शुक्रवार, 30 नवंबर 2012

'शक्ति हमलोगों के भीतर है!' ('तत् अस्ति '- इति ब्रुवतः) [ स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना' [45] (7 व्यवहारिक जीवन में आध्यात्मिकता),

  " स्वयं को सुनाते रहो -अस्तिति ध्रुवतः"
मनुष्य-मात्र  के भीतर अनन्त ज्ञान, शक्ति और पवित्रता विद्यमान है, और यही हमलोगों का यथार्थ स्वरूप, दैवत्व या ब्रह्मत्व है। जिस व्यक्ति को हमलोग अत्यन्त नीच, दुष्ट या घोर-पापी समझते हैं, उसके भीतर भी वही  'अनन्त ज्ञान, शक्ति और पवित्रता' ठीक उतने ही परिमाण में विद्यमान है। किसी महापुरुष तथा किसी दुराचारी व्यक्ति में मात्र इतना ही अन्तर है कि महापुरुष के भीतर का देवत्व, आवरण को चीर कर पूर्ण रूप में प्रकाशित हो गया है, और दूसरे के भीतर वह घने आवरण में आवृत है।
 यह आवरण चाहे जितना भी घना हो, मनुष्य ने कितना भी नीच कर्म क्यों न किया हो, कितना भी गन्दे विचारों वाला हो, उससे उसकी अन्तर्निहित दिव्यता या ब्रह्मत्व कभी विलुप्त नहीं होता, बल्कि अधिकतर आवृत हो जाता है। जगत में ऐसा कोई नीच कर्म नहीं है, जिसे कर बैठने से मनुष्य हमेशा के लिये नष्ट हो जाता हो। जिस क्षण मनुष्य अपने अन्तर्निहित देवत्व के प्रति सचेत हो जायेगा, परिचित हो जायेगा कि ' ओह ! यह 'देवत्व' ही मेरा यथार्थ स्वरूप है ' - ऐसा बोध जिस क्षण जाग्रत हो जायेगा, उसी क्षण से उस ब्रह्मत्व की अभिव्यक्ति होने लगेगी।
स्वामी विवेकानन्द के समग्र सन्देशों का प्रधान राग है - ' हे मानव, अपने अन्तर्निहित देवस्वरूप के प्रति सचेत हो जाओ, उसे अभिव्यक्त करने के मार्ग पर अभी से ही चलना प्रारंभ कर दो, और उसको पूर्ण रूप से विकसित करने से पहले विश्राम मत लो !' हमलोगों के प्रत्येक वचन में, कार्य में और विचार में यदि इस देवत्व की अभिव्यक्ति होने लगे तभी यह कहा जा सकता है कि हमने देवत्व के भाव को चरित्रगत कर लिया है।  इस अन्तर्निहित दिव्यता को विकसित करने के लिये विभिन्न परिवेश, विभिन्न परिस्थितियों  में अवस्थित व्यक्तियों के लिये जैसा मार्ग उपयोगी हो सकता है, स्वामी विवेकानन्द ने उसी मार्ग का उपदेश दिया है।

स्वामी विवेकानन्द के मार्गदर्शन का प्रधान स्वर,  चाहे परिवार या समाज में परस्पर सौहार्द्य पूर्ण सम्बन्ध बनाये रखने का क्षेत्र में उनका मार्गदर्शन हो, अथवा  समाज और देश-सेवा का कोई क्षेत्र हो, शिक्षा के क्षेत्र हो , या जीवन का कोई भी कार्यक्षेत्र हो , सर्वत्र उनका एक ही उद्घोष सुनाई पड़ता है - ' तुम्हारे और दूसरों के भीतर  एक ही ईश्वरत्व या दिव्यता (Divinity) समान रूप से अन्तर्निहित है- इस ज्ञान को जाग्रत रखते हुए,  समस्त व्यव्हार करना होगा। 
