बुधवार, 7 नवंबर 2012

महाप्राण (सुप्रीम पावर-जगदम्बा ) की स्पर्श-प्राप्ति ! स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [34] (जीवन-गठन की निर्माण-सामग्री),

ब्रह्मचर्य पालन के द्वारा - 'जीवेम  शरदः शतम्' !  
राजयोग के मतानुसार सारे पदार्थ आकाश में और सारी ऊर्जा प्राण में समाहित है। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में एक ही आकाश है, तथा एक ही प्राण है। प्राण सर्वत्र समाहित है, सार्वभौमिक है। आकाश के उपर प्राण की लीला (क्रिया) होने से यह चराचर विश्व-ब्रह्माण्ड अभिव्यक्त हो गया है। उसी प्राण-शक्ति को जाग्रत करने की पद्धति ही राजयोग की गुह्य प्रक्रिया है। और प्राणायाम का अभ्यास करने से वह शक्ति जाग्रत हो जाती है। व्यक्ति को इसी विश्व-व्यापिनी शक्ति या प्राण-उर्जा के साथ जोड़ देना ही प्राणायाम का उद्देश्य है। किन्तु नाक दबाने से ही कोई शक्ति प्राप्त नहीं होती। यह केवल प्राण-वायु के संयम (रेचक-पूरक-कुम्भक) के अभ्यास के द्वारा भीतर की शक्ति को बढ़ाने की एक यांत्रिक प्रक्रिया है। वह अनन्त शक्ति जो सर्वगत या वुश्व-व्यापिनी है, वही शक्ति इस छोटे से मनुष्य शरीर के भीतर स्वाभाविक प्राण के रूप में अवस्थित है। प्राणायाम की प्रक्रिया उसी प्राण-शक्ति को नश्वर शरीर के भीतर पकड़ने की चेष्टा मात्र है। शरीर के प्रत्येक कोष में वही प्राण अवस्थित है। योगी दीर्घ अभ्यास के द्वारा इस प्राण को इतने करीब से जानते हैं, कि शरीर में कहीं भी (किसी भी कोष में)  इस प्राण के आभाव से रोग हो जाने पर वे स्वतः रोग-मुक्त हो जाते हैं तथा लम्बी आयु का भोग करते हैं।
लम्बी आयु या दीर्घ जीवन प्राप्त करने का उद्देश्य ही उस महाप्राण का (महत्-तत्व का) स्पर्श प्राप्त करना है। दीर्घ-जीवन अर्थात लम्बी आयु प्राप्त करने का इसके अतिरिक्त कोई दूसरा उद्देश्य नहीं हो सकता। वेद-उपनिषदों में प्रार्थना की गयी है कि स्वस्थ और सबल शरीर लेकर हमलोग उस शास्वत-जीवन का स्पर्श पाने के लिये हमलोग सौ वर्षों तक जीवित रह सकें। इस जगत के क्षणिक सुखों (कामुकता और कमाई) को भोगने के लिये दीर्घ-जीवन पाने की प्रार्थना नहीं की जाती है। किसी प्रिय नेता के जन्म-दिवस पर प्रार्थना की जाती है- "जीवेम शरदः शतम् -(अथर्ववेद/१९/६७/२) अर्थात आप राष्ट्र की सेवा करने के लिए सौ शरद ऋतु तक जीयें यानि हम सौ वर्ष तक जीयें,और आपके सभी प्रयासों में ईश्वर आपको अच्छा स्वास्थ्य और  सफलता प्रदान करें !] 
