रविवार, 25 नवंबर 2012

'जिसे करना आवश्यक है'- शुक्ति के समान बनो ! [स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [40] (जीवन-गठन की निर्माण-सामग्री),

'तीव्र संवेगानाम् आसन्नः ।'
पहले तो मनः संयोग का अभ्यास नियमित समय से (दो बार प्रातः और संध्या) कर पाना अत्यन्त कठिन  है। फिर मन के उपर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लेना, उसे पूर्णतः अपने वश में रखना सबसे कठिन कार्य है। किन्तु [मनुष्य शरीर प्राप्त कर लेने के बाद ] मनुष्य का सबसे पहला कर्तव्य क्या है, उस प्रथम ड्यटी  (धर्म या फ़र्ज) को पहचान लेना (re-cognizant) होगा ! 'मनःसंयोग की पद्धति' के विषय में सचेत होना होगा। मनःसंयोग की पद्धति को स्पष्ट रूप में समझना होगा,और उसे सही तरीके से प्राप्त करने की चेष्टा करनी होगी। यदि हम इस बात को ठीक से समझ लें (विवेक-विचार करने के बाद) कि ' मेन्टल-कन्सट्रेशन' या मन की एकाग्रता अथवा मन को एकाग्र करने का अभ्यास करना ही प्रत्येक मनुष्य का प्रथम ड्यूटी (धर्म या फ़र्ज) है ; तो निश्चित रूप से मनःसंयोग का अभ्यास करने के प्रति हमारा संकल्प और अधिक दृढ़ हो जायेगा। तथा हम इसका स्थायी-अभ्यास करने लगेंगे, और यदि हम अध्यवसाय के साथ इसका अभ्यास करते रहें, तो इस बात में कोई सन्देह नहीं कि धीरे धीरे अपने मन के उपर हमारा प्रभुत्व भी क्रमशः बढ़ता ही जायेगा। 
हमलोग अपने आप पर (मन के उपर) जितना अधिक प्रभुत्व बढ़ा सकेंगे, उसी अनुपात में सभी विषयों को गहराई से समझ सकेंगे, उनको जान पाएंगे। एकाग्र मन की शक्ति के द्वारा ही हमलोगों की विवेक-दृष्टि खुल जाएगी, आत्मबोध जाग्रत होगा और हमलोग सब कुछ समझने में सक्षम हो जायेंगे। तथा प्रत्येक व्यक्ति अपने निजी- जीवन और सामाजिक-जीवन में अपने अपने कर्तव्य (धर्म या फ़र्ज ) के प्रति सचेत और प्रयत्नशील (मनुष्यजीवन का प्रथम पुरुषार्थ, धर्म-लाभ के लिए सक्रीय) हो जायेगा। केवल इतना ही समझ कर हमलोग यदि मनः संयोग का अभ्यास करते रहें, तो यथेष्ट होगा।
अब हमलोग मन के विषय में स्वामीजी के एक अन्य कथन को एकाग्र-मन होकर श्रवण करेंगे, तथा उसपर मनन करेंगे, " महासागर की ओर यदि देखो, तो प्रतीत होगा कि वहाँ पर्वताकाय बड़ी बड़ी तरंगें हैं, फिर छोटी छोटी तरंगें भी हैं, और छोटे छोटे बुलबुले भी। पर इन सबके पीछे वही अनन्त महासमुद्र है। एक ओर जहाँ वह छोटा सा बुलबुला अनन्त समुद्र से युक्त है, वहीँ दूसरी ओर वह बड़ी तरंग भी उसी महासमुद्र से युक्त है। 
इसी प्रकार, संसार में कोई महापुरुष हो सकता है, और कोई छोटा बुलबुला जैसा सामान्य व्यक्ति, परन्तु सभी उसी अनन्त महाशक्ति के समुद्र से युक्त हैं, जो सभी जीवों का जन्मसिद्ध अधिकार है। जहाँ भी जीवनी-शक्ति का प्रकाश देखो, वहाँ समझना कि उसके पीछे अनन्त शक्ति का भण्डार है। एक छोटा सा फफूँदी (fungus) है; वह, सम्भव है, इतना छोटा, इतना सूक्ष्म हो कि उसे अनुवीक्षण यन्त्र द्वारा देखना पड़े; उससे आरम्भ करो। देखोगे कि वह अनन्त शक्ति के भण्डार से क्रमशः शक्ति संग्रह करके एक अन्य रूप धारण कर रहा है। कालान्तर में वह उदभिद के रूप में परिणत होता है, वही फिर एक पशु का आकार ग्रहण करता है, फिर मनुष्य का रूप लेकर वही अन्त में ईश्वर-रूप में परिणत हो जाता है।  