स्वामी जी ने कहा है , " होश में रहकर कर्म करो।"  दूसरों के साथ (परिवार के विभन्न सदस्यों या समाज के लोगों के साथ) व्यवहार करते समय, हमलोग मन-वचन-कर्म से  प्रत्येक चेष्टा इस प्रकार करेंगे  मानो हम अभी और इसी समय उनके अन्तर्निहित दैत्व को हम साक्षात् देख रहे हों- दूसरों में अन्तर्निहित दैवत्व के प्रति सदैव सचेत होकर व्यहार करने से -अपना दैवत्व अभिव्यक्त होने लगता है। (सदैव श्रीकृष्ण के समान मुस्कुराते हुए बोलने का अभ्यास करने से हमारा अंतर्हित कृष्णवत्व अभिव्यक्त होने लगता है ! ) विवेकानन्द ने के कई छोटे छोटे महावाक्यों में अपना उपदेश दिया है, जैसे -- ' कर्म को पूजा में रूपान्तरित करो।', 'अन्तर्निहित पूर्णता की अभिव्यक्ति (manifestation) का नाम शिक्षा है ' , अन्तर्निहित ईश्वरत्व (कृष्णत्व या Divinity) की अभिव्यक्ति का नाम धर्म है ', ' शिवज्ञान से जीव की सेवा करो', ' बनो और बनाओ ' --आदि आदि ! किन्तु उनके समस्त महावाक्यों का लक्ष्य एक ही है।  उनकी दृष्टि में-'सच्ची शिक्षा और सच्चे धर्म में कोई अन्तर नहीं '।  क्योंकि पूर्णता (Perfection) और ईश्वर  ( Divinity) एक ही वस्तु है। 
 'मनुष्य स्वरूपतः अनन्त शक्ति-ज्ञान-पवित्रता की मूर्ति है' - इसी दृष्टि से देखकर ही उन्होंने मानव-मात्र को "अमृतस्य पुत्राः  -- हे, अमृत के सन्तान !" -कहकर पुकारा था। उन्होंने कहा था- यदि जगत में पाप नामक कोई चीज है, तो मनुष्य को ' को कमजोर, छोटा, मूर्ख, बेईमान, भ्रष्ट या पापी कहना  ही सबसे बड़ा पाप है।
जो भी क्षणिक मानवीय दुर्बलता मनुष्य को,
उसकी देवस्वरूपता, शक्ति-ज्ञान-पवित्रता  को,  ' मैं नित्य-शुद्ध-बुद्ध-मुक्त स्वभाव-आत्मा हूँ !, इस सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड में ऐसा कुछ नहीं है जिसका भय मुझे हो, यहाँ ऐसा कुछ नहीं है-जो मुझ अजर-अमर आत्मा को डरा सके ' -- इस बोध से मनुष्य को दूर हटा देती हैं - वह दुर्बलता ही पाप है।
 [पाप = मानवीय दुर्बलता=भेंड़त्व, 'चित्त' में संचित जन्म-जन्मान्तर के पाशविक कर्म-संस्कार को, चित्त-वृत्ति को 'स्वयं '(सिंहत्व -स्वरूप) से बड़ा समझ लेने के भ्रम से, देह को ही 'मैं ' मान लेने के कारण मनुष्य में जो इन्द्रिय-परायणता और स्वार्थपरता आ जाती है]
अन्तर्निहित दिव्यता की, पवित्रता की, ज्ञान और विवेक-प्रयोग के शक्ति  की अभिव्यक्ति जितनी अधिक होने लगेगी, हमलोग अपने स्वरूप के प्रति जितना अधिक सचेत रहने लगेंगे, उतना ही हमलोग एक मनुष्य, एक इंसान के रूप में क्रमशः अधिक से अधिक उन्नततर (उत्कृष्टतर) होते जायेंगे। इसी दृष्टिकोण को अपनाने से कोई छात्र एक उत्तम कोटि का छात्र बन सकता है, कोई शिक्षक और अधिक अच्छा शिक्षक बन सकता है, कोई समाजसेवी और अधिक अच्छे समाजसेवी बन सकते हैं, कोई मछुआरा (fisherman) और अधिक कौशल से मछली पकड़ सकता है। विभिन्न व्यवसायों में लगा प्रत्येक व्यक्ति अपने अपने व्यवसाय को और अधिक कौशल के साथ संचालित करने की योग्यता अर्जित कर सकता है, और इसी प्रकार घर-गृहस्थी में रहते हुए भी मनुष्य शारीरिक, मानसिक और अध्यात्मिक रूप