बुधवार, 4 अगस्त 2010

[43] " इस युवा-संगठन के आविर्भूत होने की पृष्ठभूमि ! "

...उन दिनों (1967 के आस-पास ) भारत के कई प्रान्तों में, विशेष रूप से कलकत्ते में युवा वर्ग (Youth) के बीच एक विशेष प्रकार का अस्थैर्य (Unrest) दिखाई देने लगा था, मानो उनके मन को भीतर ही भीतर कोई चीज उद्वेलित कर रही हो- इस प्रकार के लक्षण दिखायी देने लगे थे। वे अब किसी की भी बात मान लेने को तैयार नहीं थे, कुछ भी सुनना नहीं चाहते थे। 
[महामण्डल की स्थापना 1947 में भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के बीस साल बाद वर्ष 1967 में हुई थी। और  लगभग उसी समय भारत के पूर्वी भाग (नक्सलबाड़ी) में एक " कृषक आंदोलन " (Agrarian Movement) भी  हुआ था।  जिसके बाद पश्चिम बंगाल, कुछ अन्य पूर्वी राज्यों (बिहार -उड़ीसा)  तथा दक्षिणी भारत के कुछ हिस्सों - विशेष रूप से आंध्र प्रदेश का उच्च शिक्षित युवावर्ग, खुद को ठगा हुआ और दिशाहीन महसूस करने लगा था। और हड़बड़ी में पहले अपने चरित्र-निर्माण और जीवनगठन का कार्य शुरू किये बिना ही, व्यवस्था-परिवर्तन के लिये उतावला हो रहा था। जिसके फलस्वरूप कई शिक्षित युवाओं का जीवन भी नष्ट होने के कागार पर पहुँच गया था।]
..... अद्वैत आश्रम से पार्क-सर्कस तक जयराम महाराज ( स्वामी स्मरणानन्द, रामकृष्ण मिशन के वर्तमान अध्यक्ष)   एवं स्वामी अनन्यानन्द जी (गोविन्द महाराज) के साथ भ्रमण करने के क्रम में एक दिन अनन्यानन्द जी कहने लगे कि, " एक दिन एक लड़का मेरी ओर इशारा करके ; मेरी खिल्ली उड़ाते हुए कह रहा था- " बहुत खाता है न, इसीलिये ऐसा हो गया है !"  चलते चलते महाराज (स्वामी अनन्यानन्दजी ) कह रहे थे -  "उस लड़के की बातों को सुन कर मेरे मन में विचार उठा, आज के युवाओं को यह क्या होता जा रहा है ? यह अच्छी बात नहीं हो रही है। युवाओं के बीच ऐसा कोई कार्य-क्रम अवश्य चलाना चाहिये जिससे उनमे आत्मश्रद्धा बढ़े। "   
उसके बाद उन दोनों ( स्वामी स्मरणानन्द जी एवं स्वामी अनन्यानन्द जी ) के बीच आपस में क्या बातें हुई होंगी इसकी मुझे कोई जानकारी नहीं है। किन्तु बाद में एक दिन मुझ से उन्होंने कहा-" देखून नवनीबाबू, आमादेर  भक्तरा अनेकेई बलेन जे, आपनारा अनेक किछू करेछेन,किन्तु युवकदेर जोन्य  आपनारा किछू करछेन ना केनो  ? एई जे युवकरा विपथे चले जाच्छे, केमन हये जाच्छे, तादेर मध्ये कोन श्रृंखला बोध तो नेई-ई, कोन रकम एकटा नरम भावउ किछू नेई, सबई जेन भेंगेचूरे किछू एकटा करबे एरकम एकटा भाव, अस्थैर्य, एदेर जन्ये एकटा किछू हउआ दरकार ! " 
  " - देखिये नवनीबाबू, कई भक्त के मुख से हमलोग यह सुनते हैं कि, आप लोग बहुत से (समाजोपयोगी ) कार्यक्रम चलाते हैं, किन्तु युवाओं के लिये आपलोग क्यों कुछ नहीं कर रहे हैं ? ये जो युवकगण कुमार्ग पर चले जा रहे हैं, अजीब ढंग के होते जा रहे हैं, उन लोगों के भीतर किसी प्रकार का अनुशासन तो नहीं ही है, उनके व्यवहार में कहीं से थोड़ी सी विनम्रता भी नहीं झलकती- मालूम पड़ता है जैसे वे हड़बड़ी में (अपने चरित्र का गठन किये बिना ही) सब कुछ तोड़-फोड़ कर कुछ करना चाहते हैं, इन लोगों के लिये कुछ होना आवश्यक है!
