गुरुवार, 28 जुलाई 2011

" स्वामी विवेकानन्द के गुरुभाई- प्रचारक अभेदानन्द "

प्रकाशक का निवेदन 
 [ ' सारदा प्रज्ञाधाम ' सी २७ बाघायतिन पल्ली, कोलकाता - ७०० ० ९२, द्वारा प्रकाशित बंगला  पुस्तक   ' प्रचारक अभेदानन्द ' का हिन्दी अनुवाद} 
 भुवनेश्वर स्थित ' सारदाधाम ' और कोलकाता स्थित नगेन्द्र प्रज्ञा मन्दिर (वर्तमान में ' सारदा प्रज्ञाधाम ' ) के साथ परमपूज्य श्रीमत स्वामी अभेदानन्दजी का बहुत पुराना सम्बन्ध रहा है. जब स्वामी अभेदानान्दजी १९२२ ई० में अमेरिका से भारत वापस आ गए, तब से लेकर ' सारदाधाम ' के प्राणपुरुष श्रद्धेय नगेन्द्रनाथ चक्रवर्ती ( तदानीस्तन वेदान्त सोसाईटी ) ने रामकृष्ण वेदान्त मठ के पुस्तकालयाध्यक्ष के रूप में स्वामी अभेदानान्दजी के साथ घनिष्ट सम्बन्ध स्थापित करने का सुयोग प्राप्त किया था, तथा उनके स्नेहपात्र और सारदाधाम के प्रमुख सेवक बन गए थे.
' चेतन्यमयी देवी ' ने महाराज से नैष्ठिक ब्रह्मचर्य की दीक्षा प्राप्त की थी. दुसरे सेवाइत जितेन्द्रनाथ सरकार एवं उपदेष्टा समीति के सदस्य शिक्षाविद तापसरंजन राय और सुनील कुमार घोष ने भी महाराज की कृपा प्राप्त की थी. भुवनेश्वर में रहते समय दैनिक पाठ-प्रसंग में श्रद्धेय नगेन्द्रनाथ से अभेदानान्दजी महाराज की बहुमुखी प्रतिभा और ध्यान-तन्मयता, गहन अध्यन क्षमता आदि के प्रति उनकी गहरी आग्रह और आध्यात्मिकता की बातें सुन कर हमलोग मुग्ध हो जाया करते थे. पूज्यपाद महाराज के प्रति नगेन्द्रनाथ में जो गहरी श्रद्धा थी, वह उनके द्वारा अपने एक मित्र को लिखित पत्र में इसप्रकार प्रकट होती है-
" ..... स्वामी अभेदानन्द के अभिनन्दन के प्रतिउत्तर का भाषण सुन कर सभी आनन्दित हो गए हैं. अभिनन्दन देने से वे समझेंगे कि देश की जनता उनके द्वारा किये गए कार्यों का सम्मान करना सीख गयी हैं, और उसी के साथ विदेश भी यह जान लेगा कि सचमुच किसी यथार्थ अधिकारी महापुरुष ने ही पाश्चात्य देशों में वेदान्त का प्रचार किया है.
स्वामी विवेकानन्द के जीवित रहते समय भी उनका अभिनन्दन किया गया था. स्वामी अभेदानन्दजी ने भारत के लिए अथक परिश्रम करते हुए अपने जीवन के सर्वाधिक मूल्यवान २६ वर्ष के समय को विदेशों में व्यतीत किया है. यह बड़े दुःख की बात है कि आज उनको देशी होते हुए भी विदेशी समझा जा रहा है. उनके द्वारा जितनी भी पुस्तकें लिखी गयीं हैं, उनको पढ़ने से आप यह जान जायेंगे कि अपनी प्रत्येक पुस्तकों में उन्होंने भारत के सनातन इतिहास और धर्म के ऊपर ही चर्चा कि है.
विदेश में रहते हुए भी स्वामी अभेदानन्दजी ने भारत के लिए प्राणपण से युद्ध किया था. उनको स्वामी विवेकानन्द से भी अधिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था. किन्तु पाश्चात्य के श्रेष्ठ मनीषीगण उनके प्रवचनों को सुन कर मुग्ध हो गए थे.".....
पूज्यपाद स्वामी आत्म्बोधानन्दजी ने अपनी विभिन्न रचनाओं में स्वामी अभेदानन्दजी महाराज की बहुमुखी प्रतिभा और पृथ्वी के श्रेष्ठ मनीषियों के साथ उनके साक्षात्कार को बहुत पहले कई पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित किया है. हमलोगों की इच्छा थी कि पूज्यपाद स्वामी आत्म्बोधानन्दजी से अनुमति ले कर उनकी इन रचनाओं को प्रकाशित कर दिया जाय. स्वामी आत्म्बोधानन्दजी ने प्रसन्नता पूर्वक हमें इसकी अनुमति दी है,
इसीलिए ' प्रचारक अभेदानन्द ' शीर्षक पुस्तक को प्रकाशित करना संभव हुआ है. ' सारदा प्रज्ञाधाम ' सी २७ बाघायतिन पल्ली, कोलकाता - ७०० ० ९२, की ओर से हम उनके प्रति अपनी सश्रद्ध कृतज्ञता एवं धन्यवाद समर्पित करते हैं.
प्रकाशक ( अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल की हिन्दी संवाद पत्रिका ' विवेक-अंजन ' के नियमित पाठकों के लिए यहाँ यह जानकारी देना आवश्यक है कि महामण्डल के अध्यक्ष पूज्यपाद श्रीनवनिहरण मुखोपाध्यायजी ने कहा है कि महामण्डल के प्रत्येक निष्ठावान कर्मी को इस पुस्तक का अध्यन करना चाहिए, अस्तु उनकी ही अनुमति से इस पुस्तक का हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत किया जा रहा है.
- संपादक, विवेक-अंजन.
      झुमरीतिलैया (कोडरमा) झारखंड .)   
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भूमिका 
स्वामी अभेदानन्द जी का आविर्भाव १८६६ ई० में हुआ तथा उनका तिरोभाव १९३९ ई० में हुआ; इस प्रकार उनके ७४ वर्ष के जीवन को एक सम्पूर्ण दिव्यजीवन कहा जा सकता है. इस जीवन के १८६६ से लेकर १८८२ तक १६ वर्ष का बाल्यजीवन पढाई-लिखाई करने में व्यतीत हुआ. १८८३ से लेकर १८९५ तक उनके जीवन का १२ वर्ष कठोर तपस्यादीप्त परिव्राजक जीवन रहा है. पुनः १८९६ से लेकर १९२१ ई० पर्यन्त दीर्घ २५ वर्षों तक उन्होंने पाश्चात्य देशों में वेदान्त-प्रचार कार्य के विशेष दायित्व का पालन किया है.
  १९२२ से लेकर १९३९ ई० तक उनको प्रचार कार्य करते हुए एक आचार्य के रूप में हमलोग देख पाते हैं. इसीलिए उनके साधक-जीवन का अधिकांश समय ही प्रचार कार्य करने में व्यतीत हुआ था. विशेष रूप से पाश्चात्य देशो में वेदान्त प्रचार करने में अभेदानन्दजी का अवदान अपरिसीम है. उन्होंने पाश्चात्य देशों के युक्तिवादी शिक्षित समुदाय के बीच दक्षतापूर्वक वेदान्त का प्रचार किया है. उनका वह प्रचार-कार्य ही इस ग्रन्थ का आलोच्य विषय है.
स्वामी अभेदानन्द जी बहुमुखी प्रतिभा के अधिकारी थे. एक ही आधार में वे दार्शनिक, लेखक, वैज्ञानिक, साहित्यिक, जीवनीकार, मनोवैज्ञानिक, और एक परिव्राजक ज्ञानी-सन्यासी भी थे. पुनः वे एक कवी भी थे, प्रार्थना-संगीत और स्तुति-रचना करने में उनको महारत हासिल था. उनकी भाषण-कला से विश्ववासी मुग्ध थे. प्राच्य और पाश्चात्य दोनों के दर्शन-शास्त्र पर उनका पूर्ण अधिकार था. साधन-स्वाध्याय करने में वे एक ऐसे साधक थे जो अतीन्द्रिय सत्य को उपलब्ध करने में समर्थ था. योगिक साधना के साथ साथ वे कर्मयोग में भी प्रतिष्ठित थे. गीता में कथित कर्म-सन्यास में प्रतिष्ठित उनका जीवन कर्ममय तो था ही, पुनः वे एक ज्ञानयोगी भी थे.
सर्वोपरि वे किसी वैज्ञानिक जैसी मानसिकता के साथ आध्यात्म-राज्य के सत्यों को उद्घाटित (आविष्कृत ) करने वाले एक सफल आविष्कारक भी थे. अपने परिव्राजक जीवन में तीर्थ-भ्रमण करते हुए उन्होंने आध्यात्मवादी भारतवर्ष को ढूंढ़ निकला था. इसी भारत-साधक ने प्राच्य के आध्यात्म-विज्ञान को अपने कन्धों पर उठा कर पाश्चात्य-भूमि तक वहन किया था. पाश्चात्य वासी उनके त्याग-तितिक्षा को देख कर तथा उनके ज्ञानप्रद व्याख्यानों को सुन कर मन्त्र-मुग्ध हो जाते थे. उन लोगों ने भोगवाद से आध्यात्म के पथ पर उन्नत होने का मार्गदर्शन प्राप्त किया था. 
आध्यात्म मार्ग के पथप्रदर्शक स्वामी अभेदानन्दजी एक ही आधार में एक कुशल आचार्य भी थे. २५ वर्षों तक पाश्चात्य देशों में वेदान्त-प्रचार के कार्य में निमग्न रहने के कारण उनको सभी लोग एक धर्मप्रचारक के रूप में जानते हैं. किन्तु दरअसल वे एक आद्यन्त आचार्य - लोकशिक्षक, ब्रह्मज्ञ-ऋषि थे. वे शास्त्रों में वर्णित एक पूर्ण ' श्रोत्रियम ब्रह्मनिष्ठं ' थे.
वे एक शास्त्रज्ञ एवं ब्रह्मज्ञ साधक थे. वे एक तपस्वी एवं ज्ञानी सन्यासी थे. ब्रह्म-विज्ञान में प्रतिष्ठित अभेदानन्द जी के लिए आध्यात्म-पथ के समस्त मार्ग खुले हुए थे. उनका अन्तःकरण हिमालय जितना विशाल था, उनकी आत्मा प्रशान्त-महासागर जितनी गम्भीर थी, एवं उनके भाव ज्ञानदीप्त काव्य जैसा था. वे भगवान श्रीरामकृष्ण की प्रज्ञा में समृद्ध थे, माँ-सारदा की भक्ति में मतवाले तथा स्वामी विवेकानन्द के कर्मयोग में प्रतिष्ठित थे. इस प्रकार उनके भीतर हमलोग ज्ञान-भक्ति-कर्म की एक समन्वित मूर्ति का दर्शन करते हैं. इसीलिए वे अधिकारी एवं सफल साधक-प्रचारक थे. 
वेदान्तवादी अभेदानन्द जी का जीवन वेदान्तिक-चर्चा एवं चर्या से समृद्ध था. आध्यात्म पथ के पथप्रदर्शक और प्रचारक स्वामी अभेदानन्द जी ढेर सारे सद्गुणों के अधिकारी महापुरुष थे. उनकी असाधारण प्रतिभा कई प्रकार से प्रवाहित हो रही है, एवं वह सब साधन- स्वाध्याय से उन्मोचित हुई है. अभेदानन्द जी की शास्त्र-प्रज्ञा उनकी विविध रचनाओं एवं असाधारण व्याख्यानों में उद्भाषित और अभिव्यक्त हुई है. 
प्राज्ञ-आचार्य अभेदानन्द जी का जीवन-दर्शन के ऊपर लिखित विभिन्न दैनिक और मासिक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित रचनाओं को संकलित करके - ' प्रचारक अभेदानन्द ' शीर्षक से एक पुस्तक  के रूप में नगेन्द्र प्रज्ञा मन्दिर (सारदा प्रज्ञाधाम ) प्रकाशित करने के आग्रह ने मुझे कृतज्ञता के पाश में आबद्ध कर लिया है.
इस उपलक्ष्य में प्रज्ञामन्दिर के सचिव अध्यापक भोलानाथ घोष एवं उनके सहकर्मियों को आन्तरिक कृतज्ञता समर्पित करता हूँ, उनकी यह सदिच्छा तथा अभेदानन्द जी के प्रति श्रद्धा प्रकट करने एवं शुभ प्रयास के लिए. 
अलमिति ! 
श्रीरामकृष्ण की १७५ वीं जन्मतिथि 
श्रीरामकृष्ण वेदान्त मठ
कोलकाता.
स्वामी आत्म्बोधानन्द
मोबाईल न० ९८३१५३७३५४.                   
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1.श्रीरामकृष्ण- भावान्दोलन में अभेदानन्द 
आज श्रीरामकृष्ण- सारदा- विवेकानन्द का नामत्रय सर्वजन विदित है. किन्तु इस नामत्रय के अतिरिक्त भी अन्य कुछ नाम भी इसके नेपथ्य में थे, जिनको जाने बिना रामकृष्ण-विवेकानन्द-वेदान्त-साहित्य का अधिकांश भाग असम्पूर्ण ही रह जाता है. इनमे से स्वामी ब्रह्मानन्द, स्वामी शिवानन्द, स्वामी सारदानन्द, स्वामी अभेदानन्द जैसे प्रधान नाम विशेष तौर से उल्लेखनीय हैं. किन्तु श्रीरामकृष्ण-साहित्य आकाश की व्यापकता इन नामों में ही सीमित नहीं हो जाती है. 
 इस आकाश में श्रीरामकृष्ण एक महासूर्य-स्वरुप हैं, जिनकी हजारो करोज्ज्वल रश्मियाँ संन्यासी-पार्षद रूपी उज्जवल नक्षत्रों के माध्यम से प्रवाहित होकर सम्पूर्ण विश्व को नूतन आलोक से आलोकित कर रही हैं. इन सबों में से प्रत्येक ने एक एक पक्ष को उज्जवल प्रभा से महिमा-मंडित किया है. इनमे से प्रत्येक एक एक दिकपाल रूप से अवस्थित हैं. इनमे से किसी की तुलना किसी के साथ नहीं की जा सकती है. इनमे से प्रत्येक असाधारण प्रतिभा-सम्पन्न थे.
एक ही सत्ता श्रीरामकृष्ण-सारदा-विवेकानन्द रूपी त्रिमूर्तियों में प्रकाशित है. अवतार लीला को पूर्ण करने के उद्दश्य से यह त्रिमूर्ति आविर्भूत हुई है. प्रसिद्द दार्शनिक अमियकुमार मजुमदार के मतानुसार- ये सभी एक अभिन्न सत्ता से गठित; वृक्ष, फुल और फल के समान अविच्छिन्न सत्ता हैं;  एवं उन्होंने श्रीरामकृष्ण को भक्ति, श्रीसारदा देवी को कर्म और स्वामी विवेकानन्द को ज्ञान के रूपों में प्रकाशित एक ही चैतन्य शक्ति की अभीव्यक्ति माना है.इस महाभाव राज्य के राजाओं-महाराजाओं में इनके अतिरिक्त: 
१. ब्रह्मज्ञ स्वामी ब्रह्मानन्द २.स्थितप्रज्ञ महापुरुष स्वामी शिवानन्द ३.कर्णधार प्राणपुरुष स्वामी सारदानन्द४. वेदान्तप्रचारक प्रभावशाली-वक्ता स्वामी अभेदानन्द५. शिवज्ञान से जीवसेवा के संस्थापक स्वामी अखंडानन्द ६.ब्रह्म-वैज्ञानिक स्वामी विज्ञानानन्द ६.सेवापरायण स्वामी अद्वैतानन्द ७.संघसेवक स्वामी योगानन्द ८.सेवा की मूर्तरूप स्वामी प्रेमानन्द ९.शुद्धसत्व-गुणी स्वामी निरंजनानन्द १०. श्रीरामकृष्ण-सेवक कर्मवीर स्वामी रामकृष्णानन्द ११.वेदान्तविद स्वामी तुरीयानन्द १२ सफल कर्मयोगी और श्रीरामकृष्ण के वार्ता-वाहक स्वामी निर्मलानन्द १३. सारदा-सेवक और भाव-प्रचारक स्वामी त्रिगुणतीतानन्द १४.श्रीरामकृष्णदास स्वामी अद्भुतानन्द, तथा १५. देवशिशु-सुलभ-स्वाभाव स्वामी सुबोधानन्द आदि अन्य १६ व्यक्तियों को भी हमलोगों ने प्राप्त किया है. 
इनमे से कोई किसी दुसरे से थोड़े परिमाण में भी कमतर नहीं थे. इनमे से प्रत्येक एक एक भावराज्य के महान महारथी हैं. फिरभी हमलोगों के चर्चा का आलोच्य विषय के अतिरिक्त अन्य चर्चा के समय कम है; इसीलिए यहाँ हमलोग एक नक्षत्र के कई पहलुओं के ऊपर चर्चा करेंगे.
श्रीरामकृष्ण-भावान्दोलन का एक विशेष अध्याय स्वामी अभेदानन्द के नाम के साथ जुड़ा हुआ है; इनको छोड़ कर इस रामकृष्ण-दर्शन को परिपूर्ण आकर में समझना संभव नहीं है; श्रीरामकृष्ण-लीलासहचरों के बीच केवल इन्होंने ही सबसे अधिक समय तक लीला की है. श्रीरामकृष्ण के अन्तरंग-पार्षदों में से किसी को भी इतने लम्बे समय (१८८३-१९३८ ई०) तक इस रामकृष्ण-भावान्दोलन बने रहने का अवसर में या सुयोग नहीं मिला है. इसीलिए उनके माध्यम से हमलोगों को दीर्घ काल की अभिज्ञता इतिहास जानने का सुयोग मिला है; एवं उन्होंने भी कृपा करके कुछ तथ्यों को जोड़ कर श्रीरामकृष्ण के इतिहास को अधिक संजीवित तथा समृद्ध किया है.
२ अक्टूबर १८६६ ई० को स्वामी अभेदानन्द का आगमन हुआ था. उत्तर कोलकाता के निमू गोस्वामी लेन में उनका जन्म हुआ था. माँ-काली के आशीर्वाद से जन्म हुआ था, इसीलिए उनका नाम कालीप्रसाद पड़ा. आश्चर्य की बात यह है कि जब कालीप्रसाद या काली उर्फ़ स्वामी अभेदानन्द जब पहली बार श्रीरामकृष्ण के निकट उपस्थित हुए तब उनको देखते ही श्रीरामकृष्ण ने कहा था- " पूर्वजन्म में तूँ एक योगी था; पर कुछ बाकी रह गया था. यह जन्म तुम्हारा आखरी जन्म होगा. " कैसी अद्भुत दिव्यदृष्टि थी ! यह मानो किसी जौहरी द्वारा स्वर्ण को पहचान लेने जैसी बात थी. प्रथम मिलन में ही उन्होंने अपने लीलापार्षद को चुन लिया था. उनको पहचानने में थोड़ी भी कठिनाई नहीं हुई. परन्तु घटित हो गयी थी परमप्राप्ति. 
दूसरी बार मिलने पर कालीप्रसाद को श्रीश्रीठाकुर ने कहा- " देखो, तुम्हारी दोनों आँखें, भवें, और ललाट को देखने से मेरे भीतर श्रीकृष्ण के मुखड़े की उद्दीपना होती है." ठाकुर इसीप्रकार अपने अन्तरंग पार्षदों को देखते ही पहचान लिया करते थे. पूर्वजन्म में किये गए सद्कर्मों के कारण ही इस प्रकार के गुरु प्राप्त होते हैं.
यह तो हुई उनके जन्मजात प्राप्त संपदा की बात. इसके अतिरिक्त उन्होंने अपनी साधना के बलबूते पर वेदान्त-विद्या में प्रज्ञा प्रोज्ज्वल प्रदीप्त प्रतिभा भी अर्जित की थी. जिसने उनके विद्याबुद्धि तथा अतीन्द्रियज्ञान को स्फूरित कर दिया था.
  इसीलिए तो श्रीरामकृष्ण कहते थे- " सभी लडकों में तुम भी बुद्धिमान हो, नरेन् के बाद तुम्हारी ही बुद्धि प्रखर है. नरेन् जिस प्रकार किसी मत को चला सकता है, तुम भी वैसा कर सकोगे." श्रीरामकृष्ण का यह आशीर्वचन व्यर्थ नहीं हुआ था. भविष्य-द्रष्टा श्रीरामकृष्ण की भविष्यवाणी को वास्तविकता में रूपायित करते हुए उन्होंने यह प्रमाणित किया था कि वे भी एक मत को चलाने के अधिकारी हैं. 
श्रीरामकृष्ण की कृपा से काली-महाराज दर्शन आदि के चरम शिखर पर पहुँच गए थे. इसके बारे में अपनी अभिज्ञता का उल्लेख स्वामी अभेदानन्द जी ने अपनी आत्मजीवनी में इस प्रकार किया है- " एकदिन मैं परमहंसदेव के श्रीचरणों को सहला रहा था, इसी समय अनुभव हुआ मानो परमहंसदेव श्रीश्रीजगन्माता के रूप में मुझे अपना स्तन-पान करवा रहे हैं....
.उस अद्भुत अनुभूति की बात जीवन में मैं कभी भूल नहीं सकूँगा. एक दिन गहरी रात्रि में ध्यानस्थ होकर मैं बाह्यज्ञान शून्य हो गया था, और मेरी आत्मा मानो देहरूपी पिंजड़े से बाहर निकल कर शून्य आकाश में मुक्त पंछी के जैसा विचरण कर रही थी; ...देखते देखते एक सुन्दर सुशोभित प्रासादोपम सुरम्य स्थान में उपस्थित हुआ. उस स्थान में प्रविष्ट होकर एक के बाद एक नाना सम्प्रदाय के विभिन्न भावों की मूर्तियों का दर्शन करके आश्चर्य चकित रह गया.
शाक्त, शैव, वैष्णव, गाणपात्य, क्रिश्चियन, इस्लामिक, आदि धर्मों के भिन्न भिन्न भाव और प्रतीकों को देख कर भाव विह्वल हो गया. क्रमशः किसी महान अतिवाहिक आत्मा की प्रेरणा से मानो अनुप्रेरित होकर एक विराट ह़ाल जैसे कमरे में प्रविष्ट करके देखा कि, उस कमरे के चारों दीवालों से सटे एक विशाल वेदी पर समस्त देवदेवी, अवतारपुरुष और धर्मप्रवर्तकों की मूर्तियाँ स्थापित की हुई हैं...और उसी हाल के बीचोबीच परमहंसदेव दंडायमान हैं.

  मैं उसी अद्भुत दृश्य का दर्शन कर रहा हूँ, तभी परमहंसदेव की मूर्ति ज्योतिर्मय होकर विराट आकार धारण कर ली और उनके भीतर समस्त देवदेवी, अधिकारिक और अवतारपुरुष ( मत्स्य, कूर्म, श्रीरामचंद्र, बुद्ध आदि दशावतार ) श्रीकृष्ण, ईसामसीह, जरथ्रुष्ट, नानक, श्रीचैतन्य, शंकराचार्य,...आदि प्रविष्ट होने लगे. तब उस अद्भुत दर्शन का कुछ यथार्थ मर्म नहीं समझ सका तो तेजगति से दक्षिणेश्वर पहुँच कर परमहंसदेव से सब बातों को कह सुनाया. परमहंसदेव ने सुन कर कहा- " तुमको वैकुण्ठ का दर्शन हुआ है. इसबार देवदेवी दर्शन की चरमसीमा में पहुंचे हो. अब तुमको और कुछ दर्शन करना बाकी नहीं है- अभी से तुम निराकार और अरूप के घर में उठ गए हो. " ( ' आमार जीवनकथा ' : १म भाग, पृष्ठ ३४-३५ )
काली-महाराज तार्किक या युक्तिवादी थे. युक्ति के आलोक में समस्त वस्तुओं को देखते थे. बिना तर्क की कसौटी पर कसे वे किसी भी बात को नहीं मानते थे. एकबार काली-महाराज काशीपुर उद्यानवाटी में रहते समय तालाब में बंशी डालकर मछली पकड़ रहे थे. यह देख कर श्रीरामकृष्ण को बहुत कष्ट हुआ, उनका समानानुभूति शील मन और व्यथातुर ह्रदय रो पड़ा. और उन्होंने उनको बंशी में चारा डाल कर मछली पकड़ने से मना किया. किन्तु काली-महाराज ने गीता के एक श्लोक को उद्धृत करते हुए युक्तिसंगत व्याख्या देते हुए कहा-
( ' नायं हन्ति न हन्यते ' गीता २ : १९ ) ' यह आत्मा हनन नहीं करता, और हत भी नहीं होता. ' ( अर्थात यथार्थ में किसी की मृत्यु नहीं होती, केवल अवस्थान्तर होकर सब कुछ आत्मा में लीन हो जाता है.)  ...इत्यादि.
  वे सदैव अपने द्वारा किये किसी कार्य के समर्थन में सूक्ष्म विचारणीय युक्ति द्वारा एक सिद्धान्त ( मत ) खड़ा कर लेते थे. स्वयं श्रीरामकृष्ण भी इस सूतीक्ष्ण बुद्धि से परास्त हुए हैं. किन्तु वे स्वयं कभी पराजित नहीं होते थे. परन्तु कोई यदि किसी सिद्धान्त को उपस्थापित करना चाहता तो वे उसे आसानी से स्वीकार नहीं कर लेते थे. इतना ही नहीं वे उस सिद्धान्त को अपनी तीक्ष्ण युक्ति-तर्क द्वारा खंडन करके एक अन्य सिद्धान्त को सामने रख देते थे.
वेदान्त शास्त्रों की सूक्ष्मातिसूक्ष्म बाल की खाल निकालने वाली तर्कशील बुद्धि के सामने सभी परास्त हो जाते थे. इसीकारण उनको ' काली-वेदान्ती ' कह कर पुकारा जाता था. उनकी असाधारण बुद्धिदीप्त प्रतिभा के लिए श्रीरामकृष्ण भी उनकी प्रशंसा किया करते थे. 
काली-महाराज जब वराहनगर-मठ में निवास करते थे, उस समय वे एक छोटे से कमरे में जप-ध्यान और शास्त्र-चर्चा करते हुए अपना समय बिताते थे. वे सदैव शास्त्रों के गूढ़ रहस्यों में डूबे रहते थे. यहाँ तक कि गीता और उपनिषदों के प्रत्येक श्लोक के ऊपर ध्यान करके उसका मर्मार्थ उपलब्धि कर लेते थे. इसके फलस्वरूप उनका वह छोटा सा कमरा सदैव एक आध्यात्मिक- परिवेश से परिपूर्ण रहा करता था. इसीलिए उनके कमरे को ' काली-तपस्वी का कमरा ' कहा जाता था. और उनके सभी गुरुभाई उसी कमरे में सामूहिक रूप से आध्यात्मशास्त्रों की चर्चा करते हुए अपना समय बिताते थे.
वराहनगर मठ में उनलोगों को अपना साधू-जीवन दरिद्रता के अनेक कष्टों को झेलते हुए बिताना पड़ता था. यहाँ तक कि शारीरिक परिश्रम करके उनलोगों को भोजन के लिए दो मुट्ठी अन्न का जुगाड़ करना पड़ता था. किन्तु स्वामी अभेदानान्दजी इस शारीरिक श्रम से विरत रहते हुए शास्त्र-चर्चा में ही निमग्न रहते थे. फलस्वरूप उनके शास्त्र-अध्यन को लेकर कोई कोई व्यंगपूर्ण आक्षेप भी कर देते थे, किन्तु वे कभी विचलित नहीं होते थे. 
एक दिन स्वामीजी उनलोगों के इस प्रकार व्यंगपूर्ण विद्रूप आक्षेपों को सुने तो भर्त्सना करते हुए बोले- " तुमलोगों का एक भाई यदि कल अध्यन-मनन में ही डूबा रहता है तो तुमलोगों के शरीर में इतनी जलन क्यों होती है ? तुमलोगों के भोजन बनाने वाले जितने बर्तन-भांडे हैं मेरे पास भेज दो, मैं उनको मांज देता हूँ. " (श्रीरामकृष्ण भक्तमालिका : १म, पृष्ठ ३९८)
स्वामीजी अपने इस प्रियगुरुभाई के प्रति सदैव सहृदय रहते हुए उनको सदैव अपनी स्नेह्छाया की ओट में रखते थे. कोई यदि कुछ आक्षेप लगाता तो स्वामीजी उसका खण्डन करने में मुखर हो जाते एवं अभेदानन्द जी के शास्त्र-अध्यन आदि क्रियाकलापों को सादर ग्रहण करने के लिए अनुप्रेरित करते थे. 
