बुधवार, 14 नवंबर 2012

'चरित्र निर्माण का प्रक्रिया '[The way to build character] स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [35](जीवन-गठन की निर्माण-सामग्री ),

[१.चरित्र-निर्माण का संकल्प ग्रहण]  चरित्र-निर्माण कैसे किया जाता है; चरित्र है क्या चीज? अथवा चरित्र गठन करने की आवश्यकता ही क्यों है- इन विषयों पर चर्चा करनी हो, या यदि चरित्र-निर्माण की पद्धति को क्रियान्वित करनी हो, तो ये सभी कार्य हमें मन की सहायता से ही करने होंगे। अन्य कोई उपाय नहीं है। कोई दवा खा कर, या किसी अनुष्ठानिक प्रक्रिया (नाक दबाकर साँस लेने-छोड़ने) के द्वारा, चरित्र-निर्माण करना असम्भव है। हालाँकि बहुत से लोग ऐसा दावा भी करते हैं, किन्तु वह ठीक नहीं प्रतीत होता है। चरित्र-निर्माण करने में 'मन' की सहयता लेनी ही पड़ेगी; क्योंकि मन की सहयता के बिना हम किसी भी कार्य को कुशलता पूर्वक सम्पन्न नहीं कर सकते। यजुर्वेद के शिव संकल्प सूत्र (३४/३) में ईश्वर से प्रार्थना की गयी है -
'यस्मान्न ऋते किंचन कर्म न क्रियते तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ।'   
[ (यस्मात् ऋते) जिसके बिना (किंचन) कुछ (कर्म) काम (न) नहीं (क्रियते) किया जाता हैं (तन्मे मनः) वह मेरा मन (शिवसंकल्पमस्तु) शिव संकल्पों वाला हो।] जिसके बिना किंचित् कर्म नहीं होता,मेरे उस मन में सदा शिव-संकल्प ही रहे (यही कामना रहे कि मैं एक चरित्रवान मनुष्य बन जाऊँ !
[२. व्यक्ति और समाज] हमलोग यह जानते हैं कि व्यक्तियों से मिलकर ही समाज बनता है। अतः,इस विषय में किसी को कोई सन्देह नहीं होना चाहिये कि, यदि सुन्दर समाज का निर्माण करना चाहते हों, तो जिन व्यक्तियों का वह समाज बना है,उन व्यक्तियों के जीवन को ही सुन्दर रूप में गठित करना पड़ेगा। ऐसा प्रतीत होता है कि, इस बात से कोई असहमत नहीं होंगे। क्योंकि व्यक्तियों के समूह को ही समाज कहते हैं। इसलिये जब तक व्यक्ति-मनुष्य अच्छा नहीं बन जाता तब तक समाज भी अच्छा नहीं बन सकता है।
घुन या नोना-लगे ईंट से यदि किसी घर का निर्माण किया जाय तो थोड़े ही दिनों के बाद, भले ही उसके उपर कितना भी अच्छा प्लास्टर क्यों न किया गया हो, उस घर के ऊपर खारेपन की पपड़ी उभर आएगी। उसी प्रकार यदि समाज भी घुन लगे,असुन्दर व्यक्तियों से निर्मित हो, तो समाज भी बदसूरत (ugly) ही दिखाई देगा यहाँ सुन्दर मनुष्य कहने का तात्पर्य क्या है ? यहाँ सुन्दर से तात्पर्य है चरित्रवान, केवल देखने में सुन्दर नहीं। जो सही मायने में अच्छे फल (Truly good fruit) दे सकता है,उसी को सुन्दर वृक्ष कहते हैं। केवल देखने में सुन्दर, या गंध में सुन्दर, सुनने में सुन्दर, या स्पर्श करने में सुन्दर होने से ही नहीं होगा; सुन्दर उसी को कहते हैं, जो सुन्दर फल देता हो- ' फलेन परिचीयते।' फल ही वास्तविक परिचय है। यदि हमलोग ऐसा सुन्दर समाज चाहते हैं, जो सचमुच सुन्दर फल दे सके, अर्थात मनुष्यों का मंगल करे; तो वैसा सुन्दर समाज गढ़ने  के लिये, उसी प्रकार के सुन्दर मनुष्यों को गढ़ना होगा - जिस मनुष्य के कार्य से समाज को सुन्दर फल प्राप्त हो सकता हो।

[३. विचार और कर्म (Thought and Action)] इसके बाद विचार और कर्म के महत्व को ठीक से समझने का प्रयास करना होगा। किसी भी कार्य को करने के लिए हमें तीन तरह से प्रयास करना होता है । मन ,वचन और कर्म से । मनसा , वाचा , कर्मणा के भाव को यूनीडिरेक्श्नल या एकमुखी रखने से ही विचार
कर्म को पूर्णता की ओर ले जाता है। बोलने या करने से पहले मन में विचार (Thought ) उठता है, फिर अपनी इच्छा या कल्पना को साकार करने के लिये वह कोई कर्म (Action) करता है। बिना कर्म किये कुछ भी प्राप्त नहीं होता, किन्तु कर्म करने की प्रेरणा हमें विचारों से प्राप्त होती है, इसीलिये सर्वप्रथम विचारों को ही स्वच्छ या पवित्र बना लेना होगा। 

अतः कुछ भी बोलने या करने के पहले हमारा प्राथमिक कार्य है - 'विवेक-प्रयोग'! पहले विवेक की छलनी से विचारों को छान (Sieve) कर स्वच्छ और अर्थपूर्ण बना लेना होगा, ताकि अपने अच्छे विचारों से हमलोग सुन्दर कार्यों में प्रवृत्त हो सकें। सुन्दर मनुष्य कौन होता है ? जिस व्यक्ति का चरित्र सुंदर होता है। क्योंकि हमलोग जो कुछ भी कार्य करते हैं, वह अपने चरित्र के वशिभूत होकर ही करते हैं !  