तुरन्त फिर वे दोनों सम्मिलित रूप से कहने लगे, किन्तु यह कार्य रामकृष्ण मिशन के सन्यासियों के द्वारा  भी होने वाला नहीं है ! क्योंकि संन्यासी लोग युवाओं के बीच जैसे ही - 'मन को वशीभूत करने के लिये विवेक-प्रयोग ' आदि शैक्षणिक विषयों पर चर्चा करना प्रारम्भ करेंगे कि उनके (मुण्डित मस्तक आदि को देखकर) सामान्य युवाओं के मन में हमलोगों द्वारा बचपन में सुनी हुई " दो छोटे भाई और गणित ट्यूटर "  की कहानी के समान- पहले से ही कुछ शंकायें उठने लगेंगी !
उस बालकथा के अनुसार दो छोटे भाइयों को घर पर ही ट्यूशन देने के लिये एक मास्टर-साहेब आये थे। बारामदे में अपने स्थान पर बैठने के बाद  छत की ओर इशारा करते हुए बच्चों से पूछते हैं, " अच्छा , बताओ तो बच्चों बरामदे के छत में कितने बीम हैं, और कितनी सिल्लियाँ लगी हैं ?) एक भाई (दोनों भाई एक ही कक्षा में पढ़ते थे ) अपने दूसरे भाई को कुहनी मारते हुए कहता है- " अरे भैया, कुछ समझ रहे हो ? ये मास्टर साहेब तो हमें गणित सिखायेंगे रे!" 
बचपन में यह किस्सा सुना था। उसी प्रकार युवाओं के मन में भी शंका होगी कि, पता नहीं इन लोगों असली उद्देश्य क्या है ? सन्यासियों के पास जाने से ही वे लोग हमलोगों को भी सन्यासी बना देंगे य़ा अन्य कुछ बना देंगे। अतः युवा लोग संन्यासियों द्वारा आयोजित किसी शैक्षणिक कार्यक्रम में सम्मिलित ही नहीं होना चाहेंगे।  इसलिए यह कार्य सन्यासियों के माध्यम से नहीं हो सकता है। संन्यासी नहीं, बल्कि गृही-संसारी होकर भी देशभक्त तथा अनुशासित जीवन जीने वाले  कुछ चुने हुए युवा  यदि सामने आयें,  और इस कार्य को करने का बीड़ा स्वयं उठा लें- तब उसका कुछ फल हो सकता है। यही है इस युवा-संगठन के आविर्भूत होने की पृष्ठभूमि !  
      आपस में निर्णय लिया गया कि,  विभिन्न स्थानों में ठाकुर-स्वामीजी के भाव ( रामकृष्ण- विवेकानन्द भावधारा ) के उपर विभिन्न स्थानों में कई छोटे छोटे संगठन जो कार्य कर रहे हैं, और उनमे से जो लोग यहाँ (अद्वैत आश्रम में ) आना-जाना  करते हैं उनमे से कुछ व्यक्तियों को बुला कर अद्वैत आश्रम में एक मीटिंग किया जाय, और उस बैठक में यह विचार किया जाय कि युवाओं को साथ में लेकर क्या कुछ किया जा सकता है ?
उस प्रथम बैठक में कितने लोग आये थे, मुझे ठीक से याद नहीं है; फिर भी अगर बहुत होंगे तो बारह-चौदह व्यक्ति से अधिक नहीं रहे होंगे।  वे लोग आये आपस में विचार-विमर्श हुआ, बैठक में मैंने भी अपना मन्तव्य रखा.वे सभी लोग मेरे लिये अपरिचित थे और मैं भी उनके लिये अपरिचित था.उनमे से कोई भी व्यक्ति मुझको नहीं पहचानते थे. वे लोग बोले आपने अभी जो कहा वह तो बड़ी अच्छी बात है. एक इससे भी बड़ी बैठक बुलवाई जाये. और उस आगामी मीटिंग को आहूत करने के लिये वे लोग बोले, " हमलोग आपको ही कन्वेनर बनाते हैं | " ( उसी " पहली- बैठक " के बाद क्या स्वामीजी ने आपको पकड़ा था ? वहाँ पर बैठक वाले कमरे में स्वामीजी का कौन सा चित्र लगा हुआ था ?) 
कन्वेनर बनकर फिर से एक नोटिस देकर पुनः कुछ और लोगों को दूसरी बैठक में  बुलाया गया. दुबारा एक मीटिंग हुई, उसमे भी कितने लोग उपस्थित थे मुझे ठीक से याद नहीं किन्तु शायद पच्चीस- तिस लोग रहे होंगे. उस दिन की बैठक के बाद यह तय किया गया कि एक " युवा-संगठन " को स्थापित किया जायेगा !
