रविवार, 4 अगस्त 2013

$$$ मनोतीर्थ में स्नान करने से अमृतत्व लाभ होता है। (सरिसा आश्रम कैम्प )

 मन को अपनी मुट्ठी में कर लेना ही पहला पुरुषार्थ है !  
स्वामी विवेकानन्द द्वारा ' शिकागो-विश्वधर्म महासभा ' में दिये गये भाषण के पहले तक अंग्रेज लोग 'अपना ढेंढ़र न देख कर दूसरे की फुल्ली निहारने' वाले किस्से को चरितार्थ करने में जरा भी संकोच नहीं करते थे। वे वेद-उपनिषदों को ' Shepherd song ' ( गड़रिया का गीत-चरवाहा गीत ) कहकर उसकी खिल्ली उड़ाया करते थे।किन्तु अभी कुछ ही वर्ष पहले यूनेस्को (UNESCO) ने अपने घोषणा-पत्र में  वेद-उपनिषदों को 'मानवजाति की महान विरासत' (Great Human Heritage) की संज्ञा दी है। [UNESCO proclaimed the tradition of Vedic chant a Masterpiece of the Oral and Intangible Heritage of Humanity on November 7, 2003. All Dharmic religions i.e. Sanatana Dharma, Jainism, Buddhism and Sikhism build on this.]   
संस्कृत भाषा में लिखे वेद-उपनिषदों के महत्व को पाश्चात्य जगत या यूनेस्को को समझने में इतना समय क्यों लगा ? क्योंकि पाश्चात्य देशों में संस्कृत की शिक्षा देने की कोई व्यवस्था नहीं थी। वैसे तो ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में १८११ में ही संस्कृत चेयर की स्थापना हो तो गई थी, लेकिन उस समय इसके लिए कोई मनचाहा व्यक्ति न मिल पा रहा था। बोडेन चेयर पर प्रतिष्ठित होने वालो सबसे पहला व्यक्ति एच.एच. विलसन (Horace Hayman Wilson: १७८६-१८६०) था। वह भारत में मेडीकल प्रोफेशन के एक सदस्य के रूप में, १८०८ में आया तथा १८३२ तक यहाँ रहा। 
संस्कृत के विद्वान एच.एच. विल्सन, जो भारत से चले गये थे, को भारत के संस्कृत विद्वानों ने अनेक पत्र लिखे। एक भारतीय विद्वान ने लिखा, "इस संस्कृत पाठगृह के सरोवर में तुम्हारे द्वारा जो विद्वान- हंस स्थापित किये गये थे, कालवश तुम्हारे दूर चले जाने पर वे पंखरहित हो गए। उनके विनाश के लिए शिकारी (मैकाले ?) बाण साधे किनारे पर निवास कर रहे हैं। यदि तुम पालक बनकर उनसे उनकी रक्षा करते हो तब तुम्हारा यश चिरस्थायी होगा।" इस पर विल्सन ने अनुष्टप छन्द में जवाब दिया था ,
 "…….  यावत गंगा च कावेरी च तावदहि संस्कृतं। "
 "ब्राह्मा संसार के बनाने वाले हैं। हंस उसकी प्रिय सवारी है। अत: प्रिय होने के कारण से वही उनकी रक्षा करेगा। अमृत बहुत मीठा होता है, संस्कृत उससे भी अधिक मीठी है, क्योंकि देवता इसका सेवन करते हैं। इसलिए यह देवभाषा कहलाती है। इस संस्कृत में ऐसा मिठास है जिसके कारण हम विदेशी लोग इसके सदा दीवाने रहते हैं। जब तक भारतवर्ष है, जब तक विन्ध्य तथा हिमालय है, जब तक गंगा तथा गोदावरी है, तब तक संस्कृत है।" 
किन्तु उस समय, भारत निवास के इस काल में विल्सन ने जो संस्कृत भाषा सीखी थी, वह इस आशा और उद्देश्य से सीखी थी, कि शायद यह भाषा ज्ञान उसे हिन्दू धर्म शास्त्रों को समझने और आवश्यकता होने पर विकृत अर्थ करने और भारतीयों को ईसाईयत में धर्मान्तरित करने में सहायक हो सकेगी। इस संस्कृत ज्ञान के आधार पर ही विलसन को, १८३२ में, ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में संस्कृत की बोडेन चेयर का प्रथम अधिष्ठाता बनाया गया।
यहाँ उसने सबसे पहले ईसाई मिशनरियों के लिए 'दी रिलीजन एण्ड फिलोसोफिकल सिस्टम ऑफ दी हिन्दूज' नामक पुस्तक लिखी। इस पुस्तके के लिखने के उद्‌देश्य के विषय में उसने कहा था - " यह लेखमाला उन व्यक्तियों की सहायता के लिए लिखी गई हैं जो कि म्यू द्वारा स्थापित दो सौं पौंड के पुरस्कार के लिए प्रत्याशी हों और जो हिन्दू धर्म ग्रन्थों का सर्वोत्तम प्रकार से खंडन कर सकें। (भारती, पृ. ९)
