बुधवार, 1 अगस्त 2012

2.1 " आशा और निराशा " [ द्वितीय अध्याय -2.1 :समस्या और समाधान (Problem and Solution) : "स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना " SVHS-2.1]


 "स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना : SVHS-2.1"

[द्वितीय अध्याय : समस्या और समाधान] 

1.  

 " आशा और निराशा "

    कई शताब्दियों तक गुलामी की बेड़ियों में जकड़े रहने के बाद समस्याओं के पहाड़ /अम्बार को सिर पर उठाये जिस दिन पराधीन भारत में स्वाधीनता का अरुणोदय हुआ था, कितने ही प्रकार के दुःखों से घिरे होने के बावजूद भी, उस दिन मन में आशा की एक किरण फूट पड़ी थी। लगा था,अब देशवासियों के लिए 'भोजन, वस्त्र, आवास, स्वास्थ्य, शिक्षा' की कमी नहीं रहेगी। हम सोचने लगे थे कि विश्व के समस्त राष्ट्रों के बीच भारतवर्ष अपना खोया हुआ गौरव पुनः प्राप्त कर लेगा। किन्तु मन में घर किये बैठी अन्य आशाओं-आकाकंक्षाओं की भाँति यह आशा भी अभी तक मरीचिका (mirage, कल्पना या भ्रम) ही बनी हुई है
          कुछ ही दिनों पूर्व जब पूरे जोर-शोर से भारतीय गणतन्त्र दिवस (26 जनवरी,1950)  की बीसवीं वर्षगाँठ मनाई जा रही थी (यह लेख 1970 में महामण्डल की संवाद पत्रिका Vivek-Jivan में प्रकाशित हुआ था) और लगभग उसी समय (12 जनवरी, 1970 को) स्वामी विवेकानन्द का जन्मोत्सव भी मनाया गया था- तब मन में स्वाभाविक तौर से यह प्रश्न उठा था- अब भी देश का ऐसा हाल क्यों है ? शासन करने का अधिकार अपने हाथों में आने के बाद भी 
अभी तक भारत की आम जनता के चेहरों पर मुस्कान क्यों नहीं आ सकी है ? आज भी भारत के तरुणों- युवाओं की आँखों में आशा की चमक के बदले हताशा ही क्यों दिखाई दे रही है ? क्यों  हमलोग एक राष्ट्र के रूप में ['संप्रभुता सम्पन्न राष्ट्र' (Sovereign nation) के रूप में]  आज भी विश्व सभा में गौरव-पूर्ण आसन पर प्रतिष्ठित नहीं हो सके हैं ?
        इन सभी प्रश्नों का ठीक-ठीक उत्तर जान लेना बहुत आवश्यक है। क्योंकि रोग की पहचान (diagnosis) ठीक से नहीं होने पर उससे मुक्त होना संभव नहीं होता। आज राष्ट्रीय जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में जो कुछ भी अधःपतन दिखाई दे रहा है, उसका कारण यह है कि हमलोगों के राष्ट्रीय-चरित्र में ईमानदारी लगभग विलुप्त हो चुकी है और चारों ओर भ्रष्टाचार व्याप्त हो चुका है। हमारे अन्दर से देशप्रेम गायब हो गया है जो राष्ट्रीय स्वार्थ को व्यक्ति स्वार्थ के उपर स्थान देना सिखालाता है। हमारे भीतर देश के लिए वैसी उत्कट देशभक्ति नहीं है, अपने देशवासियों के प्रति वह प्रेम नहीं है जो समाज के शोषितो, वंचितों, उपेक्षितों, जनसाधारण, नीच, मूर्ख, दरिद्र, अज्ञ, मोची, मेहतर - सबों को अपना भाई, अपने रक्त के रूप में देखना सिखाता है। इन सबका जो परिणाम होना चाहिए, वही हो रहा है।  [यानि स्वाधीन भारत में 'मनुष्य -निर्माण और चरित्रनिर्माणकारी शिक्षा' का प्रचार -प्रसार करने के बदले, इस प्रचलित 'बाबू (आई.ए.एस या क्लर्कबनाने वाली शिक्षा' व्यवस्था  लागु रहने के परिणामस्वरूप जो परिणाम होना चाहिये, वही हो रहा है। ]
