मंगलवार, 16 जुलाई 2013

धर्म क्या है ? [एक लाख लोगों में से कोई एक व्यक्ति भी समझ ले तो बहुत है ! 1.कैम्प नोट २००५ सरीसा आश्रम ]

[PC पूज्य दादा ने कहा है कि २००५ का ऐन्युअल कैम्प का मनःसंयोग क्लास सबसे अच्छा हुआ था। उस कैम्प में आठ राज्यों से १०६६ कैम्पर्स आये थे।अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल का वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर जैसे आयोजन अगर जीवन में आगे बढ़ने और चलते रहने का पाठ पढ़ाते हैं तो कहीं यह सीख भी देते हैं कि पल भर ठहरकर हम अवोकन कर लें, अपनी दिशाएं स्पष्ट कर लें और पीछे जो भूलें हुई हैं, उन्हें ठीक करते हुए आगे बढ़ चलें। यह शिविर विचार मंथन का अवसर है। यह केवल स्वामी विवेकानन्द का गुणगान करने या उनके प्रति आस्था और  विश्वास व्यक्त करने का उत्सव नहीं है। यह एक ऐसी घड़ी है, जो विगत ४५ वर्षों से प्रति  वर्ष २५ से ३० दिसम्बर तक आयोजित होती आ रही है। और एक युवाओं को एक नए युग के द्वार पर छोड़ जाती है। यही वह घड़ी है जो सोने वालों को जगाने, जागे हुओं को उठ खड़े होने और जो उठ गए हैं, उन्हें चल पड़ने की सीख देती है।अब कोई कारण नहीं है कि भारत के एक सौ बीस करोड़ लोग निराशा के भाव में जीने को विवश हों और कोई कारण नजर नहीं आता कि स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रदत्त भारत-निर्माण सूत्र - ' Be and Make ' को जीवन में उतार  लेने से भारत का उदय न हो! 
अगर महेन्द्र और संघमित्रा, तथागत की करुणा और प्रेम लेकर श्रीलंका जाते हैं तो क्या वे उदय की ही बात नहीं करते? जब स्वामी विवेकानंद सात समंदर पार जाकर भारत की आध्यात्मिक ऊर्जा फैलाते हैं तो क्या वह वैभव के शिखर पर पहुंचने की उत्कंठा का असर नहीं है ?  और गुलामी के काले, अंधेरे दिनों में श्रीरामकृष्ण और विवेकानन्द जैसी विभूतियों का अवतरित होना क्या यह नहीं बताता कि भारत में उदय होने की प्राणशक्ति उपस्थित है? यह युवा प्रशिक्षण शिविर उदय का उत्सव है, जो यह स्मरण कराने आता है कि उठो, जागो और चल पड़ो, तुम्हारी विजय सुनिश्चित है। स्वामीजी ने सिंहनाद करते हुए घोषणा की थी, " विश्व के वर्तमान मानचित्र पर आज के अनेक विकसित और विकासशील राष्ट्रों का जब नामोनिशान भी नहीं था और आज के अनेक मत-पंथों और उनके सूत्रधारों को पैदा होने में भी जब कई सदियां शेष थीं, तब भी भारत का जगमगाता हुआ अस्तित्व था।"
हमारी संस्कृति "बीती ताहि बिसारिए" में विश्वास रखती है ताकि आगे की सुध ली जा सके। हम वर्तमान में विश्वास रखते हैं ताकि भविष्य की मजबूत बुनियाद खड़ी कर सकें, अलगाव में हमारी आस्था नहीं है। हम केवल अपने हित की नहीं सोचते, दूसरों के कल्याण की कामना भी करते हैं। यही उचित अवसर है जब हम अपनी सनातन संस्कृति की अमृतधारा से टूटकर अलग हुए समुदायों को निकट लाएं और हमारे ये प्रयास तब तक जारी रहें जब तक कि हम उन्हें उसी अमृतधारा से नहीं जोड़ लेते। हमलोग पन्थ-निरपेक्ष हैं या धर्म-निरपेक्ष हैं ? अगर राष्ट्र सर्वोपरि है तो संस्कृति की धारा में हमें एक साथ चलना होगा और वही सच्चे अर्थों में एकता होगी। पंथ-निरपेक्षता का भी तभी कोई अर्थ होगा। जब तक मजहबी मान्यताएं राष्ट्र की मूल सांस्कृतिक धारा के साथ जुड़ना नहीं सिखातीं तब तक यह चुनौती शेष है। इसलिए वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर जैसे समागम एक प्रकार से बार-बार आते आमंत्रण हैं, जो समस्त सम्प्रदाय के युवाओं को बिना किसी भेदभाव के एक जगह एकत्र होने का अवसर देते हैं।
यह शिविर समस्त समाज, राष्ट्र और मानव जाति के लिए शुभ का निमित्त बने, यही कामना है। हम अपने आस-पास के खतरों के प्रति सजग रहें, चुनौतियों का सामना करने में सबल हों, सोये हुओं को जगाएं, जागे हुओं को खड़ा करें और जो उठकर खड़े हो सके हैं, उन्हें अपनी शुभयात्रा का साथी बनाएं। स्वयं भी गतिमान हों और दूसरों को भी गति दें, ' Be and  Make ' ! क्योंकि यही जीवन का लक्षण है, यही ऋषियों का संदेश है और प्रशिक्षण-शिविर का सार भी यही है- चरैवेति, चरैवेति। ॐ भद्रं ताक्षर्यो अरीष्ट्नेमिः हम भगवान का आराधन करते हुए अपने कानो से केवल कल्याणमय वचनों को ही सुने,गरुड़ देव हमारे कल्याण का पोषण करें।]
कल शाम को महामण्डल का आदर्श उद्देश्य एवं प्रतीक चिन्ह (Emblem ) तथा ध्वजा के बारे में सुना कि
 ' मनुष्य' बनना पड़ता है। अंग्रेजी के कवी ब्राउनिङ्ग की प्रसिद्ध कविता है  - 
  " Progress, man's distinctive mark alone,
 