"These lectures were written to help candidates for a prize of £ 200/= given by John Muir, a well known Haileybury (where candidates were prepared for Indian Civil Services) man and great Sanskrit scholar, for the best refutation of the Hindu Religious Systems." (Bharti, p.9)
 १८६० में प्रो. विलसन के निधन के बाद,बोडेन चेयर का दूसरा अधिष्ठाता मौनियर विलियम्स हुआ। १८१९ में बम्बई में जन्मा मौनियर एक कट्‌टर ईसाई था। यह हिन्दू धर्म को नष्ट करने को और भी अधिक वचनबद्ध था जैसाकि उसने अपनी पुस्तक 'दी स्टडी ऑफ संस्कृत इन रिलेशन टू मिशनरी वर्क इन इंडिया'  (१८६१)
इसमें उसने एक मिशनरी की तरह स्पष्ट कहा था - " जब हिन्दू धर्म (वास्तव में सनातन-धर्म है) के मजबूत किलों की दीवारों को घेरा जाएगा, उन पर सुरंगे बिछाई जाऐंगी और अंत में ईसामसीह के सैनिकों द्वारा उन पर धावा बोला जाएगा तो ईसाईयत की विजय अन्तिम और पूरी तरह होगी (वही पृ. २६२) (When the walls of the mighty fortress of Hinduism are encircled, undermined and finally stormed by the soldiers of the Cross, the victory to Christianity must be signal and complete. p.262)
किन्तु मानव-जाति के जितने भी सच्चे नेता या मार्गदर्शक आते रहे हैं, सबों ने वेदों-उपनिषदों की शिक्षा की सहायता से अपने जीवन को कमल के पुष्प के जैसा प्रस्फुटित करने मार्ग ही दिखलाया है। स्वामीजी के भाषणों से प्रभावित होकर किसी अमेरिकी महिला ने पूछा था - ' स्वामीजी आर यू अ बुडिस्ट ? ' (स्वामीजी क्या आप बौद्ध-धर्म के अनुयायी हैं ? ) स्वामीजी थोड़े विनोदी स्वाभाव के भी थे, उन्होंने तुरंत उत्तर दिया - ' नो, आइ एम नॉट अ बुडिस्ट बट आई एम अ बडीस्ट.' (नहीं, मैं कलियों को पुष्प के रूप में खिल जाने तरीका सिखाता हूँ.)
उसी प्रकार इस शिविर में भी जीवन-पुष्प को प्रस्फुटित करने की पद्धति सिखाई जाती है. अभी हमलोग भी कली की अवस्था में हैं, जीवन-पुष्प को प्रस्फुटित करने का कार्य हमारे सामने पड़ा हुआ है. आचार्य शंकर ने कहा है - ' यहाँ मूढ़ कौन है ? " उत्तर में स्वयं कहते हैं, " सबसे बड़ा मूर्ख वही है, जो मनुष्यत्व और पौरुष को प्राप्त करके भी अपने जीवन-पुष्प को प्रस्फुटित करने का प्रयत्न नहीं करता है। 
सन्त तुलसीदास ने कहा है - मनुष्यों में सुत-वित-दारा-भवन आदि को अपना मान लेने की जो आदत या ममता होती है, वही मोह-निद्रा में सोयी हुई बुद्धि है, विवेक-प्रयोग किये बिना उसकी मती कभी जाग्रत नहीं हो सकती और इसका परिणाम क्या होता है ? शूकर, सियार, स्वान योनियों में जन्म लेना पड़ता है. वैसा जीव अपनी जन्म-दायिनी माता को केवल दुःख देने के लिये ही पैदा हुआ है.
तुलसिदास हरि गुरू-करूना बिनु, बिमल विवेक न होई ।
बिनु विवेक संसार-घोर-निधि पार न पावै कोई ।।
तुलसीदास कहते हैं, भगवान की कृपा के बिना किसी को शुद्ध-विवेक (clear-discrimination) प्राप्त नहीं होता, और इसके (विवेकानन्द के) बिना कोई व्यक्ति ब्रह्मांड नामित गहरे समुद्र (भव-सागर) को पार नहीं कर सकता है.
कीचड़ को कीचड़ से साफ नहीं किया जा सकता, आतंकवाद को आतंक के द्वारा नहीं मिटाया जा सकता, प्रेम की बुनियाद पर ही नये विश्व का निर्माण होना चाहिये। इस कार्य को केवल भारत ही संभव कर सकता है। किन्तु हमारी राजनीति ने भारत के आदर्श को बहुत निचले स्तर तक गिरा दिया है। 
पहले सारे देशवासियों के लिये हमलोगों के ह्रदय में कितना प्रेम था ? इसीलिये स्वामी विवेकानन्द ने कहा था-" Forget not -every Indian is my brother ! " किन्तु अब भारतवासियों से ऐसा प्रेम कौन करता है ? अधिकांश लोग अपनी जाति या संप्रदाय के लोगों को ही अपना भाई समझते हैं, भारत माता की सभी सन्तानों को अपना भाई समझकर कौन प्यार करता है ?