[४. कार्य-कारण(cause & effect)] हमलोग अक्सर कहा करते हैं-स्वामीजी ने इस विषय के उपर बहुत सुन्दर कहा है, या अमुक विषय पर उनके विचार बड़े सुन्दर हैं। इसका तात्पर्य और कुछ नहीं, केवल यही है कि स्वामीजी की बातें सुन्दर फल देती हैं। स्वामीजी की शिक्षाओं का अनुसरण करते हुए कार्य करने से, उस कार्य का फल सुन्दर ही होता है। फल के सुन्दर होने का तात्पर्य है, कर्म और फल में एक सीधा सम्बन्ध दीखता है। अर्थात कार्य-कारण की एक श्रृंखला दिखाई देती है। कार्य-कारण की श्रृंखला के अनुसार, एक फल के द्वारा उसी प्रकार का दूसरा फल प्राप्त होता है-जैसे किसी फल के बीज से फिर एक बृक्ष उत्पन्न होता है। उसी बृक्ष पर पुनः नये फल लगते हैं। उसके बीज से फिर एक बृक्ष उत्पन्न होता है। इसीलिये फल का भी पुनः फल होता है। क्रमशः यही प्रक्रिया चलती रहती है। यदि पहला फल अच्छा हुआ तो वही फल बार बार अच्छे फल देता रहता है। (यही है गुरु-शिष्य परम्परा या रामकृष्ण-विवेकानन्द परम्परा में लीडरशिप ट्रेनिंग !] 
यहाँ कारण (गुरु का पवित्र) चरित्र है, तो कार्य या फल (शिष्य ) एक सुन्दर मनुष्य है। तो फिर मनुष्य के चरित्र को सुन्दर रूप से गढ़ने के लिये क्या करना आवश्यक है ? सर्वप्रथम तो यह जानना आवश्यक है कि चरित्र कहते किसे हैं ? उसके बाद यह जानना होगा कि उस चरित्र को अर्जित करने की पद्धति क्या है ? हमलोगों की प्रवृत्तियों (रुझानों या Propensity) की समष्टि या योगफल को ही चरित्र कहते हैं। इस प्रसंग में स्वमीजी की एक वाणी उल्लेखनीय है, " तुम यदि अच्छे हो, तो इसमें तुम्हारी कोई बहादुरी नहीं है, और यदि तुम बुरे हो, तो इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है।" 
स्वामीजी के ऐसा कहने का तात्पर्य क्या है ? कोई व्यक्ति बहुत अच्छे कार्य करता हो- वह यदि बहुत सेवा-परायण हो, बहुत निःस्वार्थी हो, बहुत त्यागी हो; तो स्वामीजी उसको ही लक्ष्य करते हुए कहते हैं, कि इसमें उसकी कुछ बहादुरी नहीं है। उसका चरित्र ही ऐसा बन गया है, कि अब वह अपने स्वार्थ का अन्वेषण ही नहीं कर पाता है। अर्थात वह सद्कर्म इसीलिये करता है, कि उसका चरित्र अच्छा बन गया है। इसमें कुछ बहादुरी उसकी भी अवश्य है, किन्तु वह बहादुरी यही है कि उसने एक अच्छा चरित्र अर्जित कर लिया है, तथा उस चरित्र को गढ़ने के लिये उसने बहुत परिश्रम किया है, तथा परिश्रम करने के पहले उसने इसी विषय पर बहुत सोच-विचार भी किया है। इसी बात के लिये उसकी बहादुरी है, अभी के अच्छे कार्यों के लिये नहीं। अभी जो कुछ भी अच्छे कार्य वह कर रहा है, उसके लिये उसका चरित्र ही उसको प्रेरित करता रहता है।इससे यही सिद्ध होता है कि हमलोग जो कोई भी कार्य करते हैं,वह अपने (अच्छे या बुरे चरित्र?) से वशीभूत होकर ही करते हैं। 
[५. किशोरावस्था से ही चरित्र-निर्माण में लगना क्यों आवश्यक है ? ] एक अच्छे चरित्र का गठन करने के लिये हमलोगों को आजीवन प्रयत्न करते रहना होगा, तथा आजीवन इसी विचार को अपने मन में धारण किये रहना होगा। यदि इस समय मैं केवल सद्कर्म ही करता हूँ, निःस्वार्थी हूँ, कभी झूठ नहीं बोल पाता हूँ, तो ऐसा कैसे हो रहा है ? मैं एक अच्छे चरित्र का अधिकारी हूँ, और मेरा अच्छा चरित्र ही मुझे केवल अच्छे कार्यों को करते रहने के लिये अनुप्रेरित करता रहता है।