Not God's, and not the beasts: God is, they are;
 

Man partly is, and wholly hopes to be. "
 
 
 " उन्नति की आशा - केवल मनुष्यों की है विशिष्ट पहचान !  
   
 यह तो पशु प्रजातियों की है, 

  और नहीं है भगवान की पहचान
।   


ब्रह्म तो हैं ही पूर्ण, रहते सदा स्व-महिमा में स्थित,

      
पशु-प्रजातियाँ भी हैं बँधी, जो थीं; रहती उम्र-भर उसी में ग्रथित।   

 
  मनुष्य - अभी तो है अपूर्ण, फिर भी उसे आशा -
 

' पूर्ण ' बन जाने की है !



 -अर्थात उन्नति,आरोहण या संसार-सागर से पार-गमन (crossing) की चेष्टा करने की आवश्यकता ईश्वर को  नहीं है, पशुओं में तो इसकी क्षमता भी नहीं है,यह केवल मनुष्यों का ही वैशिष्ट्य है। ईश्वर तो पूर्णता में ही विराजमान रहते हैं, उनके आरोहण (ascension) का तो प्रश्न ही नहीं उठता। पशु की प्रजातियाँ (गाय-भैंसें,गधे आदि) ' सतयुग ' में जैसे थे, आज तक  वैसी ही हैं। किन्तु अपूर्ण होने पर भी मनुष्य पूर्णता में पहुँचने की आशा लेकर उन्नति के लिये प्रयत्न करता है। और जीवन-मृत्यु से होता हुआ मनुष्य निरन्तर अंश से पूर्णता की दिशा में ही बढ़ता  रहता है।
यह ठीक है कि मनुष्य जन्म के समय अपूर्ण रहता है, किन्तु पूर्णता या बुद्धत्व उसके भीतर जन्म के समय से ही क्रम-संकुचित रहता है। स्वामीजी कहते हैं- " Religion is the manifestation of the natural strength that is in man. A spring of infinite power is coiled up and is inside this little body, and that spring is spreading itself. ...This is the history of man, of religion, civilization, or progress. "   
" मनुष्य में जो स्वाभाविक बल है, उसको अभिव्यक्त करना ही धर्म है। असीम शक्ति का स्प्रिंग इस छोटी सी काया में कुण्डली मारे विद्यमान ( बीज में वृक्ष के जैसा-क्रमसंकुचित) है, और वह स्प्रिंग अपने को फैला रहा है। ...यही है मनुष्य का,धर्म का, सभ्यता या प्रगति का-इतिहास !" 
यही बुद्धत्व या पूर्णत्व पशु योनियों में भी क्रम-संकुचित अवस्था में रहता है, किन्तु उनको पुरुषार्थ करने या सद्गुरु के पास जाकर अपने पूर्णत्व को अभिव्यक्त करने की विद्या सीखने का अवसर नहीं है।पशुओं का अन्तःकरण मनुष्यों के जैसा उन्नत नहीं होता कि वे भी अपने गुरु के पास जाकर शाश्वत और नश्वर में विवेक-विचार करना सीख सकें। इसलिये वे जीवन भर पशु के जैसा-आहार,निद्रा, भय और मैथुन करते हुए ही मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। 