हाँ, इतना अवश्य है कि प्राकृतिक नियम से इस व्यापर के घटते घटते लाखों वर्ष (कई कल्प aeons) पार हो जायें। परन्तु यह 'समय' है क्या ? [ ऐन इंक्रीज ऑफ़ स्पीड, ऐन  इंक्रीज ऑफ़ स्ट्रगल, इज एबल टु ब्रिज द गल्फ ऑफ़ टाइम.] 'वेग' ----साधना का वेग बढ़ा देकर समय काफी घटाया जा सकता है। योगियों का कहना है कि साधारण प्रयत्न से जिस काम को अधिक समय लगता है, वही, वेग बढ़ा देने पर, बहुत थोड़े समय में सध सकता है। 
हो सकता है, कोई मनुष्य इस संसार की अनन्त शक्ति भण्डार में से बहुत थोड़ी शक्ति लेकर चले। इस प्रकार चलने पर उसे (अपना पशुत्व त्याग कर ) देवत्व प्राप्त करने में सम्भव है, एक लाख वर्ष लग जायें, फिर और भी ऊँची अवस्था प्राप्त करने में शायद पाँच लाख वर्ष लगें। पर उन्नति का वेग बढ़ा देने पर यह समय कम हो जाता है। पर्याप्त प्रयत्न करने पर छः वर्ष या छः महीने में ही यह सिद्धि-लाभ क्यों न हो सकेगा ? (हम इसी समय वह अनन्त ज्ञान, वह अनन्त शक्ति क्यों न प्राप्त कर सकेंगे?)  युक्ति तो बताती है कि इसमें कोई निर्दिष्ट सीमाबद्ध समय नहीं है।
सोचो, कोई स्टीम-इंजन, किसी निश्चित परिमाण में कोयला (फ्यूल या ईंधन) झोंकने से, प्रति घंटा दो मील ही चल पाता हो, किन्तु यदि कोयला (या फ्यूल) झोंकने के परिमाण को अधिकाधिक बढ़ाते रहा जाय तो उसी अनुपात में उस इंजन की स्पीड भी बढ़ती जाएगी। इसी प्रकार यदि हमलोग भी तीव्र वेगसम्पन्न हों, तो इसी जन्म में मुक्ति-लाभ क्यों न कर सकेंगे ? हाँ, हम यह जानते अवश्य हैं कि अन्त में सभी मुक्ति पायेंगे। पर इस प्रकार हम युग युग तक मन की गुलामी से मुक्त होने की प्रतीक्षा क्यों करें ? इसी क्षण, इस शरीर में ही, इस मनुष्य-देह में ही हम मन की गुलामी से मुक्ति-लाभ करने में समर्थ क्यों न होंगे? हम इसी समय वह अनन्त ज्ञान, वह अनन्त शक्ति क्यों न प्राप्त कर सकेंगे ? (१ /६८)"
[महर्षि पतंजलि ने भी समाधिपाद १/२१ में कहा है -तीव्रसम्वेगानामासन्नः ॥ योगी अपने मन के एकाग्र करने की गति को कार का गियर बदलने जैसा घटा-बढ़ा सकता है। 

 तीव्र संवेगानाम् आसन्नः ।
 तथस्ट   --> मृदु --> मध्य --> तीव्र 
neutral ---> soft --> middle --> fast 

१. तटस्थ होकर द्रष्टामन द्वारा दृश्य मन को देखने के लिये आसन पर बैठना। 
२.मृदु स्पीड का प्रत्याहार -मन के साथ मृदु संघर्ष का प्रारम्भ - मन को पूरी ढील दे-देना उसे जहाँ जाना हो, जाने देना केवल उस पर नजर बनाये रखना।
३. मध्यम स्पीड की धारणा - मन को विवेक-प्रयोग करने के लिये मीठे भाव से बच्चा ऐसा समझाना-और समझा-बुझाकर अपने हृदय में विद्यमान इष्टदेव में कुछ देर तक धारण करना।
