मंगलवार, 11 जनवरी 2011

शिक्षा की परिभाषा

जहाँ तक आंकड़ों का प्रश्न है, आज के भारत में साक्षरता का प्रतिशत बढ़ा है. किन्तु समाज में नैतिक मूल्यों की कमी आ रही है. जो भ्रष्टाचार का बोलबाला दिखाई दे रहा है, सर्वत्र स्वार्थ का जो नग्न नृत्य दिखाई देता है, उसे देखकर सहज प्रश्न उठता है, क्या हमारा ' सर्व शिक्षा का अभियान ' सही दिशा में जा रहा है? क्या स्वामी विवेकानन्द के परामर्श पर अमल करते हुए देश की शिक्षा नीति का नाम और लक्ष्य- " सर्व  मनुष्य निर्माणकारी शिक्षा का अभियान " नहीं होना चाहिये? 
स्वामीजी ने कहा है- ' एजुकेशन इज मैनिफेस्टेशन ऑफ़ परफेक्शन आलरेडी इन मैन." शिक्षा मनुष्य के भीतर निहित पूर्णता का विकास है.' स्वामीजी पुनः कहते हैं, ' शिक्षा क्या है? क्या वह किताबी ज्ञान है ? - तो क्या वह बहुमुखी ज्ञान है ? -वह भी नहीं. शिक्षा वास्तव में एक ऐसा प्रशिक्षण है, जिसके द्वारा ईच्छा-शक्ति की अभिव्यक्ति और उसकी प्रवृत्ति को विवेक-सम्पन्न बुद्धि के नियन्त्रण में लाकर लाभदायक संकल्प में परिणत कर लिया जाता है. '
'What is education? Is it book-learning ? Is it diverse knowledge? Not even that. The training by which the current and expression of will are brought under control and become fruitful is called education. ' (4:490)
स्वामीजी ने एक बात और कही थी, जिसके बड़े दूरगामी मनोवैज्ञानिक अर्थ हैं. उन्होंने कहा कि शिक्षा दी नहीं जा सकती.जानने की प्रक्रिया द्वारा मनुष्य कोई कोई नई चीज नहीं जानता, बल्कि वह आविष्कार करता है. सारा ज्ञान मनुष्य के भीतर निहित है, अध्यापक, पुस्तक, और विषय की साहायता से वह उस ज्ञान को अपने भीतर अनुभव कर पाता है. अर्थात शिक्षा य़ा शिक्षण पद्धति एक सहायक-उद्दीपक मात्र है, अनुकूल वातावरण दिये जाने पर व्यक्ति अपने भीतर के ज्ञान को आविष्कृत कर लेता है, तो इससे यह सिद्ध हो जाता है कि शिक्षा एक आन्तरिक प्रक्रिया है. शिक्षा का भारतीय आदर्श मन के ऊपर ऐसा नियन्त्रण प्राप्त करना है, जिससे हम उसे जब और जहाँ चाहें ठीक वहीं लगा सकें और ईच्छा मात्र से वहाँ से अनासक्त होकर, उस विषय से खींच कर अन्य किसी प्रयोजनीय विषय में लगा देने में भी समर्थ हों. स्वामीजी कहते हैं- " Knowledge is inherent in man; no knowledge comes from outside; it is all inside... We say Newton discovered gravitation. Was it sitting anywhere in a corner waiting for him ? It was in his own mind; the time came and he found it out. All knowledge that the world has ever received comes from the mind; the infinite library of the universe is in your own mind. The external world is simply the suggestion, the occasion, which sets you to study your own mind."  (1.28)  
मानव सभ्यता के इतिहास में हम जो भी प्रगति देखते हैं, वह सब मन कि शक्ति के प्रयोग द्वारा ही संभव हुआ है. यदि हम अपने दैनिन्दन जीवन की छोटी छोटी घटनाओं पर भी विचार करें तो हम जान सकते हैं कि बिना मन की सहायता के हम देख य़ा सुन भी नहीं सकते हैं. हम सभी लोगों का यह अनुभव है कि हमारा मन और कहीं लगा हो और सामने से कोई व्यक्ति चला जाये तो हम उसे देख नहीं पाते हैं. ईश्वरचंद्र विद्यासागर की आँखे खुली थी, सामने से बारात-पार्टी गुजर गया पर चुकी उस समय उनका मन पढ़ाई करने में तल्लीन था, इसीलिये वे देख नहीं सके कि बारात किस तरफ मुड़ा है.  
