शुक्रवार, 30 नवंबर 2012

'शक्ति हमलोगों के भीतर है!' ('तत् अस्ति '- इति ब्रुवतः) [ स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना' [45] (7 व्यवहारिक जीवन में आध्यात्मिकता),

  " स्वयं को सुनाते रहो -अस्तिति ध्रुवतः"
मनुष्य-मात्र  के भीतर अनन्त ज्ञान, शक्ति और पवित्रता विद्यमान है, और यही हमलोगों का यथार्थ स्वरूप, दैवत्व या ब्रह्मत्व है। जिस व्यक्ति को हमलोग अत्यन्त नीच, दुष्ट या घोर-पापी समझते हैं, उसके भीतर भी वही  'अनन्त ज्ञान, शक्ति और पवित्रता' ठीक उतने ही परिमाण में विद्यमान है। किसी महापुरुष तथा किसी दुराचारी व्यक्ति में मात्र इतना ही अन्तर है कि महापुरुष के भीतर का देवत्व, आवरण को चीर कर पूर्ण रूप में प्रकाशित हो गया है, और दूसरे के भीतर वह घने आवरण में आवृत है।
 यह आवरण चाहे जितना भी घना हो, मनुष्य ने कितना भी नीच कर्म क्यों न किया हो, कितना भी गन्दे विचारों वाला हो, उससे उसकी अन्तर्निहित दिव्यता या ब्रह्मत्व कभी विलुप्त नहीं होता, बल्कि अधिकतर आवृत हो जाता है। जगत में ऐसा कोई नीच कर्म नहीं है, जिसे कर बैठने से मनुष्य हमेशा के लिये नष्ट हो जाता हो। जिस क्षण मनुष्य अपने अन्तर्निहित देवत्व के प्रति सचेत हो जायेगा, परिचित हो जायेगा कि ' ओह ! यह 'देवत्व' ही मेरा यथार्थ स्वरूप है ' - ऐसा बोध जिस क्षण जाग्रत हो जायेगा, उसी क्षण से उस ब्रह्मत्व की अभिव्यक्ति होने लगेगी।
स्वामी विवेकानन्द के समग्र सन्देशों का प्रधान राग है - ' हे मानव, अपने अन्तर्निहित देवस्वरूप के प्रति सचेत हो जाओ, उसे अभिव्यक्त करने के मार्ग पर अभी से ही चलना प्रारंभ कर दो, और उसको पूर्ण रूप से विकसित करने से पहले विश्राम मत लो !' हमलोगों के प्रत्येक वचन में, कार्य में और विचार में यदि इस देवत्व की अभिव्यक्ति होने लगे तभी यह कहा जा सकता है कि हमने देवत्व के भाव को चरित्रगत कर लिया है।  इस अन्तर्निहित दिव्यता को विकसित करने के लिये विभिन्न परिवेश, विभिन्न परिस्थितियों  में अवस्थित व्यक्तियों के लिये जैसा मार्ग उपयोगी हो सकता है, स्वामी विवेकानन्द ने उसी मार्ग का उपदेश दिया है।

स्वामी विवेकानन्द के मार्गदर्शन का प्रधान स्वर,  चाहे परिवार या समाज में परस्पर सौहार्द्य पूर्ण सम्बन्ध बनाये रखने का क्षेत्र में उनका मार्गदर्शन हो, अथवा  समाज और देश-सेवा का कोई क्षेत्र हो, शिक्षा के क्षेत्र हो , या जीवन का कोई भी कार्यक्षेत्र हो , सर्वत्र उनका एक ही उद्घोष सुनाई पड़ता है - ' तुम्हारे और दूसरों के भीतर  एक ही ईश्वरत्व या दिव्यता (Divinity) समान रूप से अन्तर्निहित है- इस ज्ञान को जाग्रत रखते हुए,  समस्त व्यव्हार करना होगा। 
स्वामी जी ने कहा है , " होश में रहकर कर्म करो।"  दूसरों के साथ (परिवार के विभन्न सदस्यों या समाज के लोगों के साथ) व्यवहार करते समय, हमलोग मन-वचन-कर्म से  प्रत्येक चेष्टा इस प्रकार करेंगे  मानो हम अभी और इसी समय उनके अन्तर्निहित दैत्व को हम साक्षात् देख रहे हों- दूसरों में अन्तर्निहित दैवत्व के प्रति सदैव सचेत होकर व्यहार करने से -अपना दैवत्व अभिव्यक्त होने लगता है। (सदैव श्रीकृष्ण के समान मुस्कुराते हुए बोलने का अभ्यास करने से हमारा अंतर्हित कृष्णवत्व अभिव्यक्त होने लगता है ! ) विवेकानन्द ने के कई छोटे छोटे महावाक्यों में अपना उपदेश दिया है, जैसे -- ' कर्म को पूजा में रूपान्तरित करो।', 'अन्तर्निहित पूर्णता की अभिव्यक्ति (manifestation) का नाम शिक्षा है ' , अन्तर्निहित ईश्वरत्व (कृष्णत्व या Divinity) की अभिव्यक्ति का नाम धर्म है ', ' शिवज्ञान से जीव की सेवा करो', ' बनो और बनाओ ' --आदि आदि ! किन्तु उनके समस्त महावाक्यों का लक्ष्य एक ही है।  उनकी दृष्टि में-'सच्ची शिक्षा और सच्चे धर्म में कोई अन्तर नहीं '।  क्योंकि पूर्णता (Perfection) और ईश्वर  ( Divinity) एक ही वस्तु है। 
 'मनुष्य स्वरूपतः अनन्त शक्ति-ज्ञान-पवित्रता की मूर्ति है' - इसी दृष्टि से देखकर ही उन्होंने मानव-मात्र को "अमृतस्य पुत्राः  -- हे, अमृत के सन्तान !" -कहकर पुकारा था। उन्होंने कहा था- यदि जगत में पाप नामक कोई चीज है, तो मनुष्य को ' को कमजोर, छोटा, मूर्ख, बेईमान, भ्रष्ट या पापी कहना  ही सबसे बड़ा पाप है।
जो भी क्षणिक मानवीय दुर्बलता मनुष्य को,
उसकी देवस्वरूपता, शक्ति-ज्ञान-पवित्रता  को,  ' मैं नित्य-शुद्ध-बुद्ध-मुक्त स्वभाव-आत्मा हूँ !, इस सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड में ऐसा कुछ नहीं है जिसका भय मुझे हो, यहाँ ऐसा कुछ नहीं है-जो मुझ अजर-अमर आत्मा को डरा सके ' -- इस बोध से मनुष्य को दूर हटा देती हैं - वह दुर्बलता ही पाप है।
 [पाप = मानवीय दुर्बलता=भेंड़त्व, 'चित्त' में संचित जन्म-जन्मान्तर के पाशविक कर्म-संस्कार को, चित्त-वृत्ति को 'स्वयं '(सिंहत्व -स्वरूप) से बड़ा समझ लेने के भ्रम से, देह को ही 'मैं ' मान लेने के कारण मनुष्य में जो इन्द्रिय-परायणता और स्वार्थपरता आ जाती है]
अन्तर्निहित दिव्यता की, पवित्रता की, ज्ञान और विवेक-प्रयोग के शक्ति  की अभिव्यक्ति जितनी अधिक होने लगेगी, हमलोग अपने स्वरूप के प्रति जितना अधिक सचेत रहने लगेंगे, उतना ही हमलोग एक मनुष्य, एक इंसान के रूप में क्रमशः अधिक से अधिक उन्नततर (उत्कृष्टतर) होते जायेंगे। इसी दृष्टिकोण को अपनाने से कोई छात्र एक उत्तम कोटि का छात्र बन सकता है, कोई शिक्षक और अधिक अच्छा शिक्षक बन सकता है, कोई समाजसेवी और अधिक अच्छे समाजसेवी बन सकते हैं, कोई मछुआरा (fisherman) और अधिक कौशल से मछली पकड़ सकता है। विभिन्न व्यवसायों में लगा प्रत्येक व्यक्ति अपने अपने व्यवसाय को और अधिक कौशल के साथ संचालित करने की योग्यता अर्जित कर सकता है, और इसी प्रकार घर-गृहस्थी में रहते हुए भी मनुष्य शारीरिक, मानसिक और अध्यात्मिक रूप से उत्कृष्टतर मनुष्य बन सकता है। इसीलिये, स्वामी विवेकानन्द ने कहा था, देश में कोई भी नया सामाजिक और राजनैतिक आन्दोलन प्रारंभ करने के पहले, सम्पूर्ण देश को अध्यात्मिकता के ज्वार से  प्लावित करा देना होगा। भारत की राष्ट्रिय संरचना आध्यात्मिकता पर ही आधारित है, इसीलिये वह इसी के बुनियाद पर अपनी समाजिक और आर्थिक व्यवस्था भी संचालित कर सकता है। देश के बुनियादी ढाँचे को विलुप्त करके, अन्य किसी भाव (साम्यवाद, धर्मनिरपेक्षवाद ....) की बुनियाद पर जनकल्याण की चेष्टा करने से, उसका कोई विशेष फल नहीं होगा। क्यों नहीं होगा? आइये इसी बात पर गौर किया जाय।
स्वामीजी ने जिस आध्यात्मिकता की बाढ़ में भारत को प्लावित कर देने का आह्वान किया है, जिसे हमारे राष्ट्र की प्राण-शक्ति कहा है, वह आध्यात्मिकता वास्तव में है क्या चीज? इस बात पर विश्वास करना कि- 'प्रत्येक मनुष्य का स्वरूप आत्मिक है'- इस सत्य को अपने अनुभव से जान लेना तथा इसी दृढ़ आत्मविश्वास के चलना-बोलना समस्त व्यवहार करना। हमलोगों का स्वरूप आत्मिक है-इसका अर्थ हुआ, हमलोग   केवल शरीर मात्र नहीं हैं,और 
ऐसा भी नहीं है कि हमलोगों का मन भी शरीर का ही एक विकसित अंश नहीं है। किन्तु आमतौर से सभी पढ़े-लिखे लोग भी अपने को 'शरीर और मन ' का एक संयोजन मात्र 
('Body and Mind' complex) ही समझते हैं। फिर यदि इसके साथ साथ यह धारणा भी घर कर गयी हो कि मन तो केवल देह का ही विकास मात्र है; तब तो देह के नितान्त क्षणभंगुर होने के कारण हमलोगों का सम्पूर्ण अस्तित्व और स्थायित्व बहुत सीमित (ससीम) हो जाता है। 
किन्तु जब हम अपने को 'आध्यात्मिक' (आत्मिक या स्पिरिचूअल) कहते हैं, तब उसका अर्थ होता है, देह-मन नश्वर (मरणाधीन) होने से भी, हमारे भीतर कोई ऐसी वस्तु अवश्य है, जो नश्वर नहीं है, और जो सच्चिदानन्द (शक्ति-ज्ञान-पवित्रता ) स्वरूप है। इस बात को एक बार भी अपने अनुभव से जान लेने के बाद, हमलोग फिर अपने को कभी छोटा, दुर्बल, असहाय नहीं समझ सकते हैं। तथा, शक्ति-ज्ञान-पवित्रता जो हमारी निजी सम्पत्ति है, उन्हें प्रकाशित करने का प्रयत्न करते ही हमलोग महान, शक्तिशाली, साहसी और निर्भीक बन जाते हैं। 
जो ब्यक्ति अपने शक्तिमान स्वरूप को एकबार भी पहचान लेता है, जान लेता है, देख लेता है- वह सभी कुछ करने, जानने और सभी बाधा-विघ्नों का अतिक्रमण करने, और समस्त भय को पैरों के नीचे कुचल देने का साहस प्राप्त कर लेता है। ऐसा ही मनुष्य जीवन-संग्राम में विजयी हो सकता है, हताशा के अँधकार से आशा के उजाले में उत्तीर्ण हो सकता है, दुःख-दुर्दशा, गरीबी-अज्ञानता, शोषण से अपने को मुक्त कर सकता है। 
और जो मनुष्य स्वयं को ससीम क्षणभंगुर-'देह-मन ' की समष्टि मात्र समझता है, वह हमेशा अपने को कमजोर समझता है, इसीलिये परमुखापेक्षी बन जाता है। और  हर समय विभिन्न प्रकार के भय से आशंकित रहता है, अपने को कमजोर समझकर दूसरों से घृणा करता है, सन्देह करता है, हिंसा करता है, दूसरों का अस्तित्व मेरे अस्तित्व को बाधित कर सकता है, ऐसा सोंच कर हर दूसरे व्यक्ति, अन्य सभी को अपना प्रतिद्वन्द्वी और शत्रू समझता है। ऐसे व्यक्ति का दुःख-कष्ट कभी दूर नहीं होता।
और ऐसे हो मनुष्यों से निर्मित समाज का चेहरा कैसा हो सकता है ? थोड़ी कल्पना करने से ही स्पष्ट रूप में समझा जा सकता है। ऐसे समाज के जो लोग अगुआ या नेता होते हैं, वे भी मनुष्य की अन्तर्निहित शक्ति में विश्वासी नहीं होने के कारण, बाहर में शक्ति का अनुसन्धान करते हैं। विज्ञान में प्रगति के द्वारा मनुष्य के दुःख-कष्ट को दूर करने की चेष्टा के साथ ही साथ विध्वंशकारी हथियारों का जखीरा भी तैयार हो रहा है। इसीलिये आज 50,000 परमाणु बम इकट्ठा किये गये हैं, जिसकी शक्ति समग्र रूस और अमेरिका को 250 बार विनाश कर सकता है।
 किन्तु क्या ऐसी वैज्ञानिक प्रगति से मनुष्य के विवेक-शक्ति को भी जाग्रत कराया जा  सकता है ? यह क्या मनुष्य को असीम शक्ति का स्रोत, अनन्त ज्ञान का भण्डार बना सकता है ? रंग-भेद या छुआछुत को मिटा कर उन्हें पवित्र बना सकता है ? किन्तु प्रत्येक मनुष्य के भीतर वैसा बन जाने की सम्भावना है। और
यदि वह चेष्टा करे तो वैसा बन जाना, मनुष्य-मात्र के लिये संभव है। जब मनुष्य वैसा बन जायेगा, तो घृणा के बदले प्यार, सन्देह के बदले विश्वास, हिंसा के बदल में सौहार्द के बल पर वह सभी को भ्रातृत्व के बन्धन में संगठित कर सकता है; प्रतिद्वन्द्विता करने के बदले मनुष्य एक दूसरे का सहयोगी बन सकता है, जो पहले शत्रुता का भाव रखता था, उसे मित्र में परिणत किया जा सकता है। ऐसा अध्यात्मिक-बुद्धि सम्पन्न मनुष्य स्वार्थ की अपेक्षा परार्थ को, भोग की अपेक्षा त्याग को बड़ा समझता है, तथा शोषण करने की अपेक्षा सेवा करने में उसकी रूचि अधिक होती है। किसी दुर्बल व्यक्ति के उपर वह अघात नहीं करता, बल्कि उसे बलवान बनने के लिये उत्साहित करता है।
यदि हमलोग अपने देश के दुःख-कष्ट को दूर हटाना चाहते हों, तो सम्पूर्ण देश में ऐसी अध्यात्मिकता को जाग्रत करने वाले आन्दोलन को फैला देना होगा, इसका अर्थ है, सच्चे अर्थ में प्रत्येक व्यक्ति के भीतर आत्मिक-बुद्धि (मैं केवल शरीर मन नहीं, आत्मा हूँ !) को जागृत करना होगा। मनुष्य में आस्तिक्य-बुद्धि का उन्मेष करना होगा। मैं केवल 'देह-मन ' की समष्टि मात्र नहीं हूँ, मेरे भीतर अनन्त शक्ति, ज्ञान और पवित्रता है- इस बोध को ही सच्ची आस्तिकता या आस्तिक्य-बुद्धि सम्पन्न मनुष्य बनना कहते हैं।  इसको ही श्रद्धा कहते हैं; इस श्रद्धा या आस्तिक्य-बुद्धि को जागृत करना ही आध्यात्मिकता का प्रथम सोपान है। जब तक मनुष्य में यह श्रद्धा, आस्तिक्य-बुद्धि या आध्यात्मिकता का पुनरुत्थान (awakening) नहीं किया जाय,वह मनुष्य मोहनिद्रा से जाग नहीं सकता, और उसका कोई विकास होना भी संभव नहीं है। 