किन्तु मनुष्य योनि सर्व-श्रेष्ठ योनि है, वह भोग योनि नहीं है, मनुष्य भी पशु के जैसा आहार,निद्रा, भय और वंश-विस्तार करते हुए एक दिन बूढ़ा होकर मर जाने के लिये बाध्य नहीं है। मनुष्य अपने गुरु से विवेक-प्रयोग करने की विद्या सीखकर आंशिक मनुष्य और आंशिक पशु की मिली-जुली अवस्था से पूर्ण-मनुष्य में उन्नत हो सकता है। गुरु स्वामी विवेकानन्द ने इसी अंश से पूर्ण मनुष्य बन जाने का आह्वान करते हुए युवाओं से कहा था-" मनुष्य तीन प्रकार के गुणों से निर्मित है,पाशविक, मानवीय और दैवी। जो तुममें दैवी गुण बढ़ाता है वह पूण्य है और जो तुममें पशुता बढ़ाता है वह पाप है।  तुमको पाशविक वृत्ति को समाप्त कर 'मनुष्य ' बनना चाहिये -अर्थात प्रेममय तथा उदार होना चाहिये। इससे भी उपर उठकर तुम्हें शुद्ध आनन्द, सच्चिदानन्द, अदाहक अग्नि के समान, अद्भुत प्रेममय किन्तु मानवीय प्रेम की दुर्बलता से रहित, दुःख की भावना से रहित बनना चाहिये।" युवाओं के प्रति उनका आह्वान था- Be and Make ! पहले Be होने अर्थात यथार्थ मनुष्य बनने को कहा फिर उसका उपाय बताते हुए कहा था- Make ! ' अपने भीतर ब्रह्म-भाव को जाग्रत रखने का सबसे सरल तरीका है, दूसरों को इस कार्य में सहायता करना। ' तुम स्वयं यथार्थ मनुष्य बनने और दूसरों को मनुष्य बनाने के प्रयत्न (पुरुषार्थ) में आगे बढ़ो! आगे बढ़ो! चरैवेति चरैवेति ! यही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है। 
" कलिः शयानो भवति, संजिहानस्तु द्वापरः ।

 उत्तिष्ठँस्त्रेताभवति, कृतं संपद्यते चरन् । 

चरैवेति चरैवेति॥
 ऐतरेय ब्राह्मण के इस श्लोक का अर्थ है- जो सो रहा है अर्थात जो पाशविक वृत्तियों को तुष्ट करने में लगा हुआ है वह कलि है, निद्रा से उठ बैठने वाला द्वापर है, उठकर खड़ा हो जाने वाला त्रेता है (वीरभाव या सन्तान भाव का साधक है) लेकिन जो चल पड़ता है, वह कृतयुग, सतयुग और स्वर्णयुग (देवभाव का साधक) बन जाता है। इसलिए चलते रहो, चलते रहो। लक्ष्य के प्राप्त होने तक बिना विश्राम लिये चलना और चलते रहना ही जीवन का लक्षण है।
 आहार निद्रा भय मैथुनं च
सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम् ।