४. तीव्र स्पीड का मनःसंयोग - मन को इन्द्रिय विषयों में जाने से बिल्कुल रोक देना।(सधापद 54/ प्रत्याहार का अर्थ है जो मन इन्द्रिय बन गया था, वह वास्तव में चित्त ही था, जब वे पुनः चित्त का स्वरुप ग्रहण करने लगती हैं तो उसे प्रत्याहार कहा जाता है। ) तीव्र सम्वेगवालों ( अति जोशीले व लग्नशील लोगों) का ( समाधि लाभ ) समीप - शीघ्र ( होता है ) । समाधि लाभ शीघ्र प्राप्त करने के लिये योगी में उसके लिये तीव्र व दृढ़ इच्छा और अतिक्रियाशीलता होना आवश्यक है।
प्रकृति के अनन्त शक्ति भण्डार में से शक्ति ग्रहण करने की शक्ति बढ़ाकर किस प्रकार शीघ्र मुक्ति-लाभ किया जा सकता है ? योगियों ने इसका उपाय खोज निकाला है। वे दूसरी कोई चिन्ता नहीं करते, दूसरी बातों के लिये एक क्षण भी समय नहीं देते। उनका पल भर भी व्यर्थ नहीं जाता। एकाग्रता का अर्थ ही है, शक्ति-संचय की क्षमता को बढ़ाकर समय को घटा लेना। राजयोग इसी एकाग्रता की शक्ति को प्राप्त करने का विज्ञान है। (1/69)  
संसार में जो कोई वस्तु कुछ वस्तुओं के मिश्रण से बनी है, वह इस आकाश से ही उत्पन्न हुई है, यह आकाश ही वायु में परिणत होता है, यही अग्नि और तरल पदार्थ का रूप धारण करता है, यही फिर ठोस आकर को प्राप्त होता है। आकाश इस जगत का कारणस्वरूप अनन्त सर्वव्यापी भौतिक पदार्थ है, प्राण भी उसी तरह जगत की उत्पत्ति का कारण स्वरूप अनन्त सर्वव्यापी विक्षेपकारी शक्ति है। यह प्राण ही गतिरूप में अभिव्यक्त हुआ है-यही गुरुत्वाकर्षण या चुम्बकीय शक्ति के रूप में अभिव्यक्त हो रहा है। बाह्य और अन्तर्जगत की समस्त शक्तियाँ जब अपनी मूल अवस्था में पहुँचती हैं, तब उसीको प्राण कहते हैं। यह प्राण भी दृश्यमान नाना प्रकार की शक्तियों में परिणत होता है।
जिन्होंने प्राण को जीता है, उन्होंने अपने मन को ही नहीं, वरन सबके मन को भी जीत लिया है। संसार की सारी वस्तुओं में देह हमारे सबसे निकट है और मन उससे भी निकटतर है। जो क्षुद्र प्राण तरंग हमारी शारीरिक और मानसिक शक्तियों के रूप से क्रियाशील है, वह अनन्त प्राण-समुद्र में हमारे सबसे निकटतम तरंग है। यदि हम उस क्षुद्र तरंग पर विजय पा लें, तभी हम समस्त प्राण-समुद्र को जीतने की आशा कर सकते हैं। 
यह प्राण ही समस्त प्राणियों के भीतर जीवनी-शक्ति के रूप में विद्यमान है। जन्मजात प्रवृत्ति या मन की अचेतन भूमि से मच्छर ने जहाँ काटा हाथ स्वतः वहाँ चला जाता है, यह विचारणा शक्ति भी प्राण की ही अभिव्यक्ति है। मन की चेतन भूमि में हम युक्ति-तर्क करते हैं, विचार करते हैं, सब विषयों के पक्षापक्ष सोचते हैं, किन्तु यह सज्ञान या चेतन भूमि ही हमारे ज्ञान की चरम सीमा नहीं है। जब मन समाधि नामक पूर्ण एकाग्र अवस्था में पहुँच जाता है, तब वह युक्ति-तर्क की सीमा के परे चला जाता है और ऐसे तथ्यों का प्रत्यक्ष साक्षात्कार करता है, जो जन्मजात-प्रवृत्ति और युक्ति-तर्क द्वारा कभी प्राप्त नहीं है। यह जगत सतत परिवर्तनशील एक जड़ राशि मात्र है और ये सारे नाम-रूप उसके भीतर मानो छोटे छोटे भँवर हैं। जो अपने मन में अति सूक्ष्म कम्पन उत्पन्न कर सकते हैं, वे देखते हैं कि सारा जगत सूक्ष्मातिसुक्ष्म कम्पनों की समष्टि मात्र है।