यदि सांसारिक उन्नति करने की इच्छा हो, तो उसके लिए भी इसी आध्यात्मिकता की आवश्यकता है। इसीलिये स्वामीजी ने सम्पूर्ण देश को आध्यात्मिकता के ज्वार से प्लावित कर देने का आह्वान किया है।
किन्तु यह श्रद्धा, आस्तिक्य-बुद्धि या आध्यात्मिकता-कोई ऐसी वस्तु नहीं है,जिसे किसी व्यक्ति को दे दी जा सकती हो। केवल इसका सन्देश सुनाया जा सकता है, स्वामीजी ने इसीलिये इस सन्देश को सुनाया है। 

वे कहते हैं- " अपने आप से कहते रहो, मैं वह हूँ-I am He ! I am He! ये शब्द तुम्हारे मन के कूड़े-करकट को भस्म कर देंगे, उससे ही तुम्हारे भीतर पहले से ही जो महाशक्ति निहित है, वह व्यक्त हो उठेगी, उससे ही तुम्हारे हृदय में जो अनन्त शक्ति सुप्त भाव से विद्यमान है, वह जग जाएगी। " (6/297) हममें से पत्येक व्यक्ति को स्वयं अपने भीतर इसी श्रद्धा, विश्वास और आस्तिक्य-बुद्धि को जगाना होगा। जो कोई भी व्यक्ति इस बात पर विश्वास कर लेगा कि मेरे भीतर अनन्त शक्ति है !! और जैसे ही डंके की चोट पर दूसरों को भी सुनाने लगेगा, वैसे ही उसकी अन्तर्निहित शक्ति जाग्रत हो उठेगी ! 
कठोपनिषद में यमराज-नचिकेता से यही बात कह रहे हैं- ' एतत् वै तत् नचिकेता ! यहि है वह तत्व, जिसके सम्बन्ध में तुमने पूछा था।'
अस्तीति ब्रुवतोऽन्यत्र कथं तदुपलभ्यते ।।कठोपनिषद/2/3/12 ।। 

'तत् अस्ति '= वह अवश्य है; इति ब्रुवतः  =इस प्रकार जो अन्तार्न्हित आत्मा की  घोषणा डंके की चोट पर करता है, अन्यत्र कथं उपलभ्यते = उसके अतिरिक्त दूसरे को (जो हमेशा म्याऊं म्याऊं करता रहता हो); -वह कैसे प्राप्त हो सकता है?
जो इस बात को डंके की चोट पर कहता है कि -'अस्तिति ध्रुवतः '- मेरे पास निश्चित रूप से है, उसी के पास यह शक्ति रहती है। जो व्यक्ति ऐसा कभी कहता ही नहीं, ' अन्यत्र कथं तदुपलभ्यते ' - उसको यह उपलब्धी कहाँ से होगी ?
नैव वाचा न मनसा प्राप्तुं शक्यो न चक्षुषा । वही।
अपनी उस अन्तर्निहित  दैवत्व (आस्तिक्य-बुद्धि) को वाणी से, न मन से, न चक्षु से ही प्राप्त किया जा सकता है, ‘वह अवश्य है ! और उसे प्राप्त करने की तीव्र इच्छा रखनेवाले को वह अवश्य मिलता है ! ' इस बात को जो नहीं कहता, अर्थात जिसका दृढ़ विश्वास नहीं है, उसको वह कैसे मिल सकता है ? ऐसा कहनेवाले के (कथन के) अतिरिक्त उसे अन्य किस प्रकार प्राप्त किया जा सकता है? और जैसे ही किसी व्यक्ति को इसकी उपलब्धी हो जाएगी, उस अनुभूति के बाद- उसके आँखों और चेहरे की रंगत बदल जाएगी, देह-मन में चैतन्य (consciousness) में विकसित होता रहेगा, शक्ति आएगी, और वह सभी बाधाओं का अतिक्रमण करके अपनी दुर्दशा का अन्त कर देगा। अपने जीवन को गढने के लिये, या देश का निर्माण करने के लिये दूसरा कोई उपाय नहीं है। शक्ति बाहर में नहीं है। समस्त शक्ति हमलोगों के भीतर ही है। 
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गुरुवार, 29 नवंबर 2012

समाज-सेवा का उद्देश्य क्या है ? सेवा-धर्म " [ स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [44] (7 व्यवहारिक जीवन में आध्यात्मिकता),

'मनुष्य' बनाने की चेष्टा करते करते हम स्वयं 'मनुष्य' बन जाते हैं ! 
जो वस्तु हमलोगों की अन्तर्निहित शक्ति को उन्मोचित कर देती है, जो मनुष्य को पशु-स्तर से मनुष्य के स्तर पर तथा मनुष्य से देवता के स्तर पर उन्नत कर देती है, उसी को धर्म कहते हैं। वर्तमान युग की आवश्यकता अनुष्ठानिक-धर्म पालन (शतकुण्डी-सहस्रकुण्डी यज्ञ अनुष्ठान) करने की नहीं है। बल्कि इस समय हमें इसी सच्चे धर्म, सेवा-धर्म का अनुशरण करने चेष्टा करनी होगी। जिस प्रकार की सेवा करने से अपनी उन्नति होने के साथ साथ दूसरों की भी उन्नति हो सकती हो, उसी प्रकार की सेवा कार्य करने की आवश्यकता है। (जिसके द्वारा मनुष्य अद्वैत आनन्द की अनुभूति करके, पशु-मानव से देव-मानव या यथार्थ मनुष्य बनने के लिये बाध्य हो जाता है) 
युवाओं के समक्ष जो पहला कर्तव्य है, वह है, अपने देह-मन और हृदय के सुमन्वित (अनुपातिक well-proportioned) विकास के लिये प्रयत्न करना। यदि मन को उन्नत करना चाहते हों, तो उसे नियन्त्रित और एकाग्र करना होगा। शरीर और मन की शक्ति को समाज के सार्वजनिक कल्याण के कार्यों में तब तक नहीं लगाया जा सकता, जब तक शरीर और मन को उन्नत बनाने के साथ साथ हृदय का विस्तार करने की भी चेष्टा न की जाये। 
प्रत्येक जीव को साक्षात् देवता (शिवजी) समझकर ही, समाज-सेवा का कार्य करना होगा। आमतौर से जैसी समाज सेवा चलती है वैसी सेवा द्वारा, शायद पूर्णतया निःस्वार्थ रूप में अपनी दैहिक, मानसिक और अध्यात्मिक उन्नति हम नहीं कर पायेंगे। किन्तु अपने देह, मन की उन्नति करने का उद्देश्य यदि सार्वभौमिक मंगल की कामना है, यह समझ यदि निरन्तर जाग्रत रहे, तो हमलोग दूसरों की सेवा करने के योग्य बन जायेंगे, और तब हमारी समाज-सेवा अपने क्षूद्र स्वार्थ (नाम-यश ) को पूर्ण करने कार्य में ही परिणत नहीं होगी। 
हमलोग अभ्यास-योग के द्वारा अपने देह, मन और आत्मा की उन्नति कर सकते हैं। ज्ञानयोग में विवेक-प्रयोग करके या नेति-नेति विचार करके, समस्त क्षणभंगुर या मिथ्या वस्तुओं को त्याग किया जाता है। राजयोग हमलोगों के मन के उपर पूर्ण अधिकार प्राप्त करने का उपाय बताता है। भक्तियोग कहता है-'मुझे ज्ञान-विचार या विवेक-प्रयोग' करने की क्या जरूरत है ? मेरा कार्य है, अपने हृदय का विस्तार करना; उस प्रेमस्वरूप के समक्ष अपने हृदय को उन्मुक्त कर देना, ताकि मैं समस्त जगत के साथ एकात्म बन जाऊँ। कर्मयोगी कहते हैं, हमलोग तो कर्म के माध्यम से ही अपने जीवन को सार्थक बना सकते हैं, किन्तु यह कर्म हम अपने सुख या भोग के लिये नहीं करेंगे, हम परार्थ कर्म करेंगे, दूसरों के कल्याण के लिये करेंगे। इसी प्रकार निःस्वार्थ कर्म करते हुए, कर्मयोगी अपने मन को नियंत्रित करके सबों के साथ एकात्मता का अनुभव करते हुए अपने जीवन को सार्थक बना लेंगे।
इन चार योगों का एक साथ अभ्यास करके, या इनमें से किसी एक योग-मार्ग का अलग से अभ्यास करके हमलोग मनुष्यत्व अर्जित कर सकते हैं। स्वामी विवेकानन्द के विचार में समस्त उपलब्ध योग-मार्गों की सहायता से अपने मनुष्यत्व ( या इंसानियत ) को अभिव्यक्त करना श्रेष्ठ-उपाय है। स्वामीजी के सार-गर्भित सन्देशों की विवेचना करके हमलोग नित्य-अनित्य वस्तुओं में विवेक-प्रयोग करने की शक्ति प्राप्त कर सकते हैं। इसको ज्ञानयोग का अभ्यास कहते हैं। राजयोग की सहयता से मन को को एकाग्र करने में सफलता पायी जा सकती है। दूसरे मनुष्यों के कल्याण करने के माध्यम से हमलोग कर्मयोग का अभ्यास कर सकते हैं। दूसरों के प्रति प्यार और प्रेम-पूर्ण सम्बन्ध को प्रगाढ़ करते हुए हमलोग भक्तियोग का अभ्यास कर सकते हैं।
समाज-सेवा का लक्ष्य है, इन चारो योग-मार्गों का व्यावहारिक जीवन में प्रयोग करने की अवसर प्रदान करना, तथा इनके समन्वय से संतुलित व्यक्तित्व विकास के मार्ग को प्रसस्त बना देना। यदि इस व्यापक धारणा के अनुसार समाज-सेवा न की जाय तो उसका कोई विशेष फल नहीं होता है।  उल्टा इस समाज-सेवा का दुष्प्रभाव भी हो सकता है।
 समाज-सेवा के प्रति सही दृष्टिकोण या मानक निर्धारित किये बिना ही समाज-सेवा के कार्य में उतर जाने पर अपना अहंकार बहुत बढ़ जाता है। नाम-यश पाने की इच्छा ही सेवा के पीछे मुख्य उद्देश्य बन सकता है। समाज-सेवा करते समय विभिन्न प्रकार के प्रलोभन या लालच के चक्कर में फंस सकते हैं। ईमानदारी और सत्य को कभी कभी बली भी चढ़ाना पड़ सकता है। इसीलिये समाज-सेवा करते समय हमलोगों को बहुत सतर्क रहना चाहिये। दूसरों का भला करने में अपने को नीचे गिरा लेना, या अपना ही अकल्याण कर बैठना अच्छा नहीं है।
समाज-सेवा करते समय मैं अपने स्वार्थ को त्याग दूंगा, कठोर परिश्रम करूँगा, किन्तु अपना अकल्याण क्यों करूँगा ? दूसरों का कल्याण करने के लिये कोई अनैतिक कार्य करके मैं स्वयं को नीचे गिराकर,चरित्रहीन मनुष्य की श्रेणी में क्यों गिरने दूंगा ?
इसीलिये समाज-सेवा सुनते ही कार्य में कूद पड़ने के पहले, समाज-सेवा का उद्देश्य क्या है ? इस तथ्य को-पहले समझ लेना आवश्यक है। अपने फायदे के लिये या नाम-यश पाने के लिये तो समाज-सेवा नहीं करनी चाहिये, किन्तु अपने हित-अहित, भले-बुरे विचार करने के बाद ही समाज-सेवा करना उचित होगा। क्योंकि समाज-सेवा के द्वारा जिसकी सेवा करता हूँ, उसको बहुत लाभ नहीं होता है, उसकी अपेक्षा मुझे अधिक फायदा पहुँचता है। समाज-सेवा का सही उद्देश्य और कसौटी का निर्धारण करके, सेवा करने से मेरा हृदय उन्नत होता है, मेरा चरित्र-बल बढ़ जायेगा। मानवता की दृष्टि से भी हम उच्च कोटि के मनुष्य बन जाते हैं।
स्वामी विवेकानन्द इन संदेशों को ठीक से याद रखना चाहिये -" गरम बर्फ या अँधेरा प्रकाश कहने से जो समझ में आता है, ' सामाजिक उन्नति ' कहने से भी बहुत कुछ वैसा ही समझ में आता है। अन्ततोगत्वा बहुत खोजने से भी 'सामाजिक उन्नति' नामक कोई वस्तु दिखाई नहीं देती है।"
" बाहर में कोई उन्नति नहीं होती, जगत की उन्नति करने में योगदान करने से वास्तव हमलोग स्वयं उन्नत होते हैं। " 'मनुष्य बनाने की चेष्टा करते करते हम स्वयं मनुष्य बन जाते हैं ! 
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बुधवार, 28 नवंबर 2012

'शाश्वतजीवन की ओर ' सर्वे भवन्तु सुखिन:' स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [43] (जीवन-गठन की निर्माण-सामग्री),