धर्मो हि तेषामधिको विशेष:
धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः ॥
आहार, निद्रा, भय और मैथुन – ये तो इन्सान और पशु में समान है । इन्सान में विशेष केवल धर्म है, अर्थात् बिना धर्म के लोग पशुतुल्य है ।  किन्तु धर्म क्या है ? यदि एक लाख लोगों में कोई एक व्यक्ति भी इस बात को समझ सकता हो तो बहुत होगा। प्रत्येक व्यक्ति अपने मन के अनुसार विचार करके धर्म के बारे में अपनी कोई धारणा बना लेता हैधर्म के बारे में सबसे महत्वपूर्ण बात – जिसे समझना हर किसी को जरूरी है, वह है-धर्म और मत (Religion या सम्प्रदाय जो किसी व्यक्ति के द्वारा स्थापित किया जाता है।) का अंतर। इसे न समझने के कारण मत यानी मजहब (सम्प्रदाय) को भी धर्म कह कर, ' धर्मावलम्बी ' होने को ' मतावलम्बी ' होने का पर्यायवाची  मान कर जीवन भर भ्रम में पड़ा रह हर मजहबी टकराव को धर्म का फंसाद कह दिया जाता है।
  मनुष्य और पशु में अन्तर क्या है ? पशु पराधीन रहता है, वह इन्द्रियों के वश में रहता है। स्वर्ग प्राप्ति की कामना, भोग वांछा की कामना, कल्प-वृक्ष पाने की कामना,कामधेनु की कामना भी पशु भाव है।  भीतर की पशुता से मुक्त हो जाने की साधना का नाम ही पुरुषार्थ है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष चार पुरुषार्थ में पहला पुरुषार्थ है- " धर्म "! मनुष्य को एक विशेष वस्तु प्राप्त है, जिसको धर्म कहा जाता है। ये ' धर्म ' जिसमें नहीं है, उसका ढाँचा तो मनुष्य का है, किन्तु आचरण में वह पशु के बराबर होता है, क्योंकि वह भी इन्द्रियों के वश में रहता है।
 हमारे शास्त्र कहते हैं -
श्रूयतां धर्म सर्वस्वं श्रुत्वा चैव अनुवर्त्यताम् ।
 आत्मनः प्रतिकूलानि , परेषां न समाचरेत् ॥ 
- अर्थात धर्म का सर्वस्व क्या है, सुनो और सुनकर उस पर चलो ! उसको भली-भांति धारण करो। जो कुछ तुम्हें अपने लिए हितकर प्रतीत नहीं होता, उसका व्यवहार दूसरों पर न करो। अर्थात सम्पूर्ण धर्म का सार एक ही है इसीलिये कभी किसी पर अपनी मान्यता बलपूर्वक न थोपो। कुछ नादान लोग " धर्म " का अर्थ Religion,या मतवाद या मजहब समझते हैं, इसीलिये वे इस धारणा को किसी भी प्रकार स्वीकार नहीं करते। उनकी धारणा के अनुसार उनकी जो मान्यता है वही सत्य है और जो उसका स्वीकार नहीं करेंगे उन्हें तलवार की धार से वे समाप्त कर देंगे। 
 इसीलिये मात्र राजनीति के लिए ' सर्व-धर्म समभाव ' की लुभावनी बातें करना एक अलग बात है तथापि, दुर्भाग्य से विभिन्न नाम वाले  मजहबों; में सम-भाव बैठाना जिन्हें "धर्म "(या रूहानियत) कहना ही ठीक प्रतीत नहीं होता, एक टेढ़ी खीर है। इसीलिये श्रीरामकृष्ण देव (स्वामी विवेकानन्द के गुरु ) " सर्व-धर्म समन्वय " अर्थात विश्व में प्रचलित समस्त उपासना पद्धतियों में सामान्य (common) सार बात में समन्वय लाना आज के विश्व की प्रमुख आवश्यकता मानते थे। अपनी विशिष्ट साम्प्रदायिक-पहचान