आज के भारत में तो केवल धन कमाने के लिये अंधी-दौड़ मची है, धन कमाने के इस गलाकाट प्रतियोगिता से, आतंकवाद और भ्रष्टाचार कैसे मिट सकता है ? कानून बनाकर या पुलिस-बल के द्वारा या राज्यों को छोटे-छोटे टुकड़ों में बाँट देने से,या केवल सत्ता परिवर्तन से - ' मिड-डे मिल ' खाकर गरीब के बच्चों का मरना, नहीं रुक सकता।
यह कार्य केवल हमारे ' मनुष्य ' (चरित्रवान-अच्छा व्यक्ति ) बन जाने से ही हो सकता है ! आजाद भारत के किसी भी नेता ने स्वामी विवेकानन्द को नहीं पहचाना। स्वामी विवेकानन्द हिन्दू-धर्म का प्रचार करने के लिये अमेरिका नहीं गए थे।  हिन्दू नाम का कोई धर्म नही है ...हिन्दू फ़ारसी का शब्द है । हिन्दू शब्द न तो वेद में है न पुराण में न उपनिषद में न आरण्यक में न रामायण में न ही महाभारत में । जब फ़ारस से आये हुए लोगों को भारतवर्ष में प्रचलित सनातन-धर्म को देखकर बहुत आश्चर्य हुआ तो उन्होंने सिन्धु नद के इस पार रहने वाले सभी सनातन-धर्मावलम्बियों को ' हिन्दू ' नाम दे दिया। यह शब्द ठीक उसी प्रकार से अपमान सूचक है, जैसे कोई व्यक्ति ' पंचानन  ' के प्रति असम्मान व्यक्त करने के लिये उन्हें ' पांचू ' कहकर पुकारता है। 
[ स्वयं दयानन्द सरस्वती कबूल करते हैं कि यह मुगलों द्वारा दी गई गाली है। इसीलिये स्वयं स्वामी दयानन्द सरस्वती ने भी १८७५ ई ० 'आर्य समाज ' की स्थापना की थी, 'हिन्दू महासभा' की नहीं । इस प्रकार हिन्दू शब्द हमें फ़ारसी लोगों से प्राप्त हुआ है। अंग्रेजी शासन-काल में हमारे देश का नाम भारतवर्ष से India कर दिया गया, और हम अंग्रेजी-स्कूलों में पढ़े-लिखे लोग अपनी राष्ट्रीयता को ' भारतीय ' कहने के बजाये 'Indian' कहकर देते हैं। इतिहास पढ़ने वाले छात्र अवश्य इन बातों को जानते होंगे। 
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, " जिस प्रकार स्वयं को हिन्दू कहकर अपना परिचय देना आजकल हमलोगों में परिचलित है, उसकी अब कोई सार्थकता नहीं बची है." (५/१९) क्योंकि प्राचीन फ़ारसी लोगों ' स ' को ' ह ' कहकर गलत ढंग से उच्चारण करते थे. ' सिन्धु ' शब्द को वे लोग हिन्दू कहते थे, सिन्धु-नद के इस पार रहने वाले सभी लोगों को वे हिन्दू कहते थे. किन्तु वर्तमान समय में सिन्धु-नद के इस पार रहने वाले सभी लोग प्राचीनकाल की तरह एक ही धर्म के अनुयायी नहीं हैं. इसलिये उस शब्द से केवल ' हिन्दू ' मात्र का ही बोध नहीं होता, बल्कि ' मुसलमान-जैन-ईसाई ' तथा विदेशों से भारतवर्ष में आकर बस गए सभी अधिवासियों का होता है. अतः मैं अपने लिये अबसे ' हिन्दू ' शब्द का प्रयोग नहीं करूँगा"
इसीलिये श्रीरामकृष्ण कहते थे, जितने भी ब्रांडेड, labeled या लेबुल से चिपका हुआ धर्म हैं, वे सब जितना शीघ्रातिशीघ्र नष्ट हो जाये मानवजाति के लिये उतना अच्छा होता। ' धर्म ' तो केवल एक ही होता है, दो-चार धर्म नहीं हो सकते। विभिन्न समय और स्थानों में पैगम्बर लोग आते हैं, वे इस एक ही धर्म को अपने आचरण में उतार कर अलग-अलग मार्ग से उसका प्रचार करते हैं. - 
इतः को न्वस्ति मूढ़ात्मा यस्तु स्वार्थे प्रमाद्यति।
दुर्लभं मानुषं देहं प्राप्य तत्रापि पौरुषम् ।।
 ‘विवेक-चूड़ामणि’5।।
दुर्लभ मनुष्य-देह और उसमें भी पुरुषत्व को पाकर जो स्वार्थ-साधन में प्रमाद करता है, उससे अधिक मूढ और कौन होगा ?
श्रीरामकृष्ण देव इस्लाम-धर्म के अन्तर्गत आने वाले सूफी-संप्रदाय में दीक्षा प्राप्त करके 'अल्ला' मन्त्र जप करते थे. ' अल्लोपनिषद ' संस्कृत में लिखा हुआ है, किन्तु उसमें कुछ अर्थ नहीं मिलता है, प्रत्येक छन्द के बाद केवल अल्लाह अल्लाह लिखा हुआ है। 
जबकि सूफ़ी दरवेश उस सर्वव्याप्त सर्वशक्तिमान प्रेम के गीत गाते हैं जो उनके समूचे अस्तित्व को अन्ततः उनके "मेहबूब" में एकाकार कर देता है। स्वयं से मुक्त हो जाने का यह वांछित लक्ष्य अपने ईगो से मुक्त होने के बाद ही आता है। पंजाब के सूफ़ी कवि हज़रत बाबा बुल्ले शाह कहते हैं कि - 'जहां-जहां तूने मन्दिर-मस्जिद देखे, तू उनमें प्रवेश कर गया, अलबत्ता अपने भीतर कभी नहीं घुसा। आसमानी चीज़ को पकड़ने की फ़िराक़ में तू अपने भीतर बसने वाले को कभी नहीं पकड़ता। ' तेरहवीं सदी में जन्मे जलालुद्दीन रूमी सिर्फ़ कवि नहीं है, वे सूफ़ी हैं, आशिक़ हैं, ज्ञानी हैं और सब से बढ़कर गुरु हैं। 