आँखें - यह खिड़की है, दर्शन इन्द्रिय (optic -nerve ) मस्तिष्क में स्थित गोलक हैं, उके साथ चूँकि मन संयुक्त नहीं था इसीलिये वे नहीं देख सके थे. उसी तरह कान भी खुला हुआ हो पर हम अनमनस्क रहें, अर्थात मन मस्तिष्क में स्थित श्रवण-इन्द्रिय से संयुक्त न हो तो हम सुन भी नहीं पाते है.
पढ़ाई करते समय किताब सामने है, आँखें भी खुली हैं पर मन यदि क्रिकेट के मैदान में चला गया तो हम कुछ पढ़ नहीं पाते हैं.पढने का वास्तविक साधन केवल ये आँखे नहीं हैं, बल्कि मस्तिष्क में स्थित दर्शन-इन्द्रियाँ और मन इन तीनों को हम किसी ज्ञातव्य विषय पर जितना अधिक एकाग्र राख सकेंगे, हमे उसी परिमाण में अधिक सफलता प्राप्त होगी.  
आज हमारी प्रचलित शिक्षण पद्धति में पढने के आन्तरिक साधन मन को एकाग्र करने का प्रशिक्षण देने की कोई व्यवस्था व्यक्ति नहीं है. हमलोग शैक्षणिक डिग्रियों को गाउन पहन कर ग्रहण करते हैं, फिर उसे गाउन की तरह ही उतार कर दीवाल पर टांग देते हैं. यह शिक्षा हमारे भीतर नहीं घटती है, उसको आत्मसात कर के हम इसे अपने स्वरुप का हिस्सा नहीं बनाते. यह केवल तथ्यों को रट लेने जानकारियों को संग्रहित कर लेने के स्तर पर आकर रुक जाती है. इसीलिये इसके द्वारा व्यक्ति के चरित्र में कोई गुणात्मक परिवर्तन नहीं हो पाता. गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही' कहते हैं -

जो भरा नहीं है भावों से, बहती जिसमें रसधार नहीं;
 वह हृदय नहीं है पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं 

 स्वामीजी कहते हैं- "  जिस शिक्षा से हम अपना जीवन-गठन कर सकें, मनुष्य बन सकें, चरित्र-निर्माण कर सकें और भावों को आत्मसात कर सकें, वही वास्तव में शिक्षा कहलाने योग्य है. यदि तुम पाँच ही भावों को हजम कर तदनुसार जीवन और चरित्र गठित कर सके हो तो तुम्हारी शिक्षा उस आदमी की अपेक्षा बहुत अधिक है, जिसने एक पूरी लाइब्रेरी ही कंठस्त कर ली है."  
किसी भी मनुष्य में तीन प्रमुख अवयव होते हैं- शरीर, मन और ह्रदय य़ा आत्मा. मनुष्य का अस्तित्व इन्हीं तीनों पर निर्भर रहता है. यह शरीर पञ्चभूतों से य़ा स्थूल पधार्थों से बना है, मन अति सूक्ष्म है, आत्मा उससे भी ज्यादा सूक्ष्मतर है. इसीलिये स्वामी विवेकानन्द मन को आत्मा का दिव्य चक्षू य़ा आत्मा का यन्त्र भी कहते हैं. अर्थात आत्मा मन का प्रभु है, मन का स्वामी है. मन आत्मा का Instrument य़ा यन्त्र जैसा है. मन में असीम शक्ति है, इसकी सहायता से हम किसी भी विषय का ज्ञान अर्जित कर जीवन में सफलता प्राप्त कर सकते हैं.