आधुनिक भौतिक विज्ञान ने भी यह प्रमाणित कर दिया है कि शक्ति-समष्टि सदैव समान है। वह अनन्त काल से कभी व्यक्त और कभी अव्यक्त भाव धारण करती आ रही है। इस शक्ति रूपी प्राण की सबसे स्पष्ट अभिव्यक्ति है-फेफड़े की गति। यह गति ही, पम्प की भाँति, वायु को भीतर खींचती है। हमें यह सीखना है कि फेफड़े की गति रुक जाने पर भी शरीर के भीतर दुबारा कैसे लौट आया जाय?  प्राणायाम का यथार्थ अर्थ है, फेफड़े की इस गति का रोध करना।
जगत को हिला-दुला देने वाले तीव्र इच्छा-शक्तिसम्पन्न महापुरुष अपने प्राण के कम्पन को इतनी उच्च अवस्था में ला सकते हैं कि हजारों मनुष्य उनकी ओर खिंच जाते हैं, सभी पैगम्बरों का प्राण पर अद्भुत संयम था। जिसके बल से वे प्रबल इच्छा-शक्ति सम्पन्न हो गये थे। जब कोई ध्यान-जप कर रहा हो, तो भी समझना चाहिये कि वह प्राण का ही संयम कर रहा है।(1/58-67)
 महासागर की ओर यदि देखो .......हम पंचेन्द्रियविशिष्ट प्राणी हैं, हमारे प्राणों का कम्पन एक विशेष प्रकार का है। ..समझो, इसी कमरे में ऐसे बहुत से प्राणी हैं, जिन्हें हम नहीं देख पाते। वे सब प्राण के एक प्रकार के स्पन्दन के फल हैं, और हम एक दूसरे प्रकार के। किन्तु हम भी प्राण रूप मूल वस्तु से गढ़े हैं, और वे भी वही हैं। सभी एक ही समुद्र के भिन्न भिन्न अंश मात्र हैं, विभिन्नता केवल स्पन्दन की मात्रा में है। यदि (फेफड़े की गति को रोक कर?)  मन को मैं अधिक स्पन्दन विशिष्ट कर सका तो मैं फिर इस देह के स्तर पर न रहूँगा, पूरा विश्व-ब्रह्माण्ड मेरी दृष्टि से ओझल हो जायेगा। मन को इस प्रकार स्पन्दन की उच्चतर भूमि में लाना ही समाधि है। समाधि की सर्वोच्च अवस्था में हमें सत्यस्वरूप ब्रह्म के दर्शन होते हैं। तब हम उस मूल उपादान को (शाश्वत चैतन्य कम्पन-सच्चिदानन्द!) को जान लेते हैं, जिससे इन सब बहुविध जीवों की उत्पत्ति हुई है, जैसे मिट्टी के एक ढेले का ज्ञान होने से समस्त मिट्टी का ज्ञान हो जाता है। 1/70'
हमें मालूम है कि हमारे स्नायुओं के भीतर दो प्रकार के प्रवाह हैं, उनमें से एक को अन्तरमुखी और दूसरे को बहिर्मुखी, एक को ज्ञानात्मक और दूसरे को कर्मात्मक, एक को केन्द्र-गामी और दूसरे को केन्द्रापसारी कहा जा सकता है। एक मस्तिष्क की ओर सम्वाद ले जाता है, और दुसरा मस्तिष्क से बाहर, समुदय अंगों में।
मेरुदण्ड के भीतर बाएं इड़ा और दायें पिंगला नाम के दो स्नायविक शक्ति-प्रवाह और मेरुम्ज्जा के ठीक बीच में जो शून्य नली गयी है वही सुषुम्णा है। यह मेरुमज्जा मस्तिष्क में जाकर एक प्रकार के 'बल्ब' में medulla (मज्जा) नामक एक अंडाकार पदार्थ में अंत हो जाती है, जो मस्तिष्क के साथ संयुक्त नहीं है, वरन मस्तिष्क में जो एक तरल पदार्थ है, उसमें तैरता रहता है। यदि सिर पर कोई आघात लगे तो उस अघात की शक्ति उस तरल पदार्थ में विखर जाती है, और इससे उस बल्ब को कोई चोट नहीं पहुँचती।