[शम्सुद्दीन तबरेज़ी के बारे में ठीक-ठीक जानकारी उस तरह से उपलब्ध नहीं है जैसे कि रूमी के बारे में। कुछ लोग मानते हैं कि वो किसी सिलसिले के सूफ़ी नहीं थे, बस एक इधर-उधर घूमने वाले दरवेश या क़लन्दर थे। एक अन्य स्रोत से ये भी हवाला मिलता है कि शम्स के दादा हशीशिन सम्प्रदाय के नेता हसन बिन सब्बाह के नाएब थे। यह बात दिलचस्प इस अर्थ में है कि हशीशिन, इसमायली सम्प्रदाय की एक टूटी हुई शाख़ा थे। और ये इस्मायली ही थे जिन्होने सबसे पहले क़ुरान के ज़ाहिरी अर्थ को नकार कर बातिनी (छिपे हुए) अर्थों पर ज़ोर दिया, और रूमी को ज़ाहिरी दुनिया को नकार कर रूह की अन्तरयात्रा की प्रेरणा देने वाले शम्स तबरेज़ी ही थे।
रूमी और शम्स की मुलाक़ात के बाद ही रूमी को एक असाधारण अनुभव हुआ जिसके लिए उन्होने कहा कि उनके दिमाग़ में एक खिड़की सी खुली और उसमें से धुँआ निकल कर अर्श की ओर चला गया। यह निस्सन्देह एक उच्चतम आध्यात्मिक अनुभव की ओर इशारा है, जिसे तंत्र की भाषा में कह सकते हैं कि उनकी कुण्डलिनी सीधे सहस्रार तक जा पहुँची और समाधि लग गई। जलालुद्दीन रूमी की एक कविता में मनुष्य के जीवन-लक्ष्य या डार्विन के विकासवाद की झलक देखि जा सकती है - 
आदमी की तरक़्क़ी 

बेजान चीज़ों से मर गया, पौधा बन गया; फिर पौधों से मर गया, हैवान बन गया.

हैवानों से मर गया और आदमी हो गया. डरूँ क्यों, कि कब मर कर कम हो गया?

अगली दफ़े आदमियों के बीच से मर जाऊँ; ताकि फ़रिश्तों के बीच पर व पंख उगाऊँ।

और फ़रिश्तों में से भी चाहिये निकल जाना; क्युंके सिवा 'उस' के हर शै को है फ़ना हो जाना।

एक बार फिर फ़रिश्तों से क़ुरबां हो जाऊँगा।
फिर जो सोच में नहीं आता, मैं ' वो ' हो जाऊँगा !!
(अभय तिवारी द्वारा रूमी के काव्यानुवादों की पुस्तक ''कलामे रूमी'' १. मसनवी मानवी, ज़िल्द तीसरी, ३९०१-०५.) 
इसका तात्पर्य यह है कि खनिज, उद्भिज, पौधा, स्थावर-जंगम, पशु आदि योनियों से उन्नत होते हुए अन्त में यह मनुष्य का शरीर प्राप्त हुआ है. किन्तु यही अन्त नहीं है, क्रम-विकास अब भी चलना चाहिये। मनुष्य को धर्म के मार्ग पर चलकर देवता बनना चाहिये। देवता बनने के लिये स्वर्ग -नरक जाने की आवश्यकता नहीं है. देवता जैसा मनुष्य बनकर धरती पर ही रहा जाता है.
यदि हमारे मन में इर्ष्या-द्वेष, असुइया-वृत्ति अधिक हो, तो हमलोग मनुष्य नहीं बन सकते हैं. दूसरों के दुःख में दिखावा करने के लिये सहानुभूति दिखाना आसान काम है, किन्तु दूसरों की उन्नति देखकर ठीक उनके जैसा आनन्द का अनुभव (Empathy या समानुभूति ) करना ही, Emancipation या मोक्ष है ! ह्रदय का ऐसा विकास यदि नहीं हो सका तो ईर्ष्या का बिच्छू बहुत डंक मारेगा और हम नरक-वास करने को बाध्य हो जायेंगे। यदि दूसरों की उन्नति का समाचार सुनने से मन में सच्चा आनन्द होता है, तो हमारा स्वर्ग-वास चल रहा है. शास्त्रों में कहा गया है कि स्वर्ग का सुख भी सच्चा सुख नहीं है, पुण्य के क्षीण हो जाने पर वहाँ से भी नीचे की योनियों में जन्म लेना पड़ता है. अतः इसी जीवन में सच्चे स्वर्ग का आनन्द प्राप्त हो सकता है.यह आनन्द जिस उपाय से प्राप्त होता है, उसका नाम है - 'मनः संयोग '. मन को अपने वश में कैसे लाया जाता है, उसके लिये ' अभ्यास और वैराग्य ' की विधि सीखनी चाहिये।
मनुष्य के तीन प्रमुख अवयव हैं-शरीर, मन और आत्मा। परन्तु आत्मा का क्या अर्थ है, इस बात को हम अभी नहीं समझ सकते है. इसी बात को सरलता से समझाने के लिये, स्वामीजी तीन प्रमुख अवयव को - शरीर,मन और ह्रदय  (Hand-Head-Heart ) कहते हैं ! किन्तु हमें यह समझने का प्रयास करना चाहिये कि स्वामीजी ने आत्मा को समझाने के लिये ' ह्रदय ' या Heart की संज्ञा क्यों दी है ? शिक्षण का एक प्रसिद्ध सूत्र हैं - "मूर्त से अमूर्त की ओर"। वास्तव में किसी वस्तु पर दृष्टि पड़ते ही हमें उसका सामान्य परिचय मिल जाता है। 
