मंगलवार, 19 जून 2012

" मदालसा "/कहानियों में वेदान्त/12/

' माता-पिता का जीवन उच्च आदर्श में गढ़ा होना चाहिये '
ज्ञानी जनों के मुख से निकली बातों में बहुत बल होता है। क्योंकि वे लोग स्वयं जो देखते हैं, उपलब्धी कर चुके होते हैं; वही बात कहते हैं। केवल अनुमान के आधार पर, या दूसरों से सुनकर, या पुस्तकों को पढ़ कर वे कुछ नहीं कहते हैं। इसीलिए उनकी बातों में इतनी शक्ति आ जाती है। उनकी बातें सीधा श्रोताओं के हृदय को स्पर्श करती हैं, और वहाँ अपनी एक छाप छोड़ जाती हैं।
प्राचीन काल में गन्धर्वलोक में विश्वा-वसु नाम के राजा राज करते थे। उनकी एक सुन्दर कन्या थीं। उसका नाम मदालसा था। उन दिनों पृथ्वी पर पाताल-केतु नाम का एक बड़ा पराक्रमी दानव रहता था। पतालकेतु दानवों का राजा था। उसने छल से मदालसा का अपहरण कर लिया, और अपने पाताललोक में बने हुए किले में कैद कर दिया।
उन्हीं दिनों गालव नाम के एक बडे भारी तेजस्वी ऋषि महाराज शत्रुजित् के राज्य में तपस्या करते थे। उनकी तपस्या में भी पातालकेतु बडा ही विघन् करता था। इससे ऋषि बड़े दुखी होते। एक दिन किसी दैवी पुरुष ने ऋषि को एक घोडा देते हुए कहा-भगवन्! आप इस घोडे को लीजिये, इसका नाम कुवलयाश्व है। यह आकाश-पाताल में सब जगह जा सकता है, इसे आप जाकर महाराज शत्रुजित् के राजकुमार ऋतुध्वज को दें। ऋतुध्वज इस पर चढकर पातालकेतु तथा अन्यान्य राक्षसों को मारेगा। इतना कहकर वह दैवी पुरुष चला गया। 

राजकुमार ऋतुध्वज घोड़े के रूप और गुणों को देखकर बहुत प्रसन्न हुए। और अपने पिता के आदेश अनुसार पतालकेतु के राज्य पर आक्रमण कर दिये और उसे परास्त करके, मदालसा को कैद से छुड़ा कर लौट आये। अपने राज्य में लौट कर उन्होंने मदालसा से विवाह कर लिया। विवाह के कुछ ही दिनों बाद ऋतुध्वज के उपर  दानवों ने पुनः आक्रमण कर दिया। यह युद्ध बहुत दिनों तक चलता रहा। युद्ध के समय शत्रुपक्ष जानबूझ कर तरह तरह के अफवाह फैला दिया करते हैं। उसमें से कौन खबर सही कौन झूठ इसका निर्णय करना मुश्किल हो जाता है। दानवों ने षड्यंत्र करके ऐसी ही एक झूठी खबर को फैला दिया। वे लोग सब जगह यह कहते हुए घुमने लगे कि ऋतुध्वज यूद्ध में मारे गये हैं। रानी मदालसा बहुत चिन्तित होकर राजभवन में समय काट रही थीं। यह समाचार उड़ते उड़ते उनके कानों तक भी पहुँच गया। अपने पति के शोक में वे अत्यधिक उद्विग्न रहने लगीं। और अन्त में शोक नहीं सह सकने के कारण उन्होंने अपना प्राण त्याग दिया।
इधर कुछ दिनों बाद दानवों को पराजित कर ऋतुध्वज राजधानी में लौट आते हैं। बड़ी आशा के साथ यह आनन्द-समाचार मदालसा को सुनाने जब वे राजभवन पहुँचे, तो मदालसा के इस प्रकार प्राण त्याग देने का समाचार सुनकर एकदम मूर्छित हो गये हैं। मदालसा को याद करके उनका हृदय शोकाकुल हो गया। यूद्ध में विजय प्राप्ति से प्राप्त होने वाले आनन्द उल्ल्हास के बदले राजधानी में विषाद की काली छाया उतर आई थी। पत्नी के शोक में आहार-निद्रा का त्याग दिये, और लगभग पागलों जैसी हालत उनकी हो गयी।