विद्युत् क्या है, यह किसी को नहीं मालूम; हमलोग इतना ही जानते हैं कि विद्युत् एक प्रकार की गति है। समस्त परमाणु यदि एक ओर गतिशील हों, तो उसीको वैद्युत  गति कहते हैं। इस कमरे में जो वायु है, उसके सारे परमाणुओं को यदि लगातार एक ओर चलाया जाय, तो यह कमरा एक महान बैटरी के रूप में परिणत हो जायेगा।यदि श्वास-प्रश्वास की गति नियमित की जाय, तो शरीर के सारे परमाणु एक ही दिशा में गतिशील होने का प्रयत्न करेंगे। जब विभिन्न  में दिशाओं में दौड़ने वाला मन एकमुखी होकर एक दृढ इच्छा-शक्ति के रूप में परिणत होता है, तब सारे स्नायु-प्रवाह भी एक प्रकार के विद्युत् का आकार धारण कर लेती है। जब शरीर की सारी गतियाँ सम्पूर्ण रूप से एकाभिमुखी होती हैं, तब वह शरीर मानो इच्छा-शक्ति का एक प्रबल विद्युत्-आधार या डायनेमो बन जाता है। (1/73)
' प्राण का अर्थ है शक्ति। तो भी हम  इसे शक्ति नाम नहीं दे सकते, क्योंकि शक्ति तो इस प्राण की अभिव्यक्ति मात्र है। मनुष्य देह में तीन मुख्य प्राण-प्रवाह अर्थात नाड़ियाँ है। यदि मेरुदण्ड मध्यस्थ सुषुम्णा के भीतर से स्नायु प्रवाह चलाया जा सके तो देह का बंधन फिर न रह जायेगा, सारा ज्ञान हमारे अधिकार में आ जायेगा। मूलाधार चक्र में जन्म-जन्मान्तर के संस्कार-समिष्टि मानो संचित सी रहती है। और उस कुण्डलीकृत क्रियाशक्ति को कुण्डलिनी कहते हैं। कुण्डलिनी को जगा देना ही तत्वज्ञान, अतिचेतन अनुभूति या आत्मसाक्षात्कार का एकमात्र उपाय है। चार योगों में से किसी की सहायता से कुण्डलिनी को जाग्रत किया जा सकता है। 1/77
' इस सुषुम्णा को खोलना ही योगी का एकमात्र उद्देश्य है। सबसे निचे वाला चक्र ही समस्त शक्ति का अधिष्ठान है। उस शक्ति को उस जगह से उठाकर मस्तिष्कस्थ  'बल्ब' तक ले जाना होगा। तब वह कामशक्ति ओज शक्ति में परिणत हो जाती है। ब्रह्मचर्य के बिना राजयोग की साधना बड़े खतरे की है, मस्तिष्क बिगड़ भी सकता है। तन-मन-वचन से सर्वदा सब अवस्थाओं में मैथुन का त्याग ही ब्रहचर्य है। 1/101' अपवित्र-जीवन जीने वाला योगी नहीं बन सकता है। 1/82
' जो शीघ्र उन्नति करने की इच्छा करते हैं, वे यदि कुछ महीने केवल दूध और अन्न आदि निरामिष भोजन पर रह सकें, तो उन्हें साधना में बड़ी सहायता मिल सकेगी। 1/88 यह अहं भाव केवल बीच की अवस्था में रहता है। जब मन इस रेखा के उपर या नीचे विचरण करता है, तब किसी प्रकार का अहं-ज्ञान नहीं रहता, किन्तु तब भी मन की क्रिया चलती रहती है।
जब कोई मनुष्य समाधिस्थ होता है, तो समाधि प्राप्त करने के पहले यदि वह महामूर्ख रहा हो, अज्ञानी रहा हो, तो समाधि से वह महाज्ञानी होकर व्युत्थित होता है। वह स्पष्ट देख पाता है, ' कहाँ मैं देवराज, और कहाँ इस शूकर-जन्म को ही एकमात्र जन्म समझ बैठा था; यही नहीं, वरन सारा संसार शूकर-देह धारण करे, ऐसी कामना कर रहा था !' पुरुष भी बस, इसी प्रकार प्रकृति के साथ मिलकर भूल जाता है कि वह शुद्ध और अनन्तस्वरुप है। (1/164) 
' हमारे दुःख या सुख का कारण है-शरीर के साथ अपना संयोग कर लेना। (1/172) यह अतीन्द्रिय अवस्था कभी कभी ऐसे व्यक्ति को अचानक प्राप्त हो जाती है, जो उसका विज्ञान नहीं जानता। वह मानो उस ज्ञानातीत राज्य में ढकेल दिया जाता है। अचानक जा पड़ने से दिमाग बिगड़ जाने की संभवना रहती है। मुहम्मद कोई सिद्ध योगी न थे। उनको अनजाने में ही अचानक अन्तः प्रेरणा मिल गयी थी। ...कितने ही देशों का सर्वनाश हो गया। 1/96.