को सबसे पृथक रखना विभिन्न मतावलम्बियों (सम्प्रदायों) की एक बड़ी समस्या है। प्रश्न यह है कि- जीवन के लिए आवश्यक क्या है ? पृथक पहचान या धर्मानुशीलन ? सच्चाई यह है कि धर्म आचरण में उतारने या धारण करने की चीज है न कि टकराव पैदा करने की। अतः किसी सम्प्रदाय विशेष की केवल पहचान ( प्रतीक-चिन्ह -त्रिपुण्ड,रामनामी चादर,चेक का तौलिया आदि ) धारण करके घूमना पाखण्ड है और धर्मानुशीलन आचरण है। 
टकराव वहां पैदा होता है जहां धर्म का लोप हो जाता है। ब्रह्माण्ड के असंख्य स्थूल पिंडों की गमन-व्यवस्था कितनी आश्चर्यजनक है ! सभी ग्रहों के आकार भिन्न हैं, सबकी दिशाएँ भिन्न हैं, गतियाँ भिन्न हैं किन्तु कहीं पारस्परिक मुठभेड़ नहीं होता। भिन्नता के बाद भी टकराव क्यों नहीं होता ? इनमें से कोई भी एक दूसरे के कार्यों में बाधा उत्पन्न नहीं करता, कोई ग्रह यह नहीं कहता कि हमारी ही दिशा सही है, हमारी ही गति सही है, सब ग्रहों को हमारा ही अनुसरण करना होगा। क्योंकि उन भौतिक पिंडों को पता है,पता है कि सब एक दूसरे का अनुसरण करने लगेंगे तो आपस में मुठभेड़ हो जायेगी। सब का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा।  इसलिए सब अपने-अपने रास्ते में अपनी-अपनी गति से गमनशील हैं, सब एक दूसरे का सम्मान करते हुए, उनकी परम्पराओं का सम्मान करते हुए, उनके सिद्धांतों का आदर करते हुए गतिमान हैं। तथापि कुछ नियम हैं जिनका पालन सबके लिए अनिवार्य है। जैसे गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांतों का धर्मपालन किये बिना, गति के सामान्य सिद्धांतों का धर्मपालन किये बिना उनका अस्तित्व संभव ही नहीं है। वस्तुतः भिन्नता के कारण ही टकराव नहीं होता है। एकरूपता होती तो सोचिये क्या होता? । दूसरी बात धर्म किसी एक व्यक्ति के द्वारा उद्धाटित और स्थापित नहीं किया जाता है जबकि मत या मजहब (Religion) एक व्यक्ति या कुछ व्यक्तियों के जरिए स्थापित या संचालित किया जाता है। भारत के आयातित पन्थ अभी तक अपने को इनके समान नहीं बना सके हैं,  विवाद का एक बड़ा कारण यही है।  
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, "  धर्म वह वस्तु है, जिससे पशु  मनुष्य तक और मनुष्य परमात्मा तक उठ सकता है। " हमारे शास्त्रों के अनुसार मानव , किसी भी लोक- लोकांतर में या किसी प्रकार के निर्जन स्थानों मै भी क्यों न चला जाये, वहाँ भी मानवोचित कर्तव्य (विवेक-सम्मत कर्तव्य) को पालना करने का नाम धर्म है।  क्या प्रतिमास घटने वाली नक्सली क्रान्तियां, राजनीतिक हत्याएं, गोली वर्षा अथवा राग, द्वेष, क्रोध, लोभ, मोह, अभिमान का प्रदर्शन कम हो गया है ? क्या इस सम्पूर्ण तकनीकी उन्नति से मानव मन को शान्ति प्राप्त हो रही है? शान्ति, सुख, निश्चिन्तता और निर्भयता तो दिखाई देती नहीं। यह क्यों ?व्यास का यह वाक्य
‘ऊध्र्वबाहुर्विरौम्येष न च कश्चित श्रृणोति माम,