उनके पड़ोसी राज्य के राजा नागराज  ऋतुध्वज के परम मित्र थे। राजा की अवस्था को देखकर वे बड़े चिन्तित हुए। अपने मित्र का दुःख दूर करने की इच्छा से नागराज हिमालय जाकर तपस्या में लीन हो गये। इस आशा से वे तपस्या में रत हुए कि यदि उनकी तपस्या से शिवजी प्रसन्न हो गये तो शायद वे कोई उपाय निकाल देंगे।और उपाय भी निकल गया ! भगवान शिव उनकी तपस्या से संतुष्ट होकर उनको दर्शन दिए और उनकी कामना को पूर्ण कर दिये। शिवजी के वरदान से मदालसा अपना पहले जैसे ही रूप और यौवन को लेकर वापस लौट आई। नागराज उनको लेकर राज्य में लौटे और उनको ऋतुध्वज के हाथों में सौंप दिया। किसी मृत व्यक्ति के इस प्रकार पुनः लौट आने की बात तो कल्पना से भी परे है। किन्तु ऋतुध्वज के आनन्द की सीमा नहीं थी। नागराज के उद्योग से मृत्युञ्जय शिवजी की कृपा से ऋतुध्वज को मदालसा पुनः मिल गयी और ऋतुध्वज सुखपूर्वक रहने लगे।
मृत्यु के बाद दुबारा उसी शरीर में वापस लौट आने के कारण मदालसा के मन का अज्ञान मिट चुका था। जीवन का सार तत्व, इसका चरम तत्व, उनको ज्ञात हो चुका था। किन्तु इस बात को वे किसी के सामने प्रकट नहीं करती थीं। जैसे साधारण लोग जीवन यापन करते हैं, उसी प्रकार वे भी अपना जीवन यापन करती थीं। किन्तु  ज्ञान की बात केवल अपने पुत्रों को ही सुनाती थीं। अपने लड़के को पालने में रख कर, झुलाते झुलाते यह लोरी गा कर सुनाती थीं-
शुद्धो sसिं रे तात न तेsस्ति नाम
कृतं हि ते कल्पनयाधुनैव ।
पंचात्मकम देहमिदं न तेsस्ति
नैवास्य त्वं रोदिषि कस्य हेतो: ॥
हे तात! तू तो शुद्ध आत्मा है, तेरा कोई नाम नहीं है। यह कल्पित नाम तो तुझे अभी मिला है। वह शरीर भी पाँच भूतों का बना हुआ है। न यह तेरा है, न तू इसका है। फिर किसलिये रो रहा है?
यह कल्पित नाम ' विक्रान्त ' तो तुझे अभी मिला है।  तुम्हारा (आत्मा का)  न तो जन्म है, न मृत्यु। तुम भय, शोक, आदि दुःख से परे हो। शरीर के भीतर तुम हो, किन्तु तुम शरीर नहीं हो।  तुम हो मेरे लाल, निरंजन ! अति पावन निष्पाप ! अमित है तेरा प्रताप ! 
न वा भवान् रोदिति वै स्वजन्मा
शब्दोsयमासाद्य महीश सूनुम् ।
विकल्प्यमाना विविधा गुणास्ते-
sगुणाश्च भौता: सकलेन्द्रियेषु ॥
अथवा तू नहीं रोता है, यह शब्द तो राजकुमार के पास पहुँचकर अपने आप ही प्रकट होता है। तेरी संपूर्ण इन्द्रियों में जो भाँति भाँति के गुण-अवगुणों की कल्पना होती है, वे भी पाञ्चभौतिक ही है?
भूतानि भूतै: परि दुर्बलानि
वृद्धिम समायान्ति यथेह पुंस: ।
अन्नाम्बुदानादिभिरेव कस्य
न तेsस्ति वृद्धिर्न च तेsस्ति हानि: ॥
जैसे इस जगत में अत्यंत दुर्बल भूत अन्य भूतों के सहयोग से वृद्धि को प्राप्त होते है, उसी प्रकार अन्न और जल आदि भौतिक पदार्थों को देने से पुरुष के पाञ्चभौतिक शरीर की ही पुष्टि होती है । इससे तुझ शुद्ध आत्मा को न तो वृद्धि होती है और न हानि ही होती है।   तुम्हारा शरीर जैसे एक दिन जन्मा है, उसी प्रकार एकदिन नष्ट भी हो जायेगा। जिस प्रकार पुराने वस्त्र फट जाने पर लोग उसको त्याग देते हैं, शरीर का त्याग भी ठीक वैसा ही है। शरीर नष्ट होने से तुम्हारा कुछ नहीं नष्ट होता।  तुम तो आनन्दमय आत्मा हो; फिर किस लिये रो रहे हो ?