' विद्युत्-शक्ति के बारे में आधुनिक मत यह है कि वह डाइनेमो से बाहर निकल, घूमकर फिर से उसी यन्त्र में लौट आती है। प्रेम और घृणा के बारे में भी यही नियम लागु होता है।'(1/110) हमारा यह जीवन उस इन्द्रियातीत अनंतस्वरूप में पहुँचने के लिये रास्ते में केवल एक क्षूद्र अवस्था है। 1/113
' पुनः पुनः अभ्यास ही चरित्र का सुधार कर सकता है। ' अभ्यास किसे कहते हैं ? 
तत्र स्थितौ यत्नो अभ्यासः।। समाधिपाद 13।।
मन को दमन करने की चेष्टा, अर्थात प्रवाह-रूप में उसकी बाहर जाने की प्रवृत्ति को रोकने की चेष्टा ही अभ्यास है। '(1/123)  (1/139) सधापद 54/ प्रत्याहार का अर्थ है जो मन इन्द्रिय बन गया था, वह वास्तव में चित्त ही था, जब वे पुनः चित्त का स्वरुप ग्रहण करने लगती हैं तो उसे प्रत्याहार कहा जाता है।
(1/160)साधनपाद 24/25/26 बार बार पढो। मन एकाग्र हुआ है, यह कैसे जाना जाय ? मन के एकाग्र हो जाने पर समय का कोई ज्ञान न रहेगा। जितना ही समय का ज्ञान जाने लगता है, हम उतने ही एकाग्र होते जाते हैं। ' (1/188)'पूर्णता ही मनुष्य का स्वभाव है, केवल उसके किवाड़ बन्द हैं, वह अपना यथार्थ रास्ता नहीं पा रही है। .....पशु के भीतर मनुष्य गूढ़ भाव से निहित है; ज्यों ही किवाड़ खोल दिया जाता है, अर्थात ज्यों ही बाधा हट जाती है, त्यों ही वह मनुष्य प्रकाशित हो जाता है। इसी प्रकार मनुष्य के भीतर भी देवत्व अव्यक्त भाव से विद्यमान है, केवल अज्ञान का आवरण उसे प्रकाशित नहीं होने देता। जब ज्ञान इस आवरण को चीर डालता है, तब वह भीतर का देवता प्रकाशित हो जाता है।' (1/207)(1/184)]
यही स्वामीजी की शिक्षाओं का सार है, जिसे स्वामीजी बार बार समझाने का प्रयत्न किये हैं। यह अत्यन्त कठिन कार्य है, लगभग असम्भव ही है। हमलोग मनःसंयोग के द्वारा,अभ्यास के द्वारा, अध्यवसाय के द्वारा, संकल्प की दृढ़ता के द्वारा, सक्रिय प्रयत्न के द्वारा, लाखों-लाख वर्ष की सम्भावना को अत्यन्त शीघ्र सम्भव कर सकते हैं। हममें से प्रत्येक व्यक्ति, महासागर के बुलबुले जैसा होकर भी, महासागर के साथ, उसी अनन्त महाशक्ति के समुद्र से युक्त है, हमलोगों में यही बोध जाग्रत होने की आवश्यकता है। हमलोग मनःसंयोग कर सकते हैं। हमलोगों के हृदय की अदृश्य अस्पष्ट अनुभूति से परे अवस्थित, इस महाशक्ति के विषय में मनको एकाग्र कर सकते हैं।
दूसरी बातों को जानने की अभी आवश्यकता नहीं है, स्वामीजी की कुछ और बातों को सुना जाय-
 " शुक्ति के समान बनो। भारतवर्ष में एक सुन्दर किंवदन्ती प्रचलित है। वह यह कि आकाश में स्वाति नक्षत्र के तुंगस्थ रहते यदि पानी गिरे और उसकी एक बून्द किसी सीपी में चली जाय, तो उसका मोती बन जाता है। सीपियों को यह मालूम है। अतएव जब वह नक्षत्र उदित होता है, तो वे सीपियाँ पानी की उपरी सतह पर आ जाती हैं, और उस समय की एक अनमोल बून्द की प्रतीक्षा करती रहती हैं। ज्यों ही एक बून्द पानी उनके पेट में जाता है, त्यों ही उस जलकण को लेकर मुँह बन्द करके वे समुद्र के अथाह गर्भ में चली जाती हैं और वहाँ बड़े धैर्य के साथ उनसे मोती तैयार करने के प्रयत्न में लग जाती हैं। 