स्वामी अभेदानन्द में शास्त्रों के प्रति प्रबल निष्ठा थी. अनेक विपरीत परिस्थितयों में भी उनको अपना पठन-पाठन का अभ्यास करते रहना पड़ता था. एकाग्रचित्त होकर की जाने वाली प्रचेष्टा एवं तीव्र व्याकुलता के फलस्वरूप वेदान्त-चर्चा करने में वे सिद्धस्त हो गए थे. अभेदानन्द के पण्डित-महाशय कालीवर वेदान्तवागीश उनमें वेदान्त चर्चा के प्रति व्याकुल आग्रह देख कर कहे थे- " बच्चे, तुम्हारा ही वेदान्त पढ़ना सार्थक है. तुम्हारे प्राणों में ज्ञान की पिपासा जाग्रत हो गयी है. परमतत्व की उपलब्धी करना ही तुम्हारे जीवन का व्रत है. इसीलिए तुमको उस पीपासा ने त्याग के पथ में खींच रखा है, और तुम प्राणपण से तपस्या कर रहे हो. तुम्हारे जैसे विद्यानुरागी तपस्वी को पढाना, मेरे लिए भी सार्थक हुआ है. " ( ' स्मृतिसंचयन ', विश्ववाणी : चैत्र १३५१, पृष्ठ ११) 
 स्वामी अभेदानन्द जी आत्मजीवनी में इस प्रसंग पर लिखते हैं -
" उस समय (वराहनगर मठ में रहते समय १२९५ बंगाब्द ) मैंने श्रीश्रीठाकुर और श्रीश्रीमाँ के प्रति स्त्रोत्र रचना की थी और श्रीश्रीमाँ को सुनाया था, जिसे सुनकर श्रीश्रीमाँ ने आनन्दपूर्वक आशीर्वाद देते हुए कहा था-
"  তোমার মুখে সরস্বতী বসুক "
' तुम्हारे मुख में विद्या की देवी सरस्वती का वास हो जाय '!  
इसी समय में मैंने श्रीश्रीमाँ की हाथों से जप की माला (रुद्राक्ष की बनी हुई ) प्राप्त की थी. " ( ' आमार जीवनकथा ': १म, पृष्ठ १११)  
श्रीश्रीमाँ का यह आशीर्वाद उनके ऊपर बरस पड़ा था. जिसके परिणामस्वरूप पाश्चात्य देशों में प्रचार करते समय हमलोग उनकी उस प्रज्ञादीप्त प्रतिभा, लोकोत्तर मनीषा, अद्भुत भाषणकला और अपूर्व आध्यात्म-अनुभूति को देख सकते हैं, जिसने उनको सर्वजन-वर्णीय बना दिया था. स्वामी अभेदानन्द जी द्वारा 
अनुष्टप-छन्दों में ' श्रीरामकृष्णस्त्रोत्रम ' शीर्षक प्रथम संस्कृत रचना की गयी थी. एक बानगी देखें-
" लोकनाथश्चिदाकारो राजमानः स्वधामणि 
कलीकल्मषमग्नानामूत्तारणचिकीर्षया |
मायाश्क्तीं समाश्रित्य मोहवतीर्नो महीतले 
नमोस्तु रामकृष्णाय तस्मै श्रीगुरुवे नमः || "
( ' स्त्रोत्ररत्नाकर ' : पृष्ठ १ )
  काली-महाराज ने स्वरचित जिस श्लोक का पाठ श्रीश्रीमाँ के समक्ष किया था उसे ' श्रीसारदादेवी- स्त्रोत्रम ' कहते हैं, जिसमें उनकी स्तुति इस प्रकार की गयी है-  
" प्रकृतिं परमामभयां वरदां नररूपधरां जनतापहराम |
शरणागत सेवकतोषकरीं प्रणमामि परां जननीं जगताम || 
( ' स्त्रोत्ररत्नाकर ' : पृष्ठ ४२ ) 
स्वामी अभेदानन्दजी के असाधारण लोकोत्तर जीवन की बहु सृष्टिशील कालजयी रचनायें आजभी आध्यात्म समाज में मार्गदर्शक बनी हुई हैं. उनकी रचनाओं में कहीं कोई उग्रता नहीं है, अगर है तो बस केवल परम स्निग्धता और सहिष्णुता. यही है उनकी रचनाओं का वैशिष्ठ. उन्होंने जीवन किसी क्रान्तिद्रष्टा के जैसी दूरदृष्टि लेकर देखा है. पुनः कभी आध्यात्मिक भावनाओं में डूब कर अपने ईष्टदेवता के साथ एकात्मबोध में एकाकार हुए से दिख जाते हैं. 
अभेदानन्दजी की अनुभूतिशील लेखनी से भावावेग पूर्ण एक कविता-कलि निःसृत हुई थी-
' आत्मसमर्पण ' : 
" तुमने जो कृपा की है प्रभु, क्या मैं उसे कभी भूल सकता हूँ ?
जिस प्रकार तुमने मुझे (मेरे वजूद को, ' अहं '  को ) निगल लिया है,
उसी प्रकार मैंने भी तुमको (आत्मसात कर लिया- बूंद सागर में मिल कर एक हो गया है ) निगल लिया है;
इस रहस्य को कौन समझ सकेगा ! - यह मैं नहीं कह सकता |
तुम्हारे आदेशानुसार इस रहस्य को
- मैं कभी जगजाहिर कर ही नहीं सकता || 
It Will Die With Me.
तुम और मैं एक हो गए है, 
तुम और मैं भिन्न नहीं है !
मैं हूँ आधार और तुम हो आधेय-
मेरा यह देह्मन प्राण; 
तुम्हारे ही चरणों में समर्पित है |
आगे तुम्हारी जैसी इच्छा  हो वैसा ही करो | " 
(' विश्ववाणी ' : १म वर्ष, पौष १३४६, पृष्ठ ३९३ )

    स्वामी अभेदानन्द जी ने इसके अतिरिक्त और भी कितने सारे स्त्रोत्र एवं कविताओं की रचना की है. इन में पूर्वोक्त प्रथम स्त्रोत्र के सम्बन्ध में उन्होंने लिखा है - ' वराहनगर-मठ में आरात्रिक (संध्या-प्रार्थना ) हो जाने के बाद हमसभी लोग एकसाथ बैठ कर कुछ श्लोकों का पाठ भी किया करते थे. ' यहाँ यह स्मरण रखना चाहिए कि उस समय तक श्रीश्रीठाकुर और श्रीश्रीमाँ के ऊपर अन्य किसी स्त्रोत्र कि रचना नहीं हुई थी. इसीलिए वे लोग श्रीश्रीठाकुर के फोटो के सामने बैठ कर पूर्वोक्त स्तव का ही पाठ किया करते थे. और श्रीश्रीमाँ भी उस समय तक स्थूल शारीर में ही लीला कर रहीं थीं, इसीलिए उनके स्त्रोत्र का पाठ नहीं किया जाता था. 
स्वामी अभेदानन्द ने ही ठाकुर और माँ के लिए पहले पहल स्त्रोत्र रचना की थी. इसी समय से उनकी सारस्वत- प्रतिभा विकसित होने लगी थी. उनके इन  सब वेदान्तिक तत्वों की गवेषणा करने उद्देश्य था- " किसी अंधे के समान जो कुछ सामने आ जाय, उसीका अनुसरण न करते हुए, जिस प्रकार श्रीश्रीठाकुर के आदर्श को सामने रख कर जप-ध्यान आदि साधनाएँ करनी होंगी, उसी प्रकार वेदान्त, उपनिषद, और शास्त्रों का पठान-पाठन करते हुए अपने ज्ञान में भी वृद्धि करनी होगी. केवल इतना ही नहीं विभिन्न देशों के दर्शन-शास्त्रों में ब्रह्म के सम्बन्ध में क्या कहा गया है, उसका भी तुलनात्मक अध्यन करके उन्हें जानना होगा, समझना होगा, और सीखना होगा. " (- ' आचार्य अभेदानन्द ' : हासिराशि देवी, पृष्ठ ३२ )
इसके बाद अभेदानन्द कुछ समय तक ऋषिकेश के झोपड़ी में रहते हुए कठोर तपस्या किये थे, और यहीं पर धनराज गिरी से वेदान्त शास्त्रों का पाठ (१८९० ई०) में ग्रहण किये. धनराज गिरी उनकी प्रज्ञादीप्त प्रतिभा होकर उनके गुरुभ्राता स्वामीजी (विवेकानन्द) को कहे थे- " अभेदानन्द ! अलौकिक प्रज्ञा !"(श्रीरामकृष्ण भक्तमालिका : १म, पृष्ठ - ३९७ ) परवर्तीकाल में उनकी इस प्रतिभा की भूरी-भूरी प्रशंशा पाश्चात्य मनीषियों ने भी की है.
१८९३ ई० में विश्वधर्ममहासम्मेलन में स्वामीजीने हिन्दुधर्म का प्रतिनिधित्व किया था. उसी समय शिकागो के इसाई मिशनरीयों ने यह दुष्प्रचार करना शुरू कर दिया कि स्वामी विवेकानन्द हिन्दू समाज के स्वाभाविक प्रतिनिधि नहीं हैं.
इस दुष्प्रचार के विरुद्ध अपना पक्ष रखने के लिए स्वामीजी को परिचय-पत्र की प्रयोजनीयता हो गयी. इस परिचय-पत्र का जुगाड़ करने में, हमलोग स्वामी अभेदानन्दजी को एक भिन्न प्रकार के दक्ष कर्मी की भूमिका में देख सकते हैं. उनके तथा स्वामी सारदानन्दजी महाराज के अथक प्रयास से कोलकाता में लोक-संग्रह करके, सभा करके परिचय-पत्र का जुगाड़ हुआ, जिसे स्वामीजी के पास भिजवाया गया था. 
एक प्रत्यक्षदर्शी के प्रतिवेदन से ज्ञात होता है : " काली-वेदान्ती ने इस समय जी-जान से परिश्रम किया था. किसी उन्मत्त व्यक्ति के समान दिनरात काम करते हुए उन्होंने टाउन हाल में सभा आयोजित की थी. " ( श्रीरामकृष्ण भक्तमालिका : १म, पृष्ठ ४०० )
स्वामीजी शिकागो अभियान में वेदान्त की पताका लहराने के बाद, उतनी ही सफलतापूर्वक अमेरिका और इंगलैण्ड में भी वेदान्त-प्रचार कार्य को आगे बढ़ाते जा रहे थे. किन्तु यहाँ से स्वदेश वापस लौट जाने के बाद यह प्रचार-कार्य कैसे चल पायेगा ? इसीलिए उन्होंने अपने गुरुभ्राता स्वामी सारदानन्दजी को बुलाभेजा ताकि उनका यह वेदान्त-प्रचार कार्य, रुक न जाये आगे ही बढ़ता रहे. किन्तु सारदानन्दजी रामकृष्ण-संघ के कर्णधार थे, क्या उनके लिए इस प्रचार-कार्य में दीर्घ समय तक लिप्त रहना संभव होगा ? संघ के विशाल कार्यक्रमों को कौन संचालित करेगा ? इसीलिए थोड़े से दिनों में ही अभूतपूर्व कर्म-सफलता के साथ प्रचार-कार्य करते हुए भी उनको शीघ्र ही वापस मठ में लौटना पड़ा.
  तब स्वामीजी ने पाश्चात्य देशों में अपने उत्तराधिकारी के रूप में प्रचार-कार्य को आगे बढ़ाने के लिए स्वामी अभेदानन्दजी का चुनाव किया. इसी बीच प्रचार-कार्य करने वेदान्तविद स्वामी तुरीयानन्दजी भी, थोड़े समय के लिए पाश्चात्य देशों में गए थे.

( Sititng: Swami Vivekananda, Alberta Sturges, (obscured) Besse Leggett, Josephine MacCleod, ?. Standing: Turiyananda, Abedananda. This photograph was taken sometime between September 8th and 18th, 1899.) इनके बाद ' उद्बोधन ' पत्रिका के प्रथम सम्पादक स्वामी त्रिगुणातीतानान्दजी भी कुछ अधिक दिनों तक वेदान्त-प्रचार में लिप्त थे, एवं इसी प्रचार-कार्य में उन्होंने अपना जीवन विसर्जित कर दिया था. इनके अतिरक्त स्वामी निर्मलानन्दजी भी पाश्चात्य में स्वामी अभेदानन्दजी के सहायक प्रचारक थे. 
पाश्चात्य में वेदान्त-प्रचार करने के पहले भी अभेदानन्दजी की वेदान्त-साहित्य की प्रतिभा ' ब्रह्मवादिन ' पत्रिका में अभियक्त हुई है. स्वामीजी द्वारा पाक्षिक-पत्रिका के रूप में पहली बार यही प्रकाशित हुई थी. इस पत्रिका में स्वामी अभेदानन्दजी द्वारा पहली बार अंग्रेजी में लिखित निबन्ध ' The Hindu Preacher ' २३-११- १८९५ को प्रकाशित हुआ था. कहा जा सकता है कि इसी निबन्ध ने उनकी पाश्चात्य यात्रा का सूत्रपात किया था.
इस प्रसंग पर स्वामी अभेदानन्दजी ने अपनी आत्मजीवनी में लिखा था : " इस प्रबन्ध को लिखने के पहले या लिखते समय मैंने यह कभी नहीं सोचा था कि, स्वामीजी के आह्वान पर एकदिन धर्म-प्रचार करने के लिए मुझे पाश्चात्य जाना पड़ेगा. जो हो अल्मोड़ा में कुछ महीनों तक रहने के बाद पुनः पैदल चलते हुए आलमबाजार मठ पहुँच गया. आने के बाद अमेरिका में सर्वत्र स्वामीजी की सफलता की बातें सुन सुन कर आनन्द और गर्व का अनुभव करने लगा. श्रीरामकृष्ण के आदर का पात्र नरेन्द्रनाथ उनकी अलौकिक आचार्य की शक्ति और आशीर्वाद वरण करके यदि विश्व-वरणय  हो जाएँ तो इसमें आश्चर्य क्या है ! ( ' आमार जीवनकथा ' : पृष्ठ १८१-१८२ ) 
इसके बाद स्वामीजी के आह्वान का प्रतिउत्तर देने के लिए, जन्मभूमि बंगालमाँ को प्रणाम निवेदित कर अपना सरस्व त्याग कर, गुरुभाइयों के स्नेह्बन्धन को काटकर, जननी श्रीश्रीसारदा माँ के स्नेहाशीष को सिर पर रख कर, स्वामी अभेदानन्दजी दिनांक २५ अगस्त, १८९६ ई० को एम्. एस. गोलकुंडा नामक जहाज में बैठ कर लन्दन की यात्रा पर निकल पड़े. 
स्वामीजी के निर्देश से वेदान्तिक-शास्त्र ' पंचदशी  ' के ऊपर अभेदानन्दजी ने २७ अक्टूबर, १८९६ को पाश्चात्य में अपना पहला व्याख्यान दिया था. लन्दन में हुए इस व्याख्यान को सुनने के लिए सभा में स्वयं स्वामीजी भी उपस्थित थे. उनकी उस प्रथम व्याख्यान को सुनकर प्रशंसा करते हुए स्वामीजी ने कहा था-
" You have a resonant voice, which has carrying power. "
( ' आमार जीवनकथा ', २ रा, पृष्ठ ९ )
अर्थात ' तुम्हारी गूंजती हुई आवाज में एक ऐसी शक्ति है जो श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर सकती है. '
इस व्याख्यान को सुनने के बाद एक अन्य प्रत्यक्षदर्शी कैप्टन सेवियर इस व्याख्यान को सुनकर मंत्रमुग्ध हो गए थे, और कहा था- " Swami Abhedananda is a born preacher, wherever he will go, he will succeed. " ( वही, पृष्ठ ८ ) अर्थात ' स्वामी अभेदानन्द एक जन्मजात धर्मोपदेशक हैं, वे जहाँ कहीं भी जायेंगे उन्हें सफलता मिलेगी." 
अभेदानन्दजी के प्रथम व्याख्यान को सुन कर स्वामीजी बहुत आनन्दित हुए थे, और अपना सुयोग्य उत्तराधिकारी मानते हुए, उनसे बहुत स्नेह करते थे. केवल इतना ही नहीं, वक्तृता से मुग्ध होकर आनन्द के उच्छ्वास में भरकर सभा में उपस्थित श्रोतामण्डली के बीच स्वामीजी ने घोषणा की थी-
" Even if I perish out of this plane,
my message will be sounded through
these dear lips and the world will hear it "   
( ' An Introduction to the Philosophy of Panchadashi. '-by Swami Abhedananda, Page 5) 
अर्थात
' मैं यदि अपना शरीर त्याग दूँ, तो मेरी वाणी मेरे प्रिय गुरुभ्राता के कन्ठ से ध्वनित होगी एवं सम्पूर्ण विश्व उसको सुनेगा ! '    
  स्वामीजी की यह भविष्यवाणी सच्ची सिद्ध हुई थी एवं  देववाणी बन कर वास्तविकता में रूपान्तरित हो गयी थी. दीर्घ २५ वर्षों तक स्वामीजी के इस आदेश और आशीर्वाद को सिरोधार्य करते हुए इसका अक्षरशः पालन किया था स्वामी अभेदानन्दजी ने और उनकी अमृतवाणी को पश्चात्यवासियों ने अधीर आग्रह के साथ श्रवण किया था. अभेदानन्दजी के पाश्चात्य विजय-अभियान में अभूतपूर्व कार्य साफल्य का जिक्र स्वयं स्वामीजी ने इस प्रकार से एक पत्र में किया है- " The new Swami delivered maiden speech yesterday at a friendly society's meeting. It was good and I liked it; he has the making of a good speaker in him. I am sure. " (C.W. Vol. V, Page 120 ) 
अभेदानन्दजी की प्रशंसा स्वयं स्वामीजी ने अपने पत्र में की है- यह सुन कर अद्भुतानन्दजी आनन्द से झूम कर बोल उठे - " काली-भाई अक्सर वराहनगरमठ से पैदल ही शांखारी-टोला स्थित डाक्टर महेंद्र सरकार के घर  किताबों को पढ़ने जाया करता था, और कभी कभी तो वहाँ से गट्ठर की गट्ठर पुस्तकें उठा कर मठ में ले आता और घंटों पढ़ता रहता था. किसी के भी साथ अधिक मेल-जोल नहीं बढ़ाता था, व्यर्थ की बातें नहीं करता था, व्यर्थ की गप्पबाजी उसे पसंद नहीं थी. काली इतना अधिक गहन-गम्भीर मुद्रा में रहता था कि जब भक्त लोग मठ में आते थे तो व्यर्थ में  उनके नजदीक जाने की हिम्मत नहीं जूता पाते थे. वह अपने कमरे में बैठ कर केवल पढ़ाई-लिखाई करने या ध्यान-धारणा करने में ही डूबा रहता था. 
इसी प्रकार से उसने कितने दीर्घ काल तक अपना समय व्यतीत किया था, तभी तो आज लोग काली का महत्व समझ पा रहे हैं. काली ने कठिन परिश्रम से अपना जीवन इतना सुन्दर रूप में गठित कर लिया था कि, बड़े बड़े विद्वान् भी आज उससे प्यार करते हैं ! " ( ' स्मृति- संचयन ' : विश्ववाणी, चैत्र १३५१, पृष्ठ २२ )
स्वामीजी पाश्चात्य में भावप्रचार करने के लिए स्थायी आवासस्थल का निर्माण करना चाहते थे. उनकी उस इच्छा को अभेदानन्दजी ने जी-जान से प्रयास करके बहुत अल्प दिनों में ही साकार रूप दे दिया था. इसीलिए स्वामीजी कहा करते थे, " पाश्चात्य में मैं जो काम नहीं कर सका, उसको काली ने कर दिखाया है- एक स्थाई आवासस्थान का उसने निर्माण किया है. " इसके लिए स्वामीजी बहुत प्रसन्न हुए थे एवं उनके व्यापक प्रचार कार्य में सफलता की भूरी भूरी प्रशंसा करते हुए कहे थे, 
" Thrice I knocked at the door of New York, but it did not respond,I am glad that you have established a permanent Headquarters.
This is first time I have found our own home in New York. "
( ' Swami Abhedananda : A Spiritual Biography '- by Moni Bagchi, page 294 )
अर्थात ' मैंने निउ यार्क के दरवाजे को तीन बार खटखटाया था, किन्तु वह नहीं खुला. पर तुमने वहाँ वेदान्त-समिति का स्थायी केन्द्र प्रतिष्ठित कर दिखाया है, इसे देख कर मैं बहुत खुश हुआ हूँ. पहली बार मैंने वेदान्त-सोसाईटी का अपना स्थाई केन्द्र देखा है. '
केवल इतना ही नहीं, जब स्वामीजी दूसरी बार १८९९ में अमेरिका होते हुए यूरोप गए थे, तो इस नवनिर्मित वेदान्त -सोसाईटी के वासभवन में विश्राम किये थे, और उन्होंने स्वामी अभेदानन्दजी को बुलवा कर
कहा था- " Well brother my days are numbered. I shall live only three or four years at the most. " स्वामीजी के साथ यही उनकी आखरी मुलाकात थी. कहना न होगा कि, इसके बाद उन दोनों को आपस में मिलने फिर कोई सुयोग और अवसर नहीं मिला था. 
स्वामी अभेदानन्द का साधना-काल १८८३ से १९३९ ई० पर्यन्त रहा था. इसमें से १८९६ से लेकर १९२१ ई० तक उन्होंने पाश्चात्य देशों में प्रचार कार्य किया था. अर्थात उनके साधक जीवन का अधिकांश समय वेदान्त-चर्चा और चर्या में ही व्यतीत हुआ था. इसीलिए वेदान्त-प्रचार कार्य में स्वामी अभेदानन्द का योगदान असीम है, एवं उनके व्याख्यानों में वेदान्त-दर्शन की असाधारण प्रतिभा की झलक मिलती है. पाश्चात्य देशों के शिक्षित एवं  तर्कशील मनुष्यों में वेदान्त का प्रचार करना कोई आसन कार्य नहीं था. क्योंकि वे लोग अकस्मात् प्रज्वलित वैज्ञानिक-प्रकाश के आलोक में आलोकित थे. इसलिए वैसे लोगों के द्वारा प्राचीन भारतीय- दर्शन एवं वेदान्त प्रचार के एक नवीन भावधारा को ग्रहण कर लेना जितना आश्चर्य जनक था, ठीक उसी प्रकार इस प्रचार कार्य में सफलता प्राप्त करना भी कम आश्चर्य जनक नहीं था.
स्वामी अभेदानन्दजी के प्रचार-साफल्य से अभिभूत हो कर एक बार स्वामी प्रेमानन्दजी ने स्वामीजी से बहुत आग्रह पूर्वक कहा था कि, - " कोलकाता में वेदान्त की शिक्षा प्रदान करने के लिए, काली-भाई को उस देश (अमेरिका ) से यहाँ बुलवा लो. यहाँ के शिक्षित लोगों को वेदान्त समझाने में योग्य व्यक्ति है काली-भाई (अभेदानन्द ). उसके उत्तर में स्वामीजी ने कहा था- " काली को यहाँ बुला लूँगा तो जानते हो क्या होगा ?
- वह क्षेत्र बिल्कुल अँधेरे में डूब जायेगा... उसने अपने अथक प्रयास से निउ योर्क जैसे विशाल शहर में एक हाल भाड़े पर लेकर, वेदान्त-सोसाईटी को एक firm footing (दृढ नींव ) पर प्रतिष्ठित कर दिया है; और चारो तरफ भ्रमण करते हुए लेक्चर देकर ऐसा प्रभाव जमा दिया है कि, वहाँ के बड़े बड़े विद्वान् साहेब लोग उसकी प्रशंसा करते नहीं अघाते. उनलोगों से वाहवाही (स्वीकृति ) प्राप्त कर लेना कोई छोटी बात नहीं है ! चपरास (प्रभु का आदेश ) नहीं हो, तो उस देश में वेदान्त-प्रचार कर पाना क्या ऐसे-वैसे लोगों का कर्म है ! " ( ' स्मृतिसंचय ' : विश्ववाणी, चैत्र १३५१, पृष्ठ २१ ) 
पाश्चात्य में स्वामी विवेकानन्द की कर्मधारा उत्तरसाधक स्वामी अभेदानन्द के माध्यम से कितना साफल्य प्राप्त की थी, उस सम्बन्ध में एक प्रत्यक्ष-प्रतिवेदन में भगिनी निवेदिता इस प्रकार लिखती है- "  These two  names Vivekananda and Abhedananda are names as inseparable as is the confluence of stream, as are revers sides of a single coin. " ( Swami Abhedananda : A Spiritual Biography, ' Page 479 ) 
- अर्थात " विवेकानन्द और अभेदानन्द दो नाम होने पर भी अभिन्न थे, जैसे दो नदियों का एक संगम हों- या एक ही सिक्के के (हेड-टेल) दो पहलू हों. " उसीप्रकार से एक अन्य प्रत्यक्षदर्शिनी भगिनी शिवानी ( Mary Le page ) लिखती हैं- :
" Without a Vivekananda,  without an Abhedananda,how far outside India would have travelled the Gospel of Sri Ramakrishna is a question we cannot answer. " 
( ' Swami Abhedananda in Amerika ', Page 51)
भारतवर्ष एक शाश्वत सनातन धर्म का देश है. आध्यात्मिकता उसकी अमूल्य सम्पत्ति है. स्वामीजी ने भारत के इस आध्यात्मिक-सम्पदा को वहन करके विश्व-सभा (दरबार ) तक पहुंचा दिया था, एवं अभेदानन्दजी उसको द्वार द्वार तक पहुंचा दिए थे.
इस समबन्ध में एक कथन, प्रत्यक्ष दर्शी अध्यापक बिनय कुमार सरकार की भाषा  में - " इन दो बंग-वीरों के माध्यम से भारतमाता सम्पूर्ण जगत में अपने रक्त-मांस में गुंथे (ताजे-ताजे ) हुए स्वधर्म, शक्तियोग की दिग्विजय साधना का निर्यात कर रही थी. विवेक-अभेद उस समय भारत से विदेश गए कोई सौदागर नहीं थे; बल्कि ये दोनों बंगवीर ताजा रक्त-मांस वाले कर्मनिष्ठ-जीवन के भारतीय प्रतिनिधि थे."
                                  किन्तु पाश्चात्य देशों में भारत का वेदान्त-प्रचार यहीं पर समाप्त नहीं हो गया था. बल्कि यह कहा जा सकता है कि, स्वामीजी के माध्यम से जिस कर्मप्रवाह का सूत्रपात हुआ था, वह अभेदानन्दजी के माध्यम से २५ वर्षों तक प्रवाहित रहते हुए अपने पूर्ण रुपरेखा में परिणत हुई थी, एवं वर्तमान में उसी कर्मसाफल्य की परिणति स्वरुप श्रीरामकृष्ण-भावप्रचार-समिति के माध्यम से वही कार्यधारा अब भी प्रवाहित है.
एक अन्य प्रत्यक्ष प्रतिवेदक और रामकृष्ण-भावान्दोलन के अन्यतम प्रधान प्रवीण प्रचारक-धारक-वाहक स्वामी गह्नानन्दजी महाराज उनके पाश्चात्य अभियान की अभिज्ञता से कहे हैं- " श्रीरामकृष्ण के साक्षात् शिष्यों में पहले स्वामी विवेकानन्द, बाद में कुछ समय के लिए स्वामी सारदानन्दजी, स्वामी तुरीयानन्द, स्वामी त्रिगुणतीतानन्द और बहुत लम्बे समय तक स्वामी अभेदानन्द ने पाश्चात्य में वेदान्त-प्रचार की धारा को प्रसारित किया था. एवं विभिन्न समय में उनके सहयोगी रूप में स्वामी निर्मलानन्द, स्वामी बोधानन्द और स्वामी परमानन्द प्रमुख थे, एवं परम्पराक्रम से हमारे सन्यासीगण भी उसी धारा का अनुसरण कर रहे है...."