            स्वामीजी ने अपने देशवासियों को साक्षात् देवता मानकर (जनताजनार्दन मानकर)  उनकी पूजा करने का संदेश दिया था। उन्होंने कहा था-"मैंने इतनी तपस्या करके जो समझा है उसका सार यही है कि सभी जीवों में वे (ईश्वर-एकोहं बहु स्याम) ही अधिष्ठित हैं। इसके अतिरिक्त ईश्वर और कुछ भी नहीं है। ईश्वर के अनुग्रह से यदि तुम उनके किसी सन्तान की सेवा कर सको तो तुम धन्य हो जाओगे। अतएव (हमेशा दासोऽहं का भाव रखो) अपने को कभी दूसरों की अपेक्षा बहुत बड़ा मत समझो। तुम धन्य हो, क्योंकि तुमको सेवा करने का अधिकार मिला है। यह सेवा तुम्हारे लिये पूजा के तुल्य है।" (उच्च स्तर की समाज सेवा -दूसरों की आध्यात्मिक दृष्टि खोलने की सेवा तुम्हारे लिये पूजा के तुल्य है।) लेकिन स्वामीजी के इन संदेशों को सुन कर काम में लग जायें, वैसी हृदयवत्ता कहाँ है ? 
       जब प्रत्येक भारतवासी स्वामीजी के आदर्श को अपने जीवन में धारण करने के लिए प्रतिबद्ध होगा तभी वह पदावनत भारत को पुनर्जाग्रत करने के लिए वचनबद्ध होगा। व्यक्ति-जीवन के सबल बन जाने पर ही स्वस्थ समाज और राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण संभव हो सकता है। समस्त निराशाओं के बीच स्वामीजी के जीवन्त संदेशों में ही भविष्य के भारत की आशा को साकार करने का बीज निहित है। 
           6 अप्रैल 1897 को सरला घोषाल को लिखित पत्र में स्वामी जी कहते हैं- " हे महाभागे! मैंने जापान में सुना कि वहाँ के लड़कियों को यह विश्वास है कि यदि उनके गुड़ियों को हृदय से प्यार किया जाय तो वे जीवित हो उठेंगी। जापानी बालिका अपनी गुड़िया को कभी नहीं तोड़ती। मेरा भी विश्वास है कि यदि हतश्री, अभागे, निर्बुद्धि, पददलित, चिर बुभुक्षित, झगड़ालू और ईर्ष्यालु भारतवासियों को भी कोई हृदय से प्यार करने लगे, तो भारत पुनः जाग्रत हो जायेगा। भारत तभी जागेगा जब विशाल हृदयवाले सैकड़ो स्त्री-पुरुष भोग-विलास और सुख की सभी इच्छाओं को विसर्जित कर मन, वचन और शरीर से उन करोड़ों भारतियों के कल्याण के लिये सचेष्ट होंगे जो दरिद्रता तथा मूर्खता के अगाध सागर में निरन्तर नीचे डूबते जा रहे हैं।" इसीलिये विशाल-हृदय वाले युवाओं का आह्वान करते हुए विवेकानन्द कहते हैं -"मोहग्रस्त लोगों की ओर दृष्टिपात करो। हाय ! हृदय-भेदकारी करुणापूर्ण उनके आर्तनाद को सुनो। "हे वीरों, बद्धों को पाशमुक्त करने, दरिद्रों के कष्ट को कम करने तथा अज्ञ-जनों के हृदय के अंधकार को दूर करने के लिये आगे बढ़ो ! 'अभिः,अभिः'! 'डरो नहीं','डरो नहीं'- यही वेदान्त-डिण्डिम का स्पष्ट उद्घोष है। " 
" कोई कृति खो नहीं सकती 
और न कोई संघर्ष व्यर्थ जायेगा, 
भले ही आशाएँ क्षीण हो जायें, 
और शक्तियाँ जवाब दे दें।
फिर भी धैर्य धरो कुछ देर- हे वीर हृदय, 
तुम्हारे उत्तराधिकारी अवश्य जन्मेंगे,   
 और कोई भी सत्कर्म निष्फल न होगा ! " 
 (वि० सा० १० /पृष्ठ १८९ )
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" अभिः,अभिः, डरो नहीं,डरो नहीं!" 