आज हमारे देश में जितना आभाव चरित्र का देखा जा रहा है, उतना आभाव अन्य किसी वस्तु का नहीं है. सामाजिक जीवन के हर क्षेत्र में भ्रष्टाचार का बोलबाला है। आज का यक्ष-प्रश्न तो यही है कि क्या करने से हमारे देशवासी उत्तम चरित्र के अधिकारी मनुष्य बन जायेंगे ? वास्तव में हमलोग अभी मनुष्य शरीर-धारी अवश्य हैं, किन्तु यथार्थ मनुष्य नहीं बन सके हैं। क्योंकि हमें अपने ह्रदय को विकसित करके Empathy या हमदर्दी के गुण को बढ़ाने की शिक्षा नहीं दी जाती है। 
हमलोग यह जानते हैं, कि मर्माहत होने पर हमलोगों का हाथ स्वतः ह्रदय के उपर चला जाता है।  ह्रदय का विकास उसे कहते हैं, जब केवल सहानुभूति sympathy दिखाने की जरुरत महसूस नहीं हो, हमारी Empathy हमदर्दी या समानुभूति का स्वतः विकास हो जाता है, तब दूसरों के सुख में भी ठीक उसी के जैसा सुख अनुभव करने की शक्ति ह्रदय में आ जाती है. इसीलिये स्वामी विवेकानन्द ने प्रचण्ड इच्छाशक्ति और दृढ़-संकल्प के बल पर मूर्त शरीर के देहाध्यास या मिथ्या मैं के धरावाहिकत्व को समाप्त कर, अमूर्त ह्रदय का विकास करके यथार्थ मनुष्य बनने और दूसरों को भी यथार्थ मनुष्य बनने में सहायता करने के लिये एक सूत्र दिया है - ' 3H ' निर्माण !
इसी 3H का निर्माण करके स्वयं मनुष्य बनना और दूसरों को मनुष्य बनने में सहायता करना महामण्डल का उद्देश्य है. अपने शरीर को निरोगी, स्वस्थ और कर्मठ बनाये रखना सबसे पहला धर्म है- शरीरमाद्यं खलु धर्म साधनं। शरीर को हमलोग अपने दिनचर्या में परिवर्तन लाकर, नियमित व्यायाम और पौष्टिक आहार के द्वारा हमलोग निरोग और स्वस्थ रहना सीखते हैं।  यहाँ इसके लिये प्रशिक्षण भी दिया जाता है.
स्वस्थ शरीर के साथ साथ मन को भी स्वस्थ रखा जा सकता है. किन्तु इसके लिये आवश्यक है कि हम मन के गुलाम नहीं बनें बल्कि मन ही हमारा यंत्र बन जाये, एक इन्स्ट्रूमेंट बन जाये जिसका उपयोग हम अपनी आवश्यकता के अनुरूप करने में समर्थ हों. मन को अपनी मुट्ठी में कर लेना ही पहला पुरुषार्थ है, अर्थात धर्म है !
अभी तो हमारे मन की हालत यह है कि यह बिना मेरे चाहे, बिना मुझसे अनुमति लिये ही अभी इसी क्षण किसी ग्रह पर चला जा सकता है। या किसी बुरे स्थान में - किसी बीयरबार में, या डान्सबार में भी जासकता है, फिर यह किसी मन्दिर में भी जा सकता है। ये किसी उन्मत्त वानर या मर्कट की तरह चंचल है, हमेशा इधर-उधर उछल-कूद मचाता रहता है।  
स्वामीजी ने मन की तुलना मदिरा पीये हुए उन्मत्त वानर से की है. मन में विषय-सुखों को भोगने की इच्छा या कामना-वासना ही मदिरा है, ह्रदय का विस्तार नहीं होने से Empathy -हमदर्दी या समानुभूति करने की क्षमता प्राप्त नहीं होती। इसके परिणाम स्वरुप दूसरों की सुख-सम्पन्नता को देखकर ईर्ष्या का बिच्छू डंक मारता रहता है. फिर दूसरों को नीचा दिखा दूँगा -रूपी ' अहंकार का भूत ' भी जब सिर पर सवार हो जाता है, तब इस मन को शान्त रखना असंभव हो जाता है. हमारे शास्त्रों में इस प्रकार के चंचल मन को वशीभूत करने का जो उपाय बताया गया है, वह गीता, भागवत एवं योग-सूत्र तीनों में एक ही है-
अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः ॥

व्यासभाष्यम् 

चित्तनदी नामोभयतो वाहिनी वहति कल्याणय  वहति पापय च । या तु कैवल्यप्राग्भारा विवेकविषयनिम्ना सा कल्याणवहा । संसारप्राग्भाराऽविवेकविषयनिम्ना पापवहा । तत्र वैराग्येण विषयस्रोतः खिलीक्रियते, विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत्र उद्धाट्यत इत्युभयाघीनश्चित्तवृत्तिनिरोधः ॥१२॥ 