त्वं कञ्चुके शीर्यमाणे निजेsस्मिं-
स्तस्मिश्च देहे मूढ़तां मा व्रजेथा: ॥
शुभाशुभै: कर्मभिर्दहमेत-
न्मदादि मूढै: कंचुकस्ते पिनद्ध: ॥
तू अपने उस चोले तथा इस देहरुपि चोले के जीर्ण शीर्ण होने पर मोह न करना। शुभाशुभ कर्मो के अनुसार यह देह प्राप्त हुआ है। तेरा यह चोला (शरीर और मन) षड रिपुओं काम,क्रोध,लोभ, मद,मोह मात्सर्य आदि से बंधा हुआ है (तू तो सर्वथा इससे मुक्त है) ।

तातेति किंचित् तनयेति किंचि-
दम्बेती किंचिद्दवितेति किंचित्
ममेति किंचिन्न ममेति किंचित्
त्वं भूतसंग बहु मानयेथा: ॥
कोई जीव पिता के रूप में प्रसिद्ध है, कोई पुत्र कहलाता है, किसी को माता और किसी को प्यारी स्त्री कहते है, कोई यह मेरा है कहकर अपना माना जाता है और कोई मेरा नहीं है इस भाव से पराया माना जाता है। किन्तु ये सभी भूतसमुदाय के ही नाना रूप है, ऐसा तुझे मानना चाहिये ।
दु:खानि दु:खापगमाय भोगान्
सुखाय जानाति विमूढ़चेता: ।
तान्येव दु:खानि पुन: सुखानि
जानाति विद्वानविमूढ़चेता: ॥
यद्यपि समस्त भोग दु:खरूप है तथापि मूढ़चित्तमानव उन्हे दु:ख दूर करने वाला तथा सुख की प्राप्ति करानेवाला समझता है, किन्तु जो विद्वान है, जिनका चित्त मोह से आच्छन्न नहीं हुआ है, वे उन भोगजनित सुखों को भी दु:ख ही मानते है।
हासोsस्थिर्सदर्शनमक्षि युग्म-
मत्युज्ज्वलं यत्कलुषम वसाया: ।
कुचादि पीनं पिशितं पनं तत्
स्थानं रते: किं नरकं न योषित् ॥
स्त्रियों की हँसी क्या है, कंकाल के हड्डियों का प्रदर्शन । जिसे हम अत्यंत सुंदर नेत्र कहते है, वह मज्जा की कलुषता है। और मोटे मोटे कुच आदि घने मांस की ग्रंथियाँ है, अतः पुरुष जिस स्त्री शरीर पर अनुराग करता है, उस युवती स्त्री के शरीर में आसक्त होकर पाशविक विचारों से ग्रस्त रहना  क्या नरक की अवस्था में रहने जैसा  नहीं है?
यानं क्षितौ यानगतश्च देहो
देहेsपि चान्य: पुरुषो निविष्ट: ।
ममत्वमुर्व्यां न तथा यथा स्वे
देहेsतिमात्रं च विमूढ़तैषा ॥
    पृथ्वी पर सवारी चलती है, सवारी पर यह शरीर रहता है और इस शरीर में भी एक दूसरा पुरुष बैठा रहता है, किन्तु पृथ्वी और सवारी में वैसी अधिक ममता नहीं देखी जाती, जैसी कि अपने देह में दृष्टिगोचर होती है। यही मूर्खता है ।

मदालसा को कालान्तर में दो पुत्र और हुए और उन दोनों को भी महारानी ने बाल्यकाल से ही ब्रह्मज्ञान का उपदेश दिया ,और वे तीनों ही निवृत्ति मार्गी ( संसारत्यागी) संन्यासी बन गये।  वे तीनों भाई राज्य छोड़कर कठोर साधना करने लगे।
भारत में मनुष्य जीवन को १०० वर्षों का मानकर उसे चार आश्रमों में बाँटा गया है -१. विद्यार्थी का जीवन जिसे ब्रह्मचर्य आश्रम कहते हैं। २. विवाहित गृहस्थ का जीवन जिसे गृहस्थ आश्रम कहते हैं। ३. रिटायरमेंट के बाद समाज में चरित्रनिर्माण कारी शिक्षा का प्रचार-प्रसार करने वाले लोक-शिक्षक का जीवन जिसे  वानप्रस्थ आश्रम कहते हैं। ४. प्रवृत्ति मार्ग से चलते हुए किन्तु मनुमहाराज के उपदेश 'निवृत्ति अस्तु महाफला ' का श्रवण,मनन निदिध्यासन करते करते पूर्णतया त्यागी जीवन -निवृत्ति मार्ग में उन्नत हो जाना, उसे  संन्यास आश्रम कहते हैं। किन्तु महारानी मदालसा ने अपने तीनों पुत्रों को बचपन से ही (ब्रह्म) ज्ञान और वैराग्य का उपदेश देकर  निवृत्तिमार्गी संन्यासी बना दिया।