मन को एकाग्र कर के इससे भी श्रेष्ठ उपलब्धि प्राप्त हो सकती है, हम लोग सत्य-द्रष्टा य़ा ऋषि बनकर मानव जाती के सच्चे नेता भी बन सकते हैं, किन्तु हममे से अधिकांश मनुष्य इस चरम लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर पाते हैं.  कारण यह है कि, मन स्वाभाविक रूप से ही अत्यन्त चंचल है, १ सेकंड के लिये भी एक जगह पर नहीं टिकता है, अभी हमलोग यहाँ बैठे हैं, आँखे खुली हैं, कान खुले हैं, पर मन घर चला गया. अभी यहाँ कितना ठंढा है, घर में होते तो कितना अच्छा होता, य़ा घर में अभी माँ क्या नास्ता बना रही होगी, आदि आदि बातों में मन दौड़ता रहता है. इस प्रकार यदि हमारा मन एकाग्र न हो, हर समय विभिन्न विषयों में बिखरा रहता हो- तो हम मन की शक्ति को समझ नहीं पाते हैं. मन हमेशा इन्द्रिय विषयों में बिखरा रहता है, इसीलिये इसकी असीम शक्ति को अपनी इच्छानुसार किसी विषय में लगा कर उसका ज्ञान अर्जित करने में असफल रह जाते हैं. 
हम जानते हैं कि सूर्य में प्रचण्ड ताप है, यदि सारे दिन कोई व्यक्ति धूप में खड़ा रहे तो उसका शरीर उत्तप्त जरुर हो जायेगा, किन्तु जल कर राख तो नहीं हो जायेगा. इतना तो कोई अनपढ़ व्यक्ति भी जानता है कि सूर्य में ताप है, जिसके कारण खाली पैर चलने से पैर में जलन होने लगती है.परन्तु सौर ऊर्जा की शक्ति केवल उतनी ही नहीं है.यदि एक convex lens को कागज पर रख कर सूर्य की किरणों को केन्द्रीभूत किया जाय तो वे जिस बिन्दु पर focused रहती हैं, उस बिन्दु पर कागज पहले काला होने लगता है, फिर उसमे से धुआं उठने लगता है, फिर उस कागज में आग पकड़ लेता है, कागज जल कर राख हो जाता है. 
कागज को जलाने की शक्ति उस लेंस में नहीं है, उस कागज को जलाने में उसकी एक भूमिका जरुर है, किन्तु वह आग उस लेंस में नहीं थी, लेंस को कागज पर रखने से कागज को कुछ नहीं होगा. पर लेन्स को धूप में रख कर focus करने से उसकी ऊष्मा concentrate होकर कागज को भी जला देती है.  
आजकल तो सौर ऊर्जा को नियन्त्रित करके उससे चूल्हा,लैम्प, बैटरी, वाटर हीटर आदि का उपयोग भी हो रहा है.हमलोग जानते हैं कि atomic power, petroleum power, coal power आदि का स्टॉक लिमिटेड है. जिस रफ़्तार से पेट्रोल-डीजल कि खपत बढती जा रही है, भविष्य में कुछ दशकों के बाद ही उसका reserve समाप्त हो जायेगा, तो क्या हमें कल-कारखाने बन्द करने होंगे ? मोटर-गाड़ी, रेल, हवाई जहाज आदि चलने बन्द हो जायेंगे?
नहीं, वैज्ञानिक लोग कहते हैं यदि हमलोग सौर ऊर्जा को प्रयोग करने कि विधि को और विकसित करें तो इसका उपयोग हम हर जगह में कर सकते हैं. अभी इसी दिशा में शोध कार्य चल भी रहा है. आज ही १३ जनवरी २०११ के समाचार पत्र के अनुसार आस्ट्रेलिया में एक सौर ऊर्जा से चलने वाली कार का भी आविष्कार हुआ है जो ८८ की.मी. प्रति घंटे की रफ़्तार से चल सकती है. सौर ऊर्जा के अक्षय भण्डार की तरह ही हमलोगों के मन में भी असीम शक्ति है, उसको संयमित और एकाग्र रखने से सबकुछ प्राप्त किया जा सकता है. 