 प्रेम की शक्ति > घृणा की शक्ति !
हमलोगों का उद्देश्य, जो सबसे न्यारा (distant)है, जो सबसे मुख्य लक्ष्य है, वह है -मंगल (कल्याण welfare), भलाई (कुशल Good)। पर किसकी भलाई, किसका कल्याण ? सभी की भलाई, सारे विश्व का मंगल। क्योंकि हमलोगों के विचार की परिधि (Range of thought) धीरे धीर विस्तृत होती जाती है। यह विस्तार स्वाभाविक कारणों से ही होता है। जब हम अपना जीवन, समाज का जीवन, देश का जीवन, या मानव-जाति का जीवन, या इसी प्रकार के अन्य सीमित दायरे को देखते हैं, अपनी सोच की परिधियों को देखते हैं, इन सबके विषय में विचार करना प्रारम्भ करते हैं, तो कई बार ऐसा प्रतीत होता है कि वे तो बिल्कुल स्वाभाविक हैं। 
 यह 'स्वभाव' शब्द बहुत सुन्दर है, किन्तु 'स्वाभाव' कहने से कई बार हमलोगों की धारणा बहुत स्पष्ट नहीं होती। उसका तो स्वभाव है ऐसा है - मानो किसी की बुराई दिखने के लिए अक्सर इस प्रकार से कह दिया जाता है। किन्तु किसी व्यक्ति भाव (spirit -सार मर्म ) को समझाने के लिये यदि स्वाभाव कहा जाय तो अच्छा होगा। स्व-भाव का अर्थ होता है-अपना भाव। किसी भी शब्द के प्रचलित हो जाने के फलस्वरूप उसके अर्थ को लेकर मनुष्यों में एक प्रकार की धारणा बन ही जाती है। किसी एक ही शब्द का प्रयोग बार बार करते रहने से, उस शब्द के सम्बन्ध में एक धारणा प्रचलित हो जाती है; और वही अधिक प्रभावी हो जाती हैं। उस शब्द को सुनने से वही धारणा, वही भाव सबों के मन में जाग उठता है। उसका तो स्वभाव ही ऐसा है - इस प्रकार कहने से यह स्पष्ट हो जाता है कि उस व्यक्ति को थोड़ा छोटा बनाने के लिये वैसा कहा जा रहा है। 
और यही हमलोगों का स्वभाव यह है- ऐसा कहने से इस कथन में , स्व-भाव क्या है, इसे समझने की एक चेष्टा रहती ही है। उसमें व्यक्ति के भीतर देखने की चेष्टा रहती है, एक आन्तरिक दृष्टि डालने की चेष्टा रहती है, विश्लेष्ण करके सब समझ लेने का एक भाव रहता है। हम देखेंगे कि जिसे 'स्व-भाव' कहते हैं, उसमें कोई संकीर्णता नहीं होती, उसमें कोई छोटी परिधि नहीं होती। जब हम किसी के स्व-भाव लेकर देखने की चेष्टा करें, तो पायेंगे कि इस प्रकार व्यक्तियों को छोटा छोटा बनाकर देखते रहते हैं, और यह उनको देखने का सही ढंग नहीं है। सच्चाई तो यह है कि हमलोगों के बीच कोई भिन्नता या अन्तर है ही नहीं।वास्तव में हमलोग भिन्न भिन्न व्यक्ति या अलग अलग मनुष्य नहीं हैं। सब लोग एक के ही बहुरूप हैं। जब हम इस स्व-भाव की ओर देखने चेष्टा करेंगे, तो पायेंगे कि यह सम्पूर्ण जगत एक और अभिन्न है। इसीलिये जब हम यह कहते हैं कि महामण्डल का उद्देश्य है-भारत का कल्याण; तब हमारे दृष्टि में सम्पूर्ण जगत का ही कल्याण होता है। 
 जब हम सबों के कल्याण के बदले छोटे छोटे समुदाय के मंगल की बात सोचें, तो वह बहुत स्वाभाविक नहीं होगा। 'सर्वे भवन्तु सुखिनः ' के बजाय केवल अपने अपने समुदाय का मंगल नहीं हो सकता। जहाँ ऐसी भावना हो कि अमुक का तो मंगल हो, किन्तु फलाने-ढिकाने के मंगल से मुझे क्या काम ? वहाँ किसी का मंगल होने से समझना पड़ेगा कि उसके आस-पास अमंगल अवश्य बना हुआ है। मंगल-अमंगल एक साथ रहने से ही एक विरोध उठेगा। और यह प्रश्न भी बना रहेगा कि इसमें से मंगल की विजय होगी या अमंगल ही जीत जायेगा? किन्तु यदि सभी के मंगल की चिंता की जाय तो फिर मंगल और अमंगल  के बीच संघर्ष का प्रश्न ही नहीं उठेगा। ऐसा मनोभाव रहने से ही वास्तव में सबों का कल्याण करना संभव होगा। 
 इसीलिये अपनी दृष्टि को संकुचित करके, सीमित दायरे में कल्याण की बात कभी नहीं सोचनी चाहिये, अबाध रूप से सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड के कल्याण का चिन्तन करना चाहिये। इसीलिये हमलोगों के देश की प्रार्थना में कहीं भी व्यक्तिगत या इक्के-दुक्के लोगों के कल्याण की बात नहीं की जाती। हमारी प्रार्थना है-विश्व का कल्याण हो, सबों का मंगल हो- इसी प्रकार की प्रार्थना हमारे देश के महाप्राण ऋषियों के हृदय में समस्त प्राणियों में एकत्व अनुभूति के बाद उनके कन्ठ से निसृत हुई है। अतः हमारे हृदय की प्रार्थना भी वैसी ही होनी चाहिये।
 [महामण्डल का उद्देश्य है - 'भारत का कल्याण !' - जो सबसे न्यारा है,भारत हमको जान से प्यारा है! किन्तु ऐसा कहने के पीछे जो हमारा मुख्य लक्ष्य है, वह है- सम्पूर्ण विश्व का मंगल (welbeing), भलाई! भारतीय दर्शन- पूर्णतया एकत्व का दर्शन है। भारत के प्राचीनतम धर्मग्रन्थ ऋग्वेद के अध्ययन से प्राय: यह निष्कर्ष निकाला जाता है कि उसमें इन्द्र, मित्र, वरुण आदि विभिन्न देवताओं की स्तुति की गयी है । किन्तु बहुदेववाद की अवधारणा का खण्डन करते हुए ऋग्वेद (१-१६४-४६) स्वयं ही कहता है-
इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्य: स सुपर्णो गरुत्मान् ।
     एकं  सद्  विप्रा बहुधा वदन्त्यग्नि यमं मातरिश्वानमाहु: ।।

जिसे लोग इन्द्र, मित्र,वरुण आदि कहते हैं, वह सत्ता केवल एक ही है; ऋषि लोग उसे भिन्न-भिन्न नामों से पुकारते हैं । वैश्वीकरण पर बल देते हुए कहा गया है :-
      अयं निज: परो वेति गणना लघुचेतसाम् ।
          उदारचरितानां  तु   वसुधैव  कुटुम्बकम् ।

-यह अपना है या यह पराया है, यह विचार छोटे मन वालों का है । उदार चरित्र वालों के लिए तो सारी पृथ्वी ही कुटुम्ब है। सामाजिक एकता का सन्देश देते हुए कहा गया है :- सह नाववतु सह नौ भुनुक्तु । सह वीर्य करवावहै । तेजस्वि नावधीतमस्तु । मा विद्विषावहै । शान्ति: शान्ति: शान्ति: । प्रभु हम परस्पर रक्षा करें, साथ-साथ उपभोग करें, परस्पर सामर्थ्य बढ़ाकर तेजस्वी बनें । विद्या-बुद्धि बढ़ाकर विद्वेष से दूर रहें । इस प्रकार परम शान्ति का वरण करें । सार्वभौम भ्रातृत्व के साथ सार्वभौम कल्याण की कामना की गयी है :-
         सर्वे   भवन्तु   सुखिन:   सर्वे   सन्तु  निरामया: ।
           सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दु:ख भाग्भवेत् ।

सभी सुखी हों, सभी निरोगी हों, सभी को शुभ दर्शन हों और कोई दु:ख से ग्रसित न हो । उपनिषदों में एकत्व की खोज के लिए विशेष प्रयत्न किया गया है और यह निष्कर्ष निकाला गया है कि जीवात्मा और परमात्मा में अग्नि की लपट और उसकी चिनगारी जैसा सम्बन्ध है । ईश्वर अलग किसी स्थान पर नहीं बैठा है । उसका वास हमारे हृदय में है, सर्वत्र है । वही सत्य रूप में सर्वत्र प्रकाशित है । परमात्मा ही सब कुछ है; तभी तो उससे (यजुर्वेद १९-९) में प्रार्थना की जाती है :-
तेजो सि  तेजो  मयि  धेहि, वीर्यमसि  वीर्य  मयि  धेहि,
    बलमसि  बलं   मयि  धेहि, ओजोसि  ओजो मयि धेहि ।
(हे भगवन्! आप तेजस्वरूप हैं, मुझमें तेज स्थापित कीजिए; आप वीर्य रूप हैं, मुझे वीर्यवान् कीजिए; आप बल रूप हैं, मुझे बलवान बनाइए; आप ओज स्वरूप हैं, मुझे ओजस्वी बनाइए।)
रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषां, नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव।।
जिस प्रकार विभिन्न नदियाँ भिन्न-भिन्न स्रोतों से निकलकर टेढ़े-मेढ़े रास्ते को अपनाते हुए अंतत: समुद्र में एकाएक हो जाती हैं, उसी प्रकार विभिन्न विचारों व आस्थाओं को अपनानेवाले लोग विविध उपायों द्वारा सत्य के एकमात्र छोर तक पहुँचने का ही प्रयास करते हैं।] 
हमलोग यदि सम्पूर्ण मानवता के मंगल की चिंता न कर, मात्र अपने-अपने समूह (जातिगत कुनबे--ब्राहण-समाज,परशुराम समाज, क्षत्रीय समाज, चित्रगुप्त समाज, अग्रवाल समाज , माहेश्वरी समाज, जैन समाज, सिख समाज,ईसाई समाज, इस्लामी बिरादरी, या भाषाई कुनबा 'निखिल बोंगो बंगाली समिति' आदि आदि छोटे छोटे समुदाय ) के कुछ लोगों के कल्याण का चिन्तन करें, तो इसका अर्थ यह होगा कि हमलोग विश्व-ब्रह्माण्ड से अपने को अलग मानते हैं, उसके एकत्व को स्वीकार नहीं करते। सबों को, सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड को अपना समझने की आवश्यकता है। फिर हमलोग केवल (जातिगत कुनबा,साम्प्रदायिक कुनबा, भाषायी कबीला- जैसे) इक्के-दुक्के समूहों के मंगल की बात सोच ही नहीं पायेंगे। इस दृष्टि से जगत को देखने का अभ्यास नहीं किया जाये, तो अपने हृदय की परिधि को छोटा, छोटा और छोटा करते करते हमलोग अपने को एक क्षुद्र-अहं केन्द्रित व्यक्ति मान लेते हैं, और हर समय ' मेरा भला कैसे हो, मेरी भलाई किसमें है -यही सोचना सीख लेते हैं । और 'केवल मेरा भला' सोचते रहने से, दूसरों के मंगल  की ओर दृष्टि जाती ही नहीं है। हम अपने हृदय की परिधि को संकुचित बना लेते हैं, संकीर्ण हृदय रहने से हम कभी यथार्थ मनुष्य नहीं बन सकते। बल्कि एक स्वार्थी मनुष्य या (मानव-पशु) बन जाते हैं। और इसी प्रकार के सामाजिक परिवेश और परिवेश में पले-बढ़े होने के कारण, सभी देशों के समस्त मनुष्य अपने को इसी प्रकार के संकीर्ण-कबीले या समूहों में विभक्त करके केवल अपने समूह के मंगल की बात सोचते हैं, इसीलिये सम्प्पूर्ण जगत के मंगल की बात तो सोच भी नहीं पाते हैं। 
इसीलिये हमें आत्मविश्लेषण करके देखना चाहिये --केवल प्राणिमात्र का कल्याण हो, क्या ऐसी कामना हमारे हृदय की है ? ' सर्वे भवन्तु सुखिनः' -यही हमारा लक्ष्य हो, किन्तु यदि अभी हम सम्पूर्ण जगत के कल्याण की बात सोचने में असमर्थ हैं,और सिर्फ अपने देश के कल्याण की बात सोचने में ही लगे रहते हैं; यदि अब भी हमारी मानसिकता संकीर्ण बनी हुई है तो हमें इस संकीर्ण मानसिकता दायरे से बाहर निकलने की चेष्टा अवश्य करनी चाहिये।
केवल अपने कुनबे की मंगल की चिंता न कर, सबों के मंगल की चिंता करना हमलोग कैसे सीख सकते हैं? कैसे हमलोग सबों का मंगल सोचने में समर्थ मनुष्य बन सकते हैं ? किस पद्धति से अपने जीवन का वैसा गठन कर सकते हैं ? यही हमलोगों को सीखना होगा। परस्पर सद्भाव बनाये रखने के लिये विचारों का आदान-प्रदान करके, आपसी मेल-जोल को बढ़ाकर विभिन्न समुदायों में जन्में दस अन्य भाइयों के मुख को देख कर, आपस में एक दूसरे को पहचानने की चेष्टा करके, अपने समाज, परिवेश या परिवार में एक-दूसरे को अपने से छोटा मनुष्य के रूप में देखने की आदत जो आदत बन गयी है, उसे बिल्कुल भूल जाना होगा। हम एक नई बात सीखेंगे, अबसे हमलोग दूसरों को भाषाई, जातिगत, या स्थानगत आधार पर अपने से छोटा मानने की भूल कभी नहीं करेंगे। क्षुद्र स्वार्थ या व्यक्तिगत नाम-यश की ओर हमारी दृष्टि फिर कभी नहीं जाएगी। हमलोगों के भीतर एक ऐसी एकात्मता बोध, ऐक्य का भाव, एक ऐसा सर्वग्रासी-प्रेम जन्म लेगा जिसे तोड़ने में फिर हमको ही कष्ट होगा। इस एकात्म-बोध की आवश्यकता आज सारे समाज में, सारे देश में सर्वत्र है। अभी हमलोग अपने समाज के लोगों को, अपने देश-वासियों को इस प्रकार प्रेम नहीं कर पाते हैं, इसीलिये हम देश की उन्नति में अपना योगदान नहीं कर पाते हैं,या देश का यथार्थ कल्याण नहीं कर पाते हैं।
हमलोग प्रतिदिन देश के कल्याण की बातें करते हैं, इसके लिये नई नई योजनायें लोगों के सामने रखते हैं, नई नई कल्याण-पद्धतियों को कानून में बदल देते हैं, किन्तु यह कार्यरूप में नजर नहीं आता कि वास्तव में उनका उतना कल्याण हुआ है। क्यों हम उतना कल्याण नहीं कर पाते हैं? इसीलिये नहीं कर पाते कि हम अपने कुनबापरस्ती के क्षूद्र दायरे से बाहर नहीं निकल पाते हैं। हम अपने सम्पूर्ण देशवासियों के कल्याण की चिंता नहीं कर पा रहे हैं, इसीलिये सम्पूर्ण देशवासियों का कल्याण भी नहीं हो रहा है। इसीलिये तरह तरह के हथकंडों से अपने अपने कुनबे का स्वार्थ सिद्ध करने में लगे हैं, हमलोग सम्पूर्ण भारत के कल्याण की बात नहीं करके अपनी जाति,धर्म, भाषा के नाम पर कहीं 27% तो कहीं 5% तो कही 33% कल्याण की बातें करते हैं।इसके लिये तरह तरह की चालबाजियाँ की जाती हैं,जिसका परिणाम हमारे सामने है। इन सबसे हम कितना सीख पायेंगे, यह निर्भर करेगा हमारी दृष्टि की उदारता के उपर, समस्त समस्याओं की जड़ को देखने के लिये हमारी जो विश्लेषण क्षमता है, उसके उपर। किन्तु इस प्रचलित शिक्षा-पद्धति के माध्यम से न तो देश का कुछ विशेष कल्याण हो पा रहा है, न हमलोग ही कुछ सीख पा रहे हैं। तो क्या अन्य कोई उपाय है?
जगत में दो शक्तियाँ प्रमुख रूप में क्रियाशील हैं-एक है प्रेम की शक्ति, दूसरी है घृणा की शक्ति। इनमें से किसकी शक्ति अधिक है, घृणा की या प्रेम की? इसी पर थोड़ा विचार कर के देखा जाये। स्वामी विवेकानन्द कहते हैं कि - ' प्रेम की शक्ति, घृणा की शक्ति की अपेक्षा बहुत अधिक है।' हमलोग विभिन्न तरीकों से पहले अपने को छोटी छोटी परिधि में, विभिन्न समूहों में, बाँटने की चेष्टा करते हैं,फिर विभिन्न तरीके अपनाकर केवल अपने समूह के कल्याण की चिन्ता करते हैं। अपने को विभिन्न समूहों में बाँटे बिना, कुनबापरस्ती से उपर उठकर (जात के नहीं जमात के, सम्पूर्ण मानवता के कल्याण की बात) समस्त देशवासियों को एक समूह मानकर, घृणा विद्वेष या ऐसे विघटनकारी मनोभाव को अधिक प्रश्रय न देकर, क्या हम एकबार प्रेम को प्रोत्साहन देकर नहीं आजमा सकते ? इसी के लिये प्रयास करना आवश्यक है।  क्या हमलोग सभी मनुष्यों को उतने ही प्यार से देखने में समर्थ नहीं हो सकते जितने प्यार से हम अपने सगे-संबन्धियों को देखते हैं ? क्या (उस माँ की दृष्टि से देखने की चेष्टा करें, जिसे अपने पुत्र का कूबड़ नहीं दीखता) इतने ही प्यार से सम्पूर्ण देशवासियों को अपना समझकर देखने की चेष्टा नहीं की जा सकती है ? हमलोग व्यक्तिगत रूप से, सामाजिक रूप से, समग्र देश को लेकर एक उन्नत राष्ट्र, क्यों नहीं बन सकते हैं ?क्या हमलोग एक उन्नत राष्ट्र बनाने के योग्य, उन्नत राष्ट्रिय-चरित्र का निर्माण नहीं कर सकते हैं ? क्या इसके लिए हम अपना व्यक्तिगत चरित्र का निर्माण नहीं कर सकते हैं? और क्या इसी प्रकार अपना और समाज का सर्वाधिक कल्याण नहीं हो सकता है? यह संभव है या नहीं, हमलोग अब इसी बात की विवेचना करेंगे। 