( ' विश्ववाणी ' : फाल्गुन १३९८, पृष्ठ २२ )

स्वामी अभेदानन्दजी केवल एक प्रचारक मात्र ही नहीं थे, बल्कि आध्यात्म जगत के एक छत्रपति राजा थे. उनके जीवन का सिंहभाग समय वेदान्त-प्रचार कार्य में ही व्यतीत हुआ था, इसीलिए उनके त्याग-तपस्या की बात आखों से ओझल रह जाती है. जबकभी भी उनको सुयोग-समय मिला है, वैसे ही वे तपस्या के लिए निकल पड़े हैं. रामकृष्ण-साम्राज्य के राजा तथा Spiritual Hero स्वामी ब्रह्मानन्दजी महाराज उनकी आध्यात्मिकता के सम्बन्ध में कहते हैं - " काली जैसे ही अपने बाहरी कार्यों को कम कर देगा, उसी समय लोग उसके आध्यात्मिक-शक्ति के विकास को समझ सकेंगे. " ( ' श्रीरामकृष्ण भक्तमालिका ' : १म, पृष्ठ ४१८ ) 
बाद में उनके व्याख्यानों के भीतर, इस बात का अच्छा आभाष प्राप्त होता है. किन्तु अपने विशाल कर्म प्रवाह के लिए वे एक प्रचारक के रूप में ही प्रतिष्ठित हैं. 
श्रीरामकृष्ण-पार्षदों के बीच जिस प्रकार स्वामी सारदानन्दजी अपनी लेखनी से रामकृष्ण-साहित्य रचने में असाधारण थे, ठीक वैसे ही अपनी लेखनी से वेदान्त-साहित्य की रचना करने में स्वामी अभेदानन्दजी भी कोई सानी नहीं रखते थे. यह बात ठीक है कि स्वामी विवेकानन्द के व्याख्यानों में भी वेदान्त-साहित्य का काफी परिचय मिल जाता है. स्वामीजी के समान अभेदानन्दजी में भी एक बहुमुखी प्रतिभासम्पन्न एक व्यक्तित्वशाली आचार्य का आलोक परिलक्षित होता है; एवं उस आलोक से पाश्चात्य के बड़े बड़े विद्वान् एवं महान व्यक्तित्व प्रभावित हुए हैं.
उनके व्याख्यानों को सुन कर दार्शनिक, वैज्ञानिक, मनोवैज्ञानिक, चित्रकार, साहित्यकार, कवि से आरम्भ कर के सभी श्रेणी के मनुष्य मंत्रमुग्ध हो जाते थे. इसलिए उनका यह वेदान्त प्रचार सभी प्रकार से सार्थक हुआ है. अपने इस प्रचार-कार्य के सम्बन्ध में, १९२२ ई० में भारत लौट आने के बाद जमशेदपुर में दिए गए व्याख्यान ' Universal Religion And Vedanta ' में अपने विचारो को इस प्रकार अभिव्यक्त किया था- 
" स्वामीजी ने अपने कार्य में सहायता करने के लिए मुझे १८९६ ई० में भारत से बुलवा लिया था. वहाँ के कार्यों को मेरे ऊपर न्यस्त करके, स्वयं मातृभूमि भारतवर्ष के लिए प्रस्थान कर गए थे. २५ वर्षों पूर्व मैंने  इंग्लैंड में पदार्पण किया था. ' २५ वर्ष '- कोई कम समय नहीं होता, एक शताब्दी का ' एक चौथाई ' समय है. बहुत थोड़े से लोग ही इस- समय की दीर्घता की बात अच्छी तरह से समझ सकते हैं. स्वामीजी के द्वारा प्रारम्भ किये गए कार्य को सूसम्पन्न करने के लिए, तथा मनुष्यजाति के कल्याण के लिए मैं ने अपने जीवन का सर्वश्रेष्ठ भाग वहाँ पर व्यय किया है...

.अमेरिका में सभी के लिए बड़ा बनने या उन्नति करने की पूरी सम्भावना है, क्योंकि वहाँ सभी मनुष्यों को एक समान-अधिकार प्राप्त है, और इसीकारण से वेदान्त प्रचार करने के लिए अमेरिका एक सर्वथा उचित स्थान है. ...हमलोगों द्वारा वेदान्त-प्रचार करने के फलस्वरूप अमेरिकावासियों को ऐसा अनुभव होता था, मानो उनलोगों में व्याप्त अनेकों भ्रान्त धारणाएँ दूर हो गयी हैं. ....
आज विज्ञान के प्रचार-प्रसार एवं हमलोगों द्वारा किये गए वेदान्त-प्रचार के फलस्वरूप सैंकड़ों वर्षों से पाश्चात्य धार्मिकजगत के आकाश पर छाये हुए, कूसंस्कार (अन्धविश्वास ) रूपी काले बादल शरदऋतु के शुभ्र मेघ जैसा धीरे धीरे दूर होते जा रहे हैं. " ( विश्ववाणी : अषाढ़ १४०२, पृष्ठ १९२-१९३ )
स्वामी अभेदानन्दजी एक सच्चे वेदान्त-प्रचारक थे. वेदान्त की सार्वभौमिकता (सार्वजनीनता ) तथा भारत के धर्म को उन्होंने सम्पूर्ण विश्व-वासियों के लिए उपलब्ध करा दिया था. सर्वोपरि श्रीरामकृष्ण-प्रदत्त आध्यात्मिकता को वे विश्व-सभा तक वहन करके ले जाने में सफल रहे थे. क्योंकि श्रीरामकृष्ण- स्वयं घनीभूत आध्यात्मिकता के मूर्त रूप थे.
भारत-भक्त ' रोम्यां रोलाँ ' के शब्दों में- " श्रीरामकृष्ण भारतवर्ष के ३० कड़ोड़ मनुष्यों द्वारा पाँच हजार वर्षों तक की गयी साधना से उपलब्ध घनीभूत आध्यात्मिकता की प्रतिमूर्ति थे. " श्रीरामकृष्ण की इसी आध्यात्मिक-शक्ति के बल पर उन्होंने (अभेदानन्द ने ) जगत के कल्याण का कार्य किया था. १९३१ ई० में श्रीरामकृष्ण-शतवार्षिकी के अवसर पर आयोजित ' स्मरण-सभा ' में अभेदानन्दजी ने कहा था-
  " आज आध्यात्मिक-भावप्रवाह का जैसा अभ्युत्थान देखा जा रहा है, एवं जिसकी भाव-तरंगें पृथ्वी के लगभग आधे हिस्से का अतिक्रमण करते हुए, अमेरिका के तटों पर आघात कर दिया है, उसका प्रादुर्भाव ' ऋषि-ईसामसीह ' चरिततुल्य श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव के दिव्य-व्यक्तिगत चरित्र एवं ईश्वरीय-शक्ति के प्रवाह से हुआ था. वे (श्रीरामकृष्ण ) वर्तमान भारत में सभी जातियों के मनुष्यों द्वारा इस युग के सर्वश्रेष्ठ महापुरुष एवं पूर्ण-परमेश्वर की प्रतिमूर्ति के रूप पूजित हो रहे हैं. " ( ' आचार्य  अभेदानन्द ', पृष्ठ १०२ )
श्रीरामकृष्ण की इसी आध्यात्मिकता के आलोक से आलोकित अभेदानन्दजी का जीवन भी परिपूर्ण हो उठा था. उनकी रचनावली में हमलोग इस आध्यात्मिकता की झलक देख सकते हैं. इस सम्बन्ध में उनकी मानस-पुत्री एवं पाश्चात्य की एक प्रत्यक्षदर्शिनी भगिनी शिवानी ( Sister Shivani ) लिखती हैं-
" Like a beacon at the crossroad of eternity
  stands Abhedananda, this Apostle of Monism, 
guide and guru to all humanity."
( Swami Abhedananda in America ', Page-55 )
अर्थात ' शाश्वत के पथ-संधि ( चौराहे ) पर अधिष्ठित किसी 'आकाश-दीप ' के समान स्वामी अभेदानन्द अद्वैतवाद के उपदेष्टा हैं, समस्त मानव-जाति के पथप्रदर्शक - आचार्य हैं.' 
इसीलिए श्रीरामकृष्ण के आध्यात्मिक-आलोक से आप्लुत आनन्द-धरा में अभिस्नात अभेदानन्द जिस आलोक-सामान्य अपार अनुभूति दीप्त अमित अमल अमिय अमृत वाणी अयुत नरनारी के मध्य वितरित किये थे, वह आज भी आध्यात्म चेतना के अंग में अम्लान आनेन अव्यहत है - जो युगयुगान्तर तक मानव-समाज को अनन्त आध्यात्म के पथ पर आगे बढ़ने के सोपान पर आरूढ़ होने की प्रेरणा देता रहेगा. समय के प्रवाह में सबकुछ धो-पोछ कर एकाकार हो जाने के बाद भी उनका यह अतुलनीय अवदान अक्षुण अमर रहेगा.                 
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' সমাজশিক্ষা ' পত্রিকায় প্রকাশিত   ( ' समाज-शिक्षा ' नामक पत्रिका में प्रकाशित )  
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4.योगी अभेदानन्द 
उस समय स्वामी अभेदानन्द थे कालीप्रसाद. उनमे योग-साधना करने की प्रबल ईच्छा थी. एक दिन वे कालेज-स्ट्रीट स्थित अलबर्ट-हाल में उपस्थित हुए. उस दिन वहाँ ' पातन्जल-योगसूत्र ' के उपर चर्चा हो रही थी. वक्ता थे, उस समय के विख्यात पण्डित शशधर तर्कचूड़ामणि. वक्ता ने इतने सहज-सरल भाषा में ज्ञान-गर्भित व्याख्यान दिया कि उसने कालीप्रसाद के ह्रदय को छू लिया.
{Swami Abhedananda was born on 2 October 1866 as Kaliprasad Chandra. He was a direct disciple of Sri Ramakrishna and was known as "Kali Tapaswi" to his fellow discipiles. His father was Rasiklal Chandra and his mother was Nayantara Devi. After the passing away of Sri Ramakrishna, he formally became a Sanyasi along with Swami Vivekananda and others, and came to be known as "Swami Abhedananda".
During his life as a monk he travelled extensively throughout India, depending entirely on alms. During this time he met several famous sages like Paohari Baba, Trailanga Swami and Swami Bhaskaranand. He went to the sources of the Ganga and the Yamuna, and meditated in the Himalayas. He was a forceful orator, prolific writer, yogi and intellectual with devotional fervor. Swami Vivekananda asked him to propagate the message of Vedanta in the West, which he did with great success. He went to USA in 1897 and preached messages of Vedanta and teachings of his Guru for about 25 years. In 1921, he returned to India.
In 1922, he crossed the Himalayas on foot and reached Tibet, where he studied Buddhistic philosophy and Lamaism. In Hemis Monastery, he discovered a manuscript on the unknown life of Jesus Christ[citation needed], which has been incorporated in the book Swami Abhedananda's Journey Into Kashmir & Tibet published by the Ramakrishna Vedanta Math, Kolkata. He formed the 'Ramakrishna Vedanta Society' in Kolkata in 1923, which is now known as Ramakrishna Vedanta Math. In 1924, he established Ramakrishna Vedanta Math in Darjeeling in West Bengal. In 1927, he started publishing Visvavani, the monthly magazine from 'Ramakrishna Vedanta Society', which is published today as well.
He died on 8 September 1939.}

बिना देरी किये अपनी जेब-खर्च के पैसों को इकट्ठा करके एक पातन्जल-दर्शन खरीद लिए. खरीदने का उद्देश्य था, योग-सूत्र पढ़ कर और अच्छी तरह से समझना होगा, और भी गहराई में उतर कर इसे जानना होगा. 
योग-सूत्र पढ़ना तो सहज है, किन्तु केवल पढ़ कर क्या इसके गूढ़ मर्मार्थ को भी समझ लेना संभव है ! इसीलिए इस विषय के अधिकारी पुरुष ' शशधर तर्कचूड़ामणि महाशय ' के साथ मुलाकात किये. उनके निकट पूरे विनय के साथ अपने मन की इच्छा प्रकट किये; --' दया कर के यदि आप पातन्जल-दर्शन के सूत्रों की व्याख्या कर देंगे, तो मेरी बहुत दिनों की ईच्छा तो पूर्ण होगी ही, मेरा आपके निकट आना भी सफल हो जायेगा. ' 
 बालक कालीप्रसाद की ईच्छा सुनकर, पण्डित महाशय अति प्रसन्न हुए, बोले-  ' अच्छी बात है, तुम्हारी इस सदिच्छा को साधुवाद देता हूँ. किन्तु देखो, बेटे देखता हूँ की तुम्हारी आयु अभी बहुत कम है. इसी आयु में तुमको योग-सूत्र पढ़ने की ईच्छा हुई है, इसे देख कर मैं बहुत खुश हुआ हूँ. किन्तु अभी मेरे पास समय की बहुत कमी है, क्योंकि मुझे अक्सर विभिन्न स्थानों में व्याख्यान आदि देने में बहुत व्यस्त रहना पड़ता है. पर तुम यदि एक काम करो तो लगता है, तुम्हारा उद्देश्य सिद्ध हो सकता है. ' 

[अष्टांग योगमहर्षि पतञ्जलि ने योग को 'चित्त की वृत्तियों के निरोध' के रूप में परिभाषित किया है | उन्होंने 'योगसूत्र' नाम से योगसूत्रों का एक संकलन किया है, जिसमें उन्होंने पूर्ण कल्याण तथा शारीरिक, मानसिक और आत्मिक शुद्धि के लिए आठ अंगों वाले योग का एक मार्ग विस्तार से बताया है | अष्टांग योग (आठ अंगों वाला योग), को आठ अलग-अलग चरणों वाला मार्ग नहीं समझना चाहिए; यह आठ आयामों वाला मार्ग है जिसमें आठों आयामों का अभ्यास एक साथ किया जाता है | योग के ये आठ अंग हैं:१) यम, २) नियम, ३) आसन, ४) प्राणयाम, ५) प्रत्यहार, ६) धारणा ७) ध्यान ८) समाधि

१. यम: पांच सामाजिक नैतिकता
(क) अहिंसा - शब्दों से, विचारों से और कर्मों से किसी को हानि नहीं पहुँचाना
(ख) सत्य - विचारों में सत्यता, परम-सत्य में स्थित रहना
(ग) अस्तेय - चोर-प्रवृति का न होना
(घ) ब्रह्मचर्य - दो अर्थ हैं:
  • चेतना को ब्रह्म के ज्ञान में स्थिर करना
  • सभी इन्द्रिय-जनित सुखों में संयम बरतना
(च) अपरिग्रह - आवश्यकता से अधिक संचय नहीं करना और दूसरों की वस्तुओं की इच्छा नहीं करना
२. नियम: पाच व्यक्तिगत नैतिकता
(क) शौच - शरीर और मन की शुद्धि
(ख) संतोष - संतुष्ट और प्रसन्न रहना
(ग) तप - स्वयं से अनुशाषित रहना
(घ) स्वाध्याय - आत्मचिंतन करना
(च) इश्वर-प्रणिधान - इश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण, पूर्ण श्रद्धा
३. आसन: योगासनों द्वारा शरीरिक नियंत्रण
४. प्राणायाम: श्वास-लेने सम्बन्धी खास तकनीकों द्वारा प्राण पर नियंत्रण
५. प्रत्याहार: इन्द्रियों को अंतर्मुखी करना
६ . धारणा: एकाग्रचित्त होना
७. ध्यान: निरंतर ध्यान
८. समाधि: आत्मा से जुड़ना: शब्दों से परे परम-चैतन्य की अवस्था हम सभी समाधि का अनुभव करें !!!}
कालीप्रसाद ने विनम्र स्वर में कहा- ' आप आदेश दीजिये पण्डित महाशय.'
' देखो, तुम एकबार ' कालीवर वेदान्तवागीश ' के पास जाओ, मैं सोचता हूँ कि वे तुम्हारे लिए थोडा समय अवश्य निकाल पाएंगे. उनसे कहना कि, मैंने तुमको उनके पास भेजा है. तब वे तुमको ना नहीं कर पाएँगे, तथा नीश्चय ही तुमको आनन्द के साथ पढ़ाएंगे. '
पण्डित महाशय के इस निर्देशानुसार कालीप्रसाद, कालीवर वेदान्तवागीश के साथ मिलने के लिए चल पड़े. उनसे भी विनम्रता के साथ मन कि इच्छा कह सुनाये. वेदान्तवागीश महाशय ने विशेष आग्रह के साथ कालीप्रसाद के आवेदन को सुना, एवं अपने समयाभाव की बात इस प्रकार कहे- " इस समय मैं पातन्जल-योगदर्शन का बंगला में अनुवाद कर रहा हूँ और मेरे पास, थोडा भी समय नहीं है. किन्तु तुम एक काम कर सकते हो, स्नान करने के पहले थोडा अवकाश मिलता है, इस समय एक सेवक मेरे शरीर पर तेल मालिश करता है, यदि उस समय आ सको तो, योग-सूत्र का कुछ अर्थ तुमको समझा सकता हूँ. फिर स्नान करने के उपरान्त भी लिखना पड़ता है, इसीलिए बस उतना ही समय है, अब तुम सोचो क्या करना चाहोगे !"
कोई उपाय न देख कर कालीप्रसाद को अपने आशैशव आकांक्षित योगशिक्षा अर्जित करने के लिए इसी शर्त पर राजी होना पड़ा. और कालीप्रसाद प्रतिदिन प्रातः ८-९ बजे पातन्जल-योगसूत्र का पाठ करने, कालीवर वेदान्तवागीश महाशय के घर जाना शुरू कर दिए.
इस ग्रन्थ में हठयोग, कुण्डलिनी योग, प्राणायाम और राजयोग की साधन-पद्धति को बहुत सुन्दर ढंग से वर्णित किया गया है. पूरे पुस्तक को अच्छी तरह से पढ़ कर पण्डित महाशय ने सुन्दर तरीके से समझा दिया. कालीप्रसाद को वह सब अच्छा ही लगा, मन तो भरा किन्तु प्राण नहीं भरा. तत्वतः योगशिक्षा तो मिल गयी, किन्तु कार्यतः व्यवहारिक शिक्षा की प्राप्ति नहीं हुई. इस इच्छा ने मन में उथल-पुथल मचा दिया. योगियों के समान उनका मन-प्राण हर समय योग-साधना में निमग्न रहना चाहता था. योगी लोग जिस प्रकार खेचरी-मुद्रा का अभ्यास करके जड़-समाधि में तल्लीन हो कर रहते हैं, उसीप्रकार कालीप्रसाद की इच्छा भी योग-साधना में डूबे रहने की थी.
किन्तु योगशिक्षा हो कैसे,- शिवसंहिता आदि योगशास्त्र में, स्पष्ट कहा गया है कि पुस्तक पढ़ कर योगसाधना करना उचित नहीं है, किसी उपयुक्त सिद्ध-योगिगुरु के सानिध्य में रहते हुए योगशिक्षा का अभ्यास करना जरूरी होता है. पुनः सोंच में पड़ गए, कहाँ से किसी सिद्ध योगिगुरु का पता खोजा जाय. आहार-निद्रा सब कुछ त्याग दिए, मन में केवल एक ही विचार था, दिन-रात पद्मासन में बैठ कर कैसे समाधिस्त रहा जाये. अपने मन की बात किसी से कह भी नहीं सकते थे, क्योंकि यह सुनकर सभी हँसते और मजाक उड़ाते थे. योगी होने की बात सुन कर चारो ओर से बाधाएँ भी आने लगी. शास्त्र-वचन मूर्तमान हो उठा- ' श्रेयांसि बहुबिघ्नानी ' . 
इसी समय एक दिन सहपाठी यज्ञेश्वर भट्टाचार्य के साथ मुलाकात हो गयी. सैकड़ो बाधाओं से अवसन्न कालीप्रसाद को देख कर मित्र ने पूछा- तुम्हारी समस्या क्या है ?
' देखो, मेरी तीव्र इच्छा योगसाधना करने की है. किन्तु केवल पुस्तक पढ़ने और अपनी चेष्टा से ही तो यह सब हो नहीं सकता. गुरु की आवश्यकता होती है. क्या तुम बता सकते हो कि वैसा योगिगुरु कहाँ मिल सकते हैं ? '
कालीप्रसाद की व्याकुलता को देख कर यज्ञेश्वर ने कहा-
' बता सकता हूँ, दक्षिणेश्वर में रानी रासमणि के काली-मन्दिर में एक अद्भुत योगी हैं- परमहंस हैं. सभी लोग ऐसा कहते हैं कि उनमे कोई ढोंग-ढकोसला नहीं है. वे एक यथार्थ योगी ही नहीं- महायोगी हैं. कोलकाता के बहुत से सम्भ्रान्त लोग भी उनके पास आते-जाते हैं.
वे भी बीच बीच में कोलकाता आते रहते हैं. तुम यदि उनसे अपनी योगशिक्षा ग्रहण करने की ईच्छा उनको सुनोगे तो लगता है, वे तुम्हारी इस ईच्छा को पूर्ण कर सकते हैं. ' 
अपने बाल-सखा यज्ञेश्वर की बातें सुन कर, कालीप्रसाद का ह्रदय उत्साह, आनन्द, आत्मविश्वास से भर उठा. उन्होंने तय कर लिया कि, अपने गुरु के रूप में मुझे केवल परमहंसदेव को ही वरण करना है. जैसे भी हो, मुझे  एक बार दक्षिणेश्वर के काली-मन्दिर में जाना ही होगा, एवं उनके साथ अवश्य ही भेंट करनी होगी.परमयोगी परमहंसदेव से मिलने की व्याकुलता क्रमशः बढती चली गयी.
एकदिन बिना किसी को बताये अकेले ही- चल पड़े दक्षिणेश्वर की ओर. काली-मन्दिर पहुँच कर किसी से पूछे - परमहंसदेव हैं क्या ? एक आगन्तुक युवक ने बताया नहीं वे तो कोलकाता गए हैं. वह युवक थे उस समय के शशिभूषण चक्रवर्ती जो आगे चल कर स्वामी रामकृष्णानन्द हुए.
कालीप्रसाद भूख-प्यास और पैदल चलने की थकान से बहुत अवसन्न अनुभव कर रहे थे; यह देख कर शशिभूषण ने उनको परामर्श दिया कि,' गंगा में स्नान कर के माँ काली का प्रसाद ग्रहण करके थोडा विश्राम कर लो; जब उनके साथ मुलाकात करने के लिए इतना कष्ट सह कर आये हो, तो मिलने के बाद ही कोलकाता जाना.' परमहंसदेव का दर्शन करने की ईच्छा से उनके परामर्श के अनुसार कालीप्रसाद इंतजार करने लगे.
दोपहर बीत जाने के बाद शाम हो गयी. उसके बाद रात्रि के समय बरामदे में चटाई बिछा कर तीन-जन विश्राम कर रहे थे. इसी समय रामलाल दादा ने समाचार दिया कि परमहंसदेव बग्घी पर सवार होकर आ रहे हैं. कालीप्रसाद उठ खड़े हुए. उनकी धड़कने तेज हो गयीं. परमहंसदेव ने गुरुगम्भीर स्वर से तीन बार ' काली ' नाम का उच्चारण करके अपने कमरे में प्रविष्ट हुए, और छोटी सी चौकी पर बैठ गए. 
कालीप्रसाद पलक झपकाए बिना परमहंसदेव का दर्शन करने लगे, सोच रहे हैं- योगी-सन्यासी का अर्थ तो जटाजूट-धारी, लाललाल-आँखों वाले, पूरे शरीर पर राख मले किसी रूद्र मूर्ति होना चाहिए. किन्तु इनको तो एक अति सहज, सरल, शान्त, सौम्यमूर्ति के रूप में देखता हूँ. अब उन्होंने श्रद्धापूर्वक भक्तिपूर्ण ह्रदय से प्रणाम किया. परमहंसदेव ने उनको स्नेहपूर्वक बैठने को कहा, तथा पूछा- ' तुम कौन हो? तुम्हारा घर कहाँ है ? तुम किस लिए इतना कष्ट सह कर यहाँ आये हो ? क्या चाहते हो ? '
भक्ति में गदगद कंठ से कालीप्रसाद उत्तर दिए- ' योगशिक्षा ग्रहण करने की मेरी तीव्र ईच्छा है. क्या आप दया करके मुझको योग-शिक्षा प्रदान करेंगे ? इसी आशा को लेकर मैं यहाँ आया हूँ. '
श्रीरामकृष्ण थोड़ी देर मौन रहकर सोचे, उसके बाद बोले- ' इतने कम उम्र में ही, तुम्हारे अन्दर योगशिक्षा ग्रहण करने की इच्छा हुई है- यह तो बड़ा ही शुभ लक्ष्ण है. तुम पूर्वजन्म में एक बड़े योगी थे. थोडा बाकी रह गया था, यही तुम्हारा अंतिम जन्म है. आज रात्रि में यहीं विश्राम करो, कल सुबह में फिर आना.' 
दुसरे दिन प्रातः काल में कालीप्रसाद गंगा स्नान करके, श्रीरामकृष्ण परमहंस के चरणों में बैठ गए. उन्होंने पूछा - तुमने कौन कौन सी पुस्तकें पढ़ी हैं ? कालीप्रसाद ने कहा- रघुवंश, कुमारसम्भव, गीता, पातन्जल-दर्शन, शिव-संहिता आदि. सुन कर श्रीरामकृष्ण बड़े प्रसन्न हुए और आशीर्वाद दिए. उसके बाद सस्नेह बोले- ' योगासन में बैठ कर अपनी जीभ बाहर निकालो '. कालीप्रसाद ने जिह्वा को प्रसारित कर दिया. तब उनकी जिह्वा के बीच में दाहिने हाथ के बीच वाली ऊँगली से श्रीरामकृष्ण ने मूलमंत्र लिख दिया. साथ ही साथ उनके सम्पूर्ण अंगों में एक अद्भुत शक्ति संचारित हो गयी. कालीप्रसाद का वाह्यज्ञान जाता रहा और वे गम्भीर ध्यान में समाधिस्त हो गए !
योगशिक्षा का जितना बाकी रह गया था, उतना योगिराज श्रीरामकृष्ण ने दे दिया. उनकी आजन्म-आकांक्षित वह समाधी परम योगी के परम स्पर्श से घटित हो गयी. इसी योग-समाधि में तो वे निमग्न रहना चाहते थे. कुछ समय के बाद सर्वयोग-सिद्ध श्रीरामकृष्ण ने कालीप्रसाद के ह्रदय का स्पर्श करके, कुण्डलिनी शक्ति को निचे उतार दिया, और स्वाभाविक अवस्था में वापस लौटा दिया. महायोगी श्रीरामकृष्ण विशाल-योगशक्ति के अधकारी थे, योगीगण जिस योगबल को आजीवन तपस्या करने के बाद भी नहीं प्राप्त कर सकते थे, उसे वे केवल स्पर्श-मात्र से प्रदान कर सकते थे. 
योग्शास्त्रों में कहा गया है,- परमात्मा के साथ जीवात्मा के मिलन को ' योग ' कहा जाता है. यहाँ श्रीरामकृष्ण रूपी परमात्मा के साथ कालीप्रसाद रूपी जीवात्मा घुल-मिल कर एकाकार हो गये, - और उत्तरण हुए योगी अभेदानन्द !
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( ' वर्तमान ' २२ सितम्बर २०००, स्वामी अभेदानन्द जन्मतिथि के उपलक्ष पर प्रकाशित 
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5.काली-वेदान्ती
स्वामी अभेदानन्द का एक और नाम है- ' काली-वेदान्ती '. बचपन से ही उनके भीतर वेदान्त-दर्शन के प्रति तीव्र आकर्षण था. वेदान्त मत का उन्होंने गम्भीर-निष्ठा एवं अध्यवसाय के साथ अध्यन किया था, और आत्मसात भी कर लिया था. सांसारिक स्थूल बातों (नून-तेल-लकड़ी की चिन्ता ) को छोड़ कर, वे सदैव सूक्ष्म-वेदान्तिक तत्वों के गहन चिन्तन-मनन में ही डूबे रहते थे. जिसका मन सदैव वेदान्त के सूक्ष्म आत्मतत्व में ही निमग्न रहता हो, उसके भीतर शरीर की असारता का बोध उत्पन्न होना स्वाभाविक ही है. 