किन्तु ऐसे चरित्र को गढने के लिये मैंने इस बात पर काफी सोच-विचार किया है, अपने मन में केवल अच्छे विचारों को ही धारण किये रहने का दृढ संकल्प लिया है। फिर बहुत लम्बे समय तक विवेक-प्रयोग करने के बाद ही कोई कार्य करने के लिये निरन्तर कठोर संघर्ष किया है। उसकी फल आज बैठे बैठे खा रहा हूँ, जैसे बैंक में जमा फिक्स्ड डिपोजिट का इंटरेस्ट हर महीने मिलता रहता है। किन्तु किसी समय निश्चय ही मुझको बहुत सोचविचार कर एक अच्छे व्यापारिक-प्रतिष्ठान को स्थापित करना पड़ा था, और कड़ी मिहनत से संचालित कर उसके मुनाफे से बैंक में एक अच्छा डिपोजिट जमा करवा दिया था, अब उसी का सूद आराम से बैठ कर खा रहा हूँ। उसी प्रकार बहुत सोच-विचार कर, बहुत परिश्रम से एक सुन्दर चरित्र अर्जित करके मैंने रखा था, इसीलिये आज मैं अच्छे कार्य कर पा रहा हूँ, सेवा-परायण बन गया हूँ, मुख से कोई झूठी बात निकलती ही नहीं है। दूसरे मनुष्यों के दुःख को देखकर मेरे हृदय में पीड़ा होती है, मेरा हृदय द्रवित हो जाता है।
पुनः स्वामीजी ने सावधान करते हुए कहा था, ' यदि तुम बुरे कार्य करते हो, तो उसका दोष अपने बुरे चरित्र के मत्थे मढ़ कर अपनी जिम्मेवारी से बचने की चेष्टा मत करना।' क्योंकि इतना तो हम सभी लोग समझ सकते हैं कि - चूँकि हमारा चरित्र ही हमें अच्छा या बुरा कर्म करने के लिए अनुप्रेरित करता है, ऐसा कहते हुए बुरे कर्म करने के बाद उसका समस्त दोष चरित्र के मत्थे मढ़ देने की चेष्टा करना स्वयं को ही धोखा देने के सिवा और कुछ नहीं है।
हमें आत्मनिरीक्षण करना होगा, मैं आखिर बुरा कर्म करने के लिये उतारू क्यों हो जाता हूँ ? इसका कारण यही है कि किसी कारण से (बहुत लम्बे समय तक बुरी संगती, या गलत परिवेश में रहने से) मेरी उम्र अधिक हो गयी है, किन्तु अभी तक मेरा अपना चरित्र अच्छा नहीं बना सका है। और अब उसी बुरे चरित्र का दास बन कर, उसके वशीभूत होकर मैं कोई बुरा कार्य कर देता हूँ। यदि मेरी अवस्था सचमुच ऐसी हो गयी है, तो अब मुझे क्या करना चाहिये ?
यह अवस्था थोड़ी कठिन है, क्योंकि मेरी उम्र अब अधिक हो गयी है, और अपना काफी समय मैंने नष्ट कर दिया है। उसी बुरे चरित्र के वशीभूत होकर, उसका दास होकर कार्य करते रहने के फलस्वरूप मेरे भीतर बुरे कार्यों को करने की प्रवृत्ति दृढ़ हो गयी है। मेरे अवचेतन मन पर उसकी लकीर गहरी हो गयी है। उस गहरी लकीर को मिटा कर फिर से अच्छे चरित्र का गठन करना अधिक मुश्किल काम है। वस्तुतः बुरे विचारों के दृढ़ हो जाने के बाद, या मन की गहरी परतों तक बैठ जाने के बाद, उनको मिटाया नहीं जा सकता। बल्कि जब मन में अच्छे विचारों की लकीर अधिक गहरी हो जाती है, तो उसके नीचे बुरे विचारों की लकीरें केवल दब भर जाते हैं। इसलिये बुरी आदतों के परिपक्कव हो जाने के पहले, या कम उम्र में ही यदि अच्छा चरित्र निर्मित कर लिया जाय, तो इस खतरे से बचा जा सकता है। अतः युवकों को अन्य समस्त कार्यों को छोड़ कर, सर्व प्रथम अच्छा चरित्र निर्मित करने की अनिवार्यता को समझने के लिये प्रयास करना चाहिये। फिर उन्हें प्रकृति तथा इन्द्रियों की अनेकों  प्रलोभनों पर विजय प्राप्त करने का दृढ़ संकल्प लेकर, अथक परिश्रम करते हुए एक सुन्दर चरित्र अर्जित करके उसे बहुमूल्य धरोहर के रूप में संचित कर लेना होगा।
[६. निरंतर विवेक-प्रयोग करने की आदत को अपनी रुझान या टेन्डन्सी में परिणत करो।] अब हमलोग चरित्र क्या है, इस बात को और अधिक गहराई से समझने की चेष्टा करेंगे। हमने इस रहस्य को जान लिया है कि चरित्र हमलोगों की प्रवृत्तियों (चित्त-वृत्तियों या रुझानों) की समष्टि या योगफल है। प्रवृत्तियों (या रुझानों  propensity) की समष्टि या योगफल की कार्यकारी शक्ति से भी हमलोग परिचित हैं। प्रवृत्तियाँ कितनी शक्तिशाली होती हैं, इस बात को भी हम जानते हैं। किसी विशेष परिस्थिति में सोच-विचार किये बिना, या विवेक-प्रयोग किये बिना ही, हमलोग जिसके वशीभूत होकर कोई कार्य कर डालते हैं, उसको ही प्रवणता या प्रवृत्ति कहते हैं। 