हमलोग सबों की भलाई किस प्रकार कर सकते हैं ? क्या इसके लिये हमें अपने प्रेम को नहीं बढ़ाना होगा ? अतः इस प्रेम को हम कैसे बढ़ा सकते हैं, उसी का प्रयत्न करना होगा। वैसा प्रेम कहाँ उत्पन्न होगा, और कहाँ उसमें वृद्धि होगी ? मनुष्य के मन में, मनुष्य के हृदय में ही उस सर्वग्रासी प्रेम का जन्म होता है।
(नमस्ते -नमस्ते क्यों कहते हैं ? यही कहकर, हँसते-हँसते दिल चुरा लिया जाता है ! पहले तो हो गयी नमस्ते नमस्ते! - फिर हो गया प्यार हँसते हँसते ! आते-जाते मिले गली में, दुनिया रह गयी जलते जलते -पहले तो हो गयी नमस्ते नमस्ते ! ) 
अभी हम मनुष्यों को अलग अलग सत्ता (हिन्दू-मुसलमान, मेल-फीमेल) के रूप में देखने के आदि हैं। इसलिये जहाँ जहाँ मनुष्य विभिन्न रूपों (अपने लोग और पराये लोग के रूप ) में है, (कोई अपनी बेटी के रूप में है, कोई उसकी गोतनी के रूप में है, तो कोई अपनी पुतोह के रूप में है।) वहाँ वहाँ मनुष्य के भीतर प्रेम को बढ़ाने की चेष्टा करनी होगी । क्योंकि व्यक्ति-मनुष्य के भीतर ही मनुष्य की यथार्थ सत्ता (आत्मा) , प्रकटित और प्रकाशित है।  इसीलिये उन व्यक्ति-मनुष्यों के प्रति अपने हृदय में प्रेम को बढ़ाना होगा। (इस गीत के मर्म को समझो - 'हे मईया, खोल न केंवड़ीया तनी भोला के जगा द !') इस प्रकार सम्पूर्ण मानव-जाति के लिये अपने हृदय में सर्वग्रासी- प्रेम को बढ़ा लेना ही- मनुष्यत्व अर्जित करना, चरित्र गठन करना, जीवन-पुष्प को प्रस्फुटित करना है ! इसीको -' Man-Making ', कहते हैं, स्वामी विवेकानन्द ने इसीकी शिक्षा सम्पूर्ण विश्व को दी है।
प्रत्येक मनुष्य का जीवन यदि सुन्दर रूप से गठित हो जाये, उसके भीत जो शक्ति है, प्रेम है, प्यार करने की क्षमता है, पवित्रता है, सम्पूर्णता है, दोष-शून्यता है, वह यदि इन गुणों में वृद्धि करा सके, तभी वह मनुष्यत्व अर्जित कर सकता है। हमलोग इसी के लिये प्रयत्न करेंगे। यह कोशिश कैसे की जाती है, इसे हम धीरे धीरे देखेंगे। 

हमलोग देखेंगे कि जीवन के किन किन पहलुओं की ओर नजर रखने से हमलोगों में ये गुण बढ़ सकते हैं? क्योंकि जब हमलोगों ने अच्छा बनने का संकल्प लिया है, तो हमें सभी प्रकार से अच्छा बनने की चेष्टा करनी होगी। अपने आचार-आचरण, बात-व्यवहार हर चीज में-प्रेम ही छलकता रहे, इसके प्रति सतर्क रहना होगा। किन्तु यह सब भीतर से आना चाहिये,  आंतरिक होना चाहिये, नेताओं वाला लोक-दिखावन प्रेम नहीं होना चाहिए। बलपूर्वक प्रेम नहीं होता, होने से भी टिकता नहीं है।
जैसे जबरदस्ती अनुशासन लगाने से, कोई अनुशासित नहीं होता। अनुशासन भीतर से आने वाली वस्तु है। भीतर से अनुशासन कब आएगा ? जब हमलोगों का उद्देश्य केवल 'कल्याण' होगा। जब हमलोग यह देखेंगे कि आत्मानुशासन नहीं सीखने से, अनुशासन का पालन नहीं करने से, हमारे भीतर जो शक्ति है, उसका सही रूप में हम उपयोग नहीं कर पाते हैं, तब बिना किसी के कहे हमलोग स्वतः अपने को अनुशासन के भीतर ले आयेंगे।
जीवन में जो एक प्रवाह है, उसकी दिशा पहले से यदि निश्चित नहीं रहे, उसके भीतर यदि एक सुसंहति (compactness) न रहे, अनुशासन का भाव नहीं हो, तो उस प्रवाह का कोई अर्थ नहीं होता। दिशाहीन गति विध्वंश का कारण होती है। क्योंकि उसका प्रवाह किस ओर मुड़ जायेगा, उसका कुछ पता नहीं चलता। व्यक्ति-जीवन में, सामाजिक-जीवन में इस प्रवाह की दिशा पहले से तय रहनी चाहिये। जिस समय व्यक्ति-जीवन का प्रवाह निर्धारित क्षेत्रों से प्रवाहित नहीं होता, जब समाज की गति  अस्त-व्यस्त रूप से (higgledy-piggledy) बहने लगती है, तब समाज की उन्नति नहीं होती, बल्कि पतन होता है। इसीलिये समाज के भीतर आत्मानुशासन की भावना को प्रतिष्ठित करना प्रथम आवश्यकता होगी। इसके लिये सबसे पहले हमलोग अपने जीवन में इसी आमनुशासन की भावना को प्रतिष्ठित करने की चेष्टा करेंगे। जीवन के प्रति अपना एक दृष्टिकोण बनाने की चेष्टा करेंगे। इस जीवन के प्रति हमारा जो दृष्टिकोण होता है, उसी को दूसरे रूप में जीवन-दर्शन कहा जाता है।
जीवन क्या है, जीवन का लक्ष्य क्या है ? इन बातों को स्पष्ट रूप से समझ लेने की चेष्टा करनी होगी। इसके लिये थोड़ा 'धीर'-बनना होगा। थोड़ा धीर-स्थिर न बन सके, तो जीवन के प्रवाह को देख कैसे पायेंगे ? यदि हमलोग हर समय चंचल बने रहें, तो हमलोग जीवन के प्रति अपना दृष्टिकोण कभी तय नहीं कर पाएंगे। जैसे किसी जलाशय में जल की उपरी सतह, हवा के कारण या अन्य किसी कारण से यदि निरन्तर चंचल रहती हो, तो उसमें अन्य किसी वस्तु का प्रतिबिम्ब स्पष्ट रूप से नहीं पड़ सकता  है।
उसी प्रकार जीवन की गति को देखने के लिए भी मन के उपर ही जीवन की छवि भी प्रत्यक्ष रूप में गोचर होती है। किन्तु हमारा मन यदि विषयों के द्वारा निरन्तर आड़ोलित होता रहता हो, तो हम अपने जीवन के प्रति सही दृष्टिकोण नहीं बना सकते। हमलोग अपने व्यक्ति जीवन में अत्यन्त चंचल बने रहते हैं, इसीलिये हमें पारदर्शी दृष्टि, प्राप्त नहीं होती। इसीलिये युवाओं को धीर बनना होगा।

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मंगलवार, 27 नवंबर 2012

' शक्ति सामर्थ्य ' (विलपॉवर) [स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [42] (जीवन-गठन की निर्माण-सामग्री),

