दो पिल्लों के सिर पर हाथ फेर दिया तो वे आनन्द से कितना नाचने लगे थे ? वे सोचे यहाँ मुझे भी कोई प्रेम करने वाला है ! हम सर्वव्याप्त उस आनन्द को नहीं देख पाते हैं, जबकि जगत आनन्द से ही बना है. तैत्तिरीयोपनिषद में कहा गया है-
आनन्दो ब्रह्मेति व्यजानात् । आनन्दाध्येव खल्विमानि भूतानि जायन्ते ।
 आनन्देन जातानि जीवन्ति । आनन्दं प्रयन्त्यभिसंविशन्तीति ।
गहराई से चिन्तन-मनन करके हमें इसी निश्चय पर पहुँचना चाहिये कि -आनन्द ही ब्रह्म है ! क्योंकि आनन्द से ही सभी प्राणी उत्पन्न होते हैं. और उसीमे जीवित रहते हैं, तथा इस लोक से प्रयाण करने के बाद आनन्द में ही प्रविष्ट हो जाते हैं।  सबकुछ उसी आनन्द से आया है।  जगत सर्वदा आनन्दमय ही है, उसी आनन्द को जगत की हर घटना में हर वस्तु में देखो। दूसरों को दुःख-कष्ट में गिरा देखने से जो हमदर्दी या समानुभूति उत्पन्न होती है, वह भी आनन्द की ही अभिव्यक्ति है।  ऐसी अनुभूति मन को शान्त होने पर ही होती है।  किन्तु मन को शान्त करना बहुत कठिन है। 
 उस अमेरकी सन्यासी की बात याद रखनी चाहिये जिन्होंने कहा था कि युवा काल में सन्यास लेकर ४० वर्ष तक अभ्यास करके भी यदि २-४ सेकण्ड का भी ध्यान होने से बहुत होता है।  जो मन वशीभूत हो जाता है, उसके द्वारा सब कुछ किया जा सकता है।  सम्पूर्ण जगत में ठाकुर की शिक्षाओं को फैलाये बिना स्वामीजी का कार्य पूर्ण नहीं होगा। और शिक्षा देने योग्य पात्र बनने के लिये पहले अपने से समस्त अपवित्र विचारों को दूर करना होगा। विवेक-प्रयोग करके मन को हमेशा मन को पवित्र रहना होगा। 
यदि आप नौकरी पाने के लिये अंग्रेजी सीखना आवश्यक मानते हैं, तो हिन्दी को सीखना भी अनिवार्य होना चाहिये। क्योंकि राष्ट्र-भाषा नहीं जानने से दूसरे प्रान्त में जाने पर कभी कभी जान भी जाने की नौबत आ सकती है।  मैं एक बार आचार्य शंकर के गाँव कालड़ी गया था, जो केरल प्रान्त में आता है।  वहाँ से होकर पूर्णा नदी होकर बहती है।  उनकी माँ को दूर तक पैदल जाकर नदी में स्नान करने से थकान हो जाती थी तो शंकर के कहने से पूर्णा उनके घर के नजदीक से बहने लगी थी।  पूर्णा को देखते ही मुझे याद हो आया कि साधू नाग महाशय पर कृपा करने के लिये गंगा नदी भी उनकी कुटिया में आ गयी थी।  जब मैं ऐसा स्मरण करके उपर से पूर्ण नदी में कूद गया तो वहाँ एक मलयाली बोलने वाला खड़ा था, जो मेरे धोती-कूर्ता को देखकर यह समझ गया कि मैं उत्तर भारतीय हूँ, और जोर से चिल्ला उठा - अरे क्या मरना चाहता है ? 
मैंने उसको हिन्दी में ही उत्तर दिया - धन्यवाद, पर मुझे तैरना आता है ! उसी प्रकार यदि ४४० भोल्ट का तार गिरा हो जिसमे से करेन्ट प्रवाहित हो रहा हो, और कोई दक्षिण भारतीय यदि हिन्दी में उधर जाने से मना करे, तो क्या उससे बंगला में चेतावनी देने के लिये कहने का मौका मिलेगा ? यदि अभ्यास और वैराग्य का भाव रहे तो, हिन्दी भाषा ही क्या, कोई भी भाषा सीखी जा सकती है। 
मन में लालच का भाव बने रहने से कामना-वासना बढ़ती ही जायेगी। उसको वशीभूत करने के लिये शम (या यम -नियम) तथा दम  का अभ्यास हर क्षण करते रहना होगा। दम किसे कहते हैं ? प्रत्याहार-धारणा के अभ्यास को !  - उन अपवित्र भावों को मन में उठने नहीं देते जो मन को गन्दा कर देती हों।  विवेक-प्रयोग करके उन्हें मन से निकाल फेंको। इसके बिना कोई फल नहीं होगा। प्राणायाम करना आवश्यक नहीं है।  दिमाग बिगड़ सकता है, इसीलिये स्वामीजी ने मना किया है. रीढ़ की हड्डी को सीधा रखकर अर्ध पद्मासन या सुखासन में बैठो। इस प्रकार बैठने से सांसों का आवागमन आसानी से होगा। 