अर्थात किसी अवस्था विशेष के आ जाने पर, विशेष कुछ सोच-विचार किया बिना ही, स्वतःप्रवृत्त होकर या स्वेच्छापूर्वक (voluntarily) हम जो कुछ कर डालते हैं, वैसा कर बैठने के झोंक को ही प्रवृत्ति या 'tendency' कहते हैं। उदहारण के लिये मान लो मैं कहीं खड़ा हूँ, और अचानक सामने कोई व्यक्ति गिर पड़ता है। उस समय मैं कागज-कलम लेकर यह लिखने नहीं बैठ जाता कि, इस समय मेरा क्या कर्तव्य होना चाहिए, बल्कि उसके गिरने के साथ ही साथ उसको झपट कर उठा लेता हूँ। चूँकि मेरे अन्दर अच्छे कार्यों को करने की प्रवृत्ति  है, इसीलिये मैं ने उस प्रकार का आचरण किया। अब यह स्पष्ट हो गया कि बिना विवेक-विचार किये, स्वेच्छापूर्वक हमलोग जो कुछ भी कर बैठते हैं, उस झोंक को ही 'propensity' या प्रवृत्ति कहते हैं; तथा ऐसी प्रवृत्तियों के योगफल या समष्टि को चरित्र कहा जाता है।
इस प्रकार हमने यह समझ लिया कि प्रवृत्तियों के योगफल को ही चरित्र कहा जाता है।प्रवृत्ति क्या है, किसे कहते हैं -यह भी समझ में आ गया। 
अब हमें यह जानना होगा कि प्रवृत्ति या ' tendency' निर्मित कैसे होती है ? किसी वाद्य-यंत्र जैसे वीणा या सितार आदि को बजाने का लगातार अभ्यास करते रहने से जैसे हम उसमे प्रवीणता (Proficiency) या महारत प्राप्त कर लेते हैं, उसी प्रकार एक ही कार्य को बार बार दुहराते रहने का अभ्यास करने से, हमलोगों में उसी कार्य को करने की प्रवृत्ति या झोंक उत्पन्न हो जाती है। किसी भी कार्य को बार बार करते रहने से हमें उसकी आदत पड़ जाती है। 
किन्तु जब पहले-पहल हम कोई कार्य करते हैं, तो उस समय सोच-विचार करने के बाद ही हम उस कार्य को करते हैं। तब हम अपने सामने उपस्थित कई विकल्पों में से किसी एक विकल्प को चुन लेते हैं, हम विचार करते हैं- यह करूँगा, या वह करूँगा या कोई तीसरा ही विकल्प चुनना अच्छा होगा ? किसी भी कार्य को करने के जब कई विकल्प रहते हैं, और उसमें से किसी एक विकल्प का चयन जब हमें करना होता है, तो काफी सोच-विचार करने के बाद ही हमलोग उस एक विकल्प को चुन लेते हैं। किसी कार्य को काफी सोच-विचार करने के बाद या  विवेक-विचार करके, जब बार बार दुहराने लगते हैं तो वह कार्य हमारी आदत में परिणत हो जाता है। जब कोई  आदत परिपक्व हो जाती है, तो वही हमारी प्रवृत्ति या  'tendency' बन जाती है।  
तब हम विवेक विचार करके कोई निर्णय लिये बिना, मानो बाध्य होकर या उसी प्रवृत्ति के वशीभूत होकर उस प्रकार का कार्य करते हैं। इसी प्रकार के विभिन्न प्रवृत्तियों का योगफल हमलोगों के चरित्र का निर्माण करता है, तथा उस चरित्र के फल को हमें अनिवार्य रूप से भोगना भी पड़ता है। या तो सुख भोगते हैं, या दुःख भोगना पड़ता है, बल्कि हमारे चरित्र के अनुसार ही हमारा भविष्य भी निर्धारित हो जाता है। इसीलिये अब आगे से प्रत्येक कार्य को करते समय हमें सतर्क रहते हुए उस कार्य को करना होगा; क्योंकि जो कार्य कर रहा हूँ, उसकी ही आदत पड़ जाएगी। तथा परिपक्व हो जाने के बाद वैसी प्रवृत्तियों के योगफल से मेरा चरित्र गठित हो जायेगा। तथा उसी चरित्र के अनुसार आचरण करने को मैं बाध्य हो जाऊंगा। उसी अवस्था की बात स्वामीजी कहते हैं, ' तुम जो अच्छे कार्य करते हो, उसमें बहादुरी तुम्हारे उस समय किये गये कार्य के लिये नहीं, बल्कि तुम्हारे अच्छे चरित्र के लिये मिलनी चाहिए। ' उसी प्रकार यदि तुम बुरे कार्य भी करते हो, तो दोष तुम्हारे चरित्र का है, तुम्हारा चरित्र ही तुमसे बुरे कर्मों को करवा रहा है। यदि तुम अच्छे कर्म करते हो, तो तुम्हारा चरित्र ही तुमसे अच्छे कर्म करवा रहा है। अतः इस विषय में बहुत सतर्क होकर किसी कार्य को करो कि उसके द्वारा तुम किस प्रकार के चरित्र के अधिकारी होने जा रहे हो?