इसीलिए सबकुछ छोड़-छाड़ कर एक दिन वे उपयुक्त गुरु की खोज में निकल पड़े. और सिद्धगुरु के रूप में उन्होंने अद्वैताचार्य श्रीरामकृष्ण को प्राप्त कर लिया; जो अद्वैतवाद के प्रबल-पक्षधर थे. अद्वैत-वेदान्त के 
' नेति नेति ' विचार-पद्धति को काली-महाराज भी बहुत पसन्द करते थे. इसको वेदान्त का ज्ञान मार्ग कहा जाता है. यहाँ पर ईश्वर का अस्तित्व अन्ध-विश्वास के उपर प्रतिष्टित नहीं है. इसमें न्याय-विचार करके सभी मतों का खण्डन कर दिया जाता है. इस अद्वैत-वाद में युक्ति-तर्क की सहायता से एक परम-सत्य तक पहुँचना होता है. यह मार्ग चरम विवेक-विचार के उपर प्रतिष्ठित है. 
काली-महारज भी इसी ज्ञान-मार्ग के पथिक थे. इस पथ में युक्ति-तर्क के आधार पर यह सिद्ध किया जाता है कि - ' ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या '. दिन-रात इसी विचार मग्न रहने के कारण सभी लोग उनको नास्तिक समझने लगे थे. उनके संगीसाथी साथियों ने श्रीरामकृष्ण के पास अभियोग लगाया कि - ' काली-वेदान्ती ईश्वर के अस्तित्व को अस्वीकार कर रहा है. ' यह सब सुनकर अद्वैत-ज्ञानी श्रीरामकृष्ण धीरे से मुस्कुरा दिए और बोले- ' तुम लोग देख लेना एक दिन वह सबकुछ मानने लगेगा, सबकुछ जान जायेगा. ' 
वेदान्त के मतानुसार यह जगत मायामय स्वप्नवत होने के कारण मिथ्या (असत नहीं ) है. यह तो तात्विक-सत्य है; किन्तु क्या किसी ने अपने जीवन में इसका प्रयोग किया है ? प्रयोगात्मक वेदान्तवादी कहाँ है ? ऐसा वेदान्तविद व्यक्ति कहीं मिल सकता है, जो अद्वैत-वेदान्त के तत्वों को अपने जीवन में प्रयोग कर सचमुच वेदान्त-मूर्ति बन चुका हो ?
  काली-महाराज के जिज्ञासु मन में उठते रहने  वाले प्रश्नों का कोई अन्त नहीं था. किन्तु जब तक कोई प्रत्यक्ष-प्रमाण नहीं मिलजाता वे अपनी खोज बन्द करने वालों में से नहीं थे. क्योंकि, अपनी आँखों के सामने जिस जगत को बिलकुल स्पष्ट देख रहा हूँ, वह जगत वेदान्त-मत के अनुसार मिथ्या कैसे हो जाता है ?                     
इस प्रश्न का उत्तर तत्वज्ञ श्रीरामकृष्ण से इस प्रकार दिया- " ' नेति नेति ' करते हुए आत्मा की उपलब्धी करने का नाम ज्ञान है. पहले ' नेति नेति ' विचार करना पड़ता है. ईश्वर पंचभूत नहीं है, इन्द्रिय नहीं हैं, मन, बुद्धि, अहंकार नहीं हैं, वे सभी तत्वों के अतीत हैं; - और यह होते ही यह सब स्वप्नवत हो जाता है.
विचार दो प्रकार का है - अनुलोम और विलोम . पहले के द्वारा मनुष्य जीव-जगत से नित्य ब्रह्म में जाता है और दूसरे के द्वारा देखता है कि, ब्रह्म ही जीव-जगत के रूप में लेलायित है. छत पर चढ़ने के लिए एक एक कर सब सीढ़ियों का त्याग करते हुए जाना होता है. सीढियाँ छत नहीं हैं. किन्तु छत पर जा पहुँचने के बाद दिखाई देता है कि जिन ईंट, चुना, सुर्खी आदि वस्तुओं से छत बनी है, उन्हीं से सीढ़ियाँ भी बनी हैं. जो परब्रह्म है, वही यह जीव-जगत बना है, चौबीस तत्व बना है. जो आत्मा है, वही पंचभूत बना है.
  तुम कहोगे, मिट्टी अगर आत्मा से ही बनी है तो वह इतनी कड़ी कैसे है ? उनकी इच्छा से सब कुछ सम्भव हो सकता है. क्या रज-वीर्य से हड्डी और मांस का निर्माण नहीं होता है ?
 अनुलोम और विलोम. ' नेति नेति ' करते हुए समाधी में पहुँचकर तुम्हारा ' अहं ' ब्रह्म में विलीन हो जाता है. फिर जब तुम समाधी से उतरकर नीचे आते हो तब तुम्हें दिखाई देता है कि ब्रह्म ही तुम्हारे ' अहं ' के रूप में तथा सारे जगत के रूप में व्यक्त हो रहा है....इसी प्रकार नित्य ईश्वर के प्रत्यक्ष दर्शन करने के पश्चात् विचार आया
- ' जो नित्य हैं, वे ही लीला में जगत बने हैं.'
..यदि कहो- अखण्डस्वरुप आत्मा खण्डित जीवात्माओं में कैसे विभक्त हुआ ? कोई अद्वैत-वादी तार्किक विचार-बुद्धि के बल पर इसका उत्तर नहीं दे सकता. उसे यही कहना पड़ता है कि- ' मैं नहीं जानता '. ब्रह्मज्ञान होने पर ही इसका योग्य उत्तर मिल पाता है.
जब तक मनुष्य कहता है, ' मैं जानता हूँ ' या ' मैं नहीं जानता ' तब तक वह स्वयं को एक व्यक्ति (M /F ) समझता है. तब तक उसे इस विविधता ( जगत-प्रपंच ) को सत्य ही मानना पड़ता है- वह इसे भ्रम नहीं कह सकता. परन्तु जब व्यक्तित्व-बोध का;' मैं '-पन का सम्पूर्ण विनाश हो जाता है, तब- ' समाधी ' में ब्रह्मज्ञान प्राप्त होता है.
अहंकार के दूर हो जाने पर जीवत्व ( M / F -पने ) का नाश हो जाता है. इस अवस्था में समाधी में ब्रह्म का साक्षात्कार होता है. जीव नहीं ब्रह्म ही ब्रह्म का साक्षात्कार करता है.  
समाधी अवस्था में उपलब्ध ब्रह्म मानो दूध है, साकार-निराकार ईश्वर मानो माखन हैं, और चौबीस तत्वों से बना जगत मानो छाछ. जब तक तुम माया के राज्य में हो तब तक तुम्हें माखन और छाछ - ईश्वर और जगत - दोनों स्वीकार करना होगा. ...जब तक ' अहं ' है, तब तक साकार ईश्वर भी सत्य हैं; जीव-जगत के रूप में उनकी लीला भी सत्य है.
यथार्थ ज्ञान होने पर अहंकार नहीं रहता. समाधी हुए बिना ठीक-ठाक ज्ञान नहीं होता. भरे दोपहर में सूरज जब ठीक माथे के उपर रहता है; उस समय मनुष्य चारों ओर देखता है, पर उसे अपनी छाया नहीं दिखाई देती वैसे ही, यथार्थ ज्ञान होने पर, समाधी होने पर अहंकाररूपी छाया नहीं रहती. यदि ठीक-ठाक ज्ञान होने के बाद भी किसी में ' अहं ' दिखाई पड़े, तो ऐसा जानना कि वह ' विद्या का अहं ' है, ' अविद्या का अहं ' नहीं.
..समाधी में अद्वैतबोध का अनुभव करने के पश्चात् पुनः नीचे उतर कर ' अहं ' बोध का अवलम्बन कर रहा जाता है.  ईश्वरदर्शन या आत्मज्ञान हो जाने के बाद सब कुछ चिन्मय लगने लगता है. काली के मन्दिर में जाकर देखता हूँ - प्रतिमा चिन्मय, पूजा कि वेदी, कोष-कुशी, मन्दिर का चौखट, मार्बल पत्थर सबकुछ ही चिन्मय है. उस समय बिल्ली को देखने से भी बोध होता है कि, चिन्मयी माँ ही यह सब बनीं है. "     
वेदान्त-वादी काली-महाराज ने श्रीरामकृष्ण के अद्वैत-अनुभूति की बातों को बहुत ध्यान से सुना. किन्तु तब भी उनका तार्किक वेदान्ती-मन इसे मानने को तैयार नहीं था. वे स्वयं द्रष्टा होना चाहते थे- जगत के जड़-जीव आदि समस्त वस्तुओं में एकमात्र परमात्मा ही ओतप्रोत हैं, तो वे उस परमात्मा को प्रत्यक्ष करना चाहते थे. वे वेदान्त के उस सर्वोच्च-शिखर पर पहुँचना चाहते थे, - जहाँ से सबकुछ ( जड़-जीव ) के साथ एकात्मबोध की अनुभूति होती है.
यही आत्म-साक्षात्कार या आत्मबोध हो जाने पर मनुष्य सर्वत्र ईश्वर के अस्तित्व का अनुभव करने में समर्थ हो जाता है. जबतक यह अभेदानुभूती नहीं हो जाती, तबतक नेति नेति विचार करना होता है. इस प्रकार
' नेति नेति ' विचार करके जिन्होंने ' ईति ' कर लिया है, वे ही सच्चे अद्वैत-वेदान्ती हैं.
वहाँ पहुँच जाने के बाद, फिर (ज्ञाता और ज्ञेय ) दो नहीं रह जाता, सबकुछ एक हो जाता है. सभी वस्तुओं के भीतर ' एक ' को प्रत्यक्ष कर लेने को ही अद्वैतानुभूती कहते हैं.आध्यात्म-मार्ग का यह सर्वोच्च स्तर (शिखर) है. यहाँ पहुँच जाने पर वेदान्त-विचार (ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या ) बोध (अनुभूति ) में परिणत हो जाता है. 
इसीलिए हमें समझना चाहिए कि अद्वैत-वेदान्त केवल तार्किक विचार-बुद्धि उपर ही प्रतिष्ठित नहीं है. बल्कि तर्क-युक्ति से मुक्ति प्राप्त कर लेना ही इसका उद्देश्य है. वेदान्तोक्त तात्वि-सत्य को व्यवहारिक सत्य में परिणत कर लेने के लिए ही वेदान्त-साधना की जाती है. ज्ञान-विचार करते करते ज्ञान की चरम सीमा पर पहुँच जाना ही अद्वैतवेदान्त की ईति है. 
अनुभूति-प्राप्त करने के लिए ही काली-महाराज की वेदान्त-साधना चल रही थी. दिन रात वे ज्ञान-विचार में निमग्न रहने लगे. जब तक वे ज्ञान की चरम पराकाष्ठा में उपनीत नहीं हो जाते वे साधना से विरत नहीं हो सकते थे. अद्वैत तत्व के अनुसन्धान कर अभेददर्शन के उद्देश्य से वे पुनः गम्भीर ध्यान में डूब गए.
अध्यवसायी, आत्मज्ञान के इच्छुक- काली-महाराज के लिए वेदान्त एक अन्वेषण था. उनके प्राणों की भूख थी. उनका मन उस व्याकुलता के आवेग से आर्तनाद से भरा हुआ था. वे श्रीरामकृष्ण के दिव्यसनिध्य में उपविष्ट थे. उनकी ज्ञानान्वेषी वेदान्तिक तर्कशील मानसिकता अंतर की व्याकुलता को अवदमित कर रही थी.
उनके प्राणों में यह प्रश्न बार बार उठ रहा था- ' क्या सचमुच, किसी को अभिन्न-दृष्टि प्राप्त हो जाती है ? सर्वभूतों में क्या, किसी को सचमुच आत्मदर्शन होता है ? क्या कोई मुझे ' ज्ञानांजन ' प्रदान करके मेरी  आत्मदृष्टि को भी उन्मोचित करने में समर्थ है? यदि कोई समर्थ गुरु हैं, तो वह अद्वैत-ज्ञानी साधक कहाँ मिलेंगे ?
वे इस प्रकार सोच ही रहे थे कि, सिद्धान्त को व्यवहार रूपांतरित होते देखने का समय उपस्थित हो गया. शायद अन्तर्यामी अद्वैतवादी श्रीरामकृष्ण ने अपनी अद्वैतानुभूती के द्वारा काली-महाराज की आन्तरिक वासना (तीव्र इच्छा) को अपने ह्रदय में अनुभव कर लिया था. इसीलिए उन्होंने काशीपुर-उद्यानबाड़ी में स्वयं इसके दृष्टान्त-स्वरुप बन कर, काली-महाराज को आवेगपूर्ण शब्दों में आदेश दिया- " बाहर जा कर देखो, जो आदमी मठ की हरी-हरी घासों पर टहल रहा है, उसको घास पर चलने से मना कर दो. मुझे बहुत कष्ट हो रहा है. ऐसा महसूस हो रहा है, मानो वह मेरी छाती के उपर ही चल रहा हो. " 
काली-महाराज अवाक् रह गए. मन में उठा प्रश्न मन में ही रह गया. सोचने लगे- ' इन्होंने मेरे मन की बात को जान कैसे लिया ? स्तम्भित काली-वेदान्ती ठाकुर के निर्देशानुसार शीघ्रता से बाहर निकल कर देखे- अरे बिलकुल सच ! बाहर एक व्यक्ति मठ की हरी हरी दूबों के उपर टहल रहा था. जल्दी से वहाँ पहुँच कर उसको घास के उपर उस प्रकार चहल-कदमी करने से मना किया.
आदेश को सुन कर, उस व्यक्ति ने घास के उपर चलना जैसे ही बन्द किया, उन्होंने देखा कि, ठाकुर श्रीरामकृष्ण थोड़ा स्वस्थ अनुभव करने लगे हैं. अब आश्चर्य-चकित होकर, काली-महाराज अवाक् हो गए और अपलक-दृष्टि से श्रीरामकृष्ण को देखते रह गए; मानो अद्वैत-विज्ञान किसे कहते है, उसके प्रत्यक्ष-प्रमाण स्वरुप जीवन्त वेदान्त-मूर्ति को देख कर मिला रहे हों. 
अद्वैतानुभूती को, आज उन्होंने अपनी आँखों के सम्मुख प्रमाणित होते देख लिया था. विचार कर रहे हैं- इसको ही आत्मज्ञान कहते हैं, इसको ही आत्मदृष्टि कहते है. तृणादि जड़-चेतन, जीव-जगत, सबकुछ के भीतर अपने को देखना ही तो ' अभेदज्ञान ' है. यही तो अद्वैत-वेदान्त का चरम तत्व है- जिसको निज-अनुभव से जानने के लिए साधक को साधनारुपी सोपानों से होकर गुजरना होता है. 
काली-वेदान्ती इसी आत्मानुभूति को प्राप्त करना चाहते थे. श्रीरामकृष्ण ने आज उसीको दृष्टान्त-सापेक्ष प्रमाण द्वारा दिखा दिया था. उन्होंने अभेदतत्व को प्रयोग-द्वारा वास्तविकता में परिणत कर दिया था. जड़-पदार्थों के प्रति अभिन्न दृष्टि को व्यवहारिक रूप से दृष्टिगोचर करा दिया था. यही सत्य हजारों वर्ष पूर्व ऋषि कन्ठ से घोषित हुआ था-
" यदिदं किञ्चित जगत सर्वं प्राण एजति निःसृतम "|
- अर्थात जीव-जगत सभी कुछ के भीतर एक ही प्राणसत्ता चैतन्य रूप में निहित है. 
यह अभेदतत्व अभी तक केवल वेदान्त-शास्त्रों के पन्नों में निबद्ध था. श्रीरामकृष्ण ने स्व-अनुभूत आचरण के द्वारा - शास्त्रोक्त सत्यतत्व को ' तथ्य ' में परिणत कर दिखाया था. काली-महाराज के सत्यार्थी मन ने वेदान्त के जिस सारतत्व का अन्वेषण किया था, श्रीरामकृष्ण ने उसे दिव्य-दृष्टि की सहायता से उन्मोचित कर दिया था. पवित्र-सानिध्य प्रदान कर परम-प्राप्ति को वास्तविकता में परिणत कर दिया था. 
श्रीरामकृष्ण अद्वैत-वेदान्ती थे, वे कहते थे-' अद्वैतज्ञान को आँचल में बाँध कर जो चाहो करो, तुम्हें कोई दोष नहीं लगेगा. '
इसीलिए वे काली-वेदान्ती के अद्वैत साधना का असमर्थन नहीं कर सकते थे. परन्तु यदि कोई जानना चाहता तो उसको, वे तत्व और तथ्य (सिद्धान्त और व्यव्हार दोनों ) की सहायता से प्रमाणित कर कर के दिखला देते थे. 
इसीलिए वेदान्त के जो तात्विक-सिद्धान्त हजारों वर्ष पूर्व,उपनिषद-कारों के ध्यान-नेत्र या ऋषि-दृष्टि के सामने उद्भाषित हो उठे थे, आज वही तत्व श्रीरामकृष्ण के जीवन से प्रमाणित हो रहे थे, एवं काली-महाराज ने स्वयम अपने आँखों से परख कर देख लिया था. उनकी अद्वैत-वेदान्त की साधना सार्थक हो गयी थी; और उसके साथ ही साथ गुरुभाइयों द्वारा दिया गया - ' काली-वेदान्ती ' नाम का सही मुल्यांकन भी हो गया था.         
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  ('সংবাদ প্রতিদিন ' ২৬ শে সেপ্টেম্বর ২০০৫ স্বামী অভেদানান্দের জন্মতিথি উপলক্ষ্যে প্রকশিত)
( ' संवाद प्रतिदिन ' २६.९. २००५, स्वामी अभेदानन्द के जन्मतिथि उपलक्ष्य में प्रकाशित ) 
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6.वेदान्तिक अभेदानन्द 
स्वामी अभेदानन्द श्रीरामकृष्ण के अन्तरंग-लीलापार्षदों में अन्यतम पार्षद थे. उनका जन्म २ अक्तूबर १८६६ को उत्तर कोलकाता के आहिरीटोला में हुआ था. उनके पुर्वाश्रम का नाम काली-प्रसाद एवं पिता का नाम रसिकलाल चन्द्र था. माता का नाम नयनतारा देवी था. बचपन में उन्होंने आहिरीटोला स्थित यदु पण्डित की पाठशाला में, तथा बाद में बंग विद्यालय एवं ओरिएंटल सेमिनरी में शिक्षा ग्रहण किया था. पढ़ने-लिखने में वे एक मेधावी छात्र थे. 
किन्तु बचपन से ही उनमे योगसाधना के प्रति तीव्र आकर्षण था. इसी योगसाधना के प्रति गहरे आकर्षण को लेकर १८८३ ई० वे श्रीरामकृष्ण के सानिध्य दक्षिणेश्वर आ गए. श्रीरामकृष्ण ने कालीप्रसाद को देखते ही पहचान लिया एवं कहा - ' अपने पूर्वजन्म में तूँ एक योगी था. तुम्हारा कुछ बाकी रह गया था. यही जन्म तेरा अंतिम जन्म है. ' जौहरी-श्रीरामकृष्ण ने कालीप्रसाद रूपी खरे सोने को ठीक ठीक पहचान लिया था. 
श्रीरामकृष्ण कालीप्रसाद से बहुत स्नेह करते थे, वे कहते- ' लडकों में तूँ बुद्धिमान है. नरेन के नीचे ही तेरी बुद्धि का स्थान है. नरेन जिस प्रकार एक मत चला सकता है, तुम भी वैसा कर सकोगे. ' श्रीरामकृष्ण का यह आशीर्वाद उनके उपर वर्षित हुआ था. परवर्तीकाल में उनके कर्म-दक्षता को देखने से यह महसूस होता है कि श्रीरामकृष्ण का आशीर्वाद सत्य सिद्ध हुआ था.
कालीप्रसाद तार्किक व्यक्ति थे. युक्ति-तर्क के कसौटी पर परखने के बाद ही वे किसी बात को ग्रहण करते थे. उस समय श्रीरामकृष्ण अस्वस्थ थे, सेवा-शुश्रूषा करने के उद्देश्य से उनको काशीपुर उद्द्यानबाड़ी में रखा गया था. उस समय काली-महाराज भी श्रीरामकृष्ण की सेवा में नियुक्त रहते थे. एक दिन सेवक कालीप्रसाद काशीपुर उद्द्यान के भीतर तालाब में बंशी डाल कर मछली पकड़ रहे थे. यह बात सुनकर श्रीरामकृष्ण ने उनको मना किया और कहा- ' उस प्रकार बंशी से मछली नहीं पकड़ना चाहिए. बंशी के हुक में चारा डाल कर मछलियों को जल से बाहर खींच लेना उचित नहीं है.' इतना ही नहीं बंशी डाल कर मछली पकड़ने की बात सुन कर ठाकुर को कष्ट भी हुआ था. किन्तु काली-महाराज तो वेदान्ती थे.
वेदान्त के युक्ति-तर्क को वे पसन्द करते थे. ' नेति नेति ' कर के ' ईति ' तक पहुँचना उनका उद्देश्य था.
काली-महाराज शास्त्र-वचनों को केवल शास्त्रों में ही आबद्ध नहीं रखना चाहते थे. शास्त्र के तत्वों को वे व्यवहार में और अपने आचरण में उतार कर मिलान करना चाहते थे. इसीलिए उन्होंने श्रीरामकृष्ण से ( शास्त्र की बात को तर्क के आधार पर व्याख्या करते हुए)  कहा-
' शास्त्रों में कहा गया है- आत्मा अमर, नित्य, शाश्वत है. जिसको अग्नि में जलाया नहीं जा सकता, शस्त्र इस आत्मा को काट नहीं सकते, तथा आत्मा का अस्तित्व सर्वत्र है. ' आत्मा किसी की हत्या नहीं करता, किसी के द्वारा हत भी नहीं होता.' इसलिए ' मछली की हत्या भी नहीं होती,या हमलोगों के द्वारा वह हत भी नहीं होता '  क्योंकि मछली भी तो आत्म-स्वरुप है.
इसीप्रकार कालीप्रसाद सूतीक्ष्ण बुद्धि के द्वारा अपने मत को प्रतिष्ठित करा सकते थे. कई बार तो अपने इस स्नेहभाजन सन्तान के युक्ति-तर्क को सुन कर श्रीरामकृष्ण को भी परास्त होना पड़ता था. फिरभी ऐसी बुद्धि-दीप्त प्रतिभा के लिए श्रीरामकृष्ण उनसे बहुत स्नेह करते थे. 
यही काली-महाराज श्रीरामकृष्ण की कृपा से वेदान्त के चरम उपलब्धी के स्तर तक पहुँच गए थे. उन्होंने जिव-जगत सभी वस्तुओं के भीतर आत्मा का दर्शन किया था. श्रीरामकृष्ण के निर्देशानुसार वे जो कुछ दर्शन करते श्रीरामकृष्ण से कह सुनाते थे.
एक दिन काली-महाराज श्रीरामकृष्ण के चरणों को सहला रहे थे. इसी समय उनको अनुभव हुआ - ' मानो श्रीरामकृष्ण ही स्वयं जगन्माता हैं. एवं मातृरूप धारण कर के उनको अपना स्तन पान करा रहे हैं.इस अद्भुत अनुभूति के प्रसंग का वर्णन अभेदानन्द महाराज अपनी आत्मजीवनी में इस प्रकार किया है-
  ' एक दिन वे (अभेदानन्दजी )  समाधी में चले गए थे. उनका वाह्य-ज्ञान पूरी तरह से चला गया था. वे मानो अनन्त-आकाश के नीचे मुक्त पंछी के जैसा विचरण कर रहे थे. इस सम्पूर्ण जगत को ध्यान में देख रहे थे. विचरण करते हुए वे एक अतीन्द्रिय जगत में जा पहूंचे थे, देखते हैं एक भव्य भवन है. उसी विराट भवन में वे अकेले ध्यान मग्न हैं. 
और उस भवन के मध्यमणि होकर बैठे हुए हैं श्रीरामकृष्ण. वे मानो सूर्य के जैसा एक प्रकाशपुंज हों और उनके भीतर से रश्मियों के रूप एक एक देवताओं की प्रतिमुर्तियाँ प्रस्फुटित हो रही थीं. फिर देखते हैं समस्त देव-देवियाँ मानो पुनः उन्हीं के भीतर समाती जा रही हैं.
  इस अद्भुत दर्शन का जब कोई मर्म समझ में नहीं आया तो श्रीरामकृष्ण के पास जाकर उनको बताया. श्रीरामकृष्ण उनके इस दर्शन को सुन कर बोले- ' तुमको वैकुण्ठ का दर्शन मिल गया है. तुमने समस्त देव-देवियों का दर्शन कर लिया है, एवं तुम अखण्ड घर तक जा पहूंचे हो. इसके बाद फिर तुमको किसी देव-देवी का दर्शन नहीं होगा. '  
काली-महाराज ने इस दर्शन के समय यह अनुभव किया था कि, भगवान श्रीरामकृष्ण ही समस्त अवतारी पुरुषों के घनीभूत विग्रह हैं. श्रीकृष्ण, ईसामसीह, जराथ्रुष्ट, नानक, चैतन्य, शंकराचार्य, यहाँ तक कि दशावतार में गण्य- मत्स्य, कूर्म, से लेकर श्रीरामचन्द्र, बुद्ध आदि समस्त अवतार ही 
मानो श्रीरामकृष्ण में समाहित होकर एकाकार हो गए हैं. ठाकुर उनके इस दिव्य-दर्शन की बातों को सुन कर पुनः बोले- ' वैकुण्ठ का दर्शन कर लेने के बाद तुम सरूप-दर्शन की चरम सीमा तक पहुँच गए हो, अब तुम्हारे लिए और कुछ दर्शन करना बाकी नहीं है. अब से तुम अरूप और निराकार के क्षेत्र में उठोगे. '
  श्रीरामकृष्ण की कृपा से समस्त देव-देवियों का दर्शन करके कठोरी काली-महाराज का नाम ' काली-तपस्वी ' पड़ गया. 
इसके बाद श्रीरामकृष्ण ने १६ अगस्त १८८६ ई० को अपनी नरलीला का समापन कर दिया. सभी गुरुभाई लोग एकत्रित होकर वराहनगर मठ में आश्रमी जीवन बिताने लगे. श्रीरामकृष्ण ने उन सबको त्यागव्रत में अग्रसर करने के उद्देश्य से गेरुआ-वस्त्र तो दिया था, किन्तु अनुष्ठानिक विधि-विधान से सन्यास-दीक्षा नहीं प्रदान की थी.
बाद में बड़ानगर मठ में विरजाहोम करके उनलोगों ने  आनुष्ठानिक विधि से भी सन्यास ग्रहण कर लिया था.  सन्यास लेने से पहले विरजाहोम करना पड़ता है. इस विरजाहोम के लिए हवनसामग्री, मन्त्र, मठ. मड़ी इत्यादि वस्तुओं का जोगाड़ काली-महाराज ने किया था. सन्यास ग्रहण करने के बाद काली-महाराज का नाम - ' स्वामी अभेदानन्द ' हो गया था. क्योंकि साधना के द्वारा उन्होंने अभेद-तत्व की अनुभूति प्राप्त की थी.
सन्यास ग्रहण करने के बाद काली-महाराज परिव्राजक के वेश में विभिन्न तीर्थों का भ्रमण करने निकल पड़े. 
काली-महाराज तपस्वी थे, वे बहुत कठोर तप करते थे. इसीलिए बड़ानगर मठ में उनका एक अलग कमरा था. उस कमरे को ' काली- तपस्वी ' का कमरा कहा जाता था. फिर वे वेदान्त की भी गहराई (नsआसीत, नsअस्ति, नsभविष्यति ) में भी प्रवेश कर जाते थे, वेदान्त-चर्चा करने में बड़े पारंगत थे, इसीलिए कोई कोई
उनको ' काली-वेदान्ती ' भी कहा करते थे.