मार्कण्डेय पुराण के अनुसार मदालसा  महाराज ऋतुध्वज की पटरानी थी। मदालसा शब्दका अर्थ ही होता है मदः अलसः यया सा मदालसा अर्थात् जिनके कारण मद नीरस हो जाता है वे हैं मदालसा। माँ मदालसा ने यह प्रतिज्ञा की थी कि उनके गर्भ में जो बालक आ जाएगा वह दुबारा किसी दूसरी माता के गर्भ में नहीं आएगा।
       इसीलिये जब चतुर्थ बालक ने जन्म लिया तब महारानी उसे भी बचपन से ही जब निवृत्तिमार्ग की शिक्षा देने लगी। उस समय महाराज ने मदालसा से विनती की कि-देवि! पितृ-पितामह के समय से चले आये मेरे इस राज्य को चलाने के लिये तो एक बालक को राजा बनना ही चाहिये, अतः इसको विरक्त मत बनाइये। मदालसाने महाराजकी बात मान ली, लेकिन मदालसा ने कहा कि उसका नाम मैं रखूंगी। उसने इस पुत्र का नाम "अलर्क" रखा। जिसका अर्थ होता है मदोन्मत्त व्यक्ति या पागल कुत्ता। यह राज्य करेगा इसलिए यह राज के मद में उन्मत्त होगा व प्रजाजनों के कर से प्राप्त होने वाले संसाधनों को अत्यधिक भोगने लगेगा तो उसके पागल कुत्ते की तरह कहीं भोगी हो जाने की संभावना न हो। इसीलिये और अपने चौथे पुत्र को प्रवृत्तिमार्ग के कर्मयोग, भक्तियोग और राजयोग का उपदेश  इस प्रकार दिया:  
धन्योसि रे यो वसुधामशत्रु-
रेकश्चिरम पालयितासि पुत्र ।
तत्पालनादस्तु सुखोपभोगों
धर्मात फलं प्राप्स्यसि चामरत्वम ॥
धरामरान पर्वसु तर्पयेथा:
समीहितम बंधुषु पूरयेथा: ।
हितं परस्मै हृदि चिन्तयेथा
मनः परस्त्रीषु निवर्तयेथा: ॥
सदा मुरारिम हृदि चिन्तयेथा-
स्तद्धयानतोन्त:षडरीञ्जयेथा: ॥
मायां प्रबोधेन निवारयेथा
ह्यनित्यतामेव विचिंतयेथा: ॥
अर्थागमाय क्षितिपाञ्जयेथा
यशोsर्जनायार्थमपि व्ययेथा:।
परापवादश्रवणाद्विभीथा
विपत्समुद्राज्जनमुध्दरेथाः॥
 बेटा ! तू धन्य है, जो शत्रुरहित होकर अकेला ही चिरकाल तक इस पृथ्वी का पालन करता रहेगा। पृथ्वी के पालन से तुझे सुखभोगकी प्राप्ति हो और धर्म के फलस्वरूप तुझे अमरत्व मिले। पर्वों के दिन ब्राह्मणों को भोजन द्वारा तृप्त करना, बंधु-बांधवों की इच्छा पूर्ण करना, अपने हृदय में दूसरों की भलाई का ध्यान रखना और परायी स्त्रियों की ओर कभी मन को न जाने देना । अपने मन में सदा श्रीविष्णुभगवान के किसी अवतार का चिंतन करना, उनके ध्यान से अंतःकरण के काम-क्रोध आदि छहों शत्रुओं को जीतना, ज्ञान के द्वारा माया का निवारण करना और जगत की अनित्यता का विचार करते रहना । धन की आय के लिए राजाओं पर विजय प्राप्त करना, यश के लिए धन का सद्व्यय करना, परायी निंदा सुनने से डरते रहना तथा विपत्ति के समुद्र में पड़े हुए लोगों का उद्धार करना 