उस विषय में सावधान रहने का अर्थ क्या हुआ ? किसी भी कार्य को करते समय विवेक-प्रयोग करो। जो अच्छा हो वही करो, जो अच्छा नहीं हो, उसे मत करो। इसीलिये चरित्र निर्माण के लिये आजीवन प्रयत्न करते रहना पड़ता है। निरन्तर विवेक को जाग्रत रखना आवश्यक होता है। यदि विवेक-प्रयोग का बार बार अभ्यास करते करते निरंतर विवेक में ही जाग्रत रहना हमारी टेन्डन्सी बन जाये, तो हमलोग अपने मन को सदैव शिव-संकल्प (पवित्र विचार) परिपूर्ण रखने में समर्थ मनुष्य (MAN with capital M) बन सकते हैं। और चरित्र-निर्माण की प्रक्रिया का कठिन भाग भी यहीं तक है।
[७.चरित्र-निर्माण का नियम] मनसा-वाचा कर्मणा किसी भी कार्य करने-सोचने,बोलने या करने के पहले यदि हम विवेक-प्रयोग करने के बाद ही प्रत्येक कार्य करने में महारत, (प्रवीणता Proficiency) प्राप्त कर लेते हैं, तो उसके बाद वाली चरित्र-निर्माण की प्रक्रिया अत्यन्त सरल है। किसी Algebra जितना, quadratic equation जितना, या किसी higher mathematics जितना, या अन्य किसी कठिन
formula के जितना नहीं, बल्कि साधारण जोड़-घटाव जितना ही सहज है- चरित्र-निर्माण !  ऐसा करोगे तो यह होगा, वैसा करोगे तो वैसा होगा। जिस प्रकार २ में २ जोड़ने से ४  होता है, ४  में २  जोड़ने ६ होता है, और ६ में २  जोड़ देने से ८  हो जाता है, उसी प्रकार चरित्र भी अत्यन्त सहज वस्तु है। किन्तु निरन्तर इस जोड़-घटाव के के चिन्ह पर दृष्टि गड़ाय रखना, और उन्हें देते रहने की क्षमता को बनाय रखना ही कठिन हो जाता है। एक बार किया, दो बार किया; दो-चार अच्छे कार्य करके लोगों की वाहवाही प्राप्त कर लिया। कैम्प में आकर दूसरों के साथ सुन्दर व्यवहार कर लिया, क्योंकि कैम्प में आचरण ठीक नहीं रखने से सर्टिफिकेट नहीं मिलेगा, लेकिन यहाँ लौट कर घर जाने के बाद विवेक-प्रयोग करने के लिए सावधान रहने का अभ्यास करना एकदम छोड़ दूंगा। यदि ऐसा सोचोगे या करोगे तो चरित्र-गठन करना कभी संभव नहीं होगा।
चरित्र-गठन करने में यही तो कठिनाई है। चरित्र-निर्माण की प्रक्रिया का Formula या सूत्र तो बिलकुल सहज है, किन्तु विवेक-प्रयोग के लिये निरन्तर सजगता बनाये रखना आवश्यक है, इसकेलिये अथक प्रयास करना होता है; नहीं तो हर कदम पर पाँव फिसल जाने की सम्भावना बनी रहती है।  बहुत बार विवेक का ठीक ठीक प्रयोग किया, और अपने आचरण को ठीक रखा, किन्तु दो बार नहीं हो सका, आलस्य आ गया और एक बुरी आदत पड़ गयी।
 इसी प्रकार यदि बुरी आदतें पड़ती ही रहें, तो उसके नीचे अच्छी आदतें दब जाएँगी। उसी प्रकार यदि बहुत सी अच्छी आदतें एकत्रित हो गयीं, तो उसके निचे बुरी आदतें दब जाएँगी। तथा चरित्र-निर्माण का नियम (सिद्धान्त) ( जो न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण सिद्धान्त के अनुसार सभी देशों के सभी मनुष्यों के लिये सत्य है) भी यही है, बुरी आदतों की स्मृतियों को जड़ सहित नहीं उखाड़ सकते, उसको अच्छी आदतों के नीचे ही दबा कर  रखना पड़ता है। तथा अच्छी आदतों से दबाते दबाते ऐसा हो जाता है, कि वे फिर कभी अपना सिर उठा नहीं पातीं। जैसे किसी टेप-रेकार्डर के कैसेट में यदि एक बार रेकार्डिंग हो गया, और उसके उपर बाद में कुछ और रेकार्डिंग किया जाय तो पहले वाला रेकार्डिंग तुम नहीं सुन सकते। उसी प्रकार यदि बुरी आदतें या प्रवृत्तियों की लकीरें चित्त में पहले से पड़ी हुई भी रहें, किन्तु उसके उपर यदि अच्छी आदतों की चौड़ी-गहरी लकीरें डाल दी जाय तो, वे बुरी आदतें पुनः अपना सिर नहीं उठा सकती हैं। 
अभी हमलोगों के लिये यह जानना अनिवार्य हो जाता है कि -किस किस प्रकार के आदतों के योगफल से हम अपना चरित्र निर्मित करेंगे ? चरित्र विचार के अनुसार, कार्य या action से गठित होता है,आदत से ही निर्मित होता है। [किसी भी कार्य को करने के पहले उसे कर डालने की तीव्र इच्छा या  झोंक पहले तो मन में ही उठता है। उससे ही प्रेरित होकर हम कोई कार्य करते हैं, और बार बार उसकी को दुहराते रहने से वैसा ही चरित्र बन जाता है।] हम किस किस अच्छे कार्य को करने की आदत डालें ? केवल अच्छी आदत डालो, कह देने से तो नहीं होगा; कौन सा विचार अच्छा है, कौन सा विचार बुरा है - इसे मैं कैसे समझ सकता हूँ ?
