सोमवार, 3 दिसंबर 2012

' समस्त कर्म अध्यात्मिक ही हैं' (मानव की सेवा ही ईश्वर की पूजा है) [$@$ स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [46] (7 व्यवहारिक जीवन में आध्यात्मिकता),

 ' कर्म-योग  ज्ञान और भक्ति से भिन्न मार्ग नहीं है'
सामान्यतः कार्य को दो भागों में विभक्त किया जाता है --पवित्र,धार्मिक या आध्यात्मिक (sacred), एवं साधारण लौकिक कार्य (Secular) सांसारिक कार्य। इस प्रकार साधारण लौकिक कार्यों (पढाई-लिखाई, नौकरी,परिवार का पालनपोषण इत्यादि) को करते करते हमलोग में इसकी इतनी गहरी आदत पड़ जाती है कि हमलोग आजीवन मुख्य रूप से साधारण लौकिक कार्यों को ही करते रहते हैं। - बहुत से लोग ऐसा भी सोचते हैं -कि उसके साथ साथ कभी-कभार धर्म की ओर देख लेने में भी कोई हानि नहीं है ! किन्तु यह मनोभाव बिल्कुल ठीक नहीं है। क्योंकि इस ढर्रे से जीवन-यापन करने से, समग्र जीवन की प्राप्ति नहीं होती। जबकि हमारा लक्ष्य समग्र-जीवन को पाना है। क्योंकि वस्तुतः (actually) हमलोगों का जीवन एक ही है, जबकि हम लोग अक्सर कहते रहते हैं कि हमारे जीवन के दो हिस्से हैं- एक लौकिक,सांसारिक जीवन; और दूसरा धार्मिक जीवन; जिसके बारे में बहुत से लोगों कि धारणा है कि, परलोक का मंगल विधान का अनुष्ठान करते रहने से इहलोक में भी थोड़ा लाभ ही मिलता है।
यदि हम अपने का उत्तर जीवन को -लौकिक और अध्यात्मिक दो भागों में न बाँट कर एक और अखण्ड रूप में देखना चाहें, तो हमें क्या करना होगा ? इस प्रश्न का उत्तर गीता में बहुत स्पष्ट रूप से बताया गया है- ' समस्त कर्मों को यज्ञ में परिणत करना होगा।' किन्तु यज्ञ का अर्थ अग्नि-कुण्ड में घी ढालना नहीं है, यज्ञ का वास्तविक अर्थ है- त्याग (Sacrifice)। अग्नि-कुण्ड में घी डालने का कारण यही है कि घी पौष्टिक होने के साथ साथ एक महंगी वस्तु भी है। इसीलिये चार्वाक ने भी कहा था- ' ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत '- घी जरुर खाना, भले ही उधार में लेकर क्यों न खाना पड़े।  
घी का मूल्य अच्छे-चावल के मूल्य की अपेक्षा, हमेशा लगभग १२ गुना अधिक रहता है। जिस समय कौटिल्य का अर्थशास्त्र लिखा जा रहा था, उस समय एक मन चावल का दाम ५ पण था, और एक मन घी का दाम ६० पण था। आज भी  एक किलो चावल का दाम यदि १० रुपया हो, तो एक किलो घी १५०  रुपये में बिकता है। इसीलिये जीवन में त्याग के भाव को लाने ले उद्देश्य से कहा गया था-यह घी जिसे तुम इतना प्रिय और कीमती समझते हो, इस घी को विभिन्न देवी-देवताओं के नाम से अग्नि में हवन कर दो।
किन्तु समय बीतने के साथ धीरे धीरे क्या हुआ ? केवल आग में घी डालना एक प्रथा बन गया,और  यज्ञ से त्याग का भाव तो समाप्त ही हो गया। घी की आहुति देते समय वास्तव में यह देखना चाहिये कि त्याग का भाव मन में है या नहीं ? त्याग के कानून को समझना ही मुख्य बात है। किसी बड़ी वस्तु को पाने के लिये, छोटी वस्तु को त्याग देना पड़ता है। किन्तु 'त्याग' का नाम सुनते ही, यह एक नकारात्मक (negative) वस्तु प्रतीत होती है- मानो जो पहले मेरा था, उसे छोड़ देने के लिये कहा जा रहा है, या जो मेरा था वह चला गया।
