गुरुवार, 21 जून 2012

' आचार्य शंकर और माया ' /कहानियों में वेदान्त [14]

' आचार्य शंकर और माया ' 
आचार्य शंकर ब्रह्मज्ञानी थे। केवल आठ वर्ष की आयु में ही समस्त शात्रों का अध्यन करके, सन्यास ग्रहण करने के लिए घर छोड़ दिया था।   यह बात जगत प्रसिद्ध है, कि उसके बाद तीन वर्ष तक साधना करने बाद उनको ब्रह्मज्ञान प्राप्त हो गया था।
इस जगत में शुद्ध चैतन्य ही एकमात्र सत्य वस्तु है। एक शक्ति के प्रभाव में आकर ही हमलोग उस शुद्ध चैतन्य को विभिन्न रूपों में देखते हैं और उसी को जगत समझते हैं। जैसे जब हमलोग स्वप्न देख रहे होते हैं, उस समय सब कुछ सत्य ही प्रतीत होता है। नींद टूट जाने के बाद ही यह समझ में आता है, कि जो कुछ देख रहा था, वह सत्य नहीं था। जिस शक्ति के प्रभाव में वह सब देख रहा था, वह शक्ति या उसका प्रभाव उस समय कुछ भी नहीं रहता। इसीलिये जाग्रत अवस्था में वह शक्ति भी मिथ्या प्रतीत होती है।
आचार्य शंकर ने वेदान्त की बातों को इसी रूप में प्रचार किया है। ब्रह्म ही एकमात्र सत्य वस्तु है, किन्तु ज्ञान प्राप्त होने के पहले मायाशक्ति के प्रभाव में आकर उसी (ब्रह्म) को जगत के रूप में देखते हैं। जिस क्षण यह भ्रम टूट जाता है, तब दिखाई देता है, कि न तो जगत का अस्तित्व है, न माया का। एकमात्र शुद्ध शश्वत चैतन्य के सिवा और कुछ भी नहीं है। इसीलिये माया की सत्यता को ' सर्वकालीन सत्य ' के रूप में स्वीकार करने की कोई बाध्यता नहीं है।  
किन्तु श्रीरामकृष्णदेव आचार्य शंकर की तरह इस सत्य की उपलब्धी करने के बाद, माया-शक्ति को इस दृष्टि से नहीं देखते थे। वे कहते थे, ' जिस प्रकार ब्रह्म सत्य है, उसी प्रकार उसकी शक्ति भी सत्य है।'
वे कहते थे, " एक अवस्था में ब्रह्म और उनकी शक्ति मिल जाते और एक बन कर रहते हैं, उस समय शक्ति का आविर्भाव नहीं रहता; एक दूसरी अवस्था में शक्ति का आविर्भाव रहता है। "
कहा करते, " साँप जब कुण्डली मार कर सोया रहता है, उस समय भी साँप है, और जिस समय वह चलता-फिरता रहता है, तब भी साँप ही होता है। साँप जिस समय चुपचाप पड़ा रहता है, उस समय हमलोग यह नहीं कह सकते कि तब उसमें चलने की शक्ति नहीं होती।"
वे कहते थे, " ब्रह्म और उनकी शक्ति अभिन्न हैं। ठीक वैसे ही जैसे अग्नि और उसकी दाहिका शक्ति, या मणि और उसकी ज्योति अभिन्न हैं।" मणि का स्मरण होते ही उसकी ज्योति की बात का भी स्मरण हो आता है। ज्योति के बिना हमलोग मणि की कल्पना भी नहीं कर सकते। उसी प्रकार मणि के बिना उसकी ज्योति की कल्पना भी नहीं की जा सकती। वे कहते थे, " जो ब्रह्म हैं, वे ही शक्ति हैं; वेदों में जिनको ब्रह्म कहा गया है, तंत्रों में उन्हीं को काली कहा गया है, फिर पुराणों में उन्हीं को कृष्ण कहा गया है। "
श्रीरामकृष्णदेव कहते थे, " ज्ञान प्राप्त होने के पहले जगत को मिथ्या समझकर चलना पड़ता है, ज्ञान प्राप्त हो जाने के बाद वापस लौट आने पर यह जगत भी सत्य जैसा प्रतीत होता है। किन्तु साधारण अवस्था में (ज्ञान प्राप्त होने के पहले) हमलोग जगत को जिस दृष्टि से देखते हैं, ज्ञान प्राप्त होने के बाद इसी जगत को हमलोग दूसरी दृष्टि (ज्ञानमयी दृष्टि ) से देखते हैं; तब वह पहले जैसा, उस प्रकार का (प्रलोभनीय) नहीं दिखता, सबकुछ चैतन्यमय प्रतीत होता है।"
 कहते थे, " छत पर चढ़ते समय, " यह छत नहीं है " कहते हुए एक के बाद दूसरी सीढ़ीयों को पीछे छोड़ते हुए उपर चढ़ना पड़ता है।  छत के उपर पहुँच जाने के बाद, यह दिखाई देता है, कि जिन वस्तुओं से छत बना है, उसी ईंट चूना-सुर्खी के द्वारा ही सीढ़ियाँ भी बनी हैं। ब्रह्मज्ञान होने से पहले ' नेति नेति ' विचार करना होता है। अर्थात यह पँच भौतिक शरीर-मन आदि ब्रह्म नहीं हैं, (क्योंकि ये अविनाशी नहीं हैं ), इसमें जो जीव  है वह भी ब्रह्म नहीं है, जगत ब्रह्म नहीं है-इस प्रकार से नित्य-अनित्य का विचार करते करते आगे बढ़ते जाना पड़ता है। ज्ञान होने के बाद स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है कि वे ही सब कुछ बने हैं।"