अच्छा व्यवहार उसी को कहते हैं, जो हमें स्वार्थहीन बनने में सहायता करे; जो हमें सार्वजनिक कल्याण के लिये प्रेरित करे। जिन कार्यों को करने से हमारे शरीर और मन की शक्ति बढ़ जाती हो, उन्हीं को अच्छा समझना चाहिये। किन्तु यह समझ लेना ही तो कठिन है, क्योंकि उतनी बुद्धि मेरे पास नहीं भी हो सकती है, उतनी समझ मेरे पास नहीं भी हो सकती है ? इसीलिये सद्गुणों की एक तालिका बना लेना अच्छा है। कौन-कौन से गुण सचमुच में अच्छे हैं, जिसकी आदत मुझे बनानी है ? जिन लोगों को इसके बारे में पता होता है उनसे पूछ कर उन गुणों का एक चार्ट या तालिका बनायी जा सकती है। फिर उन गुणों को अपनी आदत में ढाल लेने से, उन्हें परिपक्व बनाने से -उन्हीं प्रवृत्तियों का योगफल मेरे अच्छे चरित्र में परिणत हो जायेगा। अतः चरित्र के गुणों की तालिका में लिखे गुणों के बारे में ठीक से समझ कर उसी प्रकार के कार्यों को बार बार दुहरा कर अपनी आदत और प्रवृत्ति में शामिल कर लूँगा।
[८.चरित्र के गुण: किन सदगुणों की प्रवृत्ति या टेन्डन्सी बनाई जाय ?] जिन अच्छे गुणों को आत्मसात करने से मेरा चरित्र निश्चित रूप से अच्छा बन जायेगा, उनके नाम हैं- [१.] आत्मश्रद्धा, [२] आत्मविश्वास  [३] सत्यनिष्ठा [४] पारदर्शी सोच [५] साहस (निर्भीकता) [६] दृढ़ संकल्प [७] निःस्वार्थपरता [८] निष्ठा  [९] अध्यवसाय [१०] उद्यम (बिना किसी के कहे प्रयत्न करने में उत्साह ) [११] प्रति-उत्पन्न मतित्व [१२] सहनशीलता (तितिक्षा) [१३] शालीनता (भद्र व्यवहार) [१४] सहानुभूती (हमदर्दी) [१५] बिश्वसनीयता [१६] आत्मसंयम (त्याग)[१७] आत्मनिर्भरता [१८] धैर्य [१९] सेवापरायणता [२०] मानसिक संतुलन [२१] ईमानदारी  [२२] अनुशासन [२३] स्वच्छता [२४] साधारण बुद्धि इन गुणों की एक तालिका बना कर इनका (कम से कम पाँच लाल-रंग के गुणों का) अभ्यास करने से इन समस्त गुणों को आत्मसात किया जा सकता है।
९.संकल्प ग्रहण:'अब लौं नसानी अब न नसैहौं !:  इस प्रकार से पुनः पुनः अभ्यास करके चारित्रिक गुणों या सुंदर -सुंदर भावों को आत्मसातीकरण करने की प्रणाली या प्रवृत्ति में ढाल लेने की प्रक्रिया- खयाली पुलाव पकाने जैसी बात बिल्कुल नहीं है। यह तो बिल्कुल एक प्रयोगात्मक फॉर्मूला (Practical Formula) है, जिसे हमलोग अपने दैनंदिन जीवन में उतार कर दिखला सकते हैं। 
जो कोई भी व्यक्ति इसका परिक्षण करेगा, वह स्वयं यह देख पायेगा कि मात्र छः महीनों में ही उसका चरित्र पहले से कितना अच्छा बन चूका है ! जो भी व्यक्ति चरित्रवान मनुष्य बन जाने के लिये इच्छुक(desirous) है, वह यदि दृढ़तापूर्वक संकल्प ग्रहण करके, इन गुणों को आत्मसात करने का प्रयत्न करेगा, वह जरुर सफल होगा ! जिस प्रकार प्रयोग-शाला में सही प्रयोग करने से सभी को एक ही समान परिणाम प्राप्त होता है, उसी प्रकार इस प्रैक्टिकल फॉर्मूला के निष्फल होने की कोई सम्भावना ही नहीं है। किन्तु अपने चरित्रवान मनुष्य बन जाने के संकल्प पर मैं अटल कैसे रह पाउँगा ? चरित्र-गठन के अपने संकल्प पर अटल रहने के लिये भी एक अन्य वैज्ञानिक फॉर्मूला या सूत्र है। 
ऑटो-सजेशन: चमत्कार जो आप कर सकते हैं !"
" मैं दृढ़ता के साथ यह प्रतिज्ञा करता हूँ कि मैं एक चरित्रवान मनुष्य बनूँगा, क्योंकि केवल इसी प्रकार मैं जगत का सर्वाधिक कल्याण करने, और अपनी मातृभूमि भारतवर्ष को सुन्दर रूप से गढ़ने में सहायता कर सकता हूँ। तथा अपना भी सर्वाधिक कल्याण, मैं केवल चरित्रवान मनुष्य बन जाने के बाद ही कर सकता हूँ। क्योंकि चरित्र-बल के बिना व्यवहारिक जगत में या जीवन के अन्य किसी भी क्षेत्र में सफलता प्राप्त करना संभव ही नहीं है।" 
" मैं जानता हूँ कि मैं स्वयं को एक चरित्रवान मनुष्य के साँचे में ढाल सकता हूँ। इसी लिये इस उद्देश्य को सिद्ध करने के मार्ग में आने वाले किसी भी बाधा या विघ्न के प्रति कभी ढिलाई नहीं आन दूंगा; तथा धैर्य और अध्यवसाय के साथ बिना आलस्य किये इस उद्देश्य के सिद्ध हो जाने तक निरन्तर प्रयत्न करता रहूँगा; लक्ष्य प्राप्त किये बिना मैं विश्राम नहीं लूँगा ! मैं अवश्य सफल होऊंगा, क्योंकि मैं अपने सामर्थ्य में पूर्ण विश्वास रखता हूँ ! "  
उपरोक्त कथन को पत्येक व्यक्ति एक कागज पर लिखिये तथा उसके नीचे अपना हस्ताक्षर करके आज की तारीख डाल दीजिये। अपने आप से की गयी  इस वचनबद्धता को प्रतिदिन कई बार पढिये, विशेष रूप से रात में सोने से पहले तथा सुबह नीन्द से उठने के तुरन्त बाद बहुत ध्यान पूर्वक पढिये, तथा आपने जो प्रतिज्ञा की है उसको साकार करने के कार्य में जुट जाइये।