किन्तु स्वामी विवेकानन्द जिस त्याग को जीवन में अपनाने की बात कहते हैं, वह सकारात्मक (Positive) है, इस त्याग द्वारा हमलोग कुछ खोते नहीं हैं, बल्कि प्राप्त करते हैं। क्योंकि कुछ उच्चतर वस्तु को पाने के लिये किसी निम्नतर वस्तु को त्यागना पड़ता है। आमतौर से हमलोग इस भौतिक-जगत की सभी वस्तुओं से चिपके रहते हैं, किन्तु अध्यात्मिक पथ पर अग्रसर होने के लिये इनमें से कुछ सांसारिक वस्तुओं में आसक्ति को छोड़ना पड़ेगा। महाभारत (आदिपर्व ८० /१७) का एक सुन्दर श्लोक है-
त्यजेदेकं कुलस्यार्थे ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत् ।
ग्रामं जनपदस्यार्थे आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत् ॥
अर्थात् कुल का  कल्याण के लिये यदि एक व्यक्ति का त्याग करना पड़े तो कर देना चाहिए। इसी प्रकार ग्राम के हित को लिये कुल का, जनपद (जिला) के कल्याण के लिये ग्राम का, और आत्म कल्याण के लिए सम्पूर्ण पृथ्वी का त्याग करना चाहिए । ठीक उसी प्रकार एक के लिये अन्य का त्याग का करना पड़ेगा।(उच्च कल्याण को पाने के लिये निम्न को छोड़ना होगा।) जो व्यक्ति आत्मलाभ करना चाहता हो, (जो ' स्व ' को यथार्थ मैं को, जो दृश्य का द्रष्टा या आत्मा को प्राप्त करना चाहता है), उसे भौतिक जगत की सभी वस्तुओं में आसक्ति का त्याग कर देना होगा। इसको ही संन्यास कहा जाता है। अर्थात आत्म-साक्षात्कार करने के लिये सभी जड़ वस्तुओं को (उसके प्रति आसक्ति को ) त्याग देना पड़ता है। किसी भी लौकिक वस्तु को सीने से चिपकाये नहीं रखना होगा। जैसे स्वामीजी दूसरी बार अमेरिका जाने से पहले बेलुड़ मठ के विदाई-भाषण में त्याग के उपर बोलते हुए कहे थे- ' सामान्य मनुष्य या गृहस्थ लोग जीवन को प्यार करते हैं, और संन्यासी लोग मृत्यु को।' किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि वे आत्महत्या करने की बात कह रहे थे।
[३० जुलाई १८९७ को स्वामी अखण्डानन्द जी को लिखे पत्र में कहते हैं- " शरीर का नाश तो अवश्यम्भावी है, फिर उसे आलस्य में क्यों नष्ट किया जाय ? 'जंग लगकर मरने से घिस घिस कर मरना कहीं अधिक अच्छा है।' १० वर्ष के अन्दर सम्पूर्ण भारत में छा जाना होगा- ' इससे कम में नशा नहीं होगा।' रूपये-पैसे सब कुछ अपने आप आते रहेंगे, मनुष्य चाहिये, रुपयों की आवश्यकता नहीं है। " ६/३६४ ] उनके कहने का तात्पर्य है कि तुमलोग सबों के कल्याण के लिए, विश्व के प्रत्येक मनुष्य की भलाई के लिये कार्य करते हुए,  तिल-तिल करके घिस-घिस करके मृत्यु की ओर बढ़ते जाना। यही है सच्चा त्याग, यही है सच्चा संन्यास।
इसीलिये अपने सामान्य जीवन में हमलोगों को भी प्रतीयमानतः सुखद वस्तु प्रतीत होती हो, उन्हें धीरे धीरे छोड़ना होगा। विवेक-प्रयोग करके 'प्रेय' (अल्प-सुख)के प्रति अपनी आसक्ति को धीरे धीरे कम करते जाना होगा,  और वृहत्तर वस्तु 'श्रेय ' (भूमा-आनन्द) की तरफ बढ़ते जाना होगा। ( 'नशा शराब में होता तो नाचती बोतल ? ' -आनन्द या ईश्वर हमारे भीतर है बाहर नहीं) इस प्रकार से आगे बढ़ते जाने से क्या होगा ? यही होगा कि ' sacred and secular work ' -अर्थात लौकिक और अध्यात्मिक कर्म के बीच का अन्तर (द्वैत भाव) भी धीरे धीरे कम होता जायेगा। इसको ही उन्नति (progress) कहते हैं।