- चित्त-नदी या हमारे मन का प्रवाह मानो दो भागो में बंटा रहता है, उसकी एक धारा कल्याण की दिशा में प्रवाहित होती है, दूसरी धारा पाप की दिशा में प्रवाहित होती है। व्यासदेव कहते हैं, जो प्रवाह हमें 'कैवल्य-प्राप्ति' (विभिन्नता में एकत्व की अनुभूति करने) की दिशा में ले जाएगी, वह  धारा ' विवेक-विषय- निम्ना ' होगी, जिस मन की चिन्तन धारा, या चित्त का प्रवाह विवेक की तली के उपर से बहेगी वही कल्याणवहा धारा है। धारा की तली या फर्श विवेक की बनी हुई हो, तो उस चिन्तन प्रवाह को हम कैवल्य के पथ में अपने स्वरुप को जानने के दिशा में ले जा सकते हैं।यदि हम उसका विपरीत करें, अर्थात अविवेक के उपर से यदि चिन्तन  धारा को बहने दिया जाये तो वह धारा कैवल्य की और न जाकर संसार की ओर बहने लगेगी, जो हमारे बंधन का कारण होगा, उसी ओर ले जाएगी। चित्त की इसी धारा का नाम है- पापवहा धारा। इस पापवहा धारा को वैराज्ञ का फाटक लगाकर विषय-स्रोत को ही रुद्ध कर देना होगा, उसके बाद हमलोग यदि अपने मन को विवेकानन्द की छवी पर मन को एकाग्र करने का नियमित अभ्यास करते रहें
'-विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत्र उद्धाट्यत ' 
शायद व्यासदेव यह जानते थे कि आगे चलकर स्वामी विवेकानन्द आयेंगे जिनका मुखमंडल ऐसा होगा कि जिनके चित्र पर मन को एकाग्र करने का अभ्यास करने से चित्त का सदा तरंगायित रहना रुक जायेगा। यहाँ यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि ' पतंजली योग सूत्र ' पर भाष्य लिखने के बाद जगद्गुरु शंकराचार्य ने भाष्य नहीं लिखा था, उनके बाद योग-सूत्र पर भाष्य लिखने वाले प्रथम व्यक्ति स्वामी विवेकानन्द ही थे. इसलिये मनः संयोग का अभ्यास हर दिन दो बार प्रातः और संध्या नियमित रूप से करते रहना चाहिये। 
जब हमलोग आसन पर बैठकर मन की बहिर्मुखी दृष्टि को अन्तर्मुखी बना कर अपने मन को देखने का प्रयत्न करते हैं, तो पता चलता है कि हमारा मन सचमुच कितना चंचल है ! कहाँ कहाँ न दौड़ता रहता है. जैसे चंचल बालक को शान्त करने के लिये समझा-बुझाकर या बहला फुसला कर शांत करना पड़ता है, उसी तरह मन को भी समझा-बुझाकर शांत करना पड़ता है. उपनिषदों में मन को बन्दर के साथ तुलना नहीं किया गया है, वहाँ कहा है- 'पौरुषेण प्रयत्नेन लालयेच्चित्तबालकम् ' (७/मुक्तिक उपनिषद्) अर्थात मन को किसी बालक के समान प्रेम के साथ समझ-बुझा कर शांत करो, जोर-जबर्दस्ती करने से मन बिगड़ भी सकता है. 
उसको प्रेम से समझाते हुए कहो, ' मन यहाँ आओ, मेरे सामने बैठो। देखो हर समय इतना भाग-दौड़ करना ठीक नहीं है. तुम्हारी सहायता के बिना कुछ नहीं कर पाउँगा, इसलिये तुम मेरा साथ दो. तुम्हारी सहायता से मैं जगत का कल्याण भी कर सकता हूँ, और उसका विध्वंस भी कर सकता हूँ. अणुबम का विस्फोट करके विश्व में शांति की स्थापना नहीं की जा सकती है, प्रेम के द्वारा ही विश्व को एकता के सूत्र में बांधा जा सकता है. आज हमारे देश की अवस्था इसीलिये ख़राब हो गयी है कि हम सभी लोग घोर स्वार्थी बन गए हैं, आपस में प्रेम, सद्भाव या हमदर्दी नहीं है, मन को वशीभूत कर लेने से यह इस अवस्था में परिवर्तन लाया जा सकता है. घर के अभिवावक लोग सोचते हैं कि केवल पैसा कमा लेने से ही सबकुछ ठीक हो जायेगा, पर यह सही नहीं है, घर-परिवार में सुख-शांति और सौहार्द का वातावरण तभी रह सकेगा जब -हमारा मन हमारे वश में रहेगा। घर में किसी की प्रसंसा से सुखी और असम्मान मिलने से दुःखी होना छोड़ देगा। 
इसीलिये महाभारत में कहा गया है- 'आत्मानं प्रथमं द्वेष रूपेण योजयेत ' सबसे पहले मन रूपी शत्रु को बलपूर्वक जीत लो. आतंकवाद को खत्म करने के लिये इराक-अफगानिस्तान के उपर बम गिराना बन्द करके, पहले अपने मन को शांत करो. अमेरकी राष्ट्रपति बुश और टोनी ब्लेयर कहते थे कि इराक को खत्म करने के लिये उन्हें ईश्वर से आदेश मिला है. जो देश स्वयं दानव हैं, वे दानव-दलन कैसे करेंगे ? आजकल सरकार F.D.I (Foreign direct investment) को लाने के लिये तरह तरह की घोषणाएँ कर रही है, अभी सूचना का अधिकार (R.T.I) भी दिया गया है, यदि सचमुच F.D.I से विदेशों का धन भारत में आ रहा है, तो क्या कोई यह बता सकता है, कि कितना करोड़ डालर यहाँ से बाहर जा रहा है ? मैं इसकी सूचना जानने के लिये R.T.I  की मांग करता हूँ, कौन उत्तर देगा ? राजनितिक दलों पर  R.T.I कानून क्यों लागु नहीं होना चाहिये ? सभी राजनैतिक दल तो अपने अपने स्वार्थ के पीछे दौड़ रहे हैं, कौन इसका उत्तर देगा ? 