 धर्मादर्थश्च कामश्च स किमर्थ न सेव्यते?’ 


(स्वर्गारोहण पर्व 5.62।)
 अर्थात ‘मैं अपनी बाहें उठाकर लोगों को समझा रहा हूं कि धर्म से मोक्ष तो सिद्ध होता ही है, अर्थ और काम भी सिद्ध होते हैं, तो भी लोग उसका सेवन क्यों नहीं करते?  अर्थोपार्जन मनुष्य का पवित्र कर्तव्य है। परन्तु उसके लिए धर्माचरण का ठोस आधार अवश्यंभावी है। धर्म से विमुख हो कर अर्थोपार्जन में सलंग्न हम प्राकृतिक संपदा का विवेकहीन दोहन  करके संसार के पर्यावरण संतुलन को नष्ट करते हैं। काम को धर्म और अर्थ के बाद तीसरा स्थान दिया गया है। काम को धर्म और अर्थ दोनों पर ही आश्रित होना चाहिए।  यदि मनुष्य में कोई इच्छा ही नहीं रहेगी तो वह मृतप्राय ही हो जाएगा। त्याग भाव से उपभोग करो। पहले त्याग करें अन्य सभी का ध्यान रखे, फिर स्वयं उपभोग करें। दूसरों को खिलाकर तब स्वयं खाएं।  मोक्ष का स्थान अन्त में आता है। यह हमें तभी प्राप्त हो सकेगा जब हमारा अर्थ व, काम दोनों ही धर्म से संचालित होंगे। धर्म की जिस दुरवस्था पर वेदव्यास सरीखा क्रांतदर्शी कवि रो रहा है (‘विरौमि’ष्) वह धर्म क्या है?  धर्म कोई उपासना पद्धति नहीं है।  महाभारत में व्यास-मुनि कहते हैं,
 धारणात धर्ममित्याहुः धर्मो धारयते प्रजाः ।
 यश्च  धारण संयुक्तः स धर्म इति निश्चयः ।।
  अर्थात्—‘जो हमारे मनुष्यत्व को धारण करता है, एकत्र करता है, अलगाव को दूर करता है, उसे ‘‘धर्म’’ कहते हैं। जिसके रहने से ही हमलोग मनुष्य कहलाने योग्य बनते हैं, ऐसा धर्म प्रजा को धारण करता है। जिसमें प्रजा को 'एकात्मबोध ' में बाँध देने की ताकत है, वह निश्चय ही धर्म है।’ विवेक-प्रयोग करके चरित्र के जिन गुणों (निःस्वार्थपरता आदि) को धारण करने से हमलोग पशुत्व से उपर उठकर मनुष्य बन सकें और, उससे उपर उठकर देवता बन सकते हों वही धर्म है। 
 हमारा मन-मष्तिस्क, ह्रदय  या आत्मा गहन चिंतन और विचार द्वारा स्वतंत्रता से, बिना किसी डर या दबाव के श्रेय-प्रेय,शाश्वत और नश्वर के बीच विवेक-प्रयोग करने के बाद, जिस तथ्य को अपना मानवोचित कर्तव्य समझकर  धारण करे वही धर्म है ! जैसे महर्षि दधिची का अस्थिदान धर्मं था, भगवान राम का पिता का आदेश पालन धर्मं था, अर्जुन का युद्ध धर्मं था।  
जब मनुष्य शरीर प्राप्त हो गया है तो पशु जैसा जीवन नहीं बिताना चाहिये हमें जो विशेष वस्तु धर्म या विवेक-शक्ति (आध्यात्मिकता या रूहानियत) प्राप्त हुई है, उसका उपयोग करके इसे बढ़ाते रहना चाहिये। त्रिपुण्ड धारण करने या रामनामी चादर ओढ़ कर मन्दिर जाने को धर्म नहीं कहते हैं। उसी तरह मन्दिर,मस्जिद या सन्डे-सन्डे गिरजे में चले जाना किन्तु वहाँ से आकर फिर पशु जैसा जीवन जीने, अपने स्वार्थ के लिये दूसरों की क्षति करने वाला पशु-मानव बने रहने को भी धर्म नहीं कहते हैं। 