आप देखेंगे कि केवल छः महीनों में ही आपका चरित्र पहले से अच्छा बन गया है, और आपका आत्मविश्वास बहुत बढ़ चूका है। इस प्रक्रिया की सफलता के सम्बन्ध में कोई सन्देह ही नहीं है, आप इसका परिक्षण करके स्वयं देख सकते हैं। इस प्रक्रिया को अपनाने से सुन्दर चरित्र बनता ही है-यह कोई चमत्कार नहीं है। यह एक ऐसा प्राकृतिक नियम है, जो आपकी आज्ञा का पालन करने को बाध्य है। चरित्र-गठन के कार्य को हमें स्वयं करना है, इसके लिये हमलोगों को दृढ़ संकल्प लेना होगा, तथा इस संकल्प पर अटल रहने के लिये अध्यवसाय के साथ प्रयत्न करते रहना होगा।
अतः चरित्रवान मनुष्य बनने के लिए पहला कार्य है- संकल्प को गहरा (inveterate) बना लेना!  क्योंकि तभी तो हमलोग इस कार्य में आगे बढ़ पायेंगे। सबसे पहले पूँजी (Capital) रहना चाहिये, तभी तो उसे अपने व्यापार में निवेशित करूँगा। उसी प्रकार चरित्र-निर्माण के लिये उद्यम करना हो, तो उसकी पूँजी क्या होगी ?- यही  चरित्रवान मनुष्य बनने का दृढ़ संकल्प तथा चरित्र-निर्माण पद्धति को कार्यान्वित करने का सामर्थ्य! केवल एक ही कार्य (संकल्प गहरा करने) पर रुक जाने से काम नहीं चलेगा, चरित्र-गठन में सफलता प्राप्त होने तक, निरन्तर प्रयास जारी रखना होगा, तभी तो मेरा सुन्दर चरित्र-गठित हो पायेगा। 

१०. मन की भूमि (चित्त) में सद्विचारों के बीज बोने हैं : 
 यहाँ सारी चर्चा मन के विषय में ही हो रही है। क्योंकि इच्छा, विचार या दृढ़ संकल्प आदि मन के साथ जुड़े हुए विषय हैं। और मन हमलोगों का दास है, हमलोग मन के दास नहीं हैं; उसे हमारी आज्ञा का पालन अवश्य करना चाहिये। किन्तु मन का स्वाभाव ऐसा है, कि वह अपने मालिक को ही, हमलोगों को ही, अपना दास बनाने का प्रयत्न करता है। अब हमलोगों को इसका उल्टा करना होगा, मन को अपना दास बना लेना होगा। किन्तु यह कैसे करूँगा ?
पहले ही हमलोग यह जान चुके हैं कि चरित्र गठन करने में मन की सहायता लेनी ही पड़ेगी। इसके लिये मन को अपने वश में रखने या अपने नियंत्रण (control) में रखने की बात भी कही गयी है। मन को संयमित करना होगा, उसको एकाग्र करने का अभ्यास करना होगा। एकाग्रता का नियमित अभ्यास करने से असंशय (assuredness, स्वावलम्बन का भाव) आयेगा, आत्मविश्वास आयेगा, तथा प्रतिमुहूर्त इसी कार्य में लगे रहने की क्षमता भी प्राप्त होगी।(वैराग्य का फाटक लगाकर,चित्तनदी के प्रवाह की दिशा को निरन्तर अंतर्मुखी बनाये रखने की शक्ति प्राप्त कर सकेंगे।) यह कोई धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है। 
वर्तमान युग में इस विज्ञान को Psychology या मनोविज्ञान कहते हैं। किन्तु हमारे देश में यह बहुत प्राचीन समय से विद्यमान था। इस विषय का  सबसे प्रमाणिक ग्रन्थ है, ऋषि पतंजली रचित अष्टांग-योग, या योग-सूत्र। मन को इन्द्रिय विषयों में जाने से रोक कर उसे वश में लाकर, उसे अपने लिये उपयोगी कैसे बनाया जाता है, उसकी पद्धति को इस ग्रन्थ में सूत्र-बद्ध किया गया है। इसी मनोवैज्ञानिक (Psychological ) अथवा वैज्ञानिक पद्धति (Scientific Method ) के द्वारा हमलोग अपना चरित्र गढ़ने के लिये एक महती इच्छाशक्ति (Will -Power ) का निर्माण करेंगे, इससे अपने निश्चय (Resolution या संकल्प) पर अटल रहने की शक्ति प्राप्त होगी, और निरन्तर प्रयासरत रहने का सामर्थ्य भी प्राप्त होगा। 
हमलोग चरित्र के अच्छे अच्छे गुणों (आत्मश्रद्धा, निर्भीकता, निःस्वार्थता,त्याग और सेवा आदि) के विषय में जानकारी प्राप्त करेंगे तथा मन की सहायता से उन गुणों को अर्जित करने अर्थात अभिव्यक्त करने की कोशिश (उद्यम ) करते जायेंगे। एकदम साधारण सी बात है, बिल्कुल प्रैक्टिकल प्रोसेस है; कोई भी व्यक्ति घर बैठे इसका प्रयोग करके देख सकता है। इसके लिये जंगल जाने या गुफा में बैठने की कोई जरुरत नहीं है। (चरित्र कोई जंगल-बियाबान में बैठकर पकाने वाली वस्तु नहीं है, समाज परिवार में रहते हुए ही इसका निर्माण करना पड़ता है।) इसका परिणाम होगा एक सुन्दर चरित्र ! मन की भूमि (चित्त) में सद्विचारों के बीज बोने से, केवल सद्कर्म ही करूँगा जिसका परिणामी पैदावार (भरपूर फसल) होगा-मेरा सुन्दर चरित्र! बीज के अनुसार फल मिलेगा ही मिलेगा, प्राकृतिक नियम है, होने को बाध्य है। जो कोई भी व्यक्ति चरित्र-निर्माण के इस वैज्ञानिक पद्धति का प्रयोग करेगा, उसका चरित्र अवश्य सुंदर होगा, अच्छा हुए बिना रह नहीं सकता।  