यदि हम सभी मनुष्यों का सोया हुआ विवेक जाग्रत हो जाये, तो हमारा जीवन कितना महान हो जायेगा-हम इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते। विवेक के जाग्रत होते ही हमलोग यह देख पायेंगे कि हमारे ह्रदय में जगत-बन्धु स्वामी विवेकानन्द, जगन्माता सारदा और स्वयं प्रेम-स्वरूप ईश्वर अभिव्यक्त होने के लिये ज्वार मार रहे हैं. उसी विश्व-ग्रासी प्रेम को अभिव्यक्त करना मनुष्य-जीवन का उद्देश्य है. हमारा मिथ्या अहं या झूठा मैं-पन ही उस प्रेम के अभिव्यक्त होने में बाधक मेड़ का कार्य कर रहा है, उस अहं रूपी मेड़ को जैसे ही काट दिया जायेगा, सम्पूर्ण विश्व हमारा अपना ही परिवार जैसा दिखाई देने लगेगा। हमलोग केवल भाई-भाई ही नहीं हैं, वास्तव में सम्पूर्ण मानव-जाति एक और अभिन्न है. कोई अलग नहीं है - तूँ और मैं एक हैं. राजनीति की बिसात पर हिन्दू-मुस्लिम विवादों को सुलझाने का ईमानदार प्रयत्न करते हुए सूफ़ी कवि कहते हैं- 
"रामदास किते फते मोहम्मद, ऐहो कदीमी शोर. 
 मिट ग्या दोहां दा झगड़ा, निकल ग्या कोई होर"।
दर्शन शास्त्र या वेदान्त की भाषा में इसी 'One' ness of humanity को अद्वैत कहा जाता है. यही सनातन धर्म है. श्रीमद भागवत ७/११/२ में युधिष्ठिर नारद से पूछते हैं कि सनातन धर्म क्या है ? उत्तर में नारद मुनि कहते हैं- देश के खेतों से लेकर कल-कारखानों आदि में जो कुच्छ भी उत्पादन होता हो, उस 'सकल घरेलू उत्पाद' को सभी नागरिकों में उनकी जरुरत के अनुसार वितरण कर दो, किन्तु वितरण करते समय उनमे ' देवता-बुद्धि ' रखते हुए वितरण करो. 
किन्तु ऐसा ' सैद्धान्तिक साम्यवाद ' अभी तक विश्व के किसी भी देश में क्यों नहीं स्थापित हो सका है ? इसीलिये कि पाश्चात्य-प्रेरित साम्यवाद में तथाकथित धर्म-निरपेक्षता को अपनाते हुए- ' तेषु आत्मदेवता बुद्धिः ' को स्वीकार नहीं किया गया है. सभी में बाँट दो, किन्तु बाँटते समय -सभी देशवासियों को अपना देवता समझ कर बाँटना होगा। इतना ही नहीं अपने भाई-बहनों के बिच भी यदि पारिवारिक-सम्पत्ति का बँटवारा करना हो, तो सम्पत्ति का बँटवारा करते समय जरुरत के मुताबिक ही बाँटना चाहिये। ऐसा सोचना चाहिये कि वे मेरे भाई-बहन ही नहीं हैं, मेरी आत्मा हैं, मेरे इष्टदेव की ही प्रतिमूर्तियाँ हैं ! इसीलिये स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- 
" तुम्हारी पाश्चात्य-शिक्षा पद्धति का एक बड़ा दोष यह है कि तुम केवल बौद्धिक शिक्षा की ही चिंता करते हो, हृदय की ओर ध्यान नहीं देते. इसका फल यह होता है कि मनुष्य दस गुना अधिक स्वार्थी बन जाता है.
अपने तन-मन और वाणी को ‘जगद्धिताय’ अर्पित करो. तुमने पढ़ा है, ‘मातृदेवो भव, पितृदेवो भव’ अपनी माता को ईश्वर समझो, पिता को ईश्वर समझो- परंतु मैं कहता हूं ‘दरिद्र देवो भव, मूर्ख देवो भव’- गरीब, निरक्षर, मूर्ख और दुखी को ईश्वर मानो." 
स्वामीजी भी क्या किसी ऋषि से कम थे ? वे तो निवृत्ति मार्ग के सप्त-ऋषियों में से एक थे, स्वयं श्रीरामकृष्ण देव ने ऐसा कहा है, किन्तु हमारी दृष्टि वहाँ तक पहुँच नहीं पाती है. वे तो पृथ्वी-लोक के परे ब्रह्मलोक में अखण्ड के घर में बैठकर तपस्या कर रहे थे, ठाकुर उनको समाधि से जगाकर अपना काम कराने के लिये पृथ्वी पर लेकर आये थे. इन बातों को मुँह से बोलकर नहीं समझाया जा सकता है, किन्तु योग-सूत्र के व्यास भाष्य में भी कहा गया है कि वहाँ सात ऋषि बैठे हैं ! उत्तर आकाश में जो सप्त-ऋषि ध्रुव-तारे या पोल-स्टार की परिक्रमा करते दिखाई देते हैं, वे सब प्रवृत्ति-मार्ग के ऋषि है. स्वामीजी उनमें से कोई एक नहीं हैं. 