हमें भी उन्हीं सीपियों की तरह होना होगा। पहले सुनना होगा, फिर समझना होगा, अन्त में बाहरी संसार से दृष्टि बिल्कुल हटाकर, सब प्रकार की विक्षेपकारी बातों से दूर रहकर हमें अन्तर्निहित सत्य-तत्व के विकास के लिये प्रयत्न करना होगा। एक भाव को नया कहकर ग्रहण करके, उसकी नवीनता चली जाने पर फिर एक दूसरे नये भाव का आश्रय लेना -इस प्रकार बारम्बार करने से तो हमारी शक्ति ही इधर-उधर बिखर जायगी।
एक भाव को पकड़ो, उसी को लेकर रहो। उसका अन्त देखे बिना उसे मत छोड़ो। जो एक भाव को लेकर उसी में मत्त रह सकते हैं, उन्हीं के हृदय में सत्य-तत्व का उन्मेष होता है। और जो यहाँ का कुछ, वहाँ का कुछ, इस तरह खटाई चखने के समान सब विषयों को मानो थोड़ा थोड़ा चखते जाते हैं, वे कभी कोई चीज पा सकते। कुछ देर के लिये नसों की उत्तेजना से उन्हें एक प्रकार का आनन्द भले ही मिल जाता हो, किन्तु इससे और कुछ फल नहीं होता। वे चिरकाल प्रकृति के दास बने रहेंगे, कभी अतीन्द्रिय राज्य में विचरण न कर सकेंगे। "
" एक विचार को लो; उसी विचार को अपना जीवन बनाओ-उसी का चिन्तन करो, उसीका स्वप्न देखो, और उसी में जीवन बिताओ। तुम्हारा मस्तिष्क,स्नायु, शरीर के सर्वांग उसीके विचार से पूर्ण रहें। दूसरे सारे विचार छोड़ दो। यही सिद्ध होने का उपाय है। ...यदि हम सचमुच स्वयं कृतार्थ होना और दूसरों का उद्धार करना चाहें, तो हमें गहराई तक जाना होगा। इसे कार्य में परिणत करने का पहला सोपान यह है कि मन किसी तरह चंचल न किया जाय। जिनके साथ बातचीत करने पर मन चंचल हो जाता हो, उनका साथ छोड़ दो। तुम सबको मालूम है कि तुममें से प्रत्येक का किसी स्थानविशेष, व्यक्तिविशेष और खाद्यविशेष के प्रति एक विरक्ति का भाव रहता है। उन सबका परित्याग कर देना।
 ...जो लोग तमोगुण से पूर्ण हैं, अज्ञानी और आलसी हैं, जिनका मन कभी किसी वस्तु पर स्थिर नहीं रहता, जो केवल थोड़े से मजे के अन्वेषण में हैं, उनके लिये धर्म और दर्शन केवल मनोरंजन के विषय हैं, उनके लिये धर्म और दर्शन केवल मनोरंजन के विषय हैं। जो सिर्फ थोड़े से आमोद-प्रमोद के लिये धर्म करने आते हैं, वे साधना में अध्यवसाय हीन हैं। वे धर्म की बातें सुनकर सोचते हैं, 'वाह ! ये तो बड़ी अच्छी बातें हैं'; पर इसके बाद घर पहुँचते ही सारी बातें  भूल जाते हैं। सिद्ध होना हो, तो प्रबल अध्यवसाय चाहिये, मन का अपरिमित बल चाहिये। अध्यवसायशील साधक कहता है, " मैं चुल्लू में समुद्र पी जाऊंगा। मेरी इच्छामात्र से पर्वत चूर चूर हो जायेंगे। " इस प्रकार का तेज, इस प्रकार का दृढ़ संकल्प लेकर कठोर साधना करो और तुम ध्येय को अवश्य प्राप्त कर सकोगे। " (1/89-90)
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