निम्नतम जीवों से लेकर देवत्व जैसी उच्च अवस्था तक सभी अवस्थायें उसी प्राण की विभिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं। इसी जन्म में उस प्राण-शक्ति को पूर्णतया अभिव्यक्त करने में सफल होना ही जीवन का उद्देश्य है। यदि हमलोग महा-जीवन या ब्रह्माण्ड-व्यापिनी शक्ति (महत्-तत्व) के साथ युक्त होने की चेष्टा न कर केवल शरीर तथा मन के भौतिक सुखों में (लस्ट ऐंड लूकर) ही व्यस्त रहें, तो फिर हमलोग अपने शरीर और मन को स्वस्थ तथा निरोग रखने की चाहे कितनी भी चेष्टा करे वे सारे प्रयास व्यर्थ ही सिद्ध होंगे। इसीलिये हमें अपने दैनंदिन जीवन से जुड़े समस्त विचारों, वाणी और कर्मों को एक-मुखी बनाना आवश्यक होगा। इसी विश्व-जीवन को पकड़ने, समझने, विकसित करने में, जितना समय लगता है, उस समय को कम करने के कौशल को सिखाना ही-राजयोग का विवेच्य विषय है। साधारणतः यह प्रयास असम्भव प्रतीत होता है, किन्तु प्राण-शक्ति की अभिव्यक्ति होने से वह अत्यन्त सहज (१०० वर्ष के भीतर ही संभव हो  जाती है।
उसी महाशक्ति को अभिव्यक्त करने, या महाजीवन से जुड़ जाने के उद्देश्य (माँ की गोदी में लौट जाने के उद्देश्य से) ओर केवल ब्रह्म को जानने के मार्ग में मन-वचन-कर्म से अग्रसर होते रहने को ही-- ब्रह्मचर्य कहते हैं। शारीरिक, मानसिक, वाचिक शक्ति को व्यर्थ में बर्बाद होने से रोक कर, सम्पूर्ण शक्ति को एक ही उद्देश्य में नियोजित रखने से इस कार्य में सिद्धि प्राप्त होती है। अपने जीवन में हमलोग महाशक्ति (अनन्त ऊर्जा - जिससे सारी शक्तियाँ निकली हैं) के साथ खेल कर रहे हैं। किन्तु अनावश्यक रूप से शक्ति का अपव्यय करते रहना शक्ति का दुरूपयोग करना है। शक्ति का दुरूपयोग करने को ब्रह्मचर्य-पालन कैसे कह सकते हैं ? 
[ब्रह्मचर्य पालन की दिशा में अग्रसर होने के लिए] सबसे पहले हमलोग नियमित व्यायाम और पौष्टिक आहार के द्वारा अपने शरीर को स्वस्थ और सबल रखने की चेष्टा करेंगे। इसके साथ-साथ हमलोग अपने शरीर और मन की सभी प्रकार की शक्तियों का असंयमित या अतिरंजित खर्च भी नहीं होने देंगे। शक्ति का सदुपयोग करने के लिये विवेक-प्रयोग करना अनिवार्य होता है, इसीलिये हमलोग मन को अपने वश में या नियंत्रण में रखने का नियमित अभ्यास करेंगे! अर्थात अपने मन-वचन-कर्म को यूनिडायरेक्शनल रखने का निरन्तर प्रयत्न करते रहेंगे। इसके लिये अपने मन को - निरन्तर विचारों, शब्दों और शरीर के प्रत्येक गतिविधियों के भीतर एकाग्र और एकमुखी बनाये रखने का अभ्यास करना होगा। यदि हमलोग दिन-रात अपने मन को नियंत्रण में रखने की चेष्टा नहीं करके, केवल सुबह-शाम कुछ ही मिनटों तक एकाग्र रखने प्रयत्न करके चुप बैठजायेंगे, तो उतने से कुछ नहीं होगा।
अंग्रेजी कहावत है - थॉट इज पॉवर ! किन्तु अपवित्र विचारों की शक्ति भी, पवित्र विचारों के समान ही प्रचण्ड होती है। इसीलिये हर समय, रातदिन- पवित्रता का विचार, आन्तरिक आनन्द या 'विवेकज -आनन्द' का चिन्तन करते रहना होगा। मैं पवित्रता स्वरूप हूँ, मैं आनन्द स्वरुप हूँ, इसी बात के उपर विचार करते रहना होगा। इसके लिये किसी पवित्र वस्तु को, जैसे पवित्रता  की प्रतिमूर्ति है, स्वामी विवेकानन्द का चिन्तन करना अधिक सुविधा जनक है। स्वामीजी का शरीर पवित्रता का एक मूर्तमान विग्रह है, ऐसा मान कर उनकी मूर्ति के उपर हमलोग अपने मन को एकाग्र कर सकते हैं। 