काली-महाराज पैदल ही काशीधाम पहुँच गए. वहाँ पहुँच कर तैलंगस्वामी, भाष्करानन्द सरस्वती के साथ वेदान्त विचार किये. इसके अतिरिक्त पहाड़ो की कन्दराओं में भी उन्होंने कठोर तपस्या की थी. हृषीकेश के कैलास मठ में धनराज गिरी से उन्होंने वेदान्त-दर्शन के शंकर भाष्य की शिक्षा ली थी. वे बहुत एकांत-प्रिय थे, तथा कपर्दकहिन् तपस्वी के रूप में तीर्थ-भ्रमण किया करते थे. 
बहुत दिनों तक तपस्या करने के बाद जब वे १८९५ ई० में वापस लौटे, तो मठ बड़ानगर से स्थानान्तरित होकर आलमबाजार में जा चुका था. वहां पर भी वे गम्भीर साधन-स्वाध्याय और शास्त्र अध्यन में निमग्न रहते थे.  इसी समय १८९६ ई० में स्वामी विवेकानंद के आह्वान पर वेदान्त का प्रचार करने के लिए वे पाश्चात्य गए. पाश्चात्य में २१ अक्तूबर १८९६ को लन्दन के ' क्राइस्ट थिओसोफिकल सोसाईटी ' में, उन्होंने अपना पहला व्याख्यान दिया था. उनके भाषण का विषय था, वेदान्त का ' पंचदशी '.
  स्वामी विवेकानन्द ने उनके प्रथम व्याख्यान को सुनने के बाद उपस्थित श्रोताओं के बीच घोषित किया था-
" Even if I perish out of this plane, my message will be sounded through these dear lips and world will hear it. "अर्थात, जब वे इस स्थूल शरीर में नहीं रहेंगे, तब उनकी वाणी को जगतवासी उनके गुरुभ्राता स्वामी अभेदानन्द के कण्ठ से सुनेंगे. 
 स्वामीजी का यह आशीर्वाद वर्षित हुआ था, एवं उनके आशीस के कारण ही, अभेदानान्दजी ने  अमेरिका में निरन्तर २५ वर्षों तक वेदान्त प्रचार के कार्य में निमग्न रहे थे.स्वामीजी के निर्देश पर अभेदानन्दजी १८९७ ई० में लन्दन से अमेरिका चले गए. अमेरिका के न्यू यार्क शहर में उन्होंने वेदान्त, गीता, और धर्म के ऊपर ३ महीनों में लगभग ९० व्याख्यान दिए थे.
  अमेरिका के समस्त बड़े बड़े विश्वविद्यालयों में नियमित रूप से उनका व्याख्यान हुआ करता था. उस समय के अमेरकी राष्ट्रपति मैककिनली के आमंत्रण पर उनके साथ भारतीय-दर्शन के विषय पर चर्चा किये थे. इसके अतिरिक्त पाश्चात्य के जितने नामी-गिरामी दार्शनिक, वैज्ञानिक, साहित्यकार, अन्वेषक, आदि लोग थे, उन सभी के साथ उनकी अन्तरंग मित्रता हो गयी थी. स्वामीजी के इच्छानुसार, उनके वार्ता-वाहक होकर अभेदानन्दजी अमेरिका में कई वर्षों तक रहे थे. 
एकदिन अमेरिका के एक हाल में ' मनःसंयोग ' के विषय पर अभेदानन्दजी का व्याख्यान चल रहा था. श्रोतागण पुरे मनोयोग के साथ ' मनसंयम ' के उपर अभेदानन्दजी के व्याख्यान को सुनने में निमग्न थे. उन्ही श्रोताओं में से एक विख्यात दार्शनिक ने दूसरे दिन महाराज को कहा था- ' आपका मनःसंयोग के ऊपर दिया गया व्याख्यान सार्थक सिद्ध हुआ है. क्योंकि आप जब हमलोगों का मनसंयोग विषय पर क्लास ले रहे थे, उसी समय निकट के रस्ते से बैंड बजाते हुए एक शोभायात्रा निकली थी, किन्तु हममें से किसी को उसका पता नहीं चला. ' अभेदानन्दजी भी व्याख्यान देने में इतने तल्लीन थे कि, उनको भी इसका पता न चल सका था, इसीलिए उन्होंने 
पूछा- ' ऐसा क्या ?'
 उन्होंने कहा- ' हाँ, व्याख्यान चलते समय एक शोभायात्रा हाल के बिलकुल निकट से होकर गुजरी थी. किन्तु हममें से किसी को इसका पता नहीं चला.
इस से यह सिद्ध होता है कि आपका ' मनः संयोग ' के विषय में दिया गया व्याख्यान हमलोगों के लिए सार्थक हो गया है, क्योंकि आपके ' मनःसंयोग ' - क्लास में हम सभी लोग इतनी तल्लीनता से सुन रहे थे, कि हमारा मन उसके भावों में बहते हुए एक दूसरे ही लोक में पहुँच गया था.'
स्वामी अभेदानन्दजी एक ही आधार में वक्ता, दार्शनिक, लेखक एवं मनोवैज्ञानिक भी थे. वे एक बहुमुखी प्रतिभा के धनी व्यक्ति थे. उन्होंने पाश्चात्य देशों में विभिन्न विषयों पर जितने भी व्याख्यान दिए थे, वह आज पुस्तकों में लिपिबद्ध है. उदहारण के लिए, मृत्यु के पार, मृत्यू रहस्य, पुनर्जन्म-वाद, मनोविज्ञान और आत्मतत्व आदि कुछ प्रमुख पुस्तकों का नाम लिया जा सकता है. 
पश्चात्यवासी उनके प्रतिभा को देख कर मुग्ध हो गए थे. अभेदानन्दजी के साथ पाश्चात्य देशों के विख्यात ज्ञानी-गुणि मनीषियों यथा- अध्यापक मैक्समुलर, पाल डायसन, विलियम जेम्स, जोसिया रयेस, राल्फ ओयलेंडो, लायनमैन, हडसन आदि के घनिष्ट सम्बन्ध था. यहाँ तक कि ग्रामोफोन के आविष्कारक टॉमस आलवा एडिसन के साथ भी उनकी गहरी मित्रता थी. उन्होंने उनको अपने द्वारा आविष्कृत प्रथम ग्रामोफोन उपहार में दिया था, जो रामकृष्ण वेदान्त मठ में आज भी चालू हालत में संरक्षित है. 
स्वामी अभेदानान्दजी हावर्ट, कोलम्बिया, इयेल, कर्नेल, केम्ब्रिज, वर्कले, क्लार्क, कैलिफोर्निया आदि यूनिवर्सिटी में नियमित व्याख्यान दिया करते थे. इसके अतिरिक्त वे दर्शन और विज्ञान के सम्बन्ध में अमेरिका, कनाडा, अलास्का, मेक्सिको, तथा यूरोप के बड़े बड़े यूनिवर्सिटी में भी नियमित भाषण देते थे. 
वे एक सफल प्रचारक थे. भारत के वेदान्त-दर्शन को उन्होंने ही विश्व के समक्ष उजागर किया था. वेदान्त प्रचार करने के लिए १७ बार आटलनटिक महासगर को पार किया है.
अमेरिका में उनके द्वारा दिए गए व्याख्यान- ' India and her people ' ने सभी का ध्यान आकर्षित कर लिया था. इस व्याख्यान का बंगला अनुवाद  ' भारत और उसकी संस्कृति ' के नाम से बंगला में छपा था; उस समय यह पुस्तिका भारतप्राण व्यक्तियों की पाठ्यवस्तु बन गयी थी. इसीलिए तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने इस पुस्तिका पर प्रतिबन्ध लगा दिया था. उनका कहना था कि यह पुस्तक स्वाधीन चेता भारतियों को स्वाधीनता संग्राम के लिए उद्बुद्ध कर रहा था. 
स्वामी अभेदानान्दजी अमेरिका पच्चीस वर्षों तक रहने के दौरान १९०९ ई० में छ' महीनों के लिए भारतवर्ष आये थे. भारत आकर स्वाधीनता-संग्रामियों को उद्दीप्त किये थे. इसके बाद वे पुनः अमेरिका लौट गए एवं दीर्घ २५ वर्षों तक अमेरिका में भारतीय-दर्शन एवं वेदान्त का प्रचार किये थे. १९२१ ई० में वे भारत लौट आये थे. वापस लौटते समय चीन, जापान, फिलिपाईन्स, सिंगापूर, कोयलालमपूर, रंगून आदि देशों में भी उन्होंने भारत के वेदान्त को वहाँ की जनता के समक्ष उजागर किया था. 
१९२२ ई० में वे रामकृष्ण मठ एवं मिशन के उपाध्यक्ष निर्वाचित हुए, उसके बाद भारत के प्राण-केन्द्र कोलकाता में भी वेदान्त-प्रचार करने के लिए एक अस्थायी ' वेदान्त समिति ' गठित किये. इस समय भी उनके पास भारत के महान महान व्यक्ति आया करते थे. भिन्न भिन्न समय पर सर सी. भी. रमन, महात्मा गाँधी, चितरंजन दास, सुभाषचन्द्र बोस, जैसे महापुरुष-गण उनके निकट सानिध्य में आये थे एवं उनकी ज्ञान-गर्भित वार्ताओं को सुन कर मुग्ध हुए थे. 
 १९२१ ई० में भारत लौट आने के बाद २५ दिसम्बर को कोलकाता में उनके लिए  विशेष अभ्यर्थना और अभिनन्दन सभा आयोजित की गयी थी. परिव्राजक स्वामी अभेदानन्दजी १९२२ ई० में पुनः तिब्बत और काश्मीर का पर्यटन करने निकल पड़े. वहाँ से बौद्ध-दर्शन एवं तिब्बतीय सामाजिक-तत्वों के सम्बन्ध में बहुत से तथ्यों का संग्रह किये थे.
तत्पश्चात १९२३ ई० में ' वेदान्त समिति ' को स्थापित किये एवं दार्जलिंग में ' रामकृष्ण वेदान्त आश्रम ' की स्थापना १९२५ ई० में किये. स्वामी अभेदानन्दजी ने १९२७ ई० में मासिक मुखपत्र के रूप में ' विश्व-वाणी ' पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ किया;
  एवं १४ मार्च १९३१ को ' रामकृष्ण वेदान्त मठ ' की स्थापना की थी. एवं १९३१ ई० के मार्च महीने में ही आयोजित श्रीरामकृष्ण के शतवार्षिकी ( सौवाँ जन्मोत्सव ) महासभा की अध्यक्षता स्वामी अभेदानन्द जी ने ही की थी. किसी विशाल समारोह में दिया गया, यही उनके जीवन का आखरी व्याख्यान था. 
८ सितम्बर १९३९ को विश्वविजयी वेदान्तिक भारत माता की कीर्ति को दुनिया भर में प्रचारित करने वाले इस योग्य भारत-सन्तान ने महासमाधि प्राप्त की. उनकी अन्तिम इच्छा के अनुसार ' काशीपुर-महाश्मशान ' में उनके गुरुदेव श्रीरामकृष्ण की समाधी के निकट ही उनको भी भष्मीभूत करके समाहित कर दिया गया.
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( ' আলোকপাত ' পত্রিকায় প্রকাশিত | ' आलोकपात ' नामक पत्रिका में प्रकाशित )
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7.रामकृष्ण-संघ में सन्यासव्रत कैसे आया ?
उनदिनों श्रीरामकृष्ण का शरीर अस्वस्थ था. उनकी सेवाशुश्रुषा करने के उद्देश्य से उन्हें ' काशीपुर उद्द्यान बाड़ी ' में रखा जा रहा था. उनके जितने भी अन्तरंग-पार्षदगण थे वे सभी पारी बांध कर उनकी सेवा में नियुक्त थे. इन सभी सेवकों में गोपालचन्द्र सूर एक ज्ञानी अनुभवी और उम्रदराज होने के कारण सबके अभिभावक जैसे थे. इसीलिए उनको गोपालदादा भी कहते थे. 
व्यस्क गोपालदादा को साधू-सन्तों की सेवा करना बहुत पसंद था. उनकी ईच्छा हुई कि गंगासागर मेले में आये कुछ साधुओं को वस्त्र दान करना चाहिए. केवल वस्त्र ही नहीं उसके साथ रुद्राक्ष की माला भी देने की ईच्छा थी. ये वस्त्र उनको सन्यासियों को देने थे, इसीलिए एक दिन गोपालदादा उन कपड़ों को गेरुआ-मिटटी से रंग रहे थे.
  यह समाचार एक कान से दुसरे कान तक होते हुए श्रीरामकृष्ण तक पहुँच गयी, श्रीरामकृष्ण ने गोपालदादा को बुलवा भेजा. उन्होंने पूछा- ' इतने सारे वस्त्रों को गेरुआ रंग में क्यों रंग रहे हो ? '
इसके उत्तर में भक्तिभाव रखने वाले गोपालदादा ने कहा- ' गंगासागर मेला में जाने के लिए जगन्नाथ घाट पर कुछ साधू लोग आये हुए हैं. उनलोगों के जीर्ण-मलिन वस्त्रों को देख कर उन्हें नए वस्त्र देने की इच्छा हुई है. इसीलिए नए कपड़े खरीद लाया था, इन्हें साधुओं को देना है, इसीलिए इनको गेरुआ रंग में रंग रहा हूँ. '
यह बात सुन कर श्रीरामकृष्ण ने कहा- " अच्छी बात है, किन्तु तुम्हारे इस जगन्नाथ घाट पर एकत्रित
रमता ( घुमक्कड़ ) योगियों को गेरुआ वस्त्र देने से जितना फल मिलेगा,  तुम इन वस्त्रों को यदि मेरे त्यागी संतानों को अर्पित कर दो तो, तो उससे हजारगुना अधिक फल प्राप्त होगा. इनके जैसा त्यागी-साधू और कहाँ खोजोगे !
क्या तुम यह नहीं देख सकते कि, इनलोगों ने अपनी समस्त कामना-वासना की जलांजलि कर दी है ! इनमे से एक-एक लड़के तुम्हारे इनजैसे हजार साधुओं के बराबर है. ये सभी ' हजारी-साधू  ' ( १=१०००) हैं ! समझते हो भाई ? " 
गोपाल दादा श्रीश्री ठाकुर के पास बहुत दिनों से आ रहे थे. किन्तु इस बात पर तो उन्होंने कभी गौर नहीं किया था. इसीलिए ठाकुर की बात सुन कर वे आश्चर्य-चकित हो गए. वे सोचने लगे सचमुच इनलोगों को इतने दिनों से देख रहा हूँ, किन्तु पहचान नहीं सका था. ये लोग भी तो कामिनी-कांचन त्यागी हैं. वैराज्ञ की त्याग-अग्नि में इनलोगों ने अपनी समस्त कामना-वासना का होम कर दिया है. इसिलए ये भी कुछ कम साधू नहीं है.  इसीलिए ये गेरुआ-वस्त्र, अपने इन गुरुभाइयों को ही अर्पित करना उचित है. 
तब  गोपाल दादा ने उन गेरुआ-वस्त्रों एवं रुद्राक्ष की माला आदि को त्यागीश्वर श्रीरामकृष्ण के हाथों में ही सौंप दिया- जो करना है, वे ही करें. वे ही इस विषय में अधिकारी व्यक्ति हैं. श्रीरामकृष्ण ने उन बारह गैरिक-वस्त्र और माला को मन्त्रपूत एवं स्पर्श करके, गोपाल दादा को इन्हें लड़कों में वितरण कर देने का आदेश दिया.
स्वामी अभेदानन्दजी ने इसके बाद की घटना को अपनी आत्मजीवनी में इस प्रकार लिपिबद्ध किया है- " गोपाल दादा ने हमलोगों को वे गैरिक-वस्त्र और रुद्राक्ष की मालाएं पहना दी. हमलोग गैरिक वस्त्र पहन कर ठाकुर को प्रणाम करने गए. वे हमलोगों को गैरिक-वस्त्रों में देखकर बहुत आनन्दित हुए. इसी प्रकार से उन्होंने हमलोगों को सन्यास-व्रत में दीक्षित किया था. उसी दिन से हमलोग सफ़ेद कपड़ो का त्याग कर 
गैरिक-वस्त्र पहनने लगे. "
उस दिन काशीपुर में श्रीश्री ठाकुर ने वहाँ उपस्थित अपने एग्यारह त्यागी सन्तानों ( नरेन्, राखाल, काली, शशी, शरत, निरन्जन, बाबुराम, योगीन, लाटू, तारक और बूढ़े-गोपाल ) को गेरुआ वस्त्र और माला प्रदान किये थे, और बचे हुए एक गैरिक वस्त्र को गिरीश बाबु को देने के लिए निर्देश दिए थे. बाद में उस वस्त्र को प्राप्त करने पर कृतज्ञता पूर्वक अपने माथे पर रख लिया था. किन्तु उन्होंने जीवन में कभी गेरुआ वस्त्र धारण नहीं किया था. उन्होंने अपने मन (अन्तरंग-सत्ता ) को ही गेरुआ रंग में रंग लिया था, किन्तु अपने वाह्य-वस्त्रों को त्याग के रंग में रंगना नहीं चाहते थे. 
यहाँ पर इस बात का उल्लेख किया जा सकता है कि, इसके पहले दक्षिणेश्वर में रहते समय भी श्रीरामकृष्ण ने अपनी एक लीला सहचरी को भी गेरुआ वस्त्र प्रदान किया था. केवल इतना ही नहीं, सन्यास के लिए अनुष्ठित होम-पूजा में ठाकुर स्वयं अर्घ्य प्रदान करके उस सन्यासिनी को ' गौरी-आनन्द ' का नाम प्रदान किये थे. बाद में सभी लोग उनको ' गौरीमाँ ' या ' गौरीपूरी ' के नाम से जानते थे. 
किन्तु श्रीरामकृष्ण के द्वारा अपनी संतानों को गैरिक-वस्त्र प्रदान किये जाने के बाद भी अनुष्ठानिक रीति से उनलोगों की सन्यास-दीक्षा उस समय तक नहीं  हो सकी थी. क्योंकि तबतक न तो बिरजाहोम हुआ था, न योग्प्त हुआ, नया नामकरण भी नहीं हुआ था. केवल उनलोगों को गैरिक वस्त्र मिल गया था. इसीबीच १६ अगस्त १८८६ ई० को श्रीरामकृष्ण महासमाधि को प्राप्त हो गए थे. 
अभिभावक विहीन त्यागव्रत-धारी संतानों का ह्रदय बोझिल हो गया था. श्रीश्री ठाकुर के इहलीला समाप्ति के पश्चात् भग्न-ह्रदय त्यागी-पार्षद लोग गैरिक-वस्त्र पहन कर तीर्थों में भ्रमण करने लगे. 
 उस समय श्रीश्री माँ ने श्रीश्री ठाकुर के पास आन्तरिक प्रार्थना निवेदित करते हुए कहा- ' हे ठाकुर, तुम आये और केवल लीला दिखा कर चले गए...मेरे लड़के सब जो तुम्हारे नाम के सहारे सबकुछ छोड़ कर यहाँ आ गए, अब वे दो मुट्ठी अन्न के लिए इधर-उधर मारे फिरेंगे, मैं यह सब देख नहीं पाऊँगी. तुम देखना, कि तुम्हारे नाम पर जो लोग घर छोड़ कर निकलेंगे, उनको सामान्य भोजन-वस्त्र का कोई आभाव न हो. वे सभी तुमको और तुम्हारे भाव-उपदेश को ले कर संघ-बद्ध हो कर रहेंगे; और संसार के ताप-दग्ध मनुष्य उनके पास आकर तुम्हारी बातें सुन कर शान्ति पाएंगे. ' उनकी इस कातर प्रार्थना को सुनकर मानो श्रीश्री ठाकुर राजी हो गए, और उन्हीं की इच्छा से १९ अक्तूबर १८८६ ई० को वराहनगर मठ शुरू हो गया. उसके बाद एक एक कर सभी गुरुभाई लोग संघ-बद्ध होने के लिए मठ में आने लगे. 
इसीबीच २४ दिसम्बर १८८६ को आटपूर में एक अद्भुत घटना घट गयी. बाबुराम महाराज की जननी मातंगनी देवी के आमंत्रण पर घूमने के लिए नरेन्द्रनाथ अपने गुरुभाइयों के साथ हुगली जिले के आँटपूर ग्राम में गए थे.  तरुण तपस्वी लोग ग्राम के निर्जन मनोरम परिवेश में जप-ध्यान में लगे हुए थे.शान्त परिवेश में ईश्वर-चर्चा और भजन-गान करने में सभी निमग्न हो गए थे.
उस दिन ईसामसीह के आविर्भाव का प्राक-मुहूर्त था, इसीलिए वे लोग ईसामसीह के त्याग-वैराज्ञ पूर्ण जीवन-आदर्श के ऊपर चर्चा करने लगे. खुले आसमान के नीचे धुनी जला कर उसके चारोओर बैठ कर वे सभी त्याग-मार्ग का अवलम्बन कर सभी ध्यान आदि करते थे. ईसामसीह के आत्मत्याग की महिमा का वर्णन करते करते नरेन्द्रनाथ और उनके सभी गुरुभाई लोग इतने भाव से भर उठे कि, धुनी की पवित्र अग्नि शिखा को साक्षी मान कर  सदा के लिए संसार त्याग करने का दृढ संकल्प कर लिए. और उसी वैराज्ञ की अग्नि में समस्त कामना-वासना की आहुति देकर, नरेन, शरत, काली, तारक, शशी, बाबुराम, निरंजन, सारदा और गंगाधर आदि ९ गुरुभाइयों ने संघबद्ध होने का संकल्प लिया.
इसके बाद श्रीरामकृष्ण के त्यागी पार्षदों ने अपना संघबद्ध जीवन शुरू किया. उस समय वे लोग सन्यास के प्रतीक गैरिक-वस्त्रों को पहनने लगे थे, किन्तु मन में इच्छा रहने के बाद भी उससमय तक उन लोगों ने  अनुष्ठानिक रीती से पूर्णरूपेण सन्यास-व्रत धारण नहीं किया था. स्वयं स्वामीजी (नरेन्द्र नाथ )ने एक दिन शास्त्र-विधि के अनुसार सन्यासी बनने की इच्छा प्रकट की. किन्तु सन्यास लेने के लिए विरजाहोम के मंत्र, मठ, मड़ी, प्रेयमन्त्र, योगपट आदि सन्यास के मंत्र में प्रयुक्त होने वाली सामग्रियाँ कहाँ से आएँगी ? इस प्रसंग में उनके गुरुभाई स्वामी अभेदानन्दजी अपनी आत्मजीवनी में इस प्रकार किया है - " एक दिन नरेन्द्रनाथ ने हम सबों से कहा, ' यदि हमलोग अभी शास्त्र-विधान के अनुसार भी विधिवत सन्यास ग्रहण कर लें तो कैसा रहेगा ? इस बारे में तुमलोगों का क्या विचार है ?
' मैंने कहा, हाँ शास्त्र के अनुसार सन्यास ग्रहण करने के लिए हम सबों को विरजाहोम करना पड़ेगा. मेरे पास बिरजाहोम का मंत्र है. ' यह सुन कर नरेन्द्रनाथ ने आग्रह पूर्वक पूछा, ' तुमको विरजाहोम का मंत्र कैसे प्राप्त हुआ ? ' तब मैंने बताया कि एक बार मैं  ' बराबर पहाड़ ' ( जानीबीघा विवेकानन्द युवा महामण्डल, गया से २४ कि.मी. पर स्थित ) गया था.
Lomas Rishi Caves, Exterior
   ( The Barabar Caves are the oldest surviving rock-cut caves in India, mostly dating from the Mauryan period (322–185 BC), and some with Ashokan inscriptions, located in Bihar, India, 24 km north of Gaya.)
These rock-cut chambers date back to the 3rd century BC, Maurya period, of Ashoka (r. 273 BC to 232 BC.) and his son, Dasaratha. Though Buddhists themselves, they allowed various Jain sects to flourish under a policy of religious tolerance.
These caves were used by ascetics from the Ajivika sect , founded by Makkhali Gosala, a contemporary of Siddhartha Gautama, the founder of Buddhism, and of Mahavira, the last and 24th Tirthankara of Jainism . Also found at the site were several rock-cut Buddhist and Hindu sculptures .)
वहाँ एक दशनामी ' पूरी ' नाम के सन्यासी से विरजाहोम का मन्त्र, मठ, मड़ी, प्रेष-मन्त्र आदि संग्रह कर के एक कापि में लिख कर रख लिया था. जब नरेन्द्रनाथ ने मेरी पूरी बात को सुना, तो आनन्द से प्रफुल्लित हो कर बोल पड़े - ' यह सब श्रीश्री ठाकुर की इच्छा और कृपा से हुआ ! फिर ठीक है, आओ एक दिन हमलोग पूजा-होम आदि करके विरजाहोम का अनुष्ठान करते हैं और शास्त्र-विधि के अनुसार सन्यास-मन्त्र में दीक्षित होते हैं. 'हम सभी लोग बड़े आनन्द से अपनी सम्मति प्रदान किये.
दिन भी तय हो गया. १२९३ बंगाब्द के माघ महीने के आरम्भ में सभी लोग एकदिन प्रातः काल गंगा में स्नान करके, वराहनगर मठ के ठाकुर-मन्दिर में श्रीश्री ठाकुर की पवित्र पादुका के सम्मुख बैठ गए. शशी ( रामकृष्णानन्द ) ने विधि के अनुसार पूजा समाप्त किया. विरजाहोम के लिए कुछ बेल की लकड़ी, बेल के बारह दण्ड, और गाय की घी आदि एकत्र किये गए. होमाग्नि प्रज्ज्वलित की गयी थी. नरेन्द्रनाथ के आदेशानुसार मैं तंत्र-धारक के रूप में अपनी कापि खोल कर सन्यास के प्रेषमन्त्रों का पाठ करने लगा.
पहले नरेन्द्रनाथ उसके बाद राखाल, निरंजन, शरत, शशी, सारदा, लाटू, आदि सभी मेरे पाठ के साथ साथ प्रेष-मन्त्र का पाठ कतरे हुए प्रज्ज्वलित अग्नि में आहुति दान किये. बाद में मैं स्वयं ही प्रेष-मन्त्र पढ़ कर अग्नि में आहुति दिया. यह बात ठीक है कि सन्यास-दीक्षा भी हमलोगों ने पहले ही श्रीश्रीठाकुर से प्राप्त कर लिया था."
वराहनगर मठ में इसप्रकार अनुष्ठानिक रूप से जो सन्यास-व्रत ग्रहण किया था, उसमें मुख्य भूमिका स्वामी अभेदानन्दजी की ही थी. श्रीरामकृष्ण के स्पर्श से पवित्र  गैरिक-वस्त्र प्राप्त करने के अधिकारी होने के कारण तपोव्रती सन्यासी होने पर भी,  वे स्वामी अभेदानन्द-संग्रहित और प्रदत्त प्रेष-मन्त्र का पाठ करते हुए, वैदिक रीति से विरजाहोम करके अनुष्ठानिक रूप से पहली बार सन्यासी बने थे. उन्हीं की तपोपूत प्रचेष्टा से श्रीरामकृष्ण के पार्षदगण दशनामी संन्यासी-संप्रदाय से जुड़ सके थे.
आदि शंकराचार्यकृत ' दशनामी सन्यास-पद्धति ' गुरु-शिष्य परम्परा पर आधारित है. शाश्त्रीय मतानुसार वैदिक-सन्यास ग्रहण करने की यह भावधारा, स्वामी अभेदानन्दजी के माध्यम से ही पहली बार रामकृष्ण-संघ में आई थी.
इस पवित्र सन्यास-ग्रहण के प्रसंग में स्वामी अभेदानन्दजी ने अनुभूति-जन्य एक एक घटना को अपनी दैनिक डायरी में लिपिबद्ध किया है. सन्यास ग्रहण करने पर नाम परिवर्तित हो जाता है, अभेदानन्दजी अपनी जीवनकथा में इस बात का भी जिक्र किया है कि प्रत्येक गुरुभाई का नामकरण उस समय किस प्रकार हुआ था- " सबसे पहले नरेन्द्रनाथ ने अपना सन्यास नाम रखा- ' विविदिषानन्द ', उसके बाद राखाल, बाबुराम, शरत आदि के अपने अपने स्वाभाव के अनुसार अपना नामकरण किया- ' ब्रह्मानन्द ', ' प्रेमानन्द ',  ' सारदानन्द ', आदि.