' इच्छा-शक्ति को मोड़ने और ब्रेक कसने की तकनीक'
मनुष्य के पास मन नामक एक वस्तु है। हमारे पास संकल्प जैसी एक वस्तु है। यह संकल्प भी मन की ही एक क्रिया है। हमलोग किसी भी वस्तु को पाने की इच्छा कर सकते हैं, फिर दृढ़ संकल्प के द्वारा इच्छा को ईच्छाशक्ति में परिणत भी कर सकते । स्वामी विवेकानन्द इसका एक छोटा सा उदहारण देते हुए कहते हैं, " मानलो एक इंजन आ रहा है, और एक छोटा सा कीड़ा लाइन पर खड़ा है। इंजन में इतनी शक्ति है,किन्तु वह जड़ है, यदि ड्राइवर ब्रेक नहीं लगाये तो वह चलता जायेगा। किन्तु जो एक छोटा सा कीड़ा है, उसमें अपने प्राणों की रक्षा करने की प्रवृत्ति है। इसीलिये वह इतने बड़े इंजन के आने पर वह केवल लाइन से उतर कर, स्वतः नीचे सरक जायेगा। "
युवाओं का कार्य केवल इसी इच्छाशक्ति को बढ़ा लेना है। हमलोग इच्छाशक्ति के प्रवाह के वेग को स्वतः घटा-बढ़ा सकते हैं, उसके प्रवाह की दिशा को परिवर्तित कर सकते हैं, या मोड़ दे सकते है। मलोग यदि खड़े हैं, तो चल सकते हैं; यदि चल रहे हों, तो जब चाहें तभी खड़े भी हो सकते हैं। अर्थात हमलोग अपने 'विल-पॉवर' (willpower- इच्छाशक्ति, संकल्प शक्ति,आत्मसंयम) को कार्य में लगा सकते हैं।
स्वामीजी का एक अन्य सन्देश है- उन्होंने कहा है, हमें अपने विवेक को जाग्रत करना होगा, तथा विवेक के साथ अपनी शक्ति का प्रयोग करना सीखना होगा। इच्छशक्ति को यदि विवेक के साथ प्रयोग करें, तो यह समझ पाएंगे कि उसके प्रवाह की गति को किस दिशा में मोड़ना अच्छा होगा? इच्छशक्ति के प्रवाह और विकास की दिशा-परिवर्तन करने, और वेग को घटाने या बढ़ाने की आवश्यकता है या नहीं.…? यह विचार यदि युवाओं के मन में उठने लगे, तभी हमलोग अपनी जीवनी-शक्ति (प्राण) के प्रयोग के विषय में विचार कर सकेंगे। युवाओं के लिये यह आवश्यक है कि वे अपने शक्ति के मूल स्रोत को अच्छी तरह से जान लें,कि हमारे पास कितनी शक्ति है? जिस प्रकार बाह्य जगत में, हमारी मिट्टी के नीचे पेट्रोलियम, कोयला, गैस आदि प्राकृतिक सन्साधन होते हैं, उसी प्रकार हममे से प्रत्येक के अन्तर जगत में भी अनन्त शक्ति है। इस मिट्टी की काया में
 ('प्रत्यक् आत्मन्' या भीतर की ओर गयी हुई ) अनन्त शक्ति है। हममें से प्रत्येक व्यक्ति इसके अधिकारी हैं। हमे केवल यह जानना होगा कि हमारे भीतर में ही कहाँ क्या क्या छुपा हुआ है ? प्रत्येक युवकों के लिये यह आवश्यक है कि वह अपनी अन्तर्निहित शक्ति की ओर देखना सीखे। हममें से कोई भी व्यक्ति कमजोर, नीच, निर्बल या मामूली जीव नहीं हैं, हममें से प्रत्येक के भीतर अनन्त शक्ति विद्यमान है। हमलोगों को केवल यही सीखना है कि हम इस शक्ति को जाग्रत कैसे कर सकते हैं ?
स्वामीजी ने शिक्षा के विषय में एक अद्भुत सन्देश दिया है ! शिक्षा के द्वारा हम अपनी इच्छाशक्ति को संग्रहित कर सकते हैं, उसकी रोक-थाम कर सकते हैं, उसे उपयोगी और कार्यकारी बना सकते हैं- स्वामीजी शिक्षा को तीन प्रकार की अद्भुतपदवी से विभूषित करते हैं ! यह जो अदभुत इच्छाशक्ति हमारे भीतर है, उसके सम्बन्ध में जानना होगा। दूसरे प्राणियों में यह शक्ति मनुष्यों के तुलना में कम है।  तथा इसी इच्छाशक्ति की सहायता से हम अपनी अपनी अन्तर्निहित शक्ति को बाहर निकाल सकते हैं। एक स्थान पर स्वामीजी कहते हैं, " विश्व का इतिहास कुछ थोड़े से आत्मविश्वासी मनुष्यों का इतिहास है। यदि तुम कभी किसी कार्य में असफल हो जाओ, तो -यह समझ लेना कि यह अन्य किसी कारण के चलते नहीं हुई है-एकमात्र तुमने अपने भीतर की अनन्त शक्ति को प्रकट करने के लिये जितनी मात्रा में प्रयत्न करना चाहिए था, उतनी मात्रा में प्रयत्न नहीं कर सके हो, इसीलिये तुमको यह असफलता मिली है।"
आधुनिक मनोविज्ञान भी यही कहता है, कि प्रयत्न में कमी के आलावा विफलता का कोई दूसरा कारण नहीं है। आज पाश्चात्य देशों में मनोविज्ञान को एक स्वतंत्र विज्ञान के रूप में मान्यता मिल चुकी है। वे लोग अभी मन के उपर अनुसन्धान करने में लगे हुए हैं। वे भी ठीक यही बात कह रहे हैं कि मनुष्य के भीतर अनन्त शक्ति है। 
एक मनोवैज्ञानिक कहते हैं, " हमलोगों के अवचेतन मन के भीतरी दरवाजे के चौखट से ठीक पीछे ही अनन्त शक्ति का भण्डार है। " और स्वामीजी कहते हैं, इस अनन्त शक्ति को अभिव्यक्त किया जा सकता है। किन्तु, कैसे ? हमलोग अपने अन्तर्निहित इस अनन्त शक्ति को अध्यवसाय, इच्छाशक्ति, पवित्रता, और आत्मविश्वास के द्वारा अभिव्यक्त कर सकते हैं। युवा शक्ति ही देश की विभिन्न समस्याओं का समाधान कर सकती है। कैसे, किस उपाय से ? वे लोग आत्मविश्वासी बनेंगे और विभिन्न पद्धति से उन उपायों का प्रयोग करके पहले अपने जीवन को परिवर्तित करेंगे। अपने शक्ति को अभिव्यक्त करेंगे। तथा उसी शक्ति की सहायता से वे समस्त समस्याओं का समाधान करेंगे। मनुष्य यदि मनःशक्ति-सम्पन्न हो जाये, तो वह किसी भी समस्या की जड़ को देख सकता है, तथा पारदर्शी सोच (स्पष्ट-चिन्तन) और अभिव्यक्ति की सहायता से समाज की समस्त दोषों को दूर कर सकता है। इसीलिये स्वामीजी ने 'पूर्ण रूप से मनुष्य '- गढ़ने के सन्देश को कई प्रकार से दिया है। 
स्वामीजी के सिद्धान्तों का व्यवहार में अपनाया जाय, तो यह देखा जा सकता है कि जिस प्रकार वैज्ञानिक सत्यों का कभी भी प्रयोग करें तो उसका फल हर समय एक ही प्राप्त होता है, उसी प्रकार उनके सिद्धान्तों को जीवन में प्रयोग करने से वे ठीक उसी प्रकार फलदायी होते हैं। स्वामीजी कहते हैं, एक 'पूर्ण-मनुष्य'  सा 'मनुष्य' - गढने के लिये, उसके तीन पहलुओं (पक्ष) - देह, मन, हृदय 'Body, mind, heart' को ठीक रूप में गढ़ना होगा। यदि तुम्हारा देह-मन स्वस्थ और सबल है, और हृदय उदार हो तभी तुम 'पूर्ण-मनुष्य ' जैसे मनुष्य  हो। यदि समाज में इसी प्रकार के मनुष्यों की संख्या अधिक हो जाय तो समाज की समस्त समस्याओं का समाधान होना संभव है। अपने तीनो पहलु को ठीक रूप में कैसे गढ़ूंगा ? देह को स्वस्थ रखने के लिये जितना पौष्टिक आहार लेना सम्भव हो, उतना पौष्टिक आहार लेने की चेष्टा करेंगे। उसके साथ साथ शारीरिक व्यायाम के द्वारा शरीर को बलवान बनाने की चेष्टा करूँगा। उसी प्रका मन को भी स्वस्थ और बलवान बनाने के लिये मन को भी पौष्टिक आहार और व्यायाम की आवश्यकता होती है। मन को खेलाना (प्रत्याहार-धारणा), काम में लगाना मन का व्यायाम है। हमलोगों का मन स्वतः (बहिर्मुखी होकर) अन्न-वस्त्र, स्वार्थपरता इत्यादि की ओर चला जाता है; किन्तु इसको वहाँ से खींच कर दूसरी ओर भी खेलाया जा सकता है(अन्तर्मुखी करके-हृदय में विद्यमान श्रीरामकृष्ण पर एकाग्र किया जा सकता है।) जब अपने अंतर में (हृदय में उस एक को देखने का अभ्यास किया जाता है -जिससे सब निकला है, तब हृदय विशाल हो जाता है, और ) जगत को नाना रूप में नहीं 'एक' रूप में देखा जा सकता है। दूसरों के दुःख में दुःखी हुआ जा सकता है।
 ( दिल में रहती है तस्वीरे यार, जब जरा गर्दन झुकाई देखली !) अपने भीतर झाँक-झाँक कर आनन्द पाया जा सकता है। इस शक्ति को जगाकर अपनी इच्छशक्ति को बढ़ाया जा सकता है। ऐसा नहीं करने से विचारण-क्षमता, पारदर्शी सोच कमजोर हो जाती है। इसीलिये विचारण-क्षमता (बहुत्व में एक को देखने की शक्ति) को हमें काम में लाना होगा। यही है मन का व्यायाम। और मन का आहार क्या है ? अच्छे विचार, अच्छी सोच। यह मन को पौष्टिकता प्रदान कर सकता है, पहले चेतन मन पुष्ट होता है, बाद में अवचेतन मन भी पुष्ट हो जाता है। मन के लिये पौष्टिक आहार या अच्छे विचारों को आसानी से पाने का सबसे अच्छा श्रोत है, स्वामी विवेकानन्द की विचारधारा, उनके जीवन और सन्देश का अध्यन, उनकी विवेचना करना, इनका प्रतिदिन अभ्यास करना, और उन सिद्धान्तों को मन की गहरी परतों बसा लेना। यही है मन का आहार।
उसी प्रकार दुखी मनुष्यों के दुःख को देखकर उनके प्रति सहानुभूतिशील बन कर हमलोग अपने हृदय को बहुत बड़ा, व्यापक और विशाल बना सकते हैं। यह है, हृदय का व्यायाम। तथा इसी प्रकार के हृदयवान व्यक्तियों की जीवनी और संदेशों का अध्यन करके, उनके सिद्धान्तों से अनुप्रेरित होकर हृदयवान बना जा सकता है। युवाओं के लिये यही करनीय है।
 उन्हें मन की शक्ति को, अर्थात इच्छाशक्ति के प्रवाह को संयत करने की क्षमता अर्जित करनी होगी। मानलो मैंने साईकिल चलाना सीख तो लिया,पर मेरी साईकिल में ब्रेक नहीं हो, और रोड पर अचानक गड्ढा आ जाने पर, सायकिल की हैंडल को मोड़ना और अचानक ब्रेक कसने का तरीका (पहले पिछला चक्का बाद में अगला कसना है) मुझे नहीं मालूम हो; तो शीघ्र ही दुर्घटना हो सकती है। यदि हमलोग मन को विषयों में जाने से या बहिर्मुखी होने से रोकना नहीं सीखें तो बहुत बड़ा खतरा हो सकता है। हमें यह सीखना होगा कि इच्छशक्ति को कैसे प्रभावकारी बनाया जाता है ? 
स्वामीजी कहते हैं, जो अपनी इच्छाशक्ति को प्रभावकारी बनाना जनता है, उसीको को शिक्षित मनुष्य कहा जा सकता है। युवाओं के लिये इस शिक्षा को प्राप्त करना ही आवश्यक है। स्वार्थपरता और केवल सुख भोग करने की इच्छा को त्याग कर, महान सिद्धांतों को अपने जीवन में ग्रहण करना ही हमलोगों का कर्तव्य है। निर्भयता, निःस्वार्थता, आत्मविश्वास के, त्याग के भाव को अर्जित करना होगा। युवाओं के इस प्रकार निर्मित होने से सभी समस्याओं का समाधान हो जायेगा। भारत में व्यापक रूप से युवाओ को ऐसी शिक्षा देने का प्रयास नहीं हुआ है, इसीलिये समस्याओं का समाधान भी नहीं हो रहा है। रोज नया नया घोटाला सामने आता जा रहा है।
क्योंकि हमलोगों की शिक्षा व्यवस्था में सच्ची शिक्षा नहीं दी जा रही है। किन्तु अब क्या किया जा सकता है ? हमारे रहनुमाओं ने दो लोग को आदेश दे दिया, तुमलोग एक नई शिक्षा व्यवस्था की योजना बनाओ। और इसके उपर आवाज उठाने वाले दो पण्डितों से कह दिया गया कि, शिक्षा के उपर एक कमिशन गठित कर दिया गया है, आपलोग उसके आधार पर अपना रिपोर्ट दीजिये। किन्तु जो रिपोर्ट आया उसको हमने ग्रहण ही नहीं किया। इस प्रकार क्या शिक्षा में परिवर्तन आ सकता है ?
नहीं आ सकता, इसीलिये हमारा कार्य है, भगवान के ओर, सरकार की ओर, राजनैतिक दलों की ओर नहीं देखकर, अपने भीतर की ओर दृष्टिपात करना। मेरे देह-मन में शक्ति है, उसे मैं बढ़ा सकता हूँ; हृदय अभी संकीर्ण है, उसे उदार और विशाल बना सकता हूँ। दूसरों के दुःख का अनुभव करके मैं अपनी समस्त शक्तियों को देश के कल्याण में नियोजित कर सकता हूँ। इस काम के लिये भगवान या राष्ट्र के आगे प्रार्थना नहीं करके, अपनी अन्तर्निहित शक्ति से विनती करूँगा। हमलोग अपने अन्तर्निहित अनन्त शक्ति का अपमान नहीं करेंगे। हम अपनी अनन्त शक्ति को धूल-कीचड़ में गिराकर गंदगी से मलीन नहीं होने देंगे। हमलोगों की जीवनी शक्ति को आकृष्ट करके, स्वामीजी ने जो शास्वत पथ दिखलाया है, उसी पथ पर चलना होगा। हमें ऐसी चेष्टा करनी होगी कि उस पथ का सन्देश प्रत्येक युवक के कानों में में ही नहीं, उसके हृदय तक भी पहुँच जाये। यह सन्देश उनकी शक्ति उनकी शक्ति को बढ़ा सके, और उसके बाद वे उस अपरिमित शक्ति को देश के कल्याण में खर्च कर सकें।
जिस समय इस प्रकार के युवकों का दल गाँव गाँव में गठित हो जायेगा, तब इस समय जो (विदेशी) यह समझ बैठे हैं, कि यह देश (भारतवर्ष) उनकी मल्कियत है, और वे युवा शक्ति की वास्तविक उर्जा को निचोड़ कर, उनकी शक्ति को विभिन्न दिशा में (आईपीएल -चीयर गर्ल्स ) लगाकर उनकी उस शक्ति को, जीवन को, देश को भी नष्ट करके; उनकी जैसी इच्छा होगी वे उसी ढंग से देश को चलायेंगे-  उस समय वे कायर और डरपोक की तरह एक कोने में दुबक कर बैठ जायेंगे। उनके उपर शासन का डण्डा (लोकपाल) नहीं चलाना होगा, वे तो देश के हर क्षेत्र में देशभक्त और चरित्रवान  युवाओं को प्रतिष्ठित देखकर डर के मारे अपनी दुकान समेट कर भाग जायेंगे। मनुष्य की आत्मा में अनन्त शक्ति है। हममें से प्रत्येक युवा, भारत की युवा शक्ति का केवल एक प्रतिशत भी यदि, इस शक्ति को लेकर अपना जीवन गठित कर लें, तो उनके डर से अन्य समस्त शक्तियाँ दुम दबाकर भाग खड़ी होंगी। 
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[ जगत को हिला-दुला देने वाले तीव्र इच्छा-शक्तिसम्पन्न महापुरुष अपने प्राण के कम्पन को इतनी उच्च अवस्था में ला सकते हैं कि हजारों मनुष्य उनकी ओर खिंच जाते हैं, सभी पैगम्बरों का प्राण पर अद्भुत संयम था। जिसके बल से वे प्रबल इच्छा-शक्ति सम्पन्न हो गये थे। जब कोई मनःसंयोग (ध्यान-जप) कर रहा हो, तो भी समझना चाहिये कि वह प्राण का ही संयम कर रहा है।(1/58-67)
" हमें मालूम है कि हमारे स्नायुओं के भीतर दो प्रकार के प्रवाह हैं, उनमें से एक को अन्तरमुखी और दूसरे को बहिर्मुखी, एक को ज्ञानात्मक और दूसरे को कर्मात्मक, एक को केन्द्र-गामी और दूसरे को केन्द्रापसारी कहा जा सकता है। एक मस्तिष्क की ओर सम्वाद ले जाता है, और दुसरा मस्तिष्क से बाहर, समुदय अंगों में। मेरुदण्ड के भीतर बाएं इड़ा और दायें पिंगला नाम के दो स्नायविक शक्ति-प्रवाह और मेरुम्ज्जा के ठीक बीच में जो शून्य नली गयी है वही सुषुम्णा है। यह मेरुमज्जा मस्तिष्क में जाकर एक प्रकार के 'बल्ब' में medulla (मज्जा) नामक एक अंडाकार पदार्थ में अंत हो जाती है, जो मस्तिष्क के साथ संयुक्त नहीं है, वरन मस्तिष्क में जो एक तरल पदार्थ है, उसमें तैरता रहता है। यदि सिर पर कोई आघात लगे तो उस अघात की शक्ति उस तरल पदार्थ में विखर जाती है, और इससे उस बल्ब को कोई चोट नहीं पहुँचती।
विद्युत् क्या है, यह किसी को नहीं मालूम; हमलोग इतना ही जानते हैं कि विद्युत् एक प्रकार की गति है। समस्त परमाणु यदि एक ओर गतिशील हों, तो उसीको वैद्युत  गति कहते हैं। इस कमरे में जो वायु है, उसके सारे परमाणुओं को यदि लगातार एक ओर चलाया जाय, तो यह कमरा एक महान बैटरी के रूप में परिणत हो जायेगा। यदि श्वास-प्रश्वास की गति नियमित की जाय, तो शरीर के सारे परमाणु एक ही दिशा में गतिशील होने का प्रयत्न करेंगे। 
जब विभिन्न  में दिशाओं में दौड़ने वाला मन एकमुखी होकर एक दृढ इच्छा-शक्ति के रूप में परिणत होता है, तब सारे स्नायु-प्रवाह भी एक प्रकार के विद्युत् का आकार धारण कर लेती है। जब शरीर की सारी गतियाँ सम्पूर्ण रूप से एकाभिमुखी होती हैं, तब वह शरीर मानो इच्छा-शक्ति का एक प्रबल विद्युत्-आधार या डायनेमो बन जाता है। (1/73)
' प्राण का अर्थ है शक्ति। तो भी हम  इसे शक्ति नाम नहीं दे सकते, क्योंकि शक्ति तो इस प्राण की अभिव्यक्ति मात्र है। मनुष्य देह में तीन मुख्य प्राण-प्रवाह अर्थात नाड़ियाँ है। यदि मेरुदण्ड मध्यस्थ सुषुम्णा के भीतर से स्नायु प्रवाह चलाया जा सके तो देह का बंधन फिर न रह जायेगा, सारा ज्ञान हमारे अधिकार में आ जायेगा। मूलाधार चक्र में जन्म-जन्मान्तर के संस्कार-समिष्टि मानो संचित सी रहती है। और उस कुण्डलीकृत क्रियाशक्ति को कुण्डलिनी कहते हैं। कुण्डलिनी को जगा देना ही तत्वज्ञान, अतिचेतन अनुभूति या आत्मसाक्षात्कार का एकमात्र उपाय है। चार योगों में से किसी की सहायता से कुण्डलिनी को जाग्रत किया जा सकता है। 1/77
' इस सुषुम्णा को खोलना ही योगी का एकमात्र उद्देश्य है। सबसे नीचे वाला चक्र ही समस्त शक्ति का अधिष्ठान है। उस शक्ति को उस जगह से उठाकर मस्तिष्कस्थ  'बल्ब' तक ले जाना होगा। तब वह कामशक्ति ओज शक्ति में परिणत हो जाती है। ब्रह्मचर्य के बिना राजयोग की साधना बड़े खतरे की है, मस्तिष्क बिगड़ भी सकता है। तन-मन-वचन से सर्वदा सब अवस्थाओं में मैथुन का त्याग ही ब्रहचर्य है। 1/101' अपवित्र-जीवन जीने वाला योगी नहीं बन सकता है। 1/82] 
[साईकिल चलना सीखने जैसा -'इच्छाशक्ति के प्रवाह वेग को घटाने-बढ़ाने और उसकी प्रवाह की दिशा को मोड़ने की तकनीक से हृदयवान बना जा सकता है। युवाओं के लिये यही करनीय है। ']