इसीलिये स्वामीजी ने कहा था, " यदि जीवन भर उपासना पद्धति में ही अटके रहने को ही धर्म समझते हो तो यही अच्छा है कि घड़ी-घन्टे को गंगाजी में बहा दो, और पण्डित-मौलवी को बंगाल के सागर में फेंक दो ! " आज हमलोग जो इतना अधिक मन्दिर देख रहे हैं, वैसा वैदिक युग में नहीं था। तब मन्दिर और मूर्तियों की संख्या इतनी अधिक नहीं थी, ये सब बाद में आये हैं। पहले भारत के लोग अपने ह्रदय गुम्फा में ही भगवान को प्रतिष्ठित करने की विधि जानते थे, इसीलिये भगवान का दर्शन करने के लिये मन्दिर जाने की प्रथा भी नहीं थी। उस समय सभी जीवों के शरीर को ही देवालय समझा जाता था-
" देहो देवालयः प्रोक्तः स जीवः केवलः शिवः ॥ "
भारत के लोग यह जानते थे कि सभी शरीरों में ब्रह्म ही ' अन्तर्यामी ' होकर बैठे हैं। हृदय रूपी अयोध्या में ही भगवान राम निवास करते हैं। सभी मनुष्यों में ब्रह्म हैं, कण कण में श्रीराम अर्थात चैतन्य ही परिव्याप्त हैं। वे जानते थे कोई वस्तु जड़ नहीं है, सब कुछ चैतन्य है। energy is equal to mass या E = M, अर्थात उर्जा (शक्ति) द्रव्यमान (वस्तु परिमाण) के बराबर है। वैज्ञानिक भी गलत कहते हैं C square ! बिल्कुल सीधा समीकरण है, E=M अर्थात कुछ भी जड़ नहीं है, सब शक्ति है। किन्तु यह बोध विज्ञान को आइन्स्टीन के पहले नहीं हुआ था। स्वामीजी और निकोला टेस्ला के संवाद के बाद ही आइन्स्टीन ने अपना शोधपत्र तैयार किया था। पहले B.A.में डबल कोर्स था, आर्ट्स-साइंस दोनों होता था, किन्तु स्वामीजी केवल आर्ट्स पढ़े थे। दूसरे मतावलम्बियों में भी यह दृष्टिकोण - ' Unity in Diversity ' का बोध भी श्रीरामकृष्ण के द्वारा 'सर्वधर्म समन्वय ' या ' जितने मत उतने पथ ' की साधना के बाद ही दिखलाई देने लगा। 
स्वामीजी कहते हैं- बनो और बनाओ ! किन्तु क्या बनना है ? हमलोग जो यथार्थ में हैं, वही बनना है। हमलोग जब मनुष्य योनि में आ गये हैं,तो हमें पशु जैसा नहीं रहना है- 'यथार्थ मनुष्य' बन जाना है। इसी जीवन में अंश से पूर्ण मनुष्य बन जाने के बाद ही यहाँ से जाना है। [अर्थात मर जाने और शरीर त्याग देने में क्या अन्तर है- इसको अपने अनुभव से जान लेने के बाद ही जाना है।] क्योंकि मनुष्य बनने और बनाने से ही मानव जाति का मंगल हो सकता है। भय-भूख-भ्रष्टाचार-कालाधन आदि जितनी भी समस्यायें हैं, सबों का निराकरण हो सकता है। किन्तु हमलोग मनुष्य बनने और बनाने के पहले मन्दिर-मस्जिद बनाना चाहते हैं, और सोचते हैं-हम तो धर्म कर रहे हैं, बड़े धार्मिक हैं। मन्दिर-मस्जिद में जाना खराब नहीं है, यदि वहाँ से आने के बाद भी मनुष्य बने रहने का प्रयत्न करते रहें, और दूसरे मतावलम्बियों से घृणा नहीं करें, उनके साथ झगड़ा-फ़साद नहीं करें। अभी इंग्लैण्ड में धर्म के नाम पर केवल १६ % लोग ही चर्च में जाते हैं, शेष बचे ८४ % लोग धर्म क्या है ? यह जानने के लिये भारत की ओर उदग्रीव होकर निहार रहे हैं, या उनके पास कुछ भी नहीं है। जो व्यक्ति यह समझ लेगा कि धर्म क्या है ? वह विभिन्न मतवादों के नाम पर या अन्य ब्राण्ड वाले धर्म को लेकर दूसरे मतावलम्बियों से भेद-भाव नहीं करेगा। तभी उसको यह समझ में आएगा कि सभी तरह की संकीर्णता या असम्पूर्णता को पीछे छोड़ कर पूर्ण-मनुष्य हो जाना ही धर्म का मार्ग है। 