से उत्कृष्टतर मनुष्य बन सकता है। इसीलिये, स्वामी विवेकानन्द ने कहा था, देश में कोई भी नया सामाजिक और राजनैतिक आन्दोलन प्रारंभ करने के पहले, सम्पूर्ण देश को अध्यात्मिकता के ज्वार से  प्लावित करा देना होगा। भारत की राष्ट्रिय संरचना आध्यात्मिकता पर ही आधारित है, इसीलिये वह इसी के बुनियाद पर अपनी समाजिक और आर्थिक व्यवस्था भी संचालित कर सकता है। देश के बुनियादी ढाँचे को विलुप्त करके, अन्य किसी भाव (साम्यवाद, धर्मनिरपेक्षवाद ....) की बुनियाद पर जनकल्याण की चेष्टा करने से, उसका कोई विशेष फल नहीं होगा। क्यों नहीं होगा? आइये इसी बात पर गौर किया जाय।
स्वामीजी ने जिस आध्यात्मिकता की बाढ़ में भारत को प्लावित कर देने का आह्वान किया है, जिसे हमारे राष्ट्र की प्राण-शक्ति कहा है, वह आध्यात्मिकता वास्तव में है क्या चीज? इस बात पर विश्वास करना कि- 'प्रत्येक मनुष्य का स्वरूप आत्मिक है'- इस सत्य को अपने अनुभव से जान लेना तथा इसी दृढ़ आत्मविश्वास के चलना-बोलना समस्त व्यवहार करना। हमलोगों का स्वरूप आत्मिक है-इसका अर्थ हुआ, हमलोग   केवल शरीर मात्र नहीं हैं,और 
ऐसा भी नहीं है कि हमलोगों का मन भी शरीर का ही एक विकसित अंश नहीं है। किन्तु आमतौर से सभी पढ़े-लिखे लोग भी अपने को 'शरीर और मन ' का एक संयोजन मात्र 
('Body and Mind' complex) ही समझते हैं। फिर यदि इसके साथ साथ यह धारणा भी घर कर गयी हो कि मन तो केवल देह का ही विकास मात्र है; तब तो देह के नितान्त क्षणभंगुर होने के कारण हमलोगों का सम्पूर्ण अस्तित्व और स्थायित्व बहुत सीमित (ससीम) हो जाता है। 
किन्तु जब हम अपने को 'आध्यात्मिक' (आत्मिक या स्पिरिचूअल) कहते हैं, तब उसका अर्थ होता है, देह-मन नश्वर (मरणाधीन) होने से भी, हमारे भीतर कोई ऐसी वस्तु अवश्य है, जो नश्वर नहीं है, और जो सच्चिदानन्द (शक्ति-ज्ञान-पवित्रता ) स्वरूप है। इस बात को एक बार भी अपने अनुभव से जान लेने के बाद, हमलोग फिर अपने को कभी छोटा, दुर्बल, असहाय नहीं समझ सकते हैं। तथा, शक्ति-ज्ञान-पवित्रता जो हमारी निजी सम्पत्ति है, उन्हें प्रकाशित करने का प्रयत्न करते ही हमलोग महान, शक्तिशाली, साहसी और निर्भीक बन जाते हैं। 
जो ब्यक्ति अपने शक्तिमान स्वरूप को एकबार भी पहचान लेता है, जान लेता है, देख लेता है- वह सभी कुछ करने, जानने और सभी बाधा-विघ्नों का अतिक्रमण करने, और समस्त भय को पैरों के नीचे कुचल देने का साहस प्राप्त कर लेता है। ऐसा ही मनुष्य जीवन-संग्राम में विजयी हो सकता है, हताशा के अँधकार से आशा के उजाले में उत्तीर्ण हो सकता है, दुःख-दुर्दशा, गरीबी-अज्ञानता, शोषण से अपने को मुक्त कर सकता है। 