सोमवार, 26 नवंबर 2012

' चार योगों का सहज प्रयोग (एक-बग्गा मनुष्य) [स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [41] (जीवन-गठन की निर्माण-सामग्री )

' एक-बग्गा मनुष्य चार योगों में समन्वय से देव-मानव में रूपान्तरित होगा'
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, " समाज में हमलोग अधिकतर एक-बग्गा आदमी (one sided या एक पक्षीय) लोगों को ही देखते हैं। उनका अपना रुझान जिस दिशा में होता है, वे उसी पथ को श्रेष्ठ समझते हैं। अन्य मार्ग पर चलने वालों के बारे में उनकी धारणा अच्छी नहीं होती। उनके मतानुसार, उनके द्वारा निर्वाचित मार्ग ही एकमात्र अनुसरण करने योग्य होता है। कभी कभी वे लोग ऐसा दावा भी करते हैं, कि अन्य मार्ग पर चलने वाले गलत हैं।" स्वामी विवेकानन्द बार बार कहते हैं, कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग और राजयोग-इन चार मार्गों में से कोई एक, दो, तीन या सभी की सहायता से यदि हमलोग अपनी अन्तःप्रकृति और बाह्यप्रकृति पर विजय प्राप्त कर सकें, तो वही हमलोगों के लिये विकास का सर्वश्रेष्ठ उपाय होगा।
सबसे पहले हमें अपने अन्तर्जगत को प्रशिक्षित करना होगा। उसके उपर प्रभुत्व विस्तार करने में सक्षम होने से ही हमलोग अपने बाह्य प्रकृति के उपर भी प्रभुत्व विस्तार करने में समर्थ हो जायेंगे। तभी हमलोग जिस किसी भी कार्य में युक्त होने की योग्यता अर्जित कर पायेंगे। स्वामीजी ने कहा है, इन चारों योग का जो श्रेष्ठ भाव है, वह परिपूर्ण रूप में और समान रूप में जिसके भीतर विकसित होता है, उन्हीं को आदर्श मनुष्य कहते हैं। स्वामीजी इस प्रकार के मनुष्य को देखना चाहते थे।
इसीलिये हमलोग यदि स्वामीजी के आदर्श साँचे में ढला हुआ मनुष्य बनने की चेष्टा कर रहे हों, तो अपने देह-मन-हृदय के परिपूर्ण विकास के उपाय के रूप में यदि इन चार योग मार्गों का समन्वित प्रयोग कर सकें, तभी सबसे अच्छा परिणाम प्राप्त हो सकता है। मनुष्य के देह-मन-हृदय (3H) के सन्तुलित प्रवर्धन के फलस्वरूप ही मनुष्य का पशुभाव दब जाता है, और दिव्य भाव विकसित हो जाता है।
ज्ञानयोगी - ज्ञानी सदसत ( नित्य-अनित्य या खरा-खोटा) का निर्णय करके असत्य का अपवर्जन करके सत्य में अवस्थित हो जाते हैं। नेति-नेति विवेक प्रयोग करके बहुत्व में एकत्व को देखने का पथ, विवेक-विचार करके कौन सा चिरस्थायी होगा, इसका निर्णय करके समस्त क्षणभंगुर वस्तुओं के प्रति मोह का त्याग करके, जो चिरस्थायी, सनातन, शाश्वत,सत्य, हो उसे प्राप्त करने के पथ का अनुसरण करता है।राजयोगी कहते हैं, मन ही समस्त शक्ति का आधार है। मन के उपर पूर्ण अधिकार स्थापित करके, मन की चंचलता को यदि पूर्ण रूप से दूर कर सकें, तो उस अचंचल समाहित मन मन में सत्य स्वयं ही प्रतिफलित होगा।
भक्तियोगी कहते हैं, नेति-नेति करके ज्ञान-विचार करने की जरूरत नहीं है, प्राणायाम आदि जैसे मन को प्रशिक्षित  करने वाले कठोर नियमों की प्रक्रिया का अभ्यास करने की भी आवश्यकता नहीं है। मैं तो केवल उस परम प्रेममय  के स्वरूप का अनुभव करने के लिये अपने हृदय को उन्मुक्त रखूँगा, जिसे विभिन्न सम्प्रदाय के लोग कृष्ण, काली, अल्ला, गॉड आदि विभिन्न नामों से पुकारते और उपासना करते हैं। जो मेरे हृदय में प्रियजनों के प्रति प्रेम संचारित कर रहे हैं, मैं उनको सर्वत्र सभी जीवों के भीतर अनुभव करना चाहता हूँ। अपने हृदय को विशाल बनाकर उनके प्रति सर्वग्रासी प्रेम की बाढ़ में मैं डूब जाना चाहता हूँ। उन प्रेममय की प्रसन्नता को प्राप्त करके, मेरा सीमित प्रेम असीम होकर अनन्त में मिल जायेगा। विश्व के समस्त मनुष्यों का आलिंगन करके जीवन की परिपूर्णता का अनुभव करके उसी सत्य में प्रतिष्ठित हो जाऊंगा। प्रेम के सहज मार्ग से सत्यस्वरूप को प्राप्त करूँगा। कर्मयोगी और एक दूसरे प्रकार के मनुष्यों का दल है, जो यह कहता है कि इनमें से किसी पथ का अवलम्बन हम नहीं करना चाहते, इनमें से कोई मार्ग हमें अच्छा नहीं लगता है। नेति-नेति विचार, मन को प्रशिक्षित करने की जटिल प्रक्रिया, या हृदय की वृत्ति को चरम तक प्रसारित करने का मार्ग, इनमें से कोई भी मार्ग हमारी  अभिरुचि से मेल नहीं खाता।
हमलोगों के भीतर स्वाभाविक रूप से जो कर्म करने की प्रवृत्ति है, उसी के द्वारा हमलोग सत्य की प्राप्ति करेंगे। क्योंकि हमलोगों के भीतर जो कर्मशक्ति है, उसका कोई न कोई प्रयोजन अवश्य है। हमलोग इसके द्वारा भी तो जीवन की सार्थकता या परिपूर्णता प्राप्त कर सकते हैं।
इस प्रकार जब यह अन्वेषण करने की चेष्टा की गयी कि कर्म के द्वारा परमानन्द की प्राप्ति कैसे होगी ? 
तब यह पाया गया कि अपने भोग-सुख के लिये, धन-संपत्ति में वृद्धि करने के लिये जो कर्म किये जाते हैं, उससे मनुष्य को वास्तविक संतोष नहीं मिलता है। बल्कि दूसरों के कल्याण के लिये, दूसरों के हित के लिये अपने स्वार्थ की बली चढ़ा कर जो कर्म किये जाते हैं, उससे अपार आनन्द की प्राप्ति होती है, सार्वभौमिक एकात्मता की अनुभूति होने से असीम आनन्द की प्राप्ति होती है।
 भगवान श्री कृष्ण ने कहा है, ' समस्त कर्म ज्ञान में समाप्ति या परिणति को प्राप्त होते हैं। ' निःस्वार्थ कर्म में अत्मनियोग करके कर्म-योगी भी उसी सत्य की उपलब्धी करते हैं, जिस सत्य का आस्वादन प्रेमी-भक्त  लोग भगवत-प्रेम के मार्ग पर चल कर प्राप्त करते हैं। नेति-नेति का विवेक-प्रयोग करके शाश्वत और क्षणभंगुर में से नित्य वस्तु का चयन करने वाले, विचारशील साधक भी ज्ञान-विचार के पथ से उसी सत्य में उपनीत हो जाते हैं। राज-योगी मन को साधने या मनःसंयम की प्रक्रिया का अवलम्बन करके अपने हृदय की गुफा में उसी सत्यस्वरूप का आविष्कार करते हैं।
स्वामीजी कहते हैं, सत्य का अन्वेषण करने के इन चारों मार्गों का जो व्यक्ति एक समान रूचि रखते हुए अनुसरण कर सकता है, जो सभी मार्गों से चल कर उसी परम सत्य का आस्वादन करने में समर्थ है, वही आदर्श पुरुष है। इसी बात को श्रीरामकृष्ण देव विभिन्न प्रकार से मछली पकाने की कला का उदाहरण देकर, या चीनी से बने विभिन्न आकार के मिठाइयों की उपमा देकर कहते थे-सत्य की मिठास का अस्वादन एक प्रकार से क्यों करूँगा ? सभी प्रकार से उनका अस्वादन करूँगा। रस-स्वरूप का आस्वादन-विविधता के प्रसंग में उन्होंने सहनाई के विविध स्वर-तरंगों का स्मरण भी किया था।
अपने जीवन के इस छोटे से दायरे में, हमलोग स्वामीजी के निर्देशानुसार बहुत्व में एकत्व का दर्शन करने या विवेक-प्रयोग (ज्ञान-विचार या नेति-नेति विचार ) करने, राजयोग या मनःसंयम की प्रक्रिया का अभ्यास करने, प्रेम या हृदय-वृत्ति का प्रसार करने तथा कर्मयोग के बीच एक प्रकार का समन्वय स्थापित करने की चेष्टा करेंगे।  केवल किसी एक मार्ग पर चलने की प्रवृत्ति की अपेक्षा, जीवन के समग्र पहलुओं के विकास का मार्ग निश्चित रूप से श्रेष्ठ है।
मैं एक हृदयवान मनुष्य हूँ, भले-बुरे सभी मनुष्यों के प्रति सहानुभूति रखता हूँ, सबों से प्रेम कर सकता हूँ। किन्तु यदि कर्म के विषय में पारदर्शी सोच नहीं रखता, अपने स्वार्थ की बली नहीं चढ़ा सकता, तो जब इसकी आवश्यकता होगी, तब मनुष्यों के दुःख को दूर करने के लिये मैं जो प्रयत्न करूँगा उसमें सफलता नहीं मिलेगी। यदि मेरा मन अशान्त बना रहता हो, तब मेरा निर्णय पारदर्शी नहीं हो सकता, और मैं किसी आर्त मनुष्य की सेवा सच्चे अर्थों में सेवा भी नहीं कर सकता। इसीलिये मन को संयमित करने, एकाग्र करने और मन की शक्ति के द्वारा समस्त बातों का सही रूप से विश्लेषण करके देखने की क्षमता को बढ़ाना अत्यन्त आवश्यक है। ऐसा होने से ही मनुष्यों के दुःख में कमी लाने के लिये मेरे द्वारा किया जाने वाला प्रयत्न बेहतर हो सकेगा। उसी प्रकार कुछ भी सोचने,बोलने या करने के पहले विवेक-प्रयोग के द्वारा यह निश्चित नहीं कर लूँगा कि वे श्रेय हैं या प्रेय हैं ? मेरे चरित्र के गुणों में उन्नति के द्वारा मुझे अपना जीवन-गठित करने में सहायता देंगे या नहीं ? इसे समझने के लिये और अपनी तर्कशक्ति बढ़ाने के लिये ज्ञान का अभ्यास करना अत्यन्त आवश्यक है।
हमलोग अपने ज्ञान या विवेक-शक्ति को बढ़ाने के लिये कठोर वेदान्तीयों के जैसा नाले का जल और गंगा के जल को एक मानने की चेष्टा भी नहीं करेंगे। हमलोग जिस सहज मार्ग को ग्रहण करेंगे, वह है अध्यन करना। हमलोग स्वामी विवेकानन्द के सन्देश और साहित्य का अध्यन और विवेचना करने को अपने जीवन में सर्वोच्च स्थान देंगे। विवेकानन्द साहित्य का लगातार अध्यन करते रहने से विवेक-प्रयोग करने की क्षमता में वृद्धि होती है। यही है ज्ञान मार्ग। स्वामीजी की जीवनी और सन्देश की विवेचना करने के हमलोग विवेक-प्रयोग की क्षमता या बहुत्व में एकत्व का दर्शन करने की क्षमता को बढ़ाते रहेंगे। हमलोग मनःसंयोग के अभ्यास द्वारा मन में उसी प्रशान्ति को लाने की चेष्टा करेंगे, नहीं तो हमलोगों का निर्णय-क्षमता या विवेक-प्रयोग में गलती भी हो सकती है। विवेक क्षमता के अभाव में हमलोगों के हृदय से प्रेम उत्सर्जित होने पर भी उसको कर्म में परिणत नहीं कर पाएंगे।
 निरन्तर यम-नियम का पालन और प्रतिदिन दो बार मनःसंयोग का अभ्यास करके अपनी इच्छशक्ति को प्रबल बना लेंगे। ताकि दूसरों के प्रति जिस सहानुभूति का अनुभव करता हूँ, वह मेरे हृदय को विशाल बना दे। हमलोग नाना प्रकार के समाज-कल्याणकारी कार्यों में आत्मनियोग करेंगे। नाम,यश या अन्य किसी तात्कालिक लक्ष्य को मन में छुपाकर समाज-सेवा का कार्य नहीं करेंगे। हमलोगों द्वारा किये जाने वाले सेवा-कार्यों का उद्देश्य होगा समाज के कल्याण के साथ ही साथ अपने भीतर मनुष्यत्व की जागृति, चरित्र की ऊंचाई; देह, मन और हृदय के विकास के द्वारा पशुत्व को दबाकर देवत्व प्राप्ति के पथ पर अग्रसर होना। इसी प्रकार सहज रूप में चारों योग का समन्वय किया जा सकता है। 
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रविवार, 25 नवंबर 2012