अब अपने मन को दो भागों में बाँट दो। Objective mind या वस्तुनिष्ठ मन जो वाह्यविषयों में जा रहा है, और दूसरा Subjective mind,व्यक्तिपरक मन या आत्मनिष्ठ मन; जो वस्तुनिष्ठ मन की गतिविधियों को देखता रहता है. आँखों को मूंद लेने से एक मन जो Subjective mind या द्रष्टा-मन है, उसके द्वारा दूसरे मन जो Objective mindया दृश्य-मन है, को देखना सहजता से होने लगता है. यह एक बहुत मजेदार खेल की तरह है. जब विषयाश्रित मन में उठने वाले विचारों को देखोगे तो पाओगे कि तुम्हारा मन कभी कीचन में चला गया है, कभी क्रिकेट-मैदान में, कभी बाजार में चला गया और खोमचे वाले से गोलगप्पे खा रहा है; यह विषयाश्रित मन स्वाद (रूप-रस ) से लेकर विश्व-ब्रह्माण्ड तक दौड़ रहा है. यह सब ब्रह्म के ही मन में ही तो चल रहा है ? जब ' वे ' इस मन को देखने लगेंगे -तो जो कुछ सुन रहे हैं, पूरा मन उसी में रहेगा। 
जब Anesthesia या चेतनालोप कर देने वाली औषधि का अविष्कार नहीं हुआ था, तब किसी व्यक्ति की पीठ पर एक बड़ा सा Carbuncle नासूर (बल-तोड़ घाव) हो गया था।  डाक्टर लोगो ने बताया कि इसका operation (अस्रोपचार) करना होगा। इसमें आपको पीड़ा होगी, इसके लिये २ कम्पाउण्डर आपके हाथ-पैर को कसकर पकड़ कर खड़ा रहेगा। वे बोले आपलोग १५-२० मिनट के बाद आइये। वे आसन पर आँखों को मूँद कर बैठ गये. जब operation करके बैण्डेज बांध दिया गया. उसके बाद वे पूछते हैं -क्या अब आपलोग operation शुरू करने वाले हैं ? मैंने अपनी आँखों से ऐसे मनुष्य को देखा है, वे एक गृहस्थ व्यक्ति ही थे, कोई गेरुआधारी संन्यासी नहीं थे। गृहस्थ लोगों के द्वारा भी अपने मन को मुट्ठी में रखना संभव है ! १५-२० मिनट में ही उन्होंने अपने को इस प्रकार वश (ईष्ट देव में एकाग्र) में कर लिया था, कि उनके मन को operation का पता ही नहीं चला। 
हमलोग भी स्वामी विवेकानन्द की छवि पर मन को स्थिर करने का अभ्यास सीखकर अपने मन के स्वामी बन सकते हैं. मन से कहो कि हे प्रिय दोस्त ह्रदय में आकर बैठो वहां स्वामीजी की छवि है, उसको देखो या कोई चाहे तो ईसामसीह के चित्र पर या त्रिमूर्तियों में से किसी एक पर मन को रख सकते हो. अमूर्त चेतो - अमूर्त या निराकार का ध्यान कैसे करोगे ? निराकार वस्तु का ध्यान करना संभव नहीं है, इसीलिये मूर्ति बनाकर उसके उपर ध्यान करना सरल हो जाता है. ध्यान करते हुए जब मन तल्लीन हो जाता है, तो वह मूर्ति भी विलीन हो जाएगी। मन लगाकर पढने से पढाई अच्छी होगी, मनोयोग से भोजन बनाने पर भोजन भी स्वादिष्ट बनता है. जब और जहाँ हम अपने मन को लगाना चाहूँगा मन को लगा दूँगा। ऐसा अभ्यास दिन में दो बार करो. यदि शाम के समय मनः संयोग करने का अवसर नहीं मिलता हो, तो सोने से पहले कम से कम ५ मिनट भी करो. 
ह्रदय का व्यायाम करने से महत भाव मन में आते हैं। ह्रदय के लिये पौष्टिक आहार क्या है? जो लोग हृदयवान हैं, उनके जीवन-चरित्र की चर्चा करना पौष्टिक आहार है।  और इसका व्यायाम है, जैसे किसी की सहायता या सेवा करने का अवसर प्राप्त हो, अपनी इस दुविधा को त्याग दो कि इस व्यक्ति की आवश्यकता तो इतनी बड़ी है, थोड़ी सी सहायता से इसको क्या लाभ होगा ? ह्रदय को विशाल बनाने का अवसर मिलते ही, यथा-संभव सेवा करने में जुट जाओ।  मन को पवित्र रखो, मानस-तीर्थ में स्नान करने से अमृत मिलता है।  प्रार्थना-प्रयोग करके हृदय को द्रवित करने का संकल्प ग्रहण करो।  ह्रदय को द्रवित करने की प्रार्थना करो।  महामण्डल को स्थापित हुए ४६ वर्ष बीत चुके हैं, इसके लिए कोई प्रचार नहीं करते है, फिर भी पुरे भारत में इसकी ३१४ से अधिक शाखायें स्थापित हो चुकी हैं।  स्वामीजी ने कहा था, no news paper humbug -समाचारपत्र में फोटो छपवाने के पाखण्ड से कुछ नहीं होगा, प्रचार नहीं आचार करके दिखाना होगा। आजकल टी.वी. इन्टरनेट आदि पर जो दृश्य-संवाद आदि आते रहते हैं, उनको अधिक देखने से मनुष्य का मन और अधिक चंचल हो जाता है।  वहाँ कभी कोई अच्छा समाचार सुन भी लिये तो क्या होगा ? बिना कुछ खर्च किये हमें यह दुर्लभ मनुष्य जीवन प्राप्त हुआ है, इसके साथ साथ पौरुष भी मिला है. यदि मनुष्य हूँ, तो ह्रदय में प्रेम भी अवश्य रहेगा। हमारा ह्रदय प्रह्लाद के जैसा होना चाहिये जो दूसरों के दुःख से व्यथित होगा, ऐसा हमारा चरित्र बन जायेगा। 
  

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