अन्ततोगत्वा  मदालसा ने उसे एक उपदेश भी लिखकर अलर्क के हाथ में विराजमान मुद्रिका के भीतर छिपाकर रख दिया, और कहा – “जब कोई बड़ी विपत्ति  पड़े,या संकटों से घिर जाओ तब तुम यह उपदेश पढ़ लेना।” अलर्क राजा हुए और उन्होंने गङ्गा-यमुना के संगम पर अपनी अलर्कपुरी नाम की राजधानी बनायी(जो आजकल अरैल के नाम से प्रसिद्ध है।) किन्तु अलर्क भी राज के मोह में आसक्त हो गया । माता के उपदेश को भूल गया । तीनों भाई आये, खबर कराई कि आपके भ्राता  आये हैं । अलर्क ने नमस्कार किया और कहा ~ ‘‘आज्ञा ।’’ भ्राताओं ने कहा ~ ‘‘माता की प्रतिज्ञा को सत्य करो, अपने पुत्रों को राज देकर हमारे साथ चलो ।’’ वह हँसने लगा और बोला ~ ‘‘तुम तो फकीर हो ही, मुझे भी फकीर बनाना चाहते हो ? चलो, किले से बाहर हो जाओ ।’’ वे तीनों काशीराज मामा के पास गये । सेना लेकर आये और अलर्क के राज को घेऱ लिया । जब अलर्क ने किले के उपर चढ़ कर देखा, तो चारों तरफ सेना है । वह उदास हो गया। तब माता का उपदेश याद आया और यंत्र को खोलकर कागज निकाला । उसमें माता ने लिखा था ~ 
शुद्धोऽसि बुद्धोऽसि निरञ्जनोऽसि 
संसार माया परिवर्जितोऽसि।
संसार स्वप्नं त्यज मोहनिद्रां ! 
मदालसा वाक्यमुवाच पुत्रम् !! 
हे पुत्र ! तू शुद्ध है, तू बुद्ध है, तू निरंजन है, संसार रूप माया से तू वर्जित अर्थात निर्लिप्त है । संसार स्वप्न के समान प्रतिभासिक सत्ता वाला है । इस मोह रूपी निद्रा से आँखें खोल । यह माता मदालसा के वचन हैं, विचार कर। 
(You are forever pure.  You are forever true.And the dream of this world can never touch you.So give up your attachment, and give up your confusion.And fly to that space that's beyond all illusion.) 

 जब अलर्क ने इस श्‍लोक का विचार किया, तो ज्ञान हो गया; अलर्क प्रवृत्ति को छोड़कर निवृत्ति के मार्ग में आ गए। और खुले सिर नंगे पांव जैसे था, वैसे ही उठकर चल पड़ा। और ‘‘अहं शुद्धोऽसि, अहं बुद्धोऽसि, अहं निरंजनोऽसि’’ इस प्रकार बोलते हुए को भ्राताओं ने देखा । सेना ने रास्ता दे दिया । जंगल में दत्तात्रेय महाराज से जाकर मिला । गुरुदेव ने अलर्क को आत्म - ज्ञान का उपदेश दे - देकर शीतल बना दिया । महाराज अलर्क उसी समय राज्य को अपने पुत्र  राजा को सुपुर्द करके वन चले गये। इस प्रकार योग्य माता मदालसा ने अपने चारों पुत्रों को ब्रह्मज्ञानी बना दिया। उसके पुत्रों को राज देकर तीनों भ्राताओं ने भी माता की प्रतिज्ञा को सत्य किया ।
मदालसा स्वयं ज्ञानी थीं, इसीलिए अपने बच्चों को भी ज्ञान प्राप्ति का अधिकारी बना दी थीं। उनकी बातो को सुनने से उनको चैतन्य हो गया था। मातापिता स्वयं अपने जीवन में यदि उच्च आदर्श को रूपायित कर सकें, तो उनके उपदेश को सुनने से, उनके बच्चे भी योग्य मनुष्य बन जाते हैं। खोखले उपदेशों से ज्यादा लाभ नहीं होता। 
हमारे  पूर्वज "शुद्धोसि  बुद्धोसि निरंजनोसि   मैं शुद्ध  हूं  मैं  बुद्ध  हूं  मैं  निरंजन  का  स्वरूप हूं"  मैं पवित्र  हूं  और  सारे  विश्व  को  शुद्ध  बुद्ध  और  पवित्र  करने  में  सक्षम  हूं ! ऐसे  उच्च  आचरण  और  विचारों  के  स्वामी  थे।और  आज  हम  उन्हीं  के  वंशज  "हमें  छुओ  मत  हमारे  साथ  किसी  प्रकार  का  संबंध  मत  करो।  हमारे  देवता  के  मन्दिर में मत  जाओ  नहीं  तो  मैं  और  मेरा  भगवान  दोनों  नष्ट हो  नरक  में  चले  जाएंगे।  ऐसे  हीन आचरण  और  हीन  विचारों  के  दास  हैं!  

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