ब्रह्मा जी ने जब इतने सुन्दर सृष्टि की रचना की तो सोचने लगे, इतने सुन्दर जगत को देखने वाला भी तो कोई होना चाहिए। उन्होंने सोचा प्रजा की रचना करने से वे इस सुन्दर सृष्टि को देखकर खुश हो जाएँगी। तब उन्होंने अपनी इच्छा से प्रवृत्ति-मार्ग के सप्त-ऋषियों की रचना की. किन्तु उन्होंने सोचा कि यदि ये लोग भी प्रवृत्ति में फँस कर अपने स्वरुप को ही भूल गए, तो उनको फिर सही मार्ग पर कौन लायेगा ? इसीलिये सभी लोगो को सही मार्ग दिखलाने के लिये उन्होंने निवृत्ति-मार्ग के सप्त ऋषियों की रचना की. इस पूरी कहानी को समझ लेना बहुत कठिन है. भगवान क्या है ? मेरे मन में जो विचार उठ रहा है, वह भी भगवान का ही विचार है. भगवान भी शरीर-धारी चैतन्य ही हैं. ' चैतन्यात सर्वं उत्पन्न्म '! यहाँ कुछ भी जड़ नहीं है, सबकुछ चैतन्य ही है. इस सत्य की धारणा करने के लिये विषय-भोग की इच्छा, कामना-वासना का त्याग करना होगा, पवित्र होने के लिये गंगा-सागर तीर्थ या केदारनाथ धाम नहीं जाना होगा। 
मनुष्य का मन ही सबसे बड़ा तीर्थ है. 'यस्मिन वेदश्च देवश्च '- जहाँ सब पवित्रता मिलकर एक हो गया हो, उस मन के सरोवर में स्नान करने से तुम अमृत हो जाओगे। कर्मयोग में स्वामीजी एक कहानी कहते थे, - किसी गाँव में एक साधू झोपड़ी बनाकर रहते थे. उसी गाँव में एक बहुत भयंकर डकैत भी रहता था. किन्तु साधुसंग करने से उसके मन में पाश्चाताप उत्पन्न हुआ. वह साधू के पास रहकर उनकी सेवा करने की अनुमति मांगता है, कुछ दिनों तक वह रहने के बाद एक रोज साधू से कहता है, ' आप तो सब पर कृपा करते हैं, मुझे भी तीर्थ जाने की अनुमति दीजिये। मैंने सुना है कि तीर्थों में जाने से सारे पाप चले जाते हैं. ' किन्तु मैं यह कैसे समझूंगा कि मेरे सारे पाप चले गये हैं ? 
तब उस साधू ने कहा कि तुम एक गज साफ धुल हुआ श्वेत कपड़ा ले आओ. उसे काले रंग की स्याही में डुबो दो. इस काले कपड़े को सदा अपने साथ रखना, जब तुम किसी तीर्थ से स्नान कर के लौटना तो उस काले कपड़े को देखना कि उसका काला रंग अभी गया है या नहीं ? वह डकैत कई तीर्थों में भटका किन्तु कपड़ा जस-का तस ही रहा. वह बहुत दुखी मन से अपने गाँव की तरफ लौट रहा था. तभी उसे एक जंगल के भीतर से किसी औरत के रोने की आवाज सुनाई देती है. कोई डकैत उस औरत को अकेली पाकर उसका गहना लूट रहा था. यह देखकर उस डकैत को बहुत गुस्सा आ गया. तुरन्त उसने एक फरसे से उस डकैत का सिर उसके धड़ से अलग करते हुए कहा- ' जैसा बावनवां वैसा तिरपनवाँ ' फिर डकैत से उस युवती को बचाकर वह डकैत उसके गाँव तक छोड़ आया. फिर साधू के आश्रम में लौट आया. 
साधू ने पूछा - क्या तुम्हारा पाप चला गया ? उस डकैत ने कहा नहीं महाराज कई तीर्थों में नहा  कर मैंने देख लिया, पर जब खोला  तो वह काला का काला ही था. तब साधू ने पूछा रस्ते में तुमने क्या किसी असहाय स्त्री को बचाया भी था ? डकैत ने जब पूरी रामकहानी सुना दी, तो साधू ने कहा तू एकबार उस कपड़े को निकाल कर देखो। देखता है- तो कपड़ा सफ़ेद हो चूका था ! 
जब उसने कहा कि मैंने तो सिर काटा था, ऐसा कैसे हुआ ? तब साधू बोले, नहीं तुमने उस औरत को बचाने के लिये वैसा किया था, उसमे तुम्हारा अपना कुछ स्वार्थ नहीं था. तुम्हारे ह्रदय में जो निःस्वार्थ प्रेम फूट गया था, उसी प्रेम में तुम्हारे सारे पाप धुल गये हैं.'
ये जो मानस-सरोवर है, हमारा मन है, इस मन को वैसा ही तीर्थ बना लेना चाहिये और उसमें स्नान करके अमृत बन जाना चाहिये। यही स्वामीजी का आह्वान है, सभी युवा उसमें स्नान करके अमृत हो सकते हैं. उस मनोतीर्थ के घाट पर हिन्दू-मुसलमान में कोई अन्तर नहीं रहता, नास्तिक भी अलग नहीं है. सभी धर्म यही कहते हैं, कि मन को पवित्र रखना चाहिये और संसार को प्रेम से भर देना चाहिये। यही धर्म है, इसका लाभ हो जाने पर यहाँ जाते समय कहेंगे-जगत ईश्वर की सुन्दर रचना है ! यह तभी संभव होगा जब हमलोग उस आह्वान का अनुसरण करेंगे जो जगत-बन्धु स्वामी विवेकानन्द ने दिया था -आओ मनुष्य बनें !



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