मैं वराहनगर मठ के एक कमरे में दरवाजों को बंद  करके दिनरात ध्यान किया करता था, वेदान्त-दर्शन (ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या ) पढ़ कर ( नेति नेति ) विचार किया किया करता था और ' अद्वैतवाद ' का समर्थन करते हुए सबों के साथ उसी विषय में चर्चा किया करता था, इसीलिए सबों ने मेरा नाम ही ' काली-वेदान्ती ' रख दिया था. तीव्र तपस्या में रत रहने के कारण कुछ लोग मुझे ' काली-तपस्वी ' कहकर भी बुलाया करते थे. मैं ' अभेद-ज्ञान ' को ही श्रेष्ठ और चरम-ज्ञान मानता था इसीलिए नरेन्द्रनाथ ने मेरा नाम रखा- ' अभेदानन्द '.
शशी दिनरात श्रीश्री ठाकुर रामकृष्णदेव की पूजा और सेवा में ही लगा रहता था, इसीलिए नरेन्द्रनाथ ने उसका नाम रखा- ' रामकृष्णानन्द '. लाटू और योगीन ने बाद में सन्यास ग्रहण किया था.
लाटू दिनरात ध्यान-धारणा में अपना समय बिताता था, इसीलिए उसका नाम ' अद्भुतानन्द ' रखा गया था. तारक दादा ( शिवानन्द ) उस समय एक लंगोटी पहन कर शवासन में लेट कर ध्यान किया करता था. हमलोग जब विरजाहोम करके सन्यास ले रहे थे, उस अनुष्ठान में उसने पहले भाग नहीं लिया था; हमलोगों ने होम में भाग लेने के लिए उससे अनुरोध भी किया था, किन्तु किसी भी उपाय से उसको मनाया नहीं जा सका. बाद में गंगा में प्रवेश कर हमलोगों ने दण्ड को विसर्जित कर दिया. उसके बाद से हमलोगों के लिए पूजा-होम आदि कर्मकाण्ड करने का अधिकार समाप्त हो जाता है, क्योंकि शास्त्र के अनुसार  तब हमलोग ' परमहंस 'हो जाते हैं." 
वराहनगर मठ में अनुष्ठानिक रूप विरजाहोम करके प्रथम जो  ९ गुरुभाई तापस सन्यासी हुए थे, उनके नाम इस प्रकार हैं- स्वामी विविदिषानन्द ( बाद में स्वामी विवेकानन्द ), ब्रह्मानन्द, अभेदानन्द, प्रेमानन्द, रामकृष्णानन्द, सारदानन्द, अद्वैतानन्द, निरंजनानन्द और त्रिगुणातीतानन्द . इसके अतिरिक्त परवर्तीकाल में विभिन्न समय में संन्यास ग्रहण किये- स्वामी शिवानन्द, अद्भुतानन्द, योगानन्द, तुरीयानन्द, अखंडानन्द, निर्मलानन्द, सुबोधानन्द और कृपानन्द.
इसके बाद १८९२ ई० में वराहनगर से मठ स्थानान्तरित होकर आलमबाजार चला गया. वहाँ से फिर १८९८ ई० में मठ बेलूड़ चला आ गया. इस बेलूड़ मठ में केवल स्वामी विज्ञानानन्द ने सन्यास ग्रहण किया था. यद्दपि ये सभी लोग श्रीरामकृष्ण के दिव्य-सानिध्य में आये थे, एवं इनलोगों को विभिन्न समय पर श्रीश्रीठाकुर का संग भी प्राप्त हुआ था. किन्तु श्रीरामकृष्ण के सन्यासी शिष्यों में से केवल योगानन्द और त्रिगुणातीतानन्द ही श्रीश्रीमाँ सारदा से दीक्षित हुए थे. इनके अतिरिक्त भी शायद कुछ लोगों ने श्रीश्रीठाकुर या श्रीश्रीमाँ से दीक्षा ग्रहण किये थे पर उनके नाम संख्या का ठीक से पता नहीं है. किन्तु श्रीरामकृष्ण के दिव्य सानिध्य पाने और दर्शन करने के अधिकार से इनसबों को श्रीरामकृष्ण त्यागीपार्षदों  के रूप में ही जाना जाता है. 
किन्तु यदि श्रीरामकृष्ण-प्रदत्त गैरिकवस्त्र- प्राप्ति के अधिकार के आधार पर सन्यासी शिष्यों की गणना की जाय तो उनकी संख्या ११ ठहरती है. क्योंकि श्रीरामकृष्ण ने जिन १२ गेरुआ वस्त्रों को स्पर्श और मन्त्रपूत किया था, उनमे से एक गिरीश बाबु के लिए संरक्षित था. पुनः स्वामी अभेदानन्दजी द्वारा संग्रहित प्रेषमन्त्र आदि के आधार पर विरजाहोम करके प्रथम शास्त्रानुसार अनुष्ठानिक सन्यासी की गणना की जाय तो कुल ९ लोग उस समय सन्यासी हुए थे. 
इनके अतिरिक्त बाद में वराहनगर मठ में अन्य ८ लोगों ने सन्यास ग्रहण किया था; इसके भी बहुत दिनों बाद बेलूड़ मठ में और १ व्यक्ति का सन्यास हुआ था. इसीलिए वुभिन्न समय पर सन्यास होने पर भी, श्रीरामकृष्ण के पवित्र-सानिध्य और दर्शन का अधिकारी होने से ये सभी लोग श्रीरामकृष्ण के सन्यासी शिष्य  है, तथा एकमात्र प्रथम सन्यासिनी शिष्या गौरीपूरी देवी थीं या श्रीश्री माँ थीं. 
किन्तु भगवान श्रीरामकृष्ण के दिव्य दर्शन या स्पर्शन के अधिकार से ये सभी वैसे अन्तरंग योगी पार्षद हैं; जिनका दिव्यजीवन- त्याग्व्रत और सेवाव्रत को अपना जीवनव्रत बनाने में उत्सर्ग हो गया है. ध्यानमग्न ऋषि तुल्य इन तरुण तपस्वियों ने ' आत्मनो मोक्षार्थं जगत-हिताय च ' व्रत को अपना ध्येय मन्त्र  मानते हुए अपना जीवन उत्सर्ग कर दिया था. 
इन समस्त व्रत-धारियों के त्याग-तितिक्षा और सेवापरायणता पर आधारित,  ज्ञान-भक्ति-कर्म के समन्वय से यह अनूठा संघ गठित हुआ है.
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तथ्यसूत्र -' আমার জীবনকথা ' - স্বামী অভেদানন্দ | ( ' मेरी जीवनकथा ' - स्वामी अभेदानन्द '. ' গৌরিমা ' - শ্রী দূর্গাপুরি দেবী | ( ' गौरीमाँ ' - श्री दुर्गापूरी देवी' )' নবযুগের মহাপুরুষ ' - স্বামী জাগ্দিশ্বারানন্দ | ( ' नवयुग के महापुरुष ' - स्वामी जगदीश्वरानन्द. ) শ্রীরামকৃষ্ণ মঠের আদিকথা ' - স্বামী প্রভানন্দ | ( ' श्रीरामकृष्ण मठ की आदिकथा ' - स्वामी प्रभानन्द.
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8.आचार्य अभेदानन्द 
स्वामी अभेदानन्दजी महाराज का व्यक्तित्व ईश्वरीय दिव्यभाव और अपार्थिव महिमा के एक जीवन्त प्रतिमूर्ति एवं अधिकारी पुरुष का था. जितने सारे अतिदुर्लभ सद्गुणों का एकत्रित समावेश किसी यथार्थ धर्मगुरु के आदर्श जीवन में रहना चाहिए, महाराज का जीवन उन समस्त गुणों के अपूर्व समन्वय सौन्दर्य की सुषमा से सुसज्जित था. 
उनका ध्यानदीप्त ज्ञानगम्भीर सदानन्दमय प्रशांत-मूर्ति का माधुर्य, लोकोत्तर साधक-चरित्र का स्वर्गिक सौन्दर्य, ज्ञान की प्रखरता, पांडित्य का प्राचूर्य एवं सर्वोपरि अपरिमेय आध्यात्मिकता से सुशोभित उनका जीवन किसी भी यथार्थ धर्माभिलाषी व्यक्ति के लिए विस्मयकारी और वन्दनीय था. 
दार्शनिक मनीषा, प्रगाढ़ पांडित्य, विचित्र वांग्मीता, अकाट्य तार्किकता, तीव्र अन्तर्दृष्टि, महाकर्म-शक्ति उनके जीवन में अकथनीय रूप से सम्मिलित थे. निर्भीक सत्यान्वेषण, कठोर तपस्या, सुतीक्ष्ण विशलेषणी-शक्ति, निरपेक्ष-धीशक्ति एवं तत्व-विवेक, असाम्प्रदायिक उदार दृष्टिकोण, उनके पवित्र चरित्र की एक अपूर्व विशेषता थी. 
यथार्थ सद्गुरु के लक्षण के सम्बन्ध में भगवान शंकराचार्य ने कहा है-
 ' श्रोत्रिय अवृजिन अकाहमत ब्रह्मवित्तम पुरुष आचार्यः ' | 
- अर्थात जो वेदार्थ-द्रष्टा, निष्पाप, सभी तरह के सांसारिक कामनाओं से मुक्त एवं ब्रहमविदों में श्रेष्ठ हों, वही आचार्य हैं- अर्थात सम्पूर्ण मानवजाति के वे धर्मगुरु होने योग्य हैं. स्वामी अभेदानन्दजी इस सिद्ध-कथन के जीवन्त दृष्टान्त थे. 
गीता में वर्णित स्थितप्रज्ञ का आदर्श कैसा होता होगा, यह उनके जीवन-दर्शन से समझा जा सकता है. उपनिषद में कहे गए - ' आत्मक्रीड़ आत्मरति क्रियावानेषू ब्रह्मविद वरिष्ठ ' - यह आदर्श आचार्य अभेदानन्दजी के जीवन में ही समुज्ज्वल प्रभा से प्रदीप्त एवं प्रकटित हुआ था. 
हमलोग साधारणतः धर्मप्रचारक या आचार्य कहने से जिस प्रकार के व्यक्तित्व की कल्पना करते हैं, अभेदानन्दजी का सामग्रिक जीवन, अभिप्राय, आदर्श एवं कार्यप्रणाली उससे बिल्कुल भिन्न्तर, उन्नत एवं विपरीत था. साधारण तौर पर दिखाई पड़ने वाले हिन्दू, ईसाई अथवा अन्य किसी भी धर्मप्रचारकों जैसा एक सांप्रदायिक अनुदार एकपक्षीय दकियानूसी मतवाद आदि बातों को स्वामी अभेदानन्दजी ने कभी अपना समर्थन नहीं दिया था. क्योंकि वे उदार सार्वजनिक विश्वधर्म के जीवन्त विग्रह भगवान श्रीरामकृष्ण के दीक्षित सन्तान तो थे ही, स्वयं भी एक सत्यद्रष्टा महायोगी - ज्ञानयोगी थे !
इसीलिए किसी भी प्रकार के दलबन्दी पर आधारित संकीर्ण सांप्रदायिक मतवाद का प्रचार-प्रसार करना उन जैसे महायोगी और सत्यद्रष्टा साधक के जीवन का उद्देश्य नहीं हो सकता था. समस्त प्रकार के सम्प्रदायों के परे विश्वजनीन सत्यधर्म का जो अनवद्य अपरूप प्रकाश है, उसको उन्होंने अपने परम आराध्य गुरु भगवान श्रीरामकृष्ण के ज्योतिर्मय तपोपूत जीवन में उतरते देखा था. इसी उदार सर्वजनीन धर्मादर्श भारतवर्ष में यूरोप में अमेरिका में जाती-धर्म-वर्ण- श्रेणी निरपेक्ष समस्त नर-नारियों में उन्होंने प्रचार किया था. 
किसी दार्शनिक जैसी विचार-शक्ति एवं वैज्ञानिक जैसे दृष्टिकोण के साथ अभेदानन्दजी धर्म के प्रत्येक विषय की मीमांसा किया करते थे. इसके ऊपर वे विभिन्न धर्म -मतों से ऐतिहासिक प्रमाण एवं तात्विक-तथ्यों को भी उद्धृत किया करते थे. उनका मन सम्पूर्ण रूप से तार्किक और विचारशील थी. किसी भी कार्य को करने से पूर्व वे अपनी विश्लेषणी बुद्धि के द्वारा उसके भले-बुरे समस्त पक्षों पर विचार-विश्लेषण करने के बाद ही उसे ग्रहण या वर्जन करना उनका स्वाभाव बन गया था.
धर्मविषयक किसी भी एक प्रश्न को लेकर उसका सम्पूर्ण भला-बुरा पक्ष अपने सूक्ष्म बुद्धि से आविष्कार करके उसी श्रेणी के अन्य तथ्यों के साथ तुलना और संशोधन करने के बाद अन्त में वेदान्त की भित्ति पर उसका एक सर्वांगसुन्दर ऐक्य एवं समाधान करना ही उनके धर्म-व्याख्यान की पद्धति थी. 
किसी धर्मप्रचारक का आदर्श कैसा होना चाहिए,  उसे अपनी मौलिक चिन्तनशक्ति के द्वारा अविष्कार करके पाश्चात्य देशों में प्रचार कार्य के लिए जाने से कुछ ही समय पहले १८९५ ई० में अपने एक प्रबंध-
  ' The Hindu Preacher ' में अभेदानन्द जी स्वयं लिखते हैं- " A great want of this age is a religious order of the Hindus, which well-equipped with modern learning in science and in philosophy, possessing a knowledge of the world and acquainted with spirit of the times will undertake the propagation of the Hindu religion in all countries and bring into existence the reign of peace and harmony in the midst of waring religions. "
- अर्थात " इस युग की सबसे प्रधान आवश्यकता है,हिन्दुओं की एक ऐसी  ' ईमानदार व्यवस्था ' खड़ी की जाय, जो विज्ञान एवं दर्शन-शास्त्र (तत्वज्ञान- ' ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या ' ) के आधुनिक अध्यन से भलीभांति सुसज्जित होने के साथ साथ;अपने भीतर सम्पूर्ण विश्व के ज्ञान को भी समाहित रखे तथा समय के विचार-धारा से भलीभांति परिचित हो ! वैसी ' ईमानदार व्यवस्था ' ही सभी देशों में हिन्दू-धर्म (वेदान्तिक-धर्म ) के प्रचार-प्रसार का उत्तरदायित्व ले सकती है  एवं आपस में युद्धरत धर्मों के बीच शान्ति और समरसता (अविरोध ) के आधिपत्य को स्थापित कर सकती है  . " 
भारतीय शाश्वत सनातन वेदान्तिक हिन्दू-धर्म के इस अपूर्व उदार एवं असाम्प्रदायिक आदर्श को लेकर ही  सार्वभौमिक-धर्म के जीवन्त विग्रह श्रीरामकृष्ण के यथार्थ भावशिष्य स्वामी विवेकानन्द, तथा उनके बाद स्वामी अभेदानन्द ने पृथ्वी के विभिन्न देशों में सभी धर्मों के समस्त जाति के नरनारी के पास परम मुक्ति, शान्ति और सत्य-प्राप्ति का पथप्रदर्शन किया है. 
वर्तमान युग वैज्ञानिक आविष्कार तथा उद्भावना का ही युग है. तार्किकता ही इसकी एकमात्र भित्ति है- तर्क-प्रधान वर्तमान युग में तर्क-युक्ति की कसौटी पर कसे बिना, किसी भी मतवाद को प्रतिष्ठित करना बिल्कुल असंभव है.
कार्य-कारण वाद के अतिरक्त इस युग के विद्वत समाज के लिए अब कोई अन्य मत स्वीकार्य नहीं है, उनको वे बिल्कुल मृतप्राय मानते हैं. जहाँ पर केवल तर्क-युक्ति का ही प्राधान्य हो, जो मत या  सिद्धान्त कार्य-कारणवाद या तर्कवाद की दृढ़ भित्ति पर खड़ा है,  उसी मतवाद को वर्तमान युग के चिन्तनशील मनीषियों का समर्थन मिल सकता है. 
दीर्घ काल से कोई दकियानूसी लौकिक-प्रथा चली आ रही है, इसीलिए आज भी हमें उसे मानना होगा, अयौक्तिक मतवाद, अन्धविश्वास, ढोंग-ढकोसला, धार्मिक कट्टरता, असम्बद्ध अलीक भावप्रवणता, व्यक्तिविशेष के प्रति निर्विचार अनुराग आदि जैसे आधारहीन तर्क या निर्देश देकर, आज के चिन्तनशील युवाओं के संदेह या जिज्ञाषा को मिटाया नहीं जा सकता.
किसी भी युक्तिहीन विचारहीन मतवाद को, या उन सिद्धांतों को जो आधुनिक युग के वैज्ञानिक नियमों के विरुद्ध हों- उसे आज का कोई यथार्थ शिक्षित और सत्यार्थी व्यक्ति अब और आगे मानने को तैयार नहीं है. इसीकारण जब वैज्ञानिक दृष्टिकोण से विचार करने वाला व्यक्ति, अपनी आन्तरिक सत्य-अनुसन्धानी बुद्धि के द्वारा अनुप्रेरित होकर-जगत की उत्पत्ति, स्थिति, परिणाम या मानव का जन्म, परिणति, कर्मफल आदि विभिन्न जटिल समस्याओं के बारे में पादरि, पुरोहित, मौलवी या किसी सामान्य धर्मप्रचारक से प्रश्न करता है, वे साम्प्रदायिक मतसर्वस्व तथाकथित ' धर्मप्रचारक ' लोग हतबुद्धि होकर बगलें झाँकने लगते हैं और उनके किसी भी प्रश्न का सटीक उत्तर नहीं दे पाते हैं. 
जब वह जिज्ञासु या सत्यार्थी ( सत्य-अन्वेषी ) व्यक्ति अपने प्रश्नों का सटीक उत्तर नहीं पाता है, तो उसका संशय और अधिक दृढ़ हो जाता है. और क्रमशः यह संशय घोर अविश्वास में परिणत हो जाता है. इसीलिए वर्तमान युग का तार्किक सत्यार्थी जब तथाकथित धर्मप्रचारकों से अपनी समस्याओं का कोई समाधान नहीं पाता है, तो वह अन्ततोगत्वा घोर निराशा में डूब कर हताशा से नास्तिक बन जाता है. 
ऐसेही निराशाग्रस्त, हताश,  नास्तिक सत्यान्वेषियों के सम्मुख ' अपरोक्ष सत्यदर्शन ' के अटल अग्रभेदी भित्ति के उपर खड़े होकर, स्वामी अभेदानन्दजी  उनको ' आशा की वाणी ' सुनाते हुए कहते हैं-
" Vedanta can turn our science into a system of religion.we must stand on the solid ground of reason and ultimate research to understand the final goal of religion. 
Vedanta tells us that religion is nothing,but the science of soul,
and that science of being is not distinct and separate from the science of the universe that universe is but our own being. "
  -अर्थात ' वेदान्त ' में वह सामर्थ्य है कि वह हमारे ' विज्ञान ' को एक ' परमात्मा के अस्तित्व में विश्वास  कराने वाली व्यवस्था 'के रूप में परिणत कर सकता है ! हमलोगों को तार्किकता के ठोस धरातल पर खड़े होकर,धर्म के अन्तिम लक्ष्य को समझने का अन्तिम अनुसन्धान अवश्य करना चाहिए. वेदान्त यह घोषणा करता है कि -' आत्मा को जानने के विज्ञान ' को ही ' धर्म ' कहते हैं. तथा ' अपने अस्तित्व को जानने का यह विज्ञान '  इस ' विश्व-ब्रह्माण्ड को जानने के विज्ञान ' से पृथक और भिन्न नहीं है; तथा यह विश्व-ब्रह्माण्ड;  और कुछ नहीं, हमारी अपनी ही सत्ता है. "( यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे ) 
यहाँ प्रश्न उठ सकता है कि, ' वेदान्त ' क्या है ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए स्वामी अभेदानन्दजी अपने व्याख्यान - ' What is Vedanta ' में कहते हैं- 
" The term Vedanta in the present case is used to signify, not a book, but ' Wisdom ', while ' anta ' (अन्त ) means ' end ', Vedanta therefore, implies literally ' end of wisdom '; and the philosophy is called Vedanta because it explains what that end is and how it can be attained. " 
अर्थात
" पेश किये गए उदाहरण में ' वेदान्त ' शब्द का प्रयोग किसी पुस्तक को सूचित करने के लिए नहीं बल्कि ' ज्ञान ' को सूचित करने के लिए किया गया है,जब कि ' अन्त ' का अर्थ है - ' जानने का अन्त '.इसीलिए वेदान्त का शाब्दिक अर्थ है-' अन्तिम ज्ञान या सर्वोच्च ज्ञान ' ( ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या - को अपरोक्ष रूप से अर्थात अपने अनुभव से जानना या आत्मसाक्षात्कार कर लेना );तथा इस दर्शन-शास्त्र को वेदान्त कहते हैं, क्योंकि यह इस बात की व्याख्या करता है कि मनुष्यजाति का ' अंतिम-लक्ष्य ' क्या है, तथा उसे कैसे प्राप्त किया जा सकता है. "
इसीलिए वेदान्त-धर्म का आदर्श और उसकी साधना पद्धति संपूर्णतः सर्वजनीन है. यह सर्वोच्च सत्य किसी व्यक्ति या किसी भी मतवाद में आबद्ध नहीं है. उपरोक्त व्याख्यान में स्वामी अभेदानन्दजी इसी बात को स्पष्ट रूप से घोषित कर रहे हैं. 
वेदान्त प्रतिपाद्य-धर्म का उद्देश्य है- आत्मज्ञान की प्राप्ति या आत्मसाक्षात्कार . किस प्रकार इसे प्राप्त किया जाता है, इस प्रश्न के उत्तर में वे कहते हैं- " आत्मसंयम करो, आत्मज्ञान हो जायेगा. तभी तुम यह जान पाओगे कि भगवान क्या हैं. इस मार्ग पर बढ़ने की इच्छा जिस किसी भी व्यक्ति में होगी, वही इसका अधिकारी है. फिरभी अधिकारी के अन्तर के अनुसार इच्छा का तारतम्य रहता है. तुम्हारे भीतर दो प्रकार का ' मैं ' है. एक है ' पशु-मैं ' और दूसरा है ' देव-मैं '. इस पशु-मैं का दमन करके अपने आन्तरिक ' देव-मैं ' को अभिव्यक्त करो, - इसी को 'आत्म-संयम ' कहते हैं. "
यथार्थ धर्म की मूलनीति - आत्मसंयम, सत्यनिष्ठा, पवित्रता, विवेक, वैराग्य, ध्यानाभ्यास, निःस्वार्थ मानवसेवा (सेवा-परायणता ) आदि  सदगुणों को निरन्तर जीवन में उतारने पर प्रतिष्ठित है. जीवन में इन सद्गुणों को महत्व न देकर केवल जिस-तिस पर विश्वास करने से धर्म के तत्व की उपलब्धी करना असम्भव है.
इस प्रसंग के ऊपर अधिकारी स्वामी अभेदानन्दजी अपनी ' आत्म-विकास ' नामक पुस्तक में विशेष रूप से प्रकाश डालते हुए लिखते हैं- " साधन-स्वाध्याय और विवेक-वैराग्य न रहने से केवल शास्त्र आदि का अध्यन करने पर धर्मलाभ नहीं होता. शास्त्रों में धर्मसाधना की विधि-निर्देश और उपाय कहा गया है. उसका ठीक ठीक आचरण और अभ्यास नरने से परमार्थ तत्व की प्राप्ति नहीं हो सकती है. "
शास्त्र-कथन का यथार्थ एवं सत्ययता को देखना हो तो, उसे इन सब असाधारण अधिकारिक महापुरुषों के जीवन में देखा जा सकता है; क्योंकि ये लोग संयम, तपस्या, विवेक, वैराग्य, ध्यानाभ्यास, आदि का अनुशीलन करते हुए अन्त में आत्मसाक्षात्कार करके मुक्त और पूर्णकाम बने हैं.
बाहरी आचार-अनुष्ठान करने या त्याग का पोशाक (गेरुआ ) धारण कर लेने मात्र से ही कोई त्यागी नहीं बन जाता है. जब तक भीतर (अंतःकरण ) से आसक्ति, कूभाव, लोभ, हिंसा, विषय-वासना, आदि बिल्कुल दूर नहीं हो जाते, तब तक वैराग्य का कोई अर्थ ही नहीं होता.
वैराग्य क्या है- इस सम्बन्ध अभेदानन्दजी इसप्रकार कहते हैं-  " भगवान के प्रति खिंचाव होने से दूसरी ओर का खिंचाव कम हो जाता है. इसको ही वैराग्य कहते हैं. वैराग्य का अर्थ जंगल में चले जाना नहीं है. पूर्व दिशा में जितना आगे बढ़ते जाओगे, पश्चिम दिशा उतनी ही पीछे छूटती चली जाएगी.
  ..गेरुआ नहीं पहनना होगा. यह क्या चीज है ? यह तो Fire of knowledge (ज्ञानाग्नि ) का Symbol ( प्रतीक ) है. मनको गेरुआ पहना दो- clothe yourselves with the fire of knowledge, ( ज्ञानाग्निमय बन कर रहो ). केवल गेरुआ पहन लेना ही काफी नहीं है, जिसकी समस्त भोगों की वासना त्याग हो चुकी हो वे ही सन्यासी हैं, स्थितधी: हैं. 

इस तरह के एक दृष्टान्त को हमलोगों ने प्रत्यक्ष देखा है. वे हैं- ज्ञान और त्याग की पराकाष्ठा के आदर्श - श्रीरामकृष्ण... किसी भी कामना को बुल-बुले के आकर में उठने के पहले ही, उसको नष्ट करना होता है. इसीलिए विवेक-विचार करने एवं ध्यान (मनः संयोग का अभ्यास) करने की आवश्यकता होती है. जो लोग थोडा भी ध्यान ( मनः संयोग का नियमित अभ्यास ) किये  हैं, वे ही जानते हैं कि शान्ति क्या है.  किसी भी कामना की सिद्धि होने से जो क्षणिक सुख मिलता है, उसके साथ इसी ' शान्ति ' की तुलना करते हुए विवेक-विचार करना होता है. " 
पार्थिव वासना, दैहिक सुखलिप्सा, इन्द्रिय परायणता या मन की चंचलता ही इस ध्यानाभ्यास का अन्तराय है. पार्थिव विषयों की वासना, स्वार्थपरता, और काम-क्रोध आदि वृत्ति ही इन समस्त मानसिक चांचल्य का मूल है. इसीलिए वे आगे कहते हैं-
" काम-क्रोध रहने के कारण ही तो, संसारी मनुष्य ध्यान नहीं कर पाते हैं. अभ्यास करना छोड़ देते हैं. मुक्ति क्या है ? इन्द्रिय और मन के दासत्व से मुक्ति- जिसके द्वारा शान्ति, स्वास्थ्य, आनन्द, ज्ञान आदि प्राप्त होते हैं.
...ईश्वर के प्रति अनुराग होने पर विषयों के प्रति आसक्ति को काट कर मुक्त पुरुष हुआ जा सकता है. यह साधना करते रहने से क्रमशः मन स्थिर होने लगता है, उसके बाद जब मन कुछ और अधिक स्थिर रहने लगता है, तब अपने ईष्टदेव ( ठाकुर-माँ ) का चिन्तन किया जा सकता है.
दूसरी समस्त विचारों को छोड़ कर, मन जब केवल अपने ईष्टदेव का चिन्तन करने में डूब जाता है, ध्यान का प्रारम्भ ठीक तभी होता है. " 
जो लोग ध्यानाभ्यास ( मनः संयोग ) करने के अभ्यस्त हैं, वे ही जानते हैं कि, साधक-जीवन की प्रथम अवस्था में मन किस प्रकार चंचल होकर साधक की ईश्वर-चिन्तन में विघ्न उपस्थित करता है. पातन्जल योगशास्त्र तथा श्रीमदभगवद्गीता में कहा गया है, निरन्तर दीर्घकाल तक ध्यान-अभ्यास, त्याग-वैराग्य एवं विवेक-विचार करने वाला महातेजस्वी योद्धा ही वीर सन्यासी है.