और जो मनुष्य स्वयं को ससीम क्षणभंगुर-'देह-मन ' की समष्टि मात्र समझता है, वह हमेशा अपने को कमजोर समझता है, इसीलिये परमुखापेक्षी बन जाता है। और  हर समय विभिन्न प्रकार के भय से आशंकित रहता है, अपने को कमजोर समझकर दूसरों से घृणा करता है, सन्देह करता है, हिंसा करता है, दूसरों का अस्तित्व मेरे अस्तित्व को बाधित कर सकता है, ऐसा सोंच कर हर दूसरे व्यक्ति, अन्य सभी को अपना प्रतिद्वन्द्वी और शत्रू समझता है। ऐसे व्यक्ति का दुःख-कष्ट कभी दूर नहीं होता।
और ऐसे हो मनुष्यों से निर्मित समाज का चेहरा कैसा हो सकता है ? थोड़ी कल्पना करने से ही स्पष्ट रूप में समझा जा सकता है। ऐसे समाज के जो लोग अगुआ या नेता होते हैं, वे भी मनुष्य की अन्तर्निहित शक्ति में विश्वासी नहीं होने के कारण, बाहर में शक्ति का अनुसन्धान करते हैं। विज्ञान में प्रगति के द्वारा मनुष्य के दुःख-कष्ट को दूर करने की चेष्टा के साथ ही साथ विध्वंशकारी हथियारों का जखीरा भी तैयार हो रहा है। इसीलिये आज 50,000 परमाणु बम इकट्ठा किये गये हैं, जिसकी शक्ति समग्र रूस और अमेरिका को 250 बार विनाश कर सकता है।
 किन्तु क्या ऐसी वैज्ञानिक प्रगति से मनुष्य के विवेक-शक्ति को भी जाग्रत कराया जा  सकता है ? यह क्या मनुष्य को असीम शक्ति का स्रोत, अनन्त ज्ञान का भण्डार बना सकता है ? रंग-भेद या छुआछुत को मिटा कर उन्हें पवित्र बना सकता है ? किन्तु प्रत्येक मनुष्य के भीतर वैसा बन जाने की सम्भावना है। और
यदि वह चेष्टा करे तो वैसा बन जाना, मनुष्य-मात्र के लिये संभव है। जब मनुष्य वैसा बन जायेगा, तो घृणा के बदले प्यार, सन्देह के बदले विश्वास, हिंसा के बदल में सौहार्द के बल पर वह सभी को भ्रातृत्व के बन्धन में संगठित कर सकता है; प्रतिद्वन्द्विता करने के बदले मनुष्य एक दूसरे का सहयोगी बन सकता है, जो पहले शत्रुता का भाव रखता था, उसे मित्र में परिणत किया जा सकता है। ऐसा अध्यात्मिक-बुद्धि सम्पन्न मनुष्य स्वार्थ की अपेक्षा परार्थ को, भोग की अपेक्षा त्याग को बड़ा समझता है, तथा शोषण करने की अपेक्षा सेवा करने में उसकी रूचि अधिक होती है। किसी दुर्बल व्यक्ति के उपर वह अघात नहीं करता, बल्कि उसे बलवान बनने के लिये उत्साहित करता है।
यदि हमलोग अपने देश के दुःख-कष्ट को दूर हटाना चाहते हों, तो सम्पूर्ण देश में ऐसी अध्यात्मिकता को जाग्रत करने वाले आन्दोलन को फैला देना होगा, इसका अर्थ है, सच्चे अर्थ में प्रत्येक व्यक्ति के भीतर आत्मिक-बुद्धि (मैं केवल शरीर मन नहीं, आत्मा हूँ !) को जागृत करना होगा। मनुष्य में आस्तिक्य-बुद्धि का उन्मेष करना होगा। मैं केवल 'देह-मन ' की समष्टि मात्र नहीं हूँ, मेरे भीतर अनन्त शक्ति, ज्ञान और पवित्रता है- इस बोध को ही सच्ची आस्तिकता या आस्तिक्य-बुद्धि सम्पन्न मनुष्य बनना कहते हैं।  इसको ही श्रद्धा कहते हैं; इस श्रद्धा या आस्तिक्य-बुद्धि को जागृत करना ही आध्यात्मिकता का प्रथम सोपान है। जब तक मनुष्य में यह श्रद्धा, आस्तिक्य-बुद्धि या आध्यात्मिकता का पुनरुत्थान (awakening) नहीं किया जाय,वह मनुष्य मोहनिद्रा से जाग नहीं सकता, और उसका कोई विकास होना भी संभव नहीं है। 