जो व्यक्ति अपने जीवन को इस प्रकार दो अलग अलग भागों ' sacred and secular ' में बँटा हुआ देखता है, उसका जीवन कभी सम्पूर्ण नहीं हो सकता है। अतः हमलोगों को अपने जीवन से इस द्वैत भाव (लौकिक-आध्यात्मिक) को घटाते-घटाते समस्त कर्मों को ही sacred या अध्यात्मिक बना लेना होगा। इस प्रकार कर्म करने से, हमारे समस्त लौकिक कर्म 'यज्ञ' में अर्थात त्याग में परिणत हो जायेंगे; हमारे सांसारिक-कर्म भी स्वार्थ के लिये न होकर, परार्थ कर्म बन जायेंगे। जो भी कर्म करूँगा, उसे दूसरों के कल्याण के लिये ही करूँगा। मैं शरीर को स्वस्थ और सबल रखने के लिये पौष्टिक आहार लूँगा और नियमित व्यायाम करूँगा, पूरी मिहनत से पढाई-लिखाई करूँगा, पूरी तन्मयता के साथ व्यवसाय करूँगा-  यह सब अपना शक्ति-सामर्थ्य बढ़ाने के लिये करूँगा। किन्तु मैं अपना सामर्थ्य मैं क्यों बढ़ाना चाहूँगा ? इसीलिये कि उस नये अर्जित शक्ति-सामर्थ्य की सहायता से मनुष्यों का कल्याण करूँगा। खा-पी कर, व्यायाम करके स्वस्थ-सबल शरीर और मन को लेकर मनुष्यों की सेवा करूँगा। विद्या (सच्ची शिक्षा) अर्जित कर के, उस विद्या का दान करूँगा, या उसी विद्या द्वारा मनुष्यों का अधिकाधिक कल्याण करूँगा। अर्थ उपार्जन करके,उसी अर्थ के द्वारा मनुष्यों का कल्याण करूँगा। इस प्रकार सार्व-भौमिक कल्याण के लक्ष्य को ध्यान में रखकर सांसारिक कर्म करते रहने से, धीरे धीरे समस्त  कर्म यज्ञ में परिणत हो जायेंगे। क्योंकि परार्थ किये जाने वाले समस्त कर्म, अन्त में त्याग का ही  रूप धारण कर लेंगे; इस प्रकार सभी कर्म मूलतः अध्यात्मिक 'sacred' कर्म बन जायेंगे।
जिस प्रकार व्यक्ति जीवन को गठित करने के कार्य को पूरे मनोयोग से करना होगा, उसी प्रकार पारिवारिक जीवन के और सामाजिक जीवन के समस्त कर्मों को अध्यात्मिक-कार्य में परिणत करने की चेष्टा करना- एक अत्यन्त उत्कृष्ट अध्यात्मिक साधना है। क्योंकि इसमें कोई भी कार्य निजी स्वार्थ के लिये नहीं होगा। हमलोग जो भी कार्य करेंगे, उसे अपने निजी सुख के लिये नहीं करेंगे, अपने भोग और संग्रह के लिये नहीं करेंगे, यहाँ तक कि नाम-यश पाने की इच्छा से भी कुछ नहीं करेंगे। हमारे समस्त कर्मों का लक्ष्य होगा- दूसरों का कल्याण, दूसरों का मंगल।
किसी को शायद भय हो, कि ऐसे करने से तो-मेरा सबकुछ चला जायेगा ! हाँ, जायेगा, किन्तु जो व्यर्थ के कूड़ा-करकट जमा हो गया था, वही सब जायगा । और उसके बदले में प्राप्त होगी- आत्मोन्नति, हृदय की विशालता, जगत के समस्त मनुष्यों के प्रति प्रेम, सहानुभूति, तथा हमेशा ' त्याग और सेवा ' में लगे रहने की प्रवृत्ति जाग्रत हो जाएगी। सबकुछ खोकर(जगत के समस्त पदार्थों पर से अपना ममत्व खो कर ) हमलोग अपने यथार्थ स्वरूप को, अपने स्वराज्य को वापस प्राप्त कर लेंगे ! उसीमें तो यथार्थ सुख और सच्चा आनन्द है।