जैसे ही कोई विचार बुल बुले के रूप में चित्त-भूमि से उपर उठने की कोशिश करेगा, या कोई भी शब्द जुबान पर लाने से पहले, हरेक गतिविधि या किसी भी कार्य को करने के पहले, संकल्प और पूरे आत्मविश्वास के साथ विवेक-प्रयोग करके यह देखने कि कोशिश करूँगा कि मेरे उस विचार,शब्द, या कार्य से मेरा और दूसरों का कल्याण होगा या नहीं ? उससे मेरे हृदय में सिंह जैसा बल प्राप्त होगा या नहीं?  इस बात को भली-भाँति समझ लेने के बाद ही उस प्रकार से कुछ सोचूंगा, या कोई शब्द कहूँगा या कोई कार्य करूँगा। यदि मैं निरन्तर मन-वचन-कर्म में विवेक-प्रयोग करने में समर्थ बन सकूँ, तो मेरा चरित्र अच्छा हुए बिना रह ही नहीं सकता। और इसी प्रकार 'विवेक-प्रयोग' की चेष्टा सभी युवा भाई करते रहें, तो देश का कल्याण हुए बिना रह नहीं सकता। 
(कोई किसी को ' विवेक-प्रयोग ' सिखा नहीं सकता, स्वयं को सिखाना चाहिये, विवेक-प्रयोग के बाद ही कुछ सोचने-बोलने-करने की ) सरल वैज्ञानिक-पद्धति सामने रख दी गयी है, अब यह पूरी तरह से मुझपर निर्भर करता है कि मैं इसे प्रयोग में लाता हूँ या नहीं ? इस तथ्य को हमें कभी भूलना नहीं चाहिए कि यदि हम इसे प्रयोग में नहीं अपनायें, तो अन्य किसी भी उपाय से समाज का कोई भला होना असम्भव है। इस पद्धति को प्रयोग में लाने से हममें से प्रत्येक का जीवन भी सुन्दर, सम्पूर्ण, सार्थक और कल्याणकारी होगा। यदि विवेक-प्रयोग को अभ्यास में नहीं उतारा गया, तो मनुष्य-जीवन विफल हो जायेगा, और समाज भी दुःख में डूबा रहेगा। यदि मैं अपने सभी सगे-सम्बन्धियों को, समाज और देश को प्यार करता हूँ, यदि स्वयं से भी सच्चा प्रेम करता हूँ, तो मैं आज और अभी से ही, अपना सुन्दर चरित्र गढ़ने के लिये बिना आलस्य किये परिश्रम करता रहूँगा, तथा मनुष्य जीवन के स्वाद को चख कर स्वयं धन्य होऊंगा, तथा दूसरों के जीवन के दुःख को अपने सुन्दर चरित्र के द्वारा हटाने के कार्य में न्योछावर कर सकूँगा। 
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 [व्यक्ति ही समाज की आधारशिला रखता है । व्यक्ति जैसा होता है समाज भी वैसा ही होता है। व्यक्ति की विचारधारा ही समाज की दिशा तय करती है । एक समय था । परिवार में एक व्यक्ति कमाता था और सारे उनपर निर्भर होते थे, सुखशान्ति थी । आज परिवार का हर व्यक्ति कमाता है, फिर भी वैसी सुखशान्ति थोड़ा भी है क्या? ज्यादा से ज्यादा धन कमाने के चक्कर में व्यक्ति नैतिकता से काफी दूर होता जा रहा है। पहले व्यक्तित्व का निर्धारण गुणों के आधार पर होता था मगर आज धन के आधार पर होने लगा है। अतः यदि परिवार और समाज को फिर अच्छा बनाना हो, समाज या परिवार की बुनियाद व्यक्ति के चरित्र-निर्माण द्वारा व्यक्ति का सुंदर जीवन-गठन करना होगा।  व्यक्ति का जीवन अच्छा होने से परिवार का जीवन सुंदर होगा। सुंदर-चरित्र सम्पन्न व्यक्तियों का समाज ही महान होगा। जब हमारा समाज महान बन जायेगा, वहाँ -हत्या,नारी अपमान, भ्र्ष्टाचार जैसे अपराध नहीं होंगे और हमारा देश महान बन जायेगा। तब हमारी भारत-माता पुनः विश्वगुरु के सिंहासन पर विराजमान हो जायेंगी । समाज को बुरे लोग खराब नहीं कर रहे हैं बल्कि अच्छे लोगों की निष्क्रियता खराब कर रही है। जितने भी देश-भक्त युवा हैं, उन सबों को इस 'मनुष्य बनो और मनुष्य बनाओ' आन्दोलन 'BE AND MAKE' से बिना देर किये जुड़ जाना चाहिये ! 
मनुष्य जैसी इच्छा और जैसा संकल्प करने लगता है, वैसा ही आचरण करता है और जैसा आचरण करता है फिर वैसा ही बन जाता है। जिन बातों का बार-बार विचार करता है, धीरे-धीरे वैसी ही इच्छा हो जाती है, फिर उसी के अनुसार वार्ता, आचरण, कर्म करता है और कर्मानुसारिणी गति होती है। स्पष्ट है कि अच्छे आचरण एवं चरित्र के लिए अच्छे विचारों को लाना चाहिए। बुरे कर्मों को त्यागने से पहले बुरे विचारों को त्यागना चाहिए। जो बुरे विचारों का त्याग नहीं करता वह बुरे कर्मों से छुटकारा नहीं पा सकता, फिर बुरे कर्मों की आदत पड़ जाती है। आदत जब बहुत पक्का हो जाता है, वह हमारी प्रवृत्ति बन जाती है। और प्रवृत्तियों के समूह को ही चरित्र कहते हैं। और कर्म का आधार विचार है। अतः पहले अपने विचारों को शुद्ध कर के सद्प्रवृत्तियों का निर्माण करना होगा और वशीभूत मन के द्वारा असद प्रवृत्तियों को निकाल बाहर करना होगा।] 



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