यदि सांसारिक उन्नति करने की इच्छा हो, तो उसके लिए भी इसी आध्यात्मिकता की आवश्यकता है। इसीलिये स्वामीजी ने सम्पूर्ण देश को आध्यात्मिकता के ज्वार से प्लावित कर देने का आह्वान किया है।
किन्तु यह श्रद्धा, आस्तिक्य-बुद्धि या आध्यात्मिकता-कोई ऐसी वस्तु नहीं है,जिसे किसी व्यक्ति को दे दी जा सकती हो। केवल इसका सन्देश सुनाया जा सकता है, स्वामीजी ने इसीलिये इस सन्देश को सुनाया है। 

वे कहते हैं- " अपने आप से कहते रहो, मैं वह हूँ-I am He ! I am He! ये शब्द तुम्हारे मन के कूड़े-करकट को भस्म कर देंगे, उससे ही तुम्हारे भीतर पहले से ही जो महाशक्ति निहित है, वह व्यक्त हो उठेगी, उससे ही तुम्हारे हृदय में जो अनन्त शक्ति सुप्त भाव से विद्यमान है, वह जग जाएगी। " (6/297) हममें से पत्येक व्यक्ति को स्वयं अपने भीतर इसी श्रद्धा, विश्वास और आस्तिक्य-बुद्धि को जगाना होगा। जो कोई भी व्यक्ति इस बात पर विश्वास कर लेगा कि मेरे भीतर अनन्त शक्ति है !! और जैसे ही डंके की चोट पर दूसरों को भी सुनाने लगेगा, वैसे ही उसकी अन्तर्निहित शक्ति जाग्रत हो उठेगी ! 
कठोपनिषद में यमराज-नचिकेता से यही बात कह रहे हैं- ' एतत् वै तत् नचिकेता ! यहि है वह तत्व, जिसके सम्बन्ध में तुमने पूछा था।'
अस्तीति ब्रुवतोऽन्यत्र कथं तदुपलभ्यते ।।कठोपनिषद/2/3/12 ।। 

'तत् अस्ति '= वह अवश्य है; इति ब्रुवतः  =इस प्रकार जो अन्तार्न्हित आत्मा की  घोषणा डंके की चोट पर करता है, अन्यत्र कथं उपलभ्यते = उसके अतिरिक्त दूसरे को (जो हमेशा म्याऊं म्याऊं करता रहता हो); -वह कैसे प्राप्त हो सकता है?
जो इस बात को डंके की चोट पर कहता है कि -'अस्तिति ध्रुवतः '- मेरे पास निश्चित रूप से है, उसी के पास यह शक्ति रहती है। जो व्यक्ति ऐसा कभी कहता ही नहीं, ' अन्यत्र कथं तदुपलभ्यते ' - उसको यह उपलब्धी कहाँ से होगी ?
नैव वाचा न मनसा प्राप्तुं शक्यो न चक्षुषा । वही।
अपनी उस अन्तर्निहित  दैवत्व (आस्तिक्य-बुद्धि) को वाणी से, न मन से, न चक्षु से ही प्राप्त किया जा सकता है, ‘वह अवश्य है ! और उसे प्राप्त करने की तीव्र इच्छा रखनेवाले को वह अवश्य मिलता है ! ' इस बात को जो नहीं कहता, अर्थात जिसका दृढ़ विश्वास नहीं है, उसको वह कैसे मिल सकता है ? ऐसा कहनेवाले के (कथन के) अतिरिक्त उसे अन्य किस प्रकार प्राप्त किया जा सकता है? और जैसे ही किसी व्यक्ति को इसकी उपलब्धी हो जाएगी, उस अनुभूति के बाद- उसके आँखों और चेहरे की रंगत बदल जाएगी, देह-मन में चैतन्य (consciousness) में विकसित होता रहेगा, शक्ति आएगी, और वह सभी बाधाओं का अतिक्रमण करके अपनी दुर्दशा का अन्त कर देगा। अपने जीवन को गढने के लिये, या देश का निर्माण करने के लिये दूसरा कोई उपाय नहीं है। शक्ति बाहर में नहीं है। समस्त शक्ति हमलोगों के भीतर ही है। 
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