"जब मैं था तब हरि नहीं , अब हरि हैं मैं नहीं।
प्रेम गली अति सांकरी , तामें दो न समनहि।।

 अधिकांश लोग प्रियजन के लिए नहीं, बल्कि अपने व्यक्तिगत अभाव के लिए शोक मनाते हैं। हमारे जीवन में आने वाले सभी अच्छे या बुरे सभी प्रकार के व्यक्ति वास्तव में हमारे प्रति ईश्वर के प्रेम की अभिव्यक्ति हैं। क्योंकि -
 
"ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः।
 
अनेन वेद्यं सत्-शास्त्रम् इति वेदांत-डिण्डिमः।"

[ब्रह्म सत्यम्। जगत् मिथ्या। जीवः ब्रह्म एव। न अपरः। अनेन वेद्यं सत्-शास्त्रम् इति वेदांत-डिण्डिमः ।]
ब्रह्म सत्य (यथार्थ) है,  ब्रह्माण्ड मिथ्या है।  (इसे यथार्थ या असत्य के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता)। जीव ही ब्रह्म है और भिन्न नहीं। यहाँ मिथ्या का अर्थ अस्तित्वहीन नहीं है बल्कि मिथ्या का अर्थ है कि इसे वास्तविक या अवास्तविक के रूप में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता है। जीव स्वयं ब्रह्म है, भिन्न नहीं। अतः प्रत्येक व्यक्ति स्वयं भगवान है। इसे सही शास्त्र के रूप में समझना चाहिए। यह वेदांत द्वारा घोषित किया गया है।
    अतएव प्रत्येक मित्र - चाहे वह रिश्तेदार हो, मित्र हो या जीवनसाथी हो - चाहे वह अभी हमारे साथ हो या जो इस धरती को छोड़ चुका हो, एक माध्यम है जिसके माध्यम से ईश्वर स्वयं अपनी मित्रता का प्रतीक है। मित्र/शत्रु के  भेष में भगवान ही होते हैं। और वह "CINC नवनीदा " ईश्वर ही है जो कुछ समय के लिए एक प्यारे बेटे या बेटी या माँ, पिता, मित्र या प्रिय के रूप में प्रकट होता है - और वह ही है जो फिर से दृश्य से गायब हो जाता है। यदि कर्म बंधन मजबूत हैं, विशेष रूप से आध्यात्मिक बंधन, तो वह अलग-अलग अवतारों में उन्हीं आत्माओं के साथ फिर से रिश्ते में आ सकता है। 
   यह ईश्वर है, और केवल ईश्वर ही है, जिसने स्वयं को उन सभी मनुष्यों में आत्मा के रूप में समाहित किया है जिन्हें उसने बनाया है। और जब एक इंसान दूसरे इंसान को शुद्ध दिव्य प्रेम से प्यार करता है, तो वह उस व्यक्ति में भगवान की भावना को प्रकट होता हुआ देखता है। जो लोग प्रत्येक मनुष्य के भीतर वास करने वाली आत्मा से प्रेम करते हैं वे स्थायी आनंद का अनुभव करते हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि आत्मा अमर है - मृत्यु उसे बिल्कुल भी नहीं छू सकती। केवल वे लोग जिनके पास यह सच्चा ज्ञान है, वे ही अपने लिए इस प्रकार असाधारण जीवन डिजाइन करने में सक्षम हैं।
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