'जिसे करना आवश्यक है'- शुक्ति के समान बनो ! [स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [40] (जीवन-गठन की निर्माण-सामग्री),

'तीव्र संवेगानाम् आसन्नः ।'
पहले तो मनः संयोग का अभ्यास नियमित समय से (दो बार प्रातः और संध्या) कर पाना अत्यन्त कठिन  है। फिर मन के उपर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लेना, उसे पूर्णतः अपने वश में रखना सबसे कठिन कार्य है। किन्तु [मनुष्य शरीर प्राप्त कर लेने के बाद ] मनुष्य का सबसे पहला कर्तव्य क्या है, उस प्रथम ड्यटी  (धर्म या फ़र्ज) को पहचान लेना (re-cognizant) होगा ! 'मनःसंयोग की पद्धति' के विषय में सचेत होना होगा। मनःसंयोग की पद्धति को स्पष्ट रूप में समझना होगा,और उसे सही तरीके से प्राप्त करने की चेष्टा करनी होगी। यदि हम इस बात को ठीक से समझ लें (विवेक-विचार करने के बाद) कि ' मेन्टल-कन्सट्रेशन' या मन की एकाग्रता अथवा मन को एकाग्र करने का अभ्यास करना ही प्रत्येक मनुष्य का प्रथम ड्यूटी (धर्म या फ़र्ज) है ; तो निश्चित रूप से मनःसंयोग का अभ्यास करने के प्रति हमारा संकल्प और अधिक दृढ़ हो जायेगा। तथा हम इसका स्थायी-अभ्यास करने लगेंगे, और यदि हम अध्यवसाय के साथ इसका अभ्यास करते रहें, तो इस बात में कोई सन्देह नहीं कि धीरे धीरे अपने मन के उपर हमारा प्रभुत्व भी क्रमशः बढ़ता ही जायेगा। 
हमलोग अपने आप पर (मन के उपर) जितना अधिक प्रभुत्व बढ़ा सकेंगे, उसी अनुपात में सभी विषयों को गहराई से समझ सकेंगे, उनको जान पाएंगे। एकाग्र मन की शक्ति के द्वारा ही हमलोगों की विवेक-दृष्टि खुल जाएगी, आत्मबोध जाग्रत होगा और हमलोग सब कुछ समझने में सक्षम हो जायेंगे। तथा प्रत्येक व्यक्ति अपने निजी- जीवन और सामाजिक-जीवन में अपने अपने कर्तव्य (धर्म या फ़र्ज ) के प्रति सचेत और प्रयत्नशील (मनुष्यजीवन का प्रथम पुरुषार्थ, धर्म-लाभ के लिए सक्रीय) हो जायेगा। केवल इतना ही समझ कर हमलोग यदि मनः संयोग का अभ्यास करते रहें, तो यथेष्ट होगा।
अब हमलोग मन के विषय में स्वामीजी के एक अन्य कथन को एकाग्र-मन होकर श्रवण करेंगे, तथा उसपर मनन करेंगे, " महासागर की ओर यदि देखो, तो प्रतीत होगा कि वहाँ पर्वताकाय बड़ी बड़ी तरंगें हैं, फिर छोटी छोटी तरंगें भी हैं, और छोटे छोटे बुलबुले भी। पर इन सबके पीछे वही अनन्त महासमुद्र है। एक ओर जहाँ वह छोटा सा बुलबुला अनन्त समुद्र से युक्त है, वहीँ दूसरी ओर वह बड़ी तरंग भी उसी महासमुद्र से युक्त है। 
इसी प्रकार, संसार में कोई महापुरुष हो सकता है, और कोई छोटा बुलबुला जैसा सामान्य व्यक्ति, परन्तु सभी उसी अनन्त महाशक्ति के समुद्र से युक्त हैं, जो सभी जीवों का जन्मसिद्ध अधिकार है। जहाँ भी जीवनी-शक्ति का प्रकाश देखो, वहाँ समझना कि उसके पीछे अनन्त शक्ति का भण्डार है। एक छोटा सा फफूँदी (fungus) है; वह, सम्भव है, इतना छोटा, इतना सूक्ष्म हो कि उसे अनुवीक्षण यन्त्र द्वारा देखना पड़े; उससे आरम्भ करो। देखोगे कि वह अनन्त शक्ति के भण्डार से क्रमशः शक्ति संग्रह करके एक अन्य रूप धारण कर रहा है। कालान्तर में वह उदभिद के रूप में परिणत होता है, वही फिर एक पशु का आकार ग्रहण करता है, फिर मनुष्य का रूप लेकर वही अन्त में ईश्वर-रूप में परिणत हो जाता है।  
हाँ, इतना अवश्य है कि प्राकृतिक नियम से इस व्यापर के घटते घटते लाखों वर्ष (कई कल्प aeons) पार हो जायें। परन्तु यह 'समय' है क्या ? [ ऐन इंक्रीज ऑफ़ स्पीड, ऐन  इंक्रीज ऑफ़ स्ट्रगल, इज एबल टु ब्रिज द गल्फ ऑफ़ टाइम.] 'वेग' ----साधना का वेग बढ़ा देकर समय काफी घटाया जा सकता है। योगियों का कहना है कि साधारण प्रयत्न से जिस काम को अधिक समय लगता है, वही, वेग बढ़ा देने पर, बहुत थोड़े समय में सध सकता है। 
हो सकता है, कोई मनुष्य इस संसार की अनन्त शक्ति भण्डार में से बहुत थोड़ी शक्ति लेकर चले। इस प्रकार चलने पर उसे (अपना पशुत्व त्याग कर ) देवत्व प्राप्त करने में सम्भव है, एक लाख वर्ष लग जायें, फिर और भी ऊँची अवस्था प्राप्त करने में शायद पाँच लाख वर्ष लगें। पर उन्नति का वेग बढ़ा देने पर यह समय कम हो जाता है। पर्याप्त प्रयत्न करने पर छः वर्ष या छः महीने में ही यह सिद्धि-लाभ क्यों न हो सकेगा ? (हम इसी समय वह अनन्त ज्ञान, वह अनन्त शक्ति क्यों न प्राप्त कर सकेंगे?)  युक्ति तो बताती है कि इसमें कोई निर्दिष्ट सीमाबद्ध समय नहीं है।
सोचो, कोई स्टीम-इंजन, किसी निश्चित परिमाण में कोयला (फ्यूल या ईंधन) झोंकने से, प्रति घंटा दो मील ही चल पाता हो, किन्तु यदि कोयला (या फ्यूल) झोंकने के परिमाण को अधिकाधिक बढ़ाते रहा जाय तो उसी अनुपात में उस इंजन की स्पीड भी बढ़ती जाएगी। इसी प्रकार यदि हमलोग भी तीव्र वेगसम्पन्न हों, तो इसी जन्म में मुक्ति-लाभ क्यों न कर सकेंगे ? हाँ, हम यह जानते अवश्य हैं कि अन्त में सभी मुक्ति पायेंगे। पर इस प्रकार हम युग युग तक मन की गुलामी से मुक्त होने की प्रतीक्षा क्यों करें ? इसी क्षण, इस शरीर में ही, इस मनुष्य-देह में ही हम मन की गुलामी से मुक्ति-लाभ करने में समर्थ क्यों न होंगे? हम इसी समय वह अनन्त ज्ञान, वह अनन्त शक्ति क्यों न प्राप्त कर सकेंगे ? (१ /६८)"
[महर्षि पतंजलि ने भी समाधिपाद १/२१ में कहा है -तीव्रसम्वेगानामासन्नः ॥ योगी अपने मन के एकाग्र करने की गति को कार का गियर बदलने जैसा घटा-बढ़ा सकता है। 

 तीव्र संवेगानाम् आसन्नः ।
 तथस्ट   --> मृदु --> मध्य --> तीव्र 
neutral ---> soft --> middle --> fast 