 यदि कोई व्यक्ति समस्त लौकिक कर्मों को छोड़ कर, केवल आध्यात्मिकता को लेकर रहने की चेष्टा करेगा, तो लौकिक जगत उसके लिये एक अशांति का कारण बन जायेगा, वह जगत के भौतिक सुखों को देख-देख कर दुखी होता रहेगा। किन्तु जो व्यक्ति अपने सभी कर्मों को (लौकिक प्रेम को भी )
आध्यात्मिकता में रूपान्तरित करने में समर्थ हो जाता है, उसके लिये फिर जगत की कोई भी वस्तु या परिस्थिति पीड़ादायक नहीं रहती। केवल इतना ही नहीं, लौकिक जगत को भी उससे बहुत कुछ मिलता है, लौकिक जगत के प्रति उसकी उदासीनता भी सामान्य लोगों के लिये कष्टदायक नहीं होती। इसीलिये तो स्वामी विवेकानन्द समस्त कर्मों को ही अध्यात्मिक कर्म में रूपान्तरित कर लेने का उपदेश दिया है। वे कहते हैं, ' कोई भी कर्म पूर्णतया लौकिक नहीं है ! ' सभी कर्मों की अन्तिम परिणति पूजा और उपासना ही है। इसीलिये उनके हृदय की अध्यात्मिक अनुभूति त्रुटिरहित संगीत-माधुर्य को लेकर इस रूप में अभिव्यक्त हुई है-
बहूरुपे सम्मुखे तोमार, छाड़ि कोथा खुँजीछो ईश्वर ? 
जीवे प्रेम करे जेई जन, सेई जन सेविछे ईश्वर ।  
- अर्थात तुम्हारे सामने ही तो विभिन्न रूपों में ईश्वर खड़े हैं, इन्हें छोड़ कर उन्हें ढूँढने और कहाँ जाते हो ?
जो व्यक्ति समस्त जीवों से प्रेम करता है, उसीने ईश्वर की सेवा की है। 
विवेकानन्द साहित्य की भूमिका में स्वामीजी के भावों को बहुत सुन्दर रूप से हमलोगों के समक्ष रखते हुए, भगिनी निवेदिता कहती हैं - "इफ द  मेनी एंड द वन बी  इनडीड द सेम रियलिटी,देन  इट इज नॉट ऑल मोड्स ऑफ़ वरशिप अलोन,बट ईक्वली ऑल मोड्स ऑफ वर्क, आल मोड्स ऑफ़ स्ट्रगल, आल मोड्स क्रिएशन, व्हिच आर पाथ्स ऑफ़ रियलाइजेशन। नो डिस्टिंक्शन, हेन्सेफोर्थ, बिटवीन सेक्रेड एंड सेक्युलर। "
- अर्थात " यदि 'एक' और 'अनेक' सचमुच एक ही सत्य हैं, (वेदान्त की दृष्टि से " One has become- many ") तो उपासना के केवल विविध पद्धतियाँ ही नहीं, वरन् सामान्य रुप से किये जाने वाले समस्त कर्म, जीवन में आने वाले सभी प्रकार के संघर्ष(struggle), सृजन (creation) की समस्त विधियाँ भी सत्य-साक्षात्कार के ही मार्ग हैं। अतः अब लौकिक 'secular 'और अध्यात्मिक ' sacred 'कर्म में कोई अन्तर नहीं रह जायेगा, इस समय से कर्म करने का अर्थ ही उपासना करना है। विजयी होना और त्याग कर देना एक समान है। स्वयं जीवन ही धर्म है। ' योग और क्षेम '- अर्थात प्राप्त करना और अपने अधिकार में रखना उतना ही निर्मम कार्य है, जितना की त्याग करना और उदासीन रहना। "      
" स्वामी विवेकानन्द की यही अनुभूति (-बहुरूप में एक को देखने की क्षमता)  उनको उस ' कर्म-योग '  का सर्वतोकृष्ट उपदेष्टा सिद्ध कर देता है, जो ज्ञान और भक्ति-मार्ग से भिन्न मार्ग नहीं है, बल्कि उनकी व्याख्या करता है। उनके लिये मानव की सेवा और ईश्वर की पूजा, पौरुष तथा श्रद्धा (अस्तिति ध्रुवतः कहते रहने में) , सच्चे ' नैतिक बल और आध्यात्मिकता '  में कोई अन्तर नहीं है। "  
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