हमारे किसी भी शास्त्र में, वेदों या उपनिषदों में " हिन्दू-धर्म " कहकर किसी धर्म की चर्चा नहीं हुई है। अठारह पुराणों में नहीं है, महाभारत में नहीं है, रामायण में भी नहीं है। हमारे यहाँ किसी व्यक्ति के द्वारा स्थापित धर्म का पालन नहीं होता है, हमारा धर्म " सनातन-धर्म " है,या उसे वैदिक धर्म भी कह सकते हैं। यह तो विदेशी आक्रमणकारियों की भाषा में 'स' को 'ह' कहने की परम्परा थी, इसीलिये उनलोगों ने ' सिन्धु नदी ' के पूर्वी भाग में रहने वाली मानव-जाति को 'हिन्दू' के नाम से सम्बोधित किया था। 
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, " जिस हिन्दू नाम से परिचित होना आजकल हम लोगों में प्रचलित है, इस समय उसकी कुछ सार्थकता नहीं है, क्योंकि उस शब्द का केवल यह अर्थ था- सिन्धुनद पूर्वी छोर पर बसने वाले। प्राचीन फारसियों के गलत उच्चारण (स को ह कहने) से सिन्धु शब्द 'हिन्दू 'हो गया है। वे सिन्धु नदी के इस पार रहनेवाले सभी लोगों को हिन्दू कहते थे। इस प्रकार हिन्दू शब्द हमें मिला है। फिर मुसलमानों के शासनकाल में हमने अपने आप यह शब्द अपने लिए स्वीकार कर लिया था। इस शब्द के व्यवहार करने में कोई हानी न भी हो, (अब हिन्दुओं से कोई जजिया टैक्स नहीं ले सकता) पर मैं पहले ही कह चूका हूँ कि अब इसकी कोई सार्थकता नहीं रही; क्योंकि तुम लोगों को इस बात पर ध्यान देना चाहिये कि वर्तमान समय में सिन्धु नदी के इस पारवाले (पूर्वी हिस्से में रहने वाले) सब लोग प्राचीनकाल की तरह एक ही धर्म को नहीं मानते। इसलिये उस शब्द से केवल हिन्दू मात्र का ही बोध नहीं होता, बल्कि मुसलमान, ईसाई, जैन तथा भारत में विदेशों से आकर बस गए सभी अन्यान्य अधिवासियों का भी होता है। अतः मैं हिन्दू शब्द का प्रयोग नहीं करूँगा। तो हम किस शब्द का प्रयोग करें ? हम वैदिक हैं (अर्थात वेद के माननेवाले हैं) अथवा वेदान्ती शब्द का प्रयोग अपने लिये कर सकते हैं, जो उससे भी अच्छा है।" (वि० सा० ख० ५ पृष्ठ १९)  
इसको ऐसे समझें कि जैसे किसी व्यक्ति का नाम ' पंचानन मुखोपाध्याय ' को बिगाड़ कर कोई उसे, अरे ' पेंचो ' कहे तो क्या उससे उस व्यक्ति का गौरव बढ़ेगा ? उसे स्वयं को ' पेंचो ' कहे जाने पर गर्व क्यों होना चाहिये ? बहुत से उपनिषद आधुनिक काल के शाशकों के द्वारा भी लिखवाये गए थे। उन्हीं में से एक " अल्लोपनिषद " पढ़ने का मौका मिला था। यह उपनिषद संस्कृत भाषा में और छन्दों में लिखा गया है, किन्तु उन छन्दों को पढ़ने से कोई अर्थ ही नहीं निकलता है। अंश से पूर्ण हो जाना, बिन्दू से सिन्धु (हिन्दू नहीं) बन जाना यही धर्म का सार है। 

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