किन्तु वह अत्यन्त चंचल है. वह अत्यन्त द्रुत गति सदा दौड़ता रहता है, इसीलिये हम अभी मन की शक्ति का पूरा उपयोग नहीं कर पा रहे हैं. जो छात्र अपने प्रयास द्वारा, अपने मन को जितना अधिक एकाग्र रख पाता है, वह दूसरों की अपेक्षा उतनी ही अधिक मात्रा में ज्ञान भी अर्जित कर सकता है. अतः इस चंचल मन को अपनी प्रयोजनीयता के अनुसार किसी ज्ञातव्य विषय पर एकाग्र करने और इच्छामात्र से हटा लेने का कौशल अवश्य सीख लेना होगा.
यह मन स्वाभाविक रूप से जितना चंचल होता है, उतना ही रहता तो, उसे आसानी से संयमित और एकाग्र किया जा सकता था. किन्तु मन में रहने वाले षडरिपू- काम, क्रोध, लोभ,मोह,मत्सर और अहंकार आदि के कारण उसकी चंचलता कई गुणा अधिक बढ़ जाती है. कामना-वासना ( मन में उठते रहने वाले Desires), लोभ, और अहंकार, ईर्ष्या आदि विकार मन को अत्यन्त चंचल बना देते हैं, जिसके कारण यह हर समय बेचैन बना रहता है, एकाग्र होना ही नहीं चाहता.
अतः यदि हम मन को एकाग्र करना चाहते हों तो सबसे पहले इन षड-रिपुओं को ही परास्त करना होगा. स्वामी विवेकानन्द मन की तुलना एक बन्दर से किये हैं, वह हर समय चंचल रहता है, हाथ पैर हिलाता रहता है, कभी एक जगह पर बैठता नहीं है, आँख भी पिट-पिट करता रहता है. वैसा चंचल बन्दर यदि शराब पी ले तो क्या होगा? और भी ज्यादा चंचल हो जायेगा. फिर उस बन्दर को कोई बिच्छू डंक मार दे तब तो वह और भी ज्यादा उछलने-कूदने लगेगा. अब यदि उस बन्दर पर एक भूत भी सवार हो जाये, तब उस बन्दर की हालत कैसी होगी ? उस बन्दर के चंचलता की कोई सीमा नहीं होगी.
अभी हमलोगों के मन की अवस्था ठीक उसी मदमस्त बन्दर जैसी है. हमलोगों ने भी कामना- वासना रूपी मदिरा का पान कर लिया है. भले ही हमने कभी शराब को छुआ भी नहीं हो, किन्तु मन में अत्यधिक भोग प्राप्त करने के लिये जो लोभ रूपी मदिरा मन में है उसी मदिरा ने मन को और अधिक मतवाला बना दिया है. जीवन में संतोष बिल्कुल नहीं है, लोभ इतना बढ़ गया है कि सबकुछ रहने पर भी - और चाहिये, और अधिक भोग मिलना चाहिये, की रट लगी ही रहती है. जीवन की आवश्यकताओं को तो पूरा किया जा सकता है, किन्तु संतोष नहीं रहने से लोभ जब तृष्णा बन जाता है, तो उसकी पूर्ति नहीं की जा सकती है. फिर ईर्ष्या का बिच्छू डंक मारने लगता है. किसी दूसरे को अपने से आगे बढ़ता देख कर मन में हिंसा, जलन होने लगता है. पर-निन्दा, पर-चर्चा करने से मन में ईर्ष्या का बीज पड़ जाता है, जिसके दंशन से मन हमेशा छट-पट करता रहता है. अब जो आगे बढ़ गया उसको किसी भी तरह नीचे करके ही दम लूँगा- ऐसा अहंकार रूपी भूत भी सवार हो जाता है. इसीलिये मन अतरिक्त चंचल बना रहता है. ऐसे बिल्कुल चंचल मन को कैसे शान्त कर पायेंगे ? 
इसके लिये तो पहले कामना-वासना, लोभ, अहंकार, ईर्ष्या आदि मन के विकारों पर विजय प्राप्त करना होगा. इन शत्रुओं को पराजित करने का उपाय है- लालच को कम करते हुए नित्य अभ्यास करना. इसी कौशल को सीख लेना होगा. 
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