१. तटस्थ होकर द्रष्टामन द्वारा दृश्य मन को देखने के लिये आसन पर बैठना। 
२.मृदु स्पीड का प्रत्याहार -मन के साथ मृदु संघर्ष का प्रारम्भ - मन को पूरी ढील दे-देना उसे जहाँ जाना हो, जाने देना केवल उस पर नजर बनाये रखना।
३. मध्यम स्पीड की धारणा - मन को विवेक-प्रयोग करने के लिये मीठे भाव से बच्चा ऐसा समझाना-और समझा-बुझाकर अपने हृदय में विद्यमान इष्टदेव में कुछ देर तक धारण करना।
४. तीव्र स्पीड का मनःसंयोग - मन को इन्द्रिय विषयों में जाने से बिल्कुल रोक देना।(सधापद 54/ प्रत्याहार का अर्थ है जो मन इन्द्रिय बन गया था, वह वास्तव में चित्त ही था, जब वे पुनः चित्त का स्वरुप ग्रहण करने लगती हैं तो उसे प्रत्याहार कहा जाता है। ) तीव्र सम्वेगवालों ( अति जोशीले व लग्नशील लोगों) का ( समाधि लाभ ) समीप - शीघ्र ( होता है ) । समाधि लाभ शीघ्र प्राप्त करने के लिये योगी में उसके लिये तीव्र व दृढ़ इच्छा और अतिक्रियाशीलता होना आवश्यक है।
प्रकृति के अनन्त शक्ति भण्डार में से शक्ति ग्रहण करने की शक्ति बढ़ाकर किस प्रकार शीघ्र मुक्ति-लाभ किया जा सकता है ? योगियों ने इसका उपाय खोज निकाला है। वे दूसरी कोई चिन्ता नहीं करते, दूसरी बातों के लिये एक क्षण भी समय नहीं देते। उनका पल भर भी व्यर्थ नहीं जाता। एकाग्रता का अर्थ ही है, शक्ति-संचय की क्षमता को बढ़ाकर समय को घटा लेना। राजयोग इसी एकाग्रता की शक्ति को प्राप्त करने का विज्ञान है। (1/69)  
संसार में जो कोई वस्तु कुछ वस्तुओं के मिश्रण से बनी है, वह इस आकाश से ही उत्पन्न हुई है, यह आकाश ही वायु में परिणत होता है, यही अग्नि और तरल पदार्थ का रूप धारण करता है, यही फिर ठोस आकर को प्राप्त होता है। आकाश इस जगत का कारणस्वरूप अनन्त सर्वव्यापी भौतिक पदार्थ है, प्राण भी उसी तरह जगत की उत्पत्ति का कारण स्वरूप अनन्त सर्वव्यापी विक्षेपकारी शक्ति है। यह प्राण ही गतिरूप में अभिव्यक्त हुआ है-यही गुरुत्वाकर्षण या चुम्बकीय शक्ति के रूप में अभिव्यक्त हो रहा है। बाह्य और अन्तर्जगत की समस्त शक्तियाँ जब अपनी मूल अवस्था में पहुँचती हैं, तब उसीको प्राण कहते हैं। यह प्राण भी दृश्यमान नाना प्रकार की शक्तियों में परिणत होता है।
जिन्होंने प्राण को जीता है, उन्होंने अपने मन को ही नहीं, वरन सबके मन को भी जीत लिया है। संसार की सारी वस्तुओं में देह हमारे सबसे निकट है और मन उससे भी निकटतर है। जो क्षुद्र प्राण तरंग हमारी शारीरिक और मानसिक शक्तियों के रूप से क्रियाशील है, वह अनन्त प्राण-समुद्र में हमारे सबसे निकटतम तरंग है। यदि हम उस क्षुद्र तरंग पर विजय पा लें, तभी हम समस्त प्राण-समुद्र को जीतने की आशा कर सकते हैं। 
यह प्राण ही समस्त प्राणियों के भीतर जीवनी-शक्ति के रूप में विद्यमान है। जन्मजात प्रवृत्ति या मन की अचेतन भूमि से मच्छर ने जहाँ काटा हाथ स्वतः वहाँ चला जाता है, यह विचारणा शक्ति भी प्राण की ही अभिव्यक्ति है। मन की चेतन भूमि में हम युक्ति-तर्क करते हैं, विचार करते हैं, सब विषयों के पक्षापक्ष सोचते हैं, किन्तु यह सज्ञान या चेतन भूमि ही हमारे ज्ञान की चरम सीमा नहीं है। जब मन समाधि नामक पूर्ण एकाग्र अवस्था में पहुँच जाता है, तब वह युक्ति-तर्क की सीमा के परे चला जाता है और ऐसे तथ्यों का प्रत्यक्ष साक्षात्कार करता है, जो जन्मजात-प्रवृत्ति और युक्ति-तर्क द्वारा कभी प्राप्त नहीं है। यह जगत सतत परिवर्तनशील एक जड़ राशि मात्र है और ये सारे नाम-रूप उसके भीतर मानो छोटे छोटे भँवर हैं। जो अपने मन में अति सूक्ष्म कम्पन उत्पन्न कर सकते हैं, वे देखते हैं कि सारा जगत सूक्ष्मातिसुक्ष्म कम्पनों की समष्टि मात्र है।
आधुनिक भौतिक विज्ञान ने भी यह प्रमाणित कर दिया है कि शक्ति-समष्टि सदैव समान है। वह अनन्त काल से कभी व्यक्त और कभी अव्यक्त भाव धारण करती आ रही है। इस शक्ति रूपी प्राण की सबसे स्पष्ट अभिव्यक्ति है-फेफड़े की गति। यह गति ही, पम्प की भाँति, वायु को भीतर खींचती है। हमें यह सीखना है कि फेफड़े की गति रुक जाने पर भी शरीर के भीतर दुबारा कैसे लौट आया जाय?  प्राणायाम का यथार्थ अर्थ है, फेफड़े की इस गति का रोध करना।
जगत को हिला-दुला देने वाले तीव्र इच्छा-शक्तिसम्पन्न महापुरुष अपने प्राण के कम्पन को इतनी उच्च अवस्था में ला सकते हैं कि हजारों मनुष्य उनकी ओर खिंच जाते हैं, सभी पैगम्बरों का प्राण पर अद्भुत संयम था। जिसके बल से वे प्रबल इच्छा-शक्ति सम्पन्न हो गये थे। जब कोई ध्यान-जप कर रहा हो, तो भी समझना चाहिये कि वह प्राण का ही संयम कर रहा है।(1/58-67)
 महासागर की ओर यदि देखो .......हम पंचेन्द्रियविशिष्ट प्राणी हैं, हमारे प्राणों का कम्पन एक विशेष प्रकार का है। ..समझो, इसी कमरे में ऐसे बहुत से प्राणी हैं, जिन्हें हम नहीं देख पाते। वे सब प्राण के एक प्रकार के स्पन्दन के फल हैं, और हम एक दूसरे प्रकार के। किन्तु हम भी प्राण रूप मूल वस्तु से गढ़े हैं, और वे भी वही हैं। सभी एक ही समुद्र के भिन्न भिन्न अंश मात्र हैं, विभिन्नता केवल स्पन्दन की मात्रा में है। यदि (फेफड़े की गति को रोक कर?)  मन को मैं अधिक स्पन्दन विशिष्ट कर सका तो मैं फिर इस देह के स्तर पर न रहूँगा, पूरा विश्व-ब्रह्माण्ड मेरी दृष्टि से ओझल हो जायेगा। मन को इस प्रकार स्पन्दन की उच्चतर भूमि में लाना ही समाधि है। समाधि की सर्वोच्च अवस्था में हमें सत्यस्वरूप ब्रह्म के दर्शन होते हैं। तब हम उस मूल उपादान को (शाश्वत चैतन्य कम्पन-सच्चिदानन्द!) को जान लेते हैं, जिससे इन सब बहुविध जीवों की उत्पत्ति हुई है, जैसे मिट्टी के एक ढेले का ज्ञान होने से समस्त मिट्टी का ज्ञान हो जाता है। 1/70'
हमें मालूम है कि हमारे स्नायुओं के भीतर दो प्रकार के प्रवाह हैं, उनमें से एक को अन्तरमुखी और दूसरे को बहिर्मुखी, एक को ज्ञानात्मक और दूसरे को कर्मात्मक, एक को केन्द्र-गामी और दूसरे को केन्द्रापसारी कहा जा सकता है। एक मस्तिष्क की ओर सम्वाद ले जाता है, और दुसरा मस्तिष्क से बाहर, समुदय अंगों में।
मेरुदण्ड के भीतर बाएं इड़ा और दायें पिंगला नाम के दो स्नायविक शक्ति-प्रवाह और मेरुम्ज्जा के ठीक बीच में जो शून्य नली गयी है वही सुषुम्णा है। यह मेरुमज्जा मस्तिष्क में जाकर एक प्रकार के 'बल्ब' में medulla (मज्जा) नामक एक अंडाकार पदार्थ में अंत हो जाती है, जो मस्तिष्क के साथ संयुक्त नहीं है, वरन मस्तिष्क में जो एक तरल पदार्थ है, उसमें तैरता रहता है। यदि सिर पर कोई आघात लगे तो उस अघात की शक्ति उस तरल पदार्थ में विखर जाती है, और इससे उस बल्ब को कोई चोट नहीं पहुँचती।
विद्युत् क्या है, यह किसी को नहीं मालूम; हमलोग इतना ही जानते हैं कि विद्युत् एक प्रकार की गति है। समस्त परमाणु यदि एक ओर गतिशील हों, तो उसीको वैद्युत  गति कहते हैं। इस कमरे में जो वायु है, उसके सारे परमाणुओं को यदि लगातार एक ओर चलाया जाय, तो यह कमरा एक महान बैटरी के रूप में परिणत हो जायेगा।यदि श्वास-प्रश्वास की गति नियमित की जाय, तो शरीर के सारे परमाणु एक ही दिशा में गतिशील होने का प्रयत्न करेंगे। जब विभिन्न  में दिशाओं में दौड़ने वाला मन एकमुखी होकर एक दृढ इच्छा-शक्ति के रूप में परिणत होता है, तब सारे स्नायु-प्रवाह भी एक प्रकार के विद्युत् का आकार धारण कर लेती है। जब शरीर की सारी गतियाँ सम्पूर्ण रूप से एकाभिमुखी होती हैं, तब वह शरीर मानो इच्छा-शक्ति का एक प्रबल विद्युत्-आधार या डायनेमो बन जाता है। (1/73)
' प्राण का अर्थ है शक्ति। तो भी हम  इसे शक्ति नाम नहीं दे सकते, क्योंकि शक्ति तो इस प्राण की अभिव्यक्ति मात्र है। मनुष्य देह में तीन मुख्य प्राण-प्रवाह अर्थात नाड़ियाँ है। यदि मेरुदण्ड मध्यस्थ सुषुम्णा के भीतर से स्नायु प्रवाह चलाया जा सके तो देह का बंधन फिर न रह जायेगा, सारा ज्ञान हमारे अधिकार में आ जायेगा। मूलाधार चक्र में जन्म-जन्मान्तर के संस्कार-समिष्टि मानो संचित सी रहती है। और उस कुण्डलीकृत क्रियाशक्ति को कुण्डलिनी कहते हैं। कुण्डलिनी को जगा देना ही तत्वज्ञान, अतिचेतन अनुभूति या आत्मसाक्षात्कार का एकमात्र उपाय है। चार योगों में से किसी की सहायता से कुण्डलिनी को जाग्रत किया जा सकता है। 1/77
' इस सुषुम्णा को खोलना ही योगी का एकमात्र उद्देश्य है। सबसे निचे वाला चक्र ही समस्त शक्ति का अधिष्ठान है। उस शक्ति को उस जगह से उठाकर मस्तिष्कस्थ  'बल्ब' तक ले जाना होगा। तब वह कामशक्ति ओज शक्ति में परिणत हो जाती है। ब्रह्मचर्य के बिना राजयोग की साधना बड़े खतरे की है, मस्तिष्क बिगड़ भी सकता है। तन-मन-वचन से सर्वदा सब अवस्थाओं में मैथुन का त्याग ही ब्रहचर्य है। 1/101' अपवित्र-जीवन जीने वाला योगी नहीं बन सकता है। 1/82
' जो शीघ्र उन्नति करने की इच्छा करते हैं, वे यदि कुछ महीने केवल दूध और अन्न आदि निरामिष भोजन पर रह सकें, तो उन्हें साधना में बड़ी सहायता मिल सकेगी। 1/88 यह अहं भाव केवल बीच की अवस्था में रहता है। जब मन इस रेखा के उपर या नीचे विचरण करता है, तब किसी प्रकार का अहं-ज्ञान नहीं रहता, किन्तु तब भी मन की क्रिया चलती रहती है।
जब कोई मनुष्य समाधिस्थ होता है, तो समाधि प्राप्त करने के पहले यदि वह महामूर्ख रहा हो, अज्ञानी रहा हो, तो समाधि से वह महाज्ञानी होकर व्युत्थित होता है। वह स्पष्ट देख पाता है, ' कहाँ मैं देवराज, और कहाँ इस शूकर-जन्म को ही एकमात्र जन्म समझ बैठा था; यही नहीं, वरन सारा संसार शूकर-देह धारण करे, ऐसी कामना कर रहा था !' पुरुष भी बस, इसी प्रकार प्रकृति के साथ मिलकर भूल जाता है कि वह शुद्ध और अनन्तस्वरुप है। (1/164) 
' हमारे दुःख या सुख का कारण है-शरीर के साथ अपना संयोग कर लेना। (1/172) यह अतीन्द्रिय अवस्था कभी कभी ऐसे व्यक्ति को अचानक प्राप्त हो जाती है, जो उसका विज्ञान नहीं जानता। वह मानो उस ज्ञानातीत राज्य में ढकेल दिया जाता है। अचानक जा पड़ने से दिमाग बिगड़ जाने की संभवना रहती है। मुहम्मद कोई सिद्ध योगी न थे। उनको अनजाने में ही अचानक अन्तः प्रेरणा मिल गयी थी। ...कितने ही देशों का सर्वनाश हो गया। 1/96.
' विद्युत्-शक्ति के बारे में आधुनिक मत यह है कि वह डाइनेमो से बाहर निकल, घूमकर फिर से उसी यन्त्र में लौट आती है। प्रेम और घृणा के बारे में भी यही नियम लागु होता है।'(1/110) हमारा यह जीवन उस इन्द्रियातीत अनंतस्वरूप में पहुँचने के लिये रास्ते में केवल एक क्षूद्र अवस्था है। 1/113
' पुनः पुनः अभ्यास ही चरित्र का सुधार कर सकता है। ' अभ्यास किसे कहते हैं ? 
तत्र स्थितौ यत्नो अभ्यासः।। समाधिपाद 13।।
मन को दमन करने की चेष्टा, अर्थात प्रवाह-रूप में उसकी बाहर जाने की प्रवृत्ति को रोकने की चेष्टा ही अभ्यास है। '(1/123)  (1/139) सधापद 54/ प्रत्याहार का अर्थ है जो मन इन्द्रिय बन गया था, वह वास्तव में चित्त ही था, जब वे पुनः चित्त का स्वरुप ग्रहण करने लगती हैं तो उसे प्रत्याहार कहा जाता है।
(1/160)साधनपाद 24/25/26 बार बार पढो। मन एकाग्र हुआ है, यह कैसे जाना जाय ? मन के एकाग्र हो जाने पर समय का कोई ज्ञान न रहेगा। जितना ही समय का ज्ञान जाने लगता है, हम उतने ही एकाग्र होते जाते हैं। ' (1/188)'पूर्णता ही मनुष्य का स्वभाव है, केवल उसके किवाड़ बन्द हैं, वह अपना यथार्थ रास्ता नहीं पा रही है। .....पशु के भीतर मनुष्य गूढ़ भाव से निहित है; ज्यों ही किवाड़ खोल दिया जाता है, अर्थात ज्यों ही बाधा हट जाती है, त्यों ही वह मनुष्य प्रकाशित हो जाता है। इसी प्रकार मनुष्य के भीतर भी देवत्व अव्यक्त भाव से विद्यमान है, केवल अज्ञान का आवरण उसे प्रकाशित नहीं होने देता। जब ज्ञान इस आवरण को चीर डालता है, तब वह भीतर का देवता प्रकाशित हो जाता है।' (1/207)(1/184)]
यही स्वामीजी की शिक्षाओं का सार है, जिसे स्वामीजी बार बार समझाने का प्रयत्न किये हैं। यह अत्यन्त कठिन कार्य है, लगभग असम्भव ही है। हमलोग मनःसंयोग के द्वारा,अभ्यास के द्वारा, अध्यवसाय के द्वारा, संकल्प की दृढ़ता के द्वारा, सक्रिय प्रयत्न के द्वारा, लाखों-लाख वर्ष की सम्भावना को अत्यन्त शीघ्र सम्भव कर सकते हैं। हममें से प्रत्येक व्यक्ति, महासागर के बुलबुले जैसा होकर भी, महासागर के साथ, उसी अनन्त महाशक्ति के समुद्र से युक्त है, हमलोगों में यही बोध जाग्रत होने की आवश्यकता है। हमलोग मनःसंयोग कर सकते हैं। हमलोगों के हृदय की अदृश्य अस्पष्ट अनुभूति से परे अवस्थित, इस महाशक्ति के विषय में मनको एकाग्र कर सकते हैं।
दूसरी बातों को जानने की अभी आवश्यकता नहीं है, स्वामीजी की कुछ और बातों को सुना जाय-
 " शुक्ति के समान बनो। भारतवर्ष में एक सुन्दर किंवदन्ती प्रचलित है। वह यह कि आकाश में स्वाति नक्षत्र के तुंगस्थ रहते यदि पानी गिरे और उसकी एक बून्द किसी सीपी में चली जाय, तो उसका मोती बन जाता है। सीपियों को यह मालूम है। अतएव जब वह नक्षत्र उदित होता है, तो वे सीपियाँ पानी की उपरी सतह पर आ जाती हैं, और उस समय की एक अनमोल बून्द की प्रतीक्षा करती रहती हैं। ज्यों ही एक बून्द पानी उनके पेट में जाता है, त्यों ही उस जलकण को लेकर मुँह बन्द करके वे समुद्र के अथाह गर्भ में चली जाती हैं और वहाँ बड़े धैर्य के साथ उनसे मोती तैयार करने के प्रयत्न में लग जाती हैं। 
हमें भी उन्हीं सीपियों की तरह होना होगा। पहले सुनना होगा, फिर समझना होगा, अन्त में बाहरी संसार से दृष्टि बिल्कुल हटाकर, सब प्रकार की विक्षेपकारी बातों से दूर रहकर हमें अन्तर्निहित सत्य-तत्व के विकास के लिये प्रयत्न करना होगा। एक भाव को नया कहकर ग्रहण करके, उसकी नवीनता चली जाने पर फिर एक दूसरे नये भाव का आश्रय लेना -इस प्रकार बारम्बार करने से तो हमारी शक्ति ही इधर-उधर बिखर जायगी।
एक भाव को पकड़ो, उसी को लेकर रहो। उसका अन्त देखे बिना उसे मत छोड़ो। जो एक भाव को लेकर उसी में मत्त रह सकते हैं, उन्हीं के हृदय में सत्य-तत्व का उन्मेष होता है। और जो यहाँ का कुछ, वहाँ का कुछ, इस तरह खटाई चखने के समान सब विषयों को मानो थोड़ा थोड़ा चखते जाते हैं, वे कभी कोई चीज पा सकते। कुछ देर के लिये नसों की उत्तेजना से उन्हें एक प्रकार का आनन्द भले ही मिल जाता हो, किन्तु इससे और कुछ फल नहीं होता। वे चिरकाल प्रकृति के दास बने रहेंगे, कभी अतीन्द्रिय राज्य में विचरण न कर सकेंगे। "
" एक विचार को लो; उसी विचार को अपना जीवन बनाओ-उसी का चिन्तन करो, उसीका स्वप्न देखो, और उसी में जीवन बिताओ। तुम्हारा मस्तिष्क,स्नायु, शरीर के सर्वांग उसीके विचार से पूर्ण रहें। दूसरे सारे विचार छोड़ दो। यही सिद्ध होने का उपाय है। ...यदि हम सचमुच स्वयं कृतार्थ होना और दूसरों का उद्धार करना चाहें, तो हमें गहराई तक जाना होगा। इसे कार्य में परिणत करने का पहला सोपान यह है कि मन किसी तरह चंचल न किया जाय। जिनके साथ बातचीत करने पर मन चंचल हो जाता हो, उनका साथ छोड़ दो। तुम सबको मालूम है कि तुममें से प्रत्येक का किसी स्थानविशेष, व्यक्तिविशेष और खाद्यविशेष के प्रति एक विरक्ति का भाव रहता है। उन सबका परित्याग कर देना।
 ...जो लोग तमोगुण से पूर्ण हैं, अज्ञानी और आलसी हैं, जिनका मन कभी किसी वस्तु पर स्थिर नहीं रहता, जो केवल थोड़े से मजे के अन्वेषण में हैं, उनके लिये धर्म और दर्शन केवल मनोरंजन के विषय हैं, उनके लिये धर्म और दर्शन केवल मनोरंजन के विषय हैं। जो सिर्फ थोड़े से आमोद-प्रमोद के लिये धर्म करने आते हैं, वे साधना में अध्यवसाय हीन हैं। वे धर्म की बातें सुनकर सोचते हैं, 'वाह ! ये तो बड़ी अच्छी बातें हैं'; पर इसके बाद घर पहुँचते ही सारी बातें  भूल जाते हैं। सिद्ध होना हो, तो प्रबल अध्यवसाय चाहिये, मन का अपरिमित बल चाहिये। अध्यवसायशील साधक कहता है, " मैं चुल्लू में समुद्र पी जाऊंगा। मेरी इच्छामात्र से पर्वत चूर चूर हो जायेंगे। " इस प्रकार का तेज, इस प्रकार का दृढ़ संकल्प लेकर कठोर साधना करो और तुम ध्येय को अवश्य प्राप्त कर सकोगे। " (1/89-90)
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