[पतंजलि योगसूत्र (१.१२) अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः ॥१२॥ को अधिक स्पष्ट करते हुए व्यास-भाष्य  में कहा गया है - "तत्र वैराग्येण विषयस्रोतः खिलीक्रियते विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत उद्घाट्यते।  इति उभय अधीनः चित्तवृत्तिनिरोधः = इस प्रकार (इति) चित्तवृत्तिनिरोधः (चित्त की स्वाभाविक चंचलता और बहिर्मुखी प्रवृत्ति, अर्थात विषयों में दौड़ने वाली प्रॉपेनसिटी का दमन या संशोधन, वैराग्य या लालच का  त्याग और विवेक-दर्शन (डिस्क्रिमनेशन) अर्थात (बुद्धि-पुरुष विवेक या शास्वत-नश्वर को पहचानने की क्षमता) दोनों के अभ्यास पर निर्भर है। ] 
इस प्रकार मन को एकाग्र रख सकने पर, उसको एकमुखी बना लेने पर हमारे शरीर और मन की शक्ति का दुरूपयोग अवश्य रुक जायेगा। तब महाशक्ति का या महाप्राण का स्पर्श प्राप्त करना हमलोगों के लिये भी कोई असंभव कार्य नहीं रह जायेगा। 
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[अथर्ववेद की १९ वें खंड के ६७ वें सूक्त में एक ऋषि प्रार्थना करते हैं - हमें पूर्ण स्वास्थ्य के साथ सौ वर्ष का जीवन मिले, और यदि हो सके तो सक्षम एवं सक्रिय इंद्रियों के साथ जीवन उसके आगे भी चलता रहे । अवश्य ही सौ वर्षों की आयु सबको नहीं मिलती होगी । इसीलिए सौ वर्ष की आयु को एक मानक के रूप में देखते हुए उसे चार बराबर आश्रमों (ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास) में भी वैदिक चिंतकों ने बांटा होगा। पश्येम शरदः शतम् !!१!! इसका अर्थ है हम सौ शरदों को देखें अर्थात सौ वर्षों तक हमारी नेत्र इन्द्रिय स्वस्थ रहे I जीवेम  शरदः शतम् ।।२।। हम सौ शरद ऋतु तक जीयें यानि हम सौ वर्ष तक जीयें I बुध्येम शरदः शतम् ।।३।। सौ वर्ष तक हमारी बुद्धि सक्षम बनी रहे अर्थात मानसिक तौर पर सौ वर्षों तक स्वस्थ रहे I रोहेम शरदः शतम् ।।४।। सौ वर्षों तक हमारी वृद्धि होती रहे अर्थात हम सौ वर्षों तक उन्नति को प्राप्त करते रहे I पूषेम शरदः शतम् ।।५।। सौ वर्षों तक हम पुष्टि प्राप्त करते रहें, हमें अच्छा भोजन मिलता रहे।]
 [ स्वामी विवेकानन्द ने कहा है- ब्रह्माण्ड के सभी पदार्थ उस एक प्रारम्भिक पदार्थ के परिणाम हैं, जिसे आकाश कहते हैं. इसी तरह, सभी बल, चाहे वह गुरुत्वाकषर्ण हों, आकषर्ण-विकषर्ण हों या जीवन हो; वे सब एक ही प्राथमिक बल के परिणाम हैं, जिसे हम प्राण कहते हैं। आकाश-प्राण की यह जोड़ी बड़ी रम्य है।  प्राण ऊर्जा ही गतिशील होकर आकाश में सृष्टि रचती है। पहले सृष्टि का आदि तत्व आकाश निष्क्रिय है।  प्राण में स्पंदन हुआ, गतिशील हुआ, उसकी ऊर्जा के कारण ही सूक्ष्म से स्थूल का विकास हुआ।  पृथ्वी आदि अस्तित्व में आए।  सृष्टि के चरम विकास के बाद प्रलय होता है। तब सब कुछ सूक्ष्म से सूक्ष्मतर होकर अपने मूल आकाश और प्राण में समाहित हो जाते हैं।  सारे पदार्थ आकाश में और सारी ऊर्जा प्राण में।]       

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