उसके उसी तपोमय शरीर में विभिन्न आचार्यों प्रकाश होता है. कभी वह शिशु जैसा सरल सदा हास्यमय - तो कभी विजयी वीर जैसा संग्रामचेता जैसा प्रतीत होता है. कभी वह महाज्ञानी की ज्ञानदीप्त प्रचंडता, तो कभी महाभक्त की भक्ति कमनीयता से ओतप्रोत होता है. कभी तो उसकी महापण्डित जैसी प्रगाढ़ पाण्डित्य के समक्ष सुविख्यात मनीषीगण भी स्तब्ध रह जाते हैं. फिर कभी छोटे से बालक से सामान्य से किसी विषय को बड़े आग्रह के साथ शिक्षा ग्रहण कर रहे होते हैं. 
अमेरिका यूरोप में वे संघबद्ध इसाई मिशनरियों, नास्तिक और अज्ञेय वादियों के साथ संग्राम में एकेश्वर निरत और युक्ति की कृपान से ज्ञान के शानित अस्त्र से उनमे से प्रत्येक को परास्त कर देने वाले थे. केवल उतना ही नहीं, अमेरिका और यूरोप के प्रधान प्रधान विश्वविद्यालय में और सूविख्यात जनसभाओं में दार्शनिक, समाजसेवी, वैज्ञानिक के लिए श्रद्धा, सम्मान, से बार बार अभिनन्दित हुए हैं. 
महा महान विद्वान-पण्डित उनके साथ एक ही मंच पर बैठे थे, उनके पाण्डित्य को देखे हैं, और उस मनीषा की कोई तुलना नहीं हो सकती. फिर भारत उस दिग्विजयी विश्व-वरेण्य सन्यासी को अशिक्षित, अज्ञ, ग्रामवासियों के पास देखता है, ये तो उन्हीं के जैसे सहज-सरल भाषा में उनके समस्त प्रश्नों का उत्तर दे रहे हैं, सर्वआभरण रहित सरल सुकुमार शिशु जैसा सदा आनन्दमय एक अद्भुत योगी पुरुष. 
यह जो प्रत्येक के निकट उसी के जैसा हो जाने की क्षमता, - सबों के मन के साथ अपने मन को मिला देने की क्षमता जो उनमे थी, वह उनकी एक आश्चर्यजनक ईश्वरीय शक्ति थी. उनके पूतचरित्र में समस्त विशुद्ध गुणों का समावेश था. वे बज्र के समान कठोर थे, तो पुष्प जैसे कोमल भी थे. 
उनके सुदीर्घ गौरवमय प्रचारक जीवन की विस्मयकारी घटना- अद्भुत असाधारण अमित प्रतिभा की चिन्तास्पद और और कार्य-वैचित्र्य पूर्ण जीवन की समग्र और सर्वांगसुन्दर इतिहास जगत में विरल है. जगत के विभिन्न स्थानों में प्रचारकार्य और कर्म जीवन का समस्त विवरण, कई स्थानों के मनीषी, सूविद्वान व्यक्ति, या प्रख्यात प्रतिष्ठानों के नेताओं का उनके पास लिखित पत्रावली, अमेरिका, यूरोप के संवादपत्रों में समादर पूर्ण असंख्य अभिमत - उनके प्राच्य और पाश्चात्य के शिष्यवृन्द, गुणग्राही, उनके भक्तों से प्राप्त उनके जीवन की नानाविध घटनावली इत्यादि उपादानों का सम्पूर्ण संग्रह कर उसको कालक्रमिक संयोजना और संस्थापना करना भी बहुत वर्षों तक आग्रहपूर्ण अध्यवसाय सापेक्ष कार्य है. 
उनका व्यापक प्रचार कार्य में केवल रामकृष्ण-संप्रदाय ही नहीं, परन्तु भारत के अन्य समस्त सुधि-सन्त, दार्शनिक और धर्मप्रचारक उसी सुदूर समुद्र पार में भारत की सभ्यता, संस्कृति, धर्मप्रचार करके देश, जाति और स्वयं को गौरवान्वित किये हैं. वह महती प्रचेष्टा और अक्लान्त अविश्रांत जो परिश्रम - उनका गौरवमय साफल्य को उन्होंने यथार्थ संन्यासी के जैसा अर्पित कर दिए हैं भगवान श्रीरामकृष्ण को, उन्हीं की मनीषा, पाण्डित्य, और आध्यात्मिकता के फलस्वरूप भारत का आर्य धर्म. आर्य-सभ्यता, आज पाश्चात्य के सुधि समाज में स्वीकृत और सम्मानित है. उनके कार्य-धरा के गौरव से समग्र भारतवर्ष गौरवान्वित है. 
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* ' উন্মেষ ' পত্রিকায় প্রকাশিত     ( ' उन्मेष ' नामक पत्रिका में प्रकाशित ) 
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9.प्रचारक अभेदानन्द का अवदान 
इन दिनों राजनैतिक-क्षेत्र के नेताओं के लिए ' समाज-सेवक ' शब्द का प्रयोग बहुत अधिक प्रचलन में आ गया है. आज यदि कोई किसी आध्य्त्मवादी व्यक्ति के नाम के साथ इस विशेषण ( समाज-सेवक शब्द ) का प्रयोग करे तो, हो सकता है बहुत से ( राजनितिक नेता लोग ) इसको अतिरंजित कहकर नासिका-कुंचित करने लगें. 
किन्तु यह एक ऐतिहासिक सत्य है, कि लोकहिताय, सर्वजन सुखाय, के उद्देश्य को सामने रख कर जो लोग समाजसेवा में अपने को न्योछावर किये हैं, वे आध्यात्मिकता के बल पर ही वैसा कर पाने में सक्षम हुए थे. इतिहास का मंथन करने पर मानस-चक्षुओं के सामने जिन महान परमपुरुषों की छवि कौन्ध उठती है, उन्होंने त्याग को साथी बना कर ही, सेवा-कार्य में अपना ह्रदय-मन-प्राण समर्पित किया था. 
जीवन में त्याग रहे बिना सेवा करना सम्भव ही नहीं है. इसीलिए १९ वीं शताब्दी में उनसभी प्रातःस्मरणीय देशसेवक मनीषियों के भीतर हमलोग त्याग एवं आध्यात्मिकता को ही मुख्य अवलम्बन के रूप में देख पाते हैं.
श्रीरामकृष्ण, स्वामी विवेकानन्द, स्वामी अभेदानन्द आदि प्रमुख त्यागव्रती संन्यासी एवं नेताजी सुभाषचन्द्र, श्रीअरविन्द, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, देशबन्धु चितरन्जन, महात्मा गाँधी प्रमुख देश-वरेण्य समाजसेवी थे. 
किन्तु इन सबों के बीच अन्यतम थे- स्वामी अभेदानन्द; जो स्वयं को पर्दे के पीछे छुपा कर रखे थे, किन्तु अपनी प्रखर-प्रतिभा, एवं कर्मठता के बलपर उन्होंने ने आध्यात्मिक-आन्दोलन के माध्यम से राष्ट्रीय-जीवन में अमूल्य योगदान दिया है. 
इसमें कुछ संदेह नहीं कि- भारतवर्ष एक आध्यात्म-मार्ग पर चलने वाला देश है. और इसमें भी कोई संदेह नहीं है कि, इसी आध्यात्मिकता के बल पर ही वह विश्व-रंगमंच पर अवतीर्ण हुआ था, तथा इसी आध्यात्म के अस्त्र से ही पाश्चात्य के तर्कयुक्ति-वाद को खण्डित कर दिया था, जिसके फलस्वरूप विश्व-वासी के ह्रदय में एक उदार सर्वजनीन समन्वय का सन्देश उद्घोषित हुआ था. 
भारतवर्ष केवल दीन-दरिद्र पीड़ित, दुःख-दुर्दशा क्लिष्ट, अन्धविश्वास और कूसंस्कार में जलता हुआ, एक अपांक्तेय देश नहीं है, पाश्चात्य भूमि पर यह बात इन्हीं समस्त पून्यश्लोक सन्यासियों के कण्ठ से ध्वनित हुआ था. भारत के पास भी कुछ अमूल्य-सम्पदा है, जो पृथ्वी पर और कहीं नहीं है. यह बात गलत है कि, पृथ्वी को देने के लिए भारत के पास कुछ नहीं है. 
जिस प्रकार पाश्चात्य ने पृथ्वी को प्रयुक्ति विज्ञान सिखाया है, उसी प्रकार भारत ने भी अपने अतीत के आध्यात्म-विज्ञान को पृथ्वी के दरबार में पहुँचा दिया है. युक्ति-विज्ञान ने एक ओर जहाँ मनुष्य को ध्वंसात्मक क्रियाओं में शामिल किया है, तो वहीँ आध्यत्मविज्ञान ने उनके समक्ष जीवन-गठनकारी शिक्षा और दर्शन को प्रस्तुत किया है.
  इसीलिए पृथ्वी की वर्तमान परिस्थितियों को देख कर विख्यात इतिहासकार अर्नोल्ड टायनबी अपना उद्वेग प्रकट करते हुए कहते हैं - " इस गम्भीर संकट के समय में मानवजाति के परित्राण का एकमात्र उपाय है, भारतीयपथ - जहाँ समग्र मानवजाति एक साथ सम्मिलित होकर श्रीरामकृष्ण के समन्वय कारी दृष्टिकोण का अनुसरण करते हुए - ' मृत्यु से अमृत ' की ओर अग्रसर हो सकती है. " 
यही है भारत का समन्वय-दर्शन. इस दर्शन की बुनियाद पाश्चात्य भूमि पर सर्वप्रथम स्वामी विवेकानन्द ने  रखा था, एवं उनके कार्य को आगे बढ़ाने में उनके सबसे बड़े सहयोगी बने थे उनके गुरुभाई स्वामी अभेदानन्द एवं अन्यान्य कुछ गुरुभाई. उनके बीच इस व्यापक ' मानव-सेवा कर्मधारा ' के कर्मयोगी के रूप में हमलोग स्वामी अभेदानन्द को बहुत लम्बे समय तक कार्यरत पाते हैं. 
वे एक ही आधार में जैसे सूदक्ष वक्ता, अच्छे लेखक और कर्मयोगी थे उसी प्रकार असाधारण आत्मज्ञान के अधिकारी थे. यहाँ प्रश्न उठ सकता है कि आध्यात्म-विद्या की सहायता से ' समाज-सेवा ' कैसी हो सकती है ? उत्तर में कहूँगा- ' हाँ, सेवापरायण होने के लिए आध्यात्मज्ञान अपरिहार्य है. '
क्योंकि आध्यात्म तत्व-ज्ञान से ही त्याग का जन्म होता है, और सन्यासी का जीवन इसी त्याग के आदर्श पर उत्सर्गिकृत होता है. स्वामी अभेदानन्द के जीवन में हमलोग गीता में कहे गए कर्म-सन्यास को प्रत्यक्ष देख सकते हैं. उनका जीवन दूसरों के कल्याण के लिए उत्सर्गित था. ' आत्मनो मोक्षार्थं जगदहिताय च ' - अपनी आत्म-मुक्ति के साथ जगत का कल्याण, - दश का कल्याण, देश का कल्याण. 
आप्तपुरुष गण लोकशिक्षा के लिए ही जगत में आते हैं. मनुष्य को सटीक पथ पर चलाने के लिए वे लोग लोकायत शिक्षा का प्रवर्तन करते हैं. वह शिक्षा देश-काल-पात्र की सीमा को लांघ कर एक सर्वजनीन सर्वकालीन उत्तरण के आलोक से उद्भासित रहता है. महापुरुषों द्वारा कहे गये उपदेशों को हमलोग आप्तवाक्य कहते हैं. और यदि उन वाक्यों में भारतीय शाश्वत मूल्यों में समाहित समन्वय-दर्शन भी व्यक्त होता हो, तब मानों सोना पर सुहागा जैसे सुन्दर लगते हैं. 
 स्वामी अभेदानन्दजी पाश्चात्य में जिस सनातन सर्वजनीन धर्म और वेदान्त दर्शन के शिक्षा आदर्श को प्रचार करने गए थे, तब उन्हें जो विचित्र अनुभूति हुई थी, उसे एक सभा इस प्रकार व्यक्त करते हैं- 
" प्राचीन ऋषियों से उत्तराधिकार के रूप में हमें जो सनातन धर्म मिला है, जाति-धर्म- देश-निर्विशेष मानव मात्र के कल्याण के लिए, उसका प्रचार एवं प्रसार करने में मैंने अपने जीवन का सर्वश्रेष्ठ समय बिता दिया है. हमलोगों के कार्यों के फलस्वरूप पाश्चात्य वासियों, विशेष कर अमेरिका वासियों के समक्ष  भारत की मर्यादा में प्रचूर वृद्धि हुई है. 
इन दिनों आपलोग सैंकड़ों भारतीय युवाओं- छात्रों को पढ़ते ( या नौकरी-व्यापार करते ) देख रहे हैं; किन्तु मैं जब १८९७ ई० में अमेरिका गया था, उस समय उस महादेश में मैं ही एकमात्र हिन्दू था, तथा अमेरिका के मिशनरियों द्वारा किये जाने वाले दुष्प्रचार के विरुद्ध मुझे प्रबल संग्राम करना पड़ा था. 
क्योंकि उनदिनों जब भी कोई  मिशनरी हमलोगों के देश से वापस लौट कर अमेरिका जाता था, तो वहाँ हमलोगों के देश के बारे में सम्पूर्ण असत्य और भ्रांत धारणा का प्रचार करता था. ये समस्त इसाई मिशनरी लोग जिस ठगी-विद्या के सहारे धन-संग्रह करते थे, उसका एक उदाहरण देखिये. वास्तव में वे लोग हमारे पवित्र तीर्थों आदि की व्याख्या करते समय भ्रमित करने वाले पद्धति का व्यव्हार करते थे.  
मैंने देखा है, वहाँ के विभिन्न चर्च में जो सन्डे-स्कुल चलते थे, उसके पाठ्य-पुस्तकों में भारतीय स्त्रियों के ऐसे  चित्र छपे रहते थे जिसमें दिखाया गया था कि भारतीय स्त्रियाँ; मगरमच्छ को खिलाने के लिए गंगा नदी में अपनी सन्तानों को फेंक रही हैं. 
और उस चित्र में दिखाया जाता कि बड़े बड़े मगरमच्छ अपना मुख फाड़े हुए है, और माँ को एक ऐसी काले रंग कि स्त्री के रूप में दिखाया जाता था जो अपने गौर-वर्ण  (गोरे लोगों से चंदा लेने के लिए ) के शिशु को उसी मगरमच्छ के मुख में फेंक रही है. और उसके नीचे लिखा होता था- ' हिन्दूधर्म का यही सर्वोच्च आदर्श है. ' 
मैं जब पहली बार अमेरिका गया तब लोग मुझे एक धर्महीन, असभ्य, बर्बर मनुष्य समझते थे. बहुत धैर्य पूर्वक प्रयास करके मैं अमेरकी लोगों की भारत-सम्बन्धी भ्रान्त धारणाओं को दूर करने में सक्षम हुआ था. मुझे अपने गुरुभाई स्वामी विवेकानन्द का स्मरण हो रहा है, जिसने डाक्टर बैरोज के सभापतित्व में शिकागो में आयोजित ' धर्म-महासम्मेलन ' में हमलोगों के देश के प्राचीन दर्शन, धर्म और संस्कृति का प्रतिनिधित्व किया था. 
मुझे स्मरण है कि, उसी डाक्टर बैरोज ने अपने किसी व्याख्यान में कहा था कि- ' हिन्दू धर्म में पहले नैतिकता, धर्म, दर्शन आदि कुछ भी नहीं था, अभी उलोगों के पास जो कुछ भी है- वह सबकुछ इसाई मशीनरियों से सीखा हुआ है.'
उनके इस कथन का तीव्र प्रतिवाद करते हुए मैंने कहा था- अमेरकियों के सामने इसाई मिशनरी लोग जिस धर्म को ' यीशुक्रिष्ट ' का धर्म बोल कर प्रचार करते हैं, वह दरअसल भारत से आयात किया गया है- उसमें जो पवित्र जल का छिड़काव कर के बप्तिस्मा देने की प्रथा है, वह गंगा-घाट पर पवित्र ' गंगा-जल ' में स्नान करने की प्रथा से ही अनुप्रेरित है.
मैंने देखा है कि इसाई पौराणिक कहानियाँ तथा ' यिशुख्रिष्ट ' के उपदेश और कुछ नहीं- महान मानव-दरदी बौद्ध-धर्म के प्रतिष्ठाता गौतम बुद्ध के उपदेशों की स्मित प्रतिध्वनी मात्र हैं. पच्चीस वर्षों तक अथक परिश्रम करने के बाद मैं अमरीकियों को यह समझा सका हूँ कि ' वेद और उपनिषद दर्शन ' विश्व के सर्वश्रेष्ठ दर्शन हैं. वेद और उपनिषद के दर्शन में ही समस्त धर्मों के सार-तत्व विद्यमान हैं, तथा समस्त देशों में पीढ़ियों से संचित ज्ञान-भंडार की कूंजी भी निहित है. 
मुझे ऋगवेद एवं अन्यान्य वैदिक साहित्य के अनुवादक प्रोफेसर मैक्समुलर के साथ साक्षात्कार करने सूयोग   मिला था. कियेल विश्वविद्यालय के प्रोफेसर पॉल डायसन ने ' उपनिषद का दर्शन ' नामक एक पुस्तक प्रकाशित किया था, उनके साथ भी मेरी बातचीत हुई है..." ( ' সর্বজনীন ধর্ম ও বেদান্ত ' পেজ-১০৫ : सर्वजनीन धर्म और वेदान्त )
स्वामी अभेदानन्द के द्वारा पाश्चात्य देशों में निरन्तर २५ वर्षों तक अथक परिश्रम से वेदान्त-प्रचार कार्य करने के फलस्वरूप वहाँ भारत के सर्वजनीन धर्मादर्श की एक दृढ आधार-शिला तैयार हो गयी थी. यूरोप अमेरिका में प्रचार कार्य करने के लिए उन्होंने सत्रह बार अटलान्टिक महासागर को पार किया था. भारतीय-दर्शन को पाश्चात्य वासियों के द्वार-द्वार तक पहुँचाने के लिए, स्वामी अभेदानन्दजी ने लन्दन, पेरिस, नियुयोर्क, शिकागो, संफ्रिसिसको, वर्कले, ब्रुकलिन, वार्क्शायर, कैलिफोर्निया, कनाडा के टोरेन्टो आदि विश्वविद्यालयों में व्याख्यान दिये थे. अलास्का से कनाडा होकर वे मैक्स्किको गए थे. 
हार्वर्ड के विख्यात मनोवैज्ञानिक विलियम जेम्स, अंग्रेजी में अथर्व वेद के अनुवादक प्रोफेसर लायनमैन, कोलम्बिया विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जैक्सन, कर्नेल विश्वविद्यालय के प्रोफेसर हिरम कार्सन, हैडसन आदि मनीषियों के साथ अभेदानन्दजी ने साक्षात्कार किया ठस तथा उनके साथ सम्मानित अतिथि के रूप में विभिन्न सभाओं में एक ही मंच को सुशोभित किया था. 
केवल इतना ही नहीं, इनलोगों में से कई व्यक्ति भारतीय सनातन-धर्म के आदर्श से अभिभूत होकर इसी महान सेवा-व्रत में स्वयं को उत्सर्ग कर दिया था. स्वामी अभेदानन्दजी ने भी इन सूमहान मनीषियों को अपने भावी उत्तराधिकारी के रूप में आदर के साथ ग्रहण कर लिया था. उनलोगों में वेदान्त-चर्चा के प्रति निष्ठा को देखते हुए अभेदानन्द ने उनको- शिवदास, हरिदास, रामदास, गुरुदास आदि नये नये नाम दिये थे. 
और जिन विदुषी महिलाओं ने इस सर्वजनीन धर्म आदर्श के प्रचार के लिए इस महान त्यागव्रत में अपने को समर्पित किया था उनका नामकरण- भवानी, शंकरी, नारायणी, सत्यप्रिया आदि किया था. सोचने से आश्चर्य होता है, जिस कपर्दकहीन सन्यासी को, कभी एक मुट्ठी अन्न पाने के लिए दरवाजे दरवाजे घूमना पड़ा था- आज वही सन्यासी पाश्चात्य के सभी गणमान्य लोगों के बीच श्रद्धेय बन गये थे. पाश्चात्य देशों के विख्यात कवि, गायक, लेखक, दार्शनिक, वैज्ञानिक, चित्रकार, आविष्कारक, धर्म-पुरोहित, पर्वतारोही आदि गुणिजन उनके आन्तरिक मित्र बन गये थे.  
वह कौन सी शक्ति थी, जिसके बलपर उन्होंने पाश्चात्य वासियों का दिल जीत लिया था ? भारत की उस  एकमात्र ' शक्ति ' का नाम है - आध्यात्मिकता ! इसी कभी न समाप्त होने वाली - ' अनन्त-शक्ति ' के कारण पाश्चात्यवासी भारत की ओर उदग्रीव होकर देख रहे हैं. इस अनन्त-शक्ति का उत्स कहाँ है- इसी रहस्य को जानने के लिए भारत की ओर चकित दृष्टि से देख रहे है. 
वे लोग कौतुहल पूर्ण नेत्रों से आध्यात्म-तत्व का श्रवण करना चाहते हैं; तथा अनन्य सत्य अनुसन्धानी मन को लेकर ' भारतीय- समन्वय दर्शन ' को जानना चाहते हैं. अतः भारत के इस ' दर्शन ' ( एकम ' सत ' विप्राः बहुधा  वदन्ति ) को मात्र एक तात्विक बात नहीं समझना चाहिए, यह एक सर्वजनीन, सजीव, सतेज, और समन्वयकारी सत्ता है; जिसके माध्यम से मनुष्य पुनः नये ढंग से ' जीने की शक्ति ' प्राप्त कर सकता है. इसीलिए पाश्चात्य देशों में स्वामी अभेदानन्दजी का अवदान एक उज्वल आलोकित दीपक की बाती के जैसा था. उनलोगों का वह अकस्मात प्रज्वलित हो उठा ' वैज्ञानिक लौ '  उनके समक्ष निष्प्रभ हो गया था. दिशाहीन मनुष्य को अमावस्या के अंधकार से बाहर निकलने के पथ को आलोकित कर दिया था. वे मानों ऊपर उठाने वाले सोपानों का दिग्दर्शन कराने वाला पथनिर्देशक (नेता ) थे. वे मानों ' आकाश-दीप ' बन कर आनन्दलोक, अमृतलोक तक पहुँचने के मार्ग पर, जीव को सबुज निशाना का संकेत दिखा कर, जीवन-सत्ता का दिशारी बना देता है. 
स्वामी अभेदानन्दजी ने अमेरिका के ब्रुकलिन इंस्टीट्युट में ' भारत की सभ्यता और संस्कृति ' के उपर धारावाहिक रूप से व्याख्यान देकर भारत को प्रतिष्ठित किया था. परवर्तीकाल में इसकी ही परिणति
स्वरुप ' India and Her people ' शीर्षक से उन भाषणों को संकलित कर पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया गया था. इस पुस्तक ने स्वामी अभेदानन्दजी को सम्पूर्ण विश्व में भारतीय राष्ट्रीयता और संस्कृति का धारक, वाहक और प्रतिनधि के रूप में परिचित करवाया था. देश-विदेश के बहुत से पाठक इस ग्रन्थ को पढ़ कर आनन्द से अभिभूत होकर इसके लेखक को एक प्रखर राष्ट्रवादी के रूप में स्वीकार कर लेता है. 
इस पुस्तक के एक गुणमुग्ध पाठक विख्यात इतिहासकार रमेशचन्द्र दत्त ने अपनी अभिज्ञता के आधार पर इसके सम्बन्ध में अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहा है- ' मैं इतने वर्षों तक परिश्रम करके भी जो कर पाने में अक्षम रहा हूँ, उसे आपने ( स्वामी अभेदानन्द ने ) इस छोटी सी पुस्तक में समस्त कह दिया है. समस्त भारतवासियों के लिए इस पुस्तक का अध्यन करना अनिवार्य कर्तव्य है. ' 
क्या भारत की अनमोल शिक्षा-संस्कृति को विश्व के दरबार में घोषणा करना हमलोगों के सामाजिक दायित्व और कर्तव्य के अंतर्गत नहीं आता ? जो लोग विवेक-वान पुरुष हैं, वे केवल अपना सुख-स्वाछ्न्द भोग करने के लिए शरीर धारण नहीं करते हैं, वे लोग अपने वतन के लिए, साधारणजनता के लिए - ' बहुजनहिताय बहुजनसुखाय ' ही जन्म ग्रहण करते हैं, और अपने तन-मन- प्राण को इसी उद्देश्य के लिए न्योछावर कर देते हैं. 
शिक्षा के क्षेत्र में भी स्वामी अभेदानन्द का अवदान अपरिसीम है.
  स्त्री-शिक्षा के सम्बन्ध में उनका कहना था- समाज के आधे मनुष्यों को अशिक्षित रखने से समाज की प्रगति कभी सम्भव नहीं हैं. नारियों को यथार्थ शिक्षा देने की व्यवस्था करना समाज का आवश्यक कर्तव्य है. नारियों को सम्मान देना, उनकी मर्यादा को स्वीकृति देना एवं उनको यथार्थ शिक्षा देने की व्यवस्था करना ह्लोगों के देश की संस्कृति और आदर्श के अन्दर स्वीकार्य है. वे कहते थे कि यदि नारियों की अवमानना  होती हो, स्त्री-शिक्षा की अवहेलना की जाति हो तो वैसा करना भारतीय संस्कृत के विरुद्ध आचरण माना जायेगा. अपने प्राचीन आध्यात्म शास्त्रों में भी अभेदानन्दजी के मत को समर्थन मिलता है. वहाँ कहा गया है- 
' यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः|
यात्रास्तस्य न पूज्यन्ते सर्वास्त्रफला क्रियाः ||  
(मनुसंहिता ३/ ५६ )
- अर्थात जहाँ नारियों को श्रद्धा के साथ पूजा जाता है, वहाँ देवता गण भी आनन्द से आगमन करते हैं; और जहाँ नारियों का असम्मान होता है, वहाँ देवताओं को प्रसन्न करने के उद्देश्य से किया गया कोई भी याग-यग्य आदि सुफल प्रसव नहीं करते. 
इसीलिए स्त्री-शिक्षा का प्रचार जिस प्रकार शास्त्र सम्मत है, उसी प्रकार गणतान्त्रिक देश का नैतिक कर्तव्य भी है, स्त्री-पुरुष को समान अधिकार देना सामाजिक-न्याय की नीति के अनुरूप है. यहाँ एक दूसरे का परिपूरक है, इसलिए प्रत्येक पुरुष का यह कर्तव्य है कि वह नारी-शिक्षा का विस्तार करने में सहायता करे, इस सम्बन्ध में हमलोगों को उदार होना चाहिए. 
शिक्षा-व्यवस्था के प्रसंग में अभेदानन्दजी जिस प्रकार उन्नत मत के पक्षधर थे, उसी प्रकार हमलोगों के राष्ट्रीय जीवन के क्षेत्र में भी उन्नतमना थे. ' हमलोग क्या चाहते हैं ' - के विषय पर वे कहते थे- हमलोगों के राष्ट्रिय शिल्प को उन्नत करने के नियम बने, जनसाधारण को रष्ट्रीय शिक्षा नीति के अनुरूप शिक्षित किया जाय, राष्ट्रीय एकता को दृढ करने के लिए ' संगठन -शक्ति ' में वृद्धि की चेष्टा होनी चाहिए. 
अन्यान्य देशों के राष्ट्रीय आदर्श से हमारा आदर्श अभिन्न है, इसीलिए हमारे इस पराधीन देश को पहले स्वाधीनता चाहिए. वे कहते थे, हमलोगों के देश की स्वाधीनता का आदर्श जगत के समस्त देशों और जातियों के आदर्श से महत्तर होगा. पाश्चात्य देशों से हमें क्या सीखना चाहिए- इसके बारे में उन देशों में अपनी २५ वर्षों के अभियान की अभिज्ञता के आधार पर कहते हैं- पाश्चात्य देशों की राष्ट्रिय एकता, संगठन शक्ति, और अनुशासित ढंग से कार्य करने की पद्धति, हमारे लिए सीखना उचित है.
