गुरुवार, 21 जून 2012

' माया के आवरण में ब्रह्म ही छिपा हुआ है ' /[16] कहानियों में वेदान्त

' बहुरुपिया- हरिया ' 
ओह, बच्चों का कितना बड़ा झुण्ड चला आ रहा है ! झुण्ड के झुण्ड बांध कर लड़के सब ' हरिया ' नामक बहुरुपिया के पीछे पीछे भाग रहे थे। अभी जाड़े के दिन चल रहे हैं। खेतों से सारे धान कट कर घर में आ चुके हैं। इतने दिनों के परिश्रम को सफल होते देखकर सभी किसानों का दिल आनन्द से झूम उठा है। ठण्ढे के मौसम में, वैसे भी खाने-पीने की वस्तुओं की भरमार हो जाती है।
खजूर का रस, केतारी का रस, ईख का गुड़, फूलगोभी, टमाटर आदि खाने-पीने की, बहुत सी अच्छी अच्छी चीजें मिलनी शुरू हो जाती हैं। गाँव के हर चौक-चौराहों पर चौप-पकौड़ों आदि की दुकाने लग जाती हैं। बच्चों का उत्साह तो देखते ही बनता है। रविवार के दिन का तो कहना ही क्या, उस दिन स्कूल में भी छूट्टी हो जाती है। खेल-कूद, हो-हंगामा मचाते हुए वे लोग गाँव की गलियों को गुंजायमान बना देते हैं।
उन्हीं दिनों उस गाँव में हरिया नामक एक बहुरुपिया भी आता था। वह तरह तरह के वेश बना कर बच्चों का मनोरंजन करता था। किसी दिन सन्यासी बनता, किसी दिन भिखारी, या किसी दिन राजा का वेश बना लेता था। इस प्रकार विविध रूप बना बना कर, गाँव की हर गलि में घूमता हुआ, वह घर-घर जाकर अपना रूप दिखाता था। घर के मालिक लोग खुश होकर कुछ पैसा और अनाज आदि दे देते थे।
 इन दिनों हरिया को अच्छा रोजगार मिल जाता था। और सारे गाँव वाले भी आनन्द पाते थे। किन्तु उसके साथ सबसे अधिक आनन्द बच्चों आता था। वे बहुरुपिया के पीछे भागते, धूम मचाते जी खोल कर आनन्द से हँसते हुए गलियों को गुलजार कर देते थे।
उस दिन शाम होने को था। एक खेल के मैदान में बहुत से लड़के एकत्र हुए थे। खेल खत्म हो जाने के बाद मैदान के बीच में खड़े होकर सभी अपना अपना दल बना रहे थे। तुरन्त अँधेरा छा जायेगा, अब जल्दी जल्दी घर लौट जाना होगा। वापस जाने के पहले थोड़ा बातचीत करना चाहते थे।
अचानक बिपिन चिल्ला उठा, ' बाघ ' ! वह अपने दाहिने हाथ को फैलाकर झाड़ी की ओर ऊँगली दिखाते हुए, कुछ दिखाना चाह रहा था। सबों की दृष्टि उस ओर गयी, अरे सचमुच, शरीर पर धारी धारी जैसा बना हुआ था, मोटे मोटे पन्जे थे, गोल गोल आँखें थीं, और एक बड़ी सी पूँछ थी। वह झाड़ी से निकल कर उन्हीं लोगों की ओर देख रहा था।   
बाघ को देखकर, डर से बच्चों की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गयी थी। अब क्या होगा, सब खत्म हो जायेगा ? वे करें तो क्या ? दौड़ कर भाग जाने का उपाय भी नहीं था। भागने से भी कोई लाभ नहीं था। कुछ लड़के तो देखते ही भाग खड़े हुए थे। कुछ वैसा भी नहीं कर सके, बाघ को देखते ही, उनके हाथ-पाँव फूल गये थे। वे सोचने लगे, अब तो एक भारी दुर्घटना होकर रहेगी। बाघ उसी पर झपट्टा मारेगा जो पीछे के दल में बच जायेंगे, अब हमही लोगों में से किसी एक को  निसाना  बना कर कुछ ही क्षणों में हमला कर देगा। और किसी के पीठ पर, यम के जैसा कूद कर चढ़ जायेगा। इससे अधिक तो सोचना भी मुश्किल था। मृत्यु को निश्चित जान कर एक-दो लड़के तो रोने भी लगे थे।