इस ' बोध ' में जब कोई ब्रह्मज्ञ पुरुष स्थित हो जाता है, तब इस जगत के लिये उसके प्राण रो पड़ते हैं, वे सबों को अपने प्राणों से भी बढ़कर प्रेम करने लगते हैं। इसी बोध में स्थित हो जाने के बाद ही दक्षिणेश्वर में श्रीरामकृष्णदेव अपने कमरे के छत पर चढ़कर, व्याकुल होकर रोते हुए पुकारते थे, " अरे, तुम सब युवक लोग, कौन-कौन कहाँ कहाँ पर हो? जल्दी से जल्दी मेरे पास आ जाओ रे !"
इसी अनुभूति के उपर खड़े होकर स्वामी विवेकानन्द ने कहा था, " यदि, मेरे लाख बार नरक में जाने से किसी एक व्यक्ति की भी मुक्ति होती हो, तो मैं उसके लिये प्रस्तुत हूँ। " लोकोक्ति है,कि इस अनुभूति को प्राप्त करने के बाद, आचार्य शंकर भी जनसाधारण को ज्ञान प्राप्ति में सहायता करने के उद्देश्य से वेदान्त के उपर भाष्य लिखने में प्रवृत्त हुए थे।
जिस समय की घटना का वर्णन हो रहा है, उस समय आचार्य शंकर को ब्रह्मज्ञान प्राप्त हो चुका था। और तब  वे जगत को अवास्तविक या मिथ्या के रूप में देखते थे। तब वे शक्ति को सत्य नहीं मानते थे, उनको भी स्वप्न में देखी गयी कोई कल्पना मानते थे। इसी समय एकदिन, काशी में वे गंगा-स्नान करने के बाद लौट रहे थे, घाट की सीढ़ीयों से जब वे उपर चढ़ रहे थे, तो देखते हैं- घाट की सीढ़ी पर ही एक स्त्री बैठी हुई है, सामने रास्ते के आरपार उसके पति का मृत शरीर लिटाया हुआ है। देख कर उस स्त्री से बोले, " रास्ते पर से मृत शरीर को किनारे हटा लो ।"
स्त्री बोली, " बाबा, उसको ही थोड़ा खिसक जाने के लिये क्यों नहीं कहते ? "
उस स्त्री के पागलपन को देखकर शंकर बोले, " माँ, उसके भीतर खिसक जाने की शक्ति कहाँ है? "
स्त्री ने पूछा, " क्यों बाबा, क्या शक्ति के बिना थोड़ा हिलना-डुलना भी संभव नहीं है ? "
शंकर थोडा चिढ़ कर बोले, " आप कैसी अव्यवहारिक और असम्भव बातें कह रही हैं ! कोई यदि उस शव को खिसका नहीं देगा तो वह वहां से हिलेगा कैसे ? "
स्त्री ने कहा, " असम्भव क्यों कहते हो, बाबा ! आदि-अन्त हीन यह प्रकृति यदि चेतना-शक्ति के नियंत्रण के बिना स्वयं ही क्रियाशील रह सकती है, तो फिर यह शव भी अपने आप क्यों नहीं खिसक सकता है? "
यह सुनकर शंकर तो भौंचक्के हो गये। और उसी समय उनको यह अनुभूति हुई, कि निर्विकल्प समाधि में पहुंचकर उन्हें जिस ' शुद्ध-शाश्वत-चैतन्य ' की उपलब्धी हुई थी, वे ही यह विश्व-ब्रह्माण्ड के रूप में स्थित हैं, वे ही शक्ति हैं, वे ही चिन्मयी जगत-जननी हैं, जगत की नियंत्रि हैं।
शव और स्त्री अदृश्य हो गये। स्वयं माँ अन्नपूर्णा ही शंकर के भीतर इस अनुभूति को जाग्रत करने के उद्देश्य से स्त्री बन कर आई थीं, और बाबा विश्वनाथ शिव- शव बनकर आये थे ! 
श्रीरामकृष्ण के सन्यास-गुरु तोता पूरीजी के जीवन में भी इसी प्रकार की घटना घटित हुई थी। वे भी पहले-पहल शक्ति को नहीं मानते थे। उनके सामने बैठ कर जब श्रीरामकृष्ण ताली बजा बजा कर माँ माँ कहते हुये नाम संकीर्तन करते तो, तोता पूरीजी व्यंग से कहते थे, " तन्दूरी रोटी क्यों ठोक रहा है ? " किन्तु श्रीरामकृष्णदेव के संसर्ग में कई वर्षों तक रहने के बाद, उनको भी एकबार माँ के शक्ति की प्रत्यक्ष अनुभूति हुई थी, जिसके बाद उनकी धारणा भी परिवर्तित हो गयी थी।
माया का प्रभाव कटने के साथ ही साथ इस प्रकार उसी क्षण हमलोगों को अपने सच्चे स्वरूप की अनुभूति हो जाती है, या यूँ कहें कि सत्यज्ञान के उद्भासित होने के साथ ही साथ कैसे माया का प्रभाव हट जाता है, उसे समझने में सुविधा के लिये कुछ कहानियों को आपने सुना।
श्रीरामकृष्णदेव कहते थे, ' हजार वर्षों से बन्द अँधेरे कमरे में दीपक जलाने के साथ ही साथ, इतने दिनों का जमा हुआ घना अंधकार एक ही बार में चला जाता है, धीरे धीरे करके नहीं जाता। "
     

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