भारत के नागरिकों में आज यह शिक्षा नहीं है, इसीलिए आज हमलोग पददलित अधोपतित अपांक्तेय हैं अन्य सभी देशों और जातियों के बीच. यूरोप अमेरिका, या जापान में हमलोग आज जो चरम उन्नति का उत्कर्ष देख रहे हैं, उसका कारण है कि वहाँ के नागरिक राष्ट्र-कल्याण की योजना का निर्माण और उसका क्रियान्वन  उद्देश्य की एकता- ' Unity of Purpose 'को ध्यान में रख कर करते हैं.
वे कहते हैं, उनके देश के कल्याण के उद्देश्य से ही उनका अस्तित्व बचा रहेगा- उनके भीतर स्वदेश-प्रेम कूट कूट कर भरा हुआ है. इसीलिए उनसे हमलोगों को सीखना होगा कि हमलोग भी देशभक्ति से ओतप्रोत कैसे हो सकते हैं. 
परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि वे पाश्चात्य के सभी कुछ अच्छा कहते थे और देश के सभी बातों को बुरा कहते थे, वे कहते हैं पाश्चात्य के प्रयुक्ति विद्या के आलोक में हमलोगों के राष्ट्रीय शिक्षा पद्धति को और भी उन्नततर बनाना होगा.
जिस प्रकार भारत ने अपने सर्वजनीन वेदान्त के समन्वय-धर्म आदर्श के द्वारा पृथ्वी को नयी रौशनी दिखाने में सहायता किया है, उसी प्रकार हमलोगों को पाश्चात्य देशों से यह सीखना पड़ेगा कि ' संघबद्ध ' हो कर कैसे कार्य किया जाता है. 
स्वामी अभेदानन्दजी केवल निजी आत्मुक्ति से संतुष्ट नहीं थे, वे समग्र भारत-आत्मा तथा मानव-जाति के कल्याण कामना से एक मार्गदर्शक की भूमिका का निर्वहन करते हुए कहते थे- 
" We must not stop simply after doing something that will help our own nation but we must go on doing things that will help not only nations, not only human being but all living creatures, lower animals, plants. "
उनदिनों के भारत के लिए स्वामी अभेदानन्दजी की मार्गदर्शक वाली यह भूमिका बहुत महत्वपूर्ण थी. उनके लिए समाज से तात्पर्य था पूरा विश्व समाज. वे तथाकथित क्षुद्र-समाज बद्ध जीव नहीं थे. सामाजिक संस्कृति को सुधार करने के लिए ही मानों उनको एक समाज-शिक्षक की भूमिका में जन्म लेना पड़ा था.
  इतना ही नहीं वे ' आत्मज्ञान ', ' आत्मविकास ', ' ईश्वरदर्शन का उपाय, ' कर्म-विज्ञान ', ' पुनर्जन्म-वाद ', ' बीसवीं शताब्दी का धर्म ', ' सांसारिक प्रेम और भगवत प्रेम ', ' भारत और इसकी संस्कृति ', ' मृत्यू के पार ',
' मन का विचित्र रूप ', ' मनुष्य का दिव्य स्वरुप ', ' मुक्ति का उपाय ', ' मृत्यू रहस्य ', ' युगों युगों में जिनका आगमन होता है ', ' योगदर्शन और योगसाधना ', ' योगशिक्षा ', ' शिक्षा-समाज और धर्म ', ' सर्वजनीन धर्म और वेदान्त ', ' सांख्य, बौद्ध और वेदान्त दर्शन ', ' स्वामी विवेकानन्द ' एवं ' हिन्दूनारी ' आदि असाधारण ग्रन्थ रचना करके विद्वत समाज में चिर अमर हो गये हैं. 
स्वामी अभेदानन्दजी अपने कर्म-बहुल जीवन के सुदीर्घ २५ वर्ष के समय को यूरोप अमेरिका में बिताने के बाद १९२१ ई० के जून में जन्मभूमि भारतमाता के पास लौटने की यात्रा शुरू किये. किन्तु अथक परिश्रम करते हुए ही इसका पूरा जीवन बीता हो, क्या वह निष्क्रिय हो कर बैठ सकते थे ? कर्म ही जिसका धर्म था, वह कर्मयोगी क्या अकर्मण्य हो कर बैठे रह सकते थे ? इसीलिए सैनफ्रांसिस्को से प्रशान्त महासागर होकर वापस लौटते समय देखते हैं कि वे जापान, संघाई, हांगकांग, कैंटन, मनिला, सिंगापूर, कोयलालमपूर और रंगून आदि स्थानों का परिभ्रमण करके, वहाँ भी  भारतीय वेदान्त दर्शन का सर्वजनीन आदर्श को प्रतिष्ठित करा रहे हैं. इसके बाद कुछ दिनों तक बेलूड़ मठ में अवस्थान करने के बाद पुनः तिब्बत, काश्मीर और लहासा के अंचलों का भ्रमण करने निकल पड़े थे. 
अभेदानन्दजी के २५ वर्षों तक पाश्चात्य परिभ्रमण के दौरान बीच में एकबार १९०९ ई० में ६ महीने के लिए भारत में प्रथम प्रत्यावर्तन की प्रतिक्रिया को प्रत्यक्षदर्शी मनीषी प्रोफेसर विनयकुमार सरकार की भाषा में सुन सकते है- " कोलम्बो में जहाज से उतरते ही अभेदानन्द देशवासियों के द्वारा पूजित होने लगे. यह पूजा छः महीनों तक, मद्रास, कोलकाता होते हुए मुंबई से भारत छोड़ने के समय तक चलती रही. लगता है सौ से अधिक सम्वर्धना-सभाएं हुई होंगी....स्वामी अभेदानन्द के पीछे मतवाला होकर समग्र भारत एक हो गया था. भारतीय एकता अभेदानन्द सम्वर्धना के माध्यम से मूर्तमान हो उठी थी. वह एक अभिनव दृश्य था. " 
पाश्चात्य देशों में स्वामी अभेदानन्द के प्रचार-साफल्य को प्रत्यक्ष देखने वाले अध्यापक विनयकुमार सरकार श्रीरामकृष्ण-भाव आन्दोलन तथा भारतीय दर्शन और संस्कृति के व्यापक प्रचार कार्य से अभिभूत होकर और भी कहे थे- " ' विवेक और अभेद ', ये दोनों मानों इस युग में जन्मे हमारे ' अश्विनीकुमार- द्वय '  हैं. " भारतीय संस्कृति को विश्व दरबार उद्घोषित करने के लिए विवेकानन्द और अभेदानन्द का अवदान अपरिसीम था- इस बात को विनयकुमार सरकार एक वाक्य में स्वीकार करते थे; विशेषतः पाश्चात्य भूमि पर अभेदानन्द की अतूलनीय अवदान को कोई अस्वीकार नहीं ककर सकता. 
अभेदानन्दजी के भीतर जिस प्रकार प्रत्यक्ष किया जा सकता है सूगम्भीर प्रज्ञा ( भ्रम रहित ज्ञान ) का आलोक में उपलब्धी-प्राप्त जीवन, उसी प्रकार उनके भीतर हमलोग चारित्रिक महत्व की दृढ़ता भी देख सकते हैं, तथा पर्वतप्रमाण पांडित्य जिसके द्वारा भारतीय धर्म दर्शन और संस्कृति की सहायता से सर्व मानवों की हित कामना से उत्सर्गित जीवन का दर्शन कर सकते हैं.                         
                    उनकी सूनिपुण लेखनी से उद्घाटित हुई है, भारतीय अमूल्य आध्यात्मिक-सम्पदा के निगूढ़ तत्व, जिसके द्वारा विश्व-वासी पाए थे और पा रहे हैं- ' परम प्रशान्ति '! उनकी असाधारण भाषण को सुन कर जिस प्रकार पश्चात्यवासी मंत्र-मुग्ध हुए थे, उसी प्रकार स्वयं विवेकानन्द भी मुग्ध हुए थे. अभेदानन्दजी द्वारा पाश्चात्य में ' पंचदशी ' के उपर दिये प्रथम- व्याख्यान को सुन कर स्वयं स्वामीजी अभिभूत हो गये थे, और  लन्दन की उस महासभा में समस्त विद्वत-जनों के समक्ष उद्दात कण्ठ से घोषणा किये थे- ' मैं यदि शरीर-त्याग दूँ तो मेरे इसी प्रिय गुरुभ्राता के कण्ठ से ध्वनित होगी मेरी वाणी एवं समग्र जगत उसे सुनेगा. '
स्वामीजी की यह वाणी विफल नहीं हुई थी, उसका एक एक शब्द वास्तविकता में रूपांतरित हुआ था. तथा उनकी उसी असाधारण वाग्मिता से विमुग्ध होकर उत्तरण करने के मार्ग पर बहुत से जनसाधारण ने अपना बहुमूल्य जीवन उत्सर्ग कर दिया था. स्वामी अभेदानन्दजी मानों एक चरम वाग्मिता के इतिहास-पुरुष हैं. अमेरिका जैसे स्थान में वे चार-पांच स्थानों में व्याख्यान देते थे. उनके भाषण से विमुग्ध होकर कैप्टन सेभियर नेकहा था- " Swami Abhedananda is a born preacher, wherever he will go he will succeed."
स्वामी अभेदानन्दजी में भारतीय-संस्कृति के प्रति जो सहमर्मिता थी, वह पाश्चात्य में प्रचार कार्य करते समय प्राणधर्मिता बन कर उनकी कण्ठ-वीणा से झंकृत हुई थी. जिसके माध्यम से प्राच्य और पाश्चात्य के बीच स्नेह-बंधन प्रगाढ़ हुआ था, - जिनकी वाणी में एक समन्वयकारी जीवनी शक्ति थी. पाश्चात्य जड़वादी सभ्यता और संस्कृति तथा विश्व-सभ्यता जहाँ रंगीन आलोक से जगमग दिख रही हो, वहाँ स्वामी अभेदानन्दजी भारत-सभ्यता रूप स्निग्ध सूमधुर चांदनी के नये आलोक से आलोक से आलोकित कर दिये थे विश्ववासियों के ह्रदय-मन्दिर को. यद्दपि वह आलोक वैज्ञानिक आलोक की तुलना में बहुत हलका है, तथापि वह शाश्वत सत्य के गौरव से उज्ज्वल महिमा से महिमान्वित और उत्तरण की दिशा का पथ प्रदर्शक था. 
अँधेरे खान के गर्भ को क्षूद्र मुक्ता-मणि जिसप्रकार अपनी ज्योति से निशाना दिखाता है, उसी प्रकार पाश्चात्य के अंधकार दुर्योग्पूर्ण आकाश में भारतीय संस्कृति एक उज्जवल दीपशिखा के रूप में उद्भाषित हुई थी,  एवं उसी दैदीप्यमान आलोक की प्रभा से समग्र विश्वासी आज भी मुखरित हैं, जिसके उत्स के संधान में उन्मुख हो कर वे लोग आज भी भारत के गली-कूंचों, मठों-मन्दिरों, पहाड़ों -कन्दराओं में सर्वत्र एक उद्भ्रांत पथिक बन कर घूम रहे हैं, उसी अनन्त आध्यात्मिक शक्ति के संधान में पथ को भूले पथिकों के लिए स्वामी अभेदानन्दजी मानों एक पथ-प्रदर्शक हैं.
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* ' মাতৃশক্তি ' শারদীয়া ১৪ ১৪ স্ন্খ্যায় প্রকাশিত 
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 10.स्वामी अभेदानन्द की दृष्टि में निवेदिता 
आचार्य स्वामी विवेकानन्द ने मिस मार्गरेट एलिजाबेथ नोबेल को- ' भगिनी निवेदिता ' में रूपान्तरित कर दिया था. इन्हीं स्वामी विवेकानन्द के अन्यतम अन्तरंग गुरुभ्राता थे स्वामी अभेदानन्द; जो स्वामीजी के आह्वान पर ' वेदान्त-प्रचार ' करने के लिए पाश्चात्य गए थे. उन्होंने पाश्चात्य-वासियों को ( १९९६-१९२१ ) पुरे  २५ वर्षों तक भारत के ' सर्वजनीन-वेदान्तदर्शन ' का श्रवण करवाया था. 
                 इसी वेदान्त दर्शन के आलोक में सम्पूर्ण विश्व ने भारतवर्ष को एक उदार सनातन देश के रूप में पहचाना था, तथा इसी सार्वजनीन वेदान्त धर्म और दर्शन के उत्स को जानने के लिए मिस मार्गरेट नोबेल भारतवर्ष आई थीं. उस समय तक मिस नोबेल ' निवेदिता ' में परिणत नहीं हुई थीं; अर्थात भारतवर्ष आने के पहले से ही उनका परिचय अभेदानन्दजी के साथ था. स्वामीजी ने ही अभेदानन्दजी के साथ उनका प्रथम परिचय करवाया था.
                       उनके साथ बातचीत करके अभेदानन्दजी यह समझ गए थे कि इस आयरिस तरुणी मिस नोबेल के मन में भारतवर्ष को लेकर अनेक स्वप्न हैं, तथा भारतवर्ष के उदार सार्वजनीन वेदान्त-दर्शन के माध्यम से ही उन्हें यह स्वप्न देखने की प्रेरणा प्राप्त हुई है. अभेदानन्दजी ने इस बात का अनुभव भी किया था,  कि मिस मार्गरेट के भीतर उन्नत शिक्षा-दीक्षा जनित, ज्ञानदीप्त प्रतिभा भरी हुई है, एवं उनके व्यक्तित्व में जो  शुद्ध भक्ति-भाव है, वह आत्मशक्ति के बल पर अटल है.
                       वे भारतवर्ष आने के लिए बहुत आग्रही थीं, तथा स्वामीजी के ' शिवज्ञान से जीवसेवा ' के आदर्श से अनुप्रेरित होकर भारतमाता की  बलीवेदी पर अपना मन-प्राण अर्पित करना देना चाहतीं थीं. स्वामीजी भी मार्गरेट के सेवा-कर्म में निष्ठा तथा आचार-व्यव्हार को देख कर मुग्ध हो गए थे. उन्होंने मन में यह ठान लिया था कि भारतवर्ष में नारी-शिक्षा का स्तर उन्नत करने के लिए मिस मार्गरेट नोबेल जैसी महिला को उत्तरदायित्व सौंपना बहुत प्रयोजनीय है.
   इस विषय पर स्वामी अभेदानन्दजी के साथ बातचीत करते हुए उन्होंने कहा - ' देखो काली, मिस नोबेल बहुत
  good soul है एवं Education लाईन में भी है, इसीलिए सोचता हूँ कि भारत में लड़कियों के लिए जैसा स्कूल निर्माण करने की परियोजना मेरे मन में है, उसका पूरा दायित्व इसी के उपर सौंप दूँ. तुम बताओ वो इस जिम्मेदारी को उठाने में सक्षम होगी या नहीं ?'
अभेदानन्दजी ने इस प्रस्ताव पर अपनी सम्मति देते हुए कहा- ' इस कार्य के लिए बिल्कुल योग्य नारी का चुनाव तुमने किया है.  इसके बाद स्वामीजी के आह्वान पर अपना योगदान देने के लिए मिस मार्गरेट नोबेल भारतवर्ष आगयीं और ब्रह्मचर्य-व्रत ग्रहण करके भगिनी निवेदिता के रूप में आत्मप्रकाश कीं. 
               धीरे धीरे स्वामीजी के चिराकांक्षित नारी-शिक्षा के कार्य में निवेदिता ने स्वयं को समर्पित कर दिया. उस समय स्वामी अभेदानन्दजी अमेरिका में थे. इसीलिए निवेदिता के द्वारा किये जा रहे सेवाकार्यों का संवाद पत्र के माध्यम से ही प्राप्त होता था. पत्रलेखक स्वयं स्वामीजी थे. इस प्रकार लिखे थे-
 "भाई काली (अभेदानन्द), तुम्हें यह जान कर प्रशन्नता होगी, कि कुछ ही दिनों पूर्व २१ न०, बागबाजार में
 मिस नोबेल (निवेदिता ) का स्कुल, श्रीश्रीमाँठाकुरानी ( श्रीश्रीमाँसारदादेवी ) के आशीर्वाद से स्थापित हो गया है. वे स्वयं उपस्थित होकर इसके उद्बोधन ( उद्घाटन ) कार्यक्रम को देखा है. यह बहुत अच्छा हुआ.
लडकियों के लिए स्थापित इस विद्यालय का भविष्य उज्ज्वल है, क्योंकि इसे संघ-जननी का आशीर्वाद प्राप्त है. बेलूड़ मठ से मैं, राखाल (ब्रह्मानन्द ) और शरत ( सारदानन्द ) इस सादगीपूर्ण ढंग से आयोजित समारोह में उपस्थित थे. इसमें मुझे कुछ सन्देह नहीं है कि मिस नोबेल बहुत अल्प समय में ही इस बालिका विद्यालय को मेरी आशा के अनुरूप  खड़ी कर लेगी. 
        क्योंकि इसी कार्य के लिए तो उसे मैं इस देश में लाया हूँ. एक नये आदर्श में लड़कियों का जीवन गठन हो,
एक सम्पूर्णतया नये शिक्षा व्यवस्था में उनका चरित्र विकसित हो, इसीलिए महानगरी के एक मोहल्ले में
हमलोगों ने यह सामान्य सा प्रयास किया है. मैं मानों दिव्य चक्षुओं से देख रहा हूँ, मिस नोबेल ( निवेदिता ) की 
प्रचेष्टा से यह प्रयास अवश्य सफल होगा. "
      निवेदिता के सेवाकर्म की समृद्धि केलिए लिखे गए, स्वामीजी के इस आशीर्वाद-पत्र को पढ़ कर, अभेदानन्दजी बड़े आनन्दित हुए. क्योंकि निवेदिता के नारी-शिक्षा की सफलता के लिए उन्हों ने भी ह्रदय से आशीर्वाद दिया था. सभी लोगों की सहानुभूति प्राप्त कर निवेदिता की शिक्षा-व्यवस्था में उत्तरोत्तर श्रीवृद्धि होने लगी. इसीबीच अकस्मात बिजली गिरने जैसी घटना हुई, ४ जुलाई १९०२ को स्वामीजी का महाप्रयाण हो गया.
निवेदिता असहाय हो गयी. अभेदानन्दजी भी बहुत चिन्तित हो गए थे.क्योंकि, जो अपनी शिष्या को विघ्न-बाधाओं से सतत ढाल बन कर रक्षा किया करते थे, उस शिष्या मिस मार्गरेट के सिर के ऊपर से आकाश के जैसे व्यक्तित्व वाले स्वामीजी का महाप्रस्थान हो गया था. एक विराट स्थान रिक्त हो गया था, सभी इस सोच में पड़ गये थे कि अब आगे स्कूल किस प्रकार चल पायेगा, कौन इस दायित्व पूर्ण कार्य में सहयोग देने के लिए अपना हाथ आगे बढ़ाएगा ? 
 तभी सभी आशंकाओं को दूर करने के लिए अमेरिका में स्वामी अभेदानन्दजी को स्वामी सारदानन्दजी का एक पत्र प्राप्त हुआ, जिसमे उनहोंने लिखा था - " निवेदिता का स्कूल भलीभांति चल रहा है, तथा इसको स्थायी रूप देने के लिए निवेदिता के प्रयास में कहीं कोई त्रुटी नहीं है. उसीके प्रयास से वैज्ञानिक जगदीशचन्द्र बोस आदि बहुत से गणमान्य व्यक्ति अभी स्कूल कि ओर आकृष्ट हुए हैं तथा उनमे से कुछ लोग बीच बीच में स्कूल देखने के लिए आते रहते हैं. सुना है कि रविठाकुर ( रविन्द्रनाथ ठाकुर ) भी आये थे. .... लड़कियों की संख्या पहले की अपेक्षा बहुत अधिक हो गयी है." 
 स्वामी अभेदानन्द जी अमेरिका में बैठे कर भी निवेदिता के क्रिया-कलापों की खोज-खबर लेते रहते थे. मिस नोबेल को लन्दन में रहते समय भी, एक स्वेच्छा-सेविका के रूप में काम करते हुए देखेथे, इसीलिए निवेदिता के सेवाकर्म के प्रति उनकी धारणा बहुत स्वच्छ थी.
  इसके अतिरिक्त स्वामी अभेदानन्दजी जब १९०९  ई० में ६ महीनों के लिये भारत आये थे उस समय भारत में रहते हुए निवेदिता  के सामाजिक-जीवन में और शिक्षा-क्षेत्र में उनकी  कार्यधारा से परिचित हुए थे, एवं निवेदिता की ' संगठन-क्षमता ' को देख कर मुग्ध हुए थे.
 परवर्ती काल में इस बात का उल्लेख उन्होंने इस प्रकार किया था- " निवेदिता ( मार्गरेट ) एक बहुत कुशल Organizer थीं एवं उनके व्यक्तित्व में मन को आकृष्ट कर लेने की एक शक्ति थी; जिसके फलस्वरूप बहुत से विख्यात व्यक्तियों की सहानुभूति एवं सहयोग उन्हें प्राप्त हुआ था. 
किसी वेदेशिनी महिला के लिए यह कुछ कम गौरव की बात नहीं थी. ऐसा प्रतीत होता है, कि शायद इसी कारण बागबाजार के एक कोने में एक साधारण से स्कूल को केन्द्र बना कर निवेदिता ने अपने कार्य-क्षेत्र की परिधि  को इतना विस्तृत कर लिया, कि उन्होंने सम्पूर्ण बंगाल के ह्रदय को ही जीत लिया है.
इसीलिए मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि यदि स्वामीजी की महासमाधि के बाद उनकी यह सूयोग्य शिष्या यहाँ न होतीं तो उनकी भावधारा भी समस्त भारत में इतनी प्रचारित नहीं हो पाती. " 
 इसमें कोई सन्देह नहीं कि निवेदिता एक विदुषी महिला थीं. उन्होंने अपना मन-प्राण समर्पित कर जिस प्रकार
  भारतवर्ष की सेवा की है, इतिहास में उसका दूसरा उदहारण खोज पाना कठिन है. उनका कार्य-क्षेत्र केवल रामकृष्ण-संघ तक ही सीमाबद्ध नहीं था, समस्त भारतवर्ष को अपने घेरे में लपेटे हुए था. उनके  जीवन की विचार-धारा और सेवा-कार्य के माध्यम से मानों समग्र भारत ही जीवन्त-रूप धारण कर लिया था. उससमय भगिनी निवेदिता को केन्द्र में रख कर बंगाल के नवजागरण ने अपने शिखर को छू लिया था, एवं वे उस राष्ट्रीय आन्दोलन की केन्द्रबिन्दु बन चुकीं थीं. 
    इस घटना को भारत में रहते समय स्वयम अभेदानन्दजी अपनी आँखों से देख चुके थे तथा इस संवाद को इस प्रकार प्रकट किया था- " निवेदिता की विचार- धारा एवं कर्म का प्रभाव केवल भारतीय राजनीती पर ही नहीं,
पड़ा था बल्कि कला, साहित्य, संस्कृत यहाँ तक कि राष्ट्रिय जीवन के सभी स्तरों में मानों एक नवजागरण की बाढ़ आगई थी. प्रत्येक क्षेत्र में उनका प्रभाव कितना गम्भीर और आन्तरिक था, उसको मैंने स्वयम अपनी आँखों से देखा था. उन दिनों ' सिस्टर निवेदिता ' नाम बंगाल के शिक्षित समाज में जैसा सूपरिचित था, उतने ही श्रद्धा के साथ इस नाम को सर्वसाधारण के मुख से भी उच्चारित होते मैंने सुना था. "
                                 भारतवर्ष को जिन्होंने अपना सर्वस्व निवेदित कर दिया था, उन्हीका नाम था- निवेदिता. जन्म के आधार पर विदेशिनी होने पर भी अपने कर्म और मृत्यू के आधार पर वे, एक भारतवासी थीं. जब १९११ ई० में दार्जलिंग में उनका निधन हुआ, उस समय सम्पूर्ण भारतवर्ष ही भगिनी-विहीन हो कर शोकग्रस्त हो गया था. 
 किसी अन्य के प्रति ऐसा शोक व्यक्त करते कभी नहीं देखा गया था. किन्तु उस दिन मुट्ठी भर मनुष्यों की पुष्पांजली के लिए सोच्चार नहीं बन गया था गणमाध्यम या विदेशी प्रथा के अनुसार श्रद्धांजली देने के लिए उनको पुरे एक सप्ताह तक बर्फ की शैया पर लिटा कर भी, उनको नहीं रखा गया था.समग्र भारतवासियों ने उस दिन उनको आन्तरिक अश्रु-जलान्जली दे कर उनको अन्तिम विदाई दी थी.
उनके पूतपवित्र  नश्वर शरीर को पवित्र भारतीय-पद्धति के अनुसार पंचभूतों में विलीन कर दिया गया था. क्योंकि भारत को प्यार करते करते, वे भारतमयी जो बन गयीं थीं. ' भारतवर्ष ' - नाम ही उनका जपम्न्त्र था, भारत-आत्मा के साथ घुलमिल कर वे एकाकार हो गयीं थीं. इसलिए प्रत्यक्ष-दर्शी रवीन्द्रनाथ कहते थे
 - " स्वयं को संपूर्णतः निवेदित कर देने की जो आश्चर्य जनक क्षमता, जैसी निवेदिता में थी, वह मैंने अन्य किसी और मनुष्य में कभी नहीं देखा है...उनका शरीर, उनकी आशैशव यूरोपीय आदतें, उनके अपने नाते-रिश्ते की स्नेह-ममता, स्वजातीय समाज की उपेक्षा, एवं जिनके लिए उन्होंने अपना प्राण-समर्पित कर दिया था, उनकी उदासीनता, दुर्बलता और त्यागस्विकार का आभाव, कोई भी कारण उनको लौट जाने के लिए मजबूर नहीं कर सका. "
 यह बात ठीक है कि भारतवासियों से निवेदिता ने कोई भी वस्तु पाने की ईच्छा कभी नहीं की थी; किन्तु भारतवासियों ने उनके प्रति, सौजन्यतावश ही सही थोड़ी सी कृतज्ञता भी प्रकट नहीं की थी. बल्कि उनकी स्मृति के प्रति भी अवमानना की गयी है, इस तथ्य को स्वामी अभेदानन्दजी के एक प्रतिवेदन में इस प्रकार व्यक्त किया गया है- 
" अमेरिका से अपने ऊपर सौंपे कार्य को समाप्त करने के बाद मैं १९२१ ई० में भारत लौटा, एवं १९२५ ई० में ' रामकृष्ण वेदान्त आश्रम ' की स्थापना दार्जलिंग में की. उस समय मेरे मन में विचार उठा, अब से १४ वर्ष पूर्व निवेदिता का नश्वर शरीर भी तो दार्जलिंग में ही भष्मी-भूत हुआ था. किन्तु उनकी चिता-भष्म के उपर कोई स्मरण-चिन्ह निर्माण करने की बात किसी ने भी नहीं सोचा !
भारत के बलिवेदी पर जिसने इस प्रकार अपने को निवेदित कर अपने गुरु द्वारा प्रदत्त नाम- ' निवेदिता ' को जिसने सार्थक कर के दिखा दिया, उनकी स्मृति के प्रति ऐसी अवहेलना से मैं अत्यन्त व्यथित हो गया. तब मैंने अपनी निजी धन से ' रामकृष्ण वेदान्त आश्रम ' की ओर से एक ' स्मृति-मन्दिर ' का निर्माण कराया. 
एक संगमरमर के पत्थर पर उनके सम्बन्ध में सिर्फ एक ही वाक्यलिखवाया था -
  " Who gave her all to India " 
क्या सचमुच यही उनका वास्तविक परिचय नहीं है? "   ' भगिनी निवेदिता '  का सच्चा परिचय अभेदानन्दजी के आखों के समक्ष कौंध गया था, जिसको उन्होंने एक ही वाक्य में व्यक्त कर दिया है. जिन्होंने अपने को भारतमाता की बलिवेदी पर अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया, भारत-कल्याण के लिए जिसने अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया था, उसी महाप्राण का नाम है- निवेदिता.
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' সংবাদ প্রতিদিন ' ২৮ অক্টোবর ২০০৪, ভগিনী নিবেদিতার জন্মজ্যান্তি উপলক্ষে প্রকাশিত বিশেষ সম্পাদকীয় নিবন্ধ .
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