उसमें से एक लड़के को थोड़ा भी भय नहीं हुआ था। वह न तो भागने की कोशिश किया, न उसके हाथ-पाँव फूले थे, वह एक टक से बाघ के ओर ही देखे जा रहा था। अचानक वह लड़का हँस पड़ा, बोला- " अरे यह बाघ नहीं है, यह तो हमलोगों का ' हरिया ' है ! आज यह बाघ का मुखौटा लगा कर, और बघ-छल्ला ओढ़ कर हमलोगों को डराने के लिए आया है ! चलो, चलो उसके पीछे पीछे चलने में बड़ा मजा आयेगा।"
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 यह सुनने के बाद बाकी लडकों ने भी बाघ को दुबारा अच्छी तरह से देखा। ठीक तो, सचमुच यह बाघ नहीं है।
हरिया ने अपने पूरे शरीर को बाघ के छाल से ढँक लिया था, किन्तु बाघ के आगे वाले पैरों के पास ही हरिया का हाथ दिखाई दे रहा था, यह रहे उसके पैर ! साथ ही साथ उन लोगो का सारा भय समाप्त हो गया। अब कौन भागने वाला था, लडकों का पूरा झुण्ड उसी के पीछे लग गया।
[ " हरि जब सिंह का मुखौटा लगा लेता है,तो सचमुच बड़ा डरावना दिखने लगता है।जब वह अपनी खेलती हुई छोटी बहन के पास जाकर सिंह की-सी आवाज करते हुए उसे डराने लगता है तो वह बच्ची चौंककर मारे डर के चीखती हुई भागने लगती है। लेकिन हरि जब वह मुखौटा हटा लेता है तो तुरन्त वह घबड़ाई हुई बच्ची अपने प्यारे भाई को पहचानकर उसकी ओर चिल्लाती हुई दौड़ पड़ती है-' अरे,ये तो भैया हैं !' 
मनुष्यों का भी यही हाल है। माया के आवरण में ब्रह्म ही छिपा हुआ है, फिर भी माया के प्रभाव से लोग मुग्ध और भयभीत होकर कितनी ही चीजें करने को विवश हो जाते हैं। लेकिन जब ब्रह्म के स्वरुप पर से यह माया का पर्दा हट जाता है तब वह भयंकर, कठोर शासक के रूप में प्रतीत नहीं होता- तब तो अपनी ही प्रियतम अन्तरात्मा के रूप में उसका अनुभव होता है। " ॐ तत सत]
हरिया बहरूपिये ने सोचा, अब इन लडकों को डराया नहीं जा सकता, इन लोगों ने पहचान लिया है, अच्छा होगा यहाँ से निकल कर, किसी नये जगह में डराने का खेल दिखाया जाय। क्योंकि दूसरे स्थान में जाने से, कोई उसको ' हरि ' या हरिया के रूप में पहचानेगा ही नहीं, और बाघ समझ कर डर जायेगा।
हमलोग जैसे ही  भ्रम ( माया - मिथ्याबोध) को भ्रम (माया) के रूप में जान जाते हैं, उस समय भी ठीक वैसा ही होता है। हमलोगों के हृदय में उसी क्षण सत्य ज्ञान उद्भासित हो उठता है, और फिर हमलोग सभी प्रकार के(मृत्यु आदि के ) भय से सदा के लिए मुक्ति पा जाते हैं।

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