जिस प्रकार स्वामीजी की भावधारा के निर्मित होने के पीछे ठाकुर हैं (श्रीरामकृष्ण के द्वारा दक्षिणेश्वर में दी गयी शिक्षा है), माँ हैं ( माँ सारदा देवी की प्रेरणा और हिम्मत बढ़ाने की कृपा है ) ठीक उन्ही भावों की बुनियाद पर, युवाओं का जीवन-गठन करना अनिवार्य है- और इसी कार्य को पुरा करने के लिये यह संस्था गठित की जाएगी ! उस संस्था का नाम क्या होगा ? यही प्रश्न जब मुझ से पूछा गया तो मैंने कहा, ' देखिये नाम के विषय में मुझे ज्यादा कुछ कहना नहीं है कि 'यह नाम' रखना होगा य़ा 'वह नाम' रखना होगा- "गोलाप जे नामे डाको, गन्ध वितरे ! " ~ अर्थात गुलाब को चाहे किसी भी नाम से पुकारो, वह तो सुगंध ही विखेरता है ! 
फिर भी, मेरा केवल यही कहना है कि, इस संघ के नाम में ' विवेकानन्द ' नाम  एवं ' युवा संस्था ' यह दोनों रहना आवश्यक है; अर्थात ' विवेकानन्द युवा ' - इतना रहना आवश्यक है. एक व्यक्ति ने कहा यदि इसको ' महामण्डल ' कहा जाय ? मैंने कहा, कहिये. उसके बाद चर्चा होने लगी कि इस संस्था की ' परिधि ' - कहाँ तक होगी ? यह संस्था कितने प्रान्तों में कार्य करेगी ? मैंने कहा कि, " देखून जदि एई काज करते हय, एकटा बड़ काजेई हात दिते जाउया हछे बले मने हय- एटा एकटा शुधू कलकाता वा शुधू पश्चिमबंगे करले फल हबे ना ! एटा सारा भारतवर्षे हउय़ा दरकार ! " 
 - देखिये, यदि हमलोग सचमुच ही इस कार्य को पुरा करने का बीड़ा उठा रहे हैं, तब तो मुझे यही अनुभव होता है कि, हमलोग किसी बहुत बड़े ( महान ) कार्य में हाथ डालने जा रहे हैं, अतः इस संस्था को केवल कलकाता य़ा केवल पश्चमी बंगाल तक ही सीमित कर देने से कोई विशेष फल नहीं होगा, इस कार्य को सम्पूर्ण भारतवर्ष में फैला देना आवश्यक है ! "   तब सबों ने कहा कि ' अखिल भारत ' रखा जाय. मैंने कहा रखिये। इसी लिये बहुत बड़ा नाम रखा गया- " अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल " नाम के पीछे का इतिहास इतना ही है.
        उसके बाद चर्चा होने लगी महामण्डल की कार्यकारिणी समिति में किन -किन लोगों को रखा जाये? अमुक को लेने से कैसा होगा , उनको लेने से कैसा रहेगा आदि आदि। जो लोग वहाँ उपस्थित थे सबों को तो मैं पहचानता नहीं था, वे लोग ही कमिटी के सदस्य के लिए नामों का प्रस्ताव दे रहे थे। इसी प्रकार कुछ नामों को प्रस्तावित करके उनलोगों ने कहा, इन- इन लोगों को कमिटी में ले लिया जाय। फिर प्रश्न उठा कि प्रेसिडेन्ट कौन होंगे ? मुझसे राय माँगी गयी कि , प्रेसिडेन्ट  किनको बनाया जाय ? 
         मैंने पूछा , आप लोग किस प्रकार के व्यक्ति को अपना प्रेसिडेन्ट बनाना चाहते हैं ? क्या ऐसे किसी व्यक्ति को संस्था का अध्यक्ष बनाना चाहते हैं -जिसका बड़ा नाम-धाम है ? अथवा किसी ऐसे व्यक्ति को चाहते हैं जो अच्छा परामर्श दे सकते हों और आवश्यक्तानुसार कार्यकारिणी समिति की बैठकों में भी सम्मिलित हो  सकते हों ? बोले, हाँ उसी प्रकार के व्यक्ति को चाहते हैं।  मैंने कहा कलकाता के विख्यात लोगों में से कुछ लोगों- जैसे रमेश मजुमदार महाशय ***, सुनीति कुमार चट्टोपाध्याय  महाशय आदि के साथ मेरा परिचय है।  अन्य कुछ लोग जैसे उस समय के विश्वभारती के उप-आचार्य (Vice -chancellor) कालिदास भट्टाचार्य थे. वे कहीं पर व्याख्यान दे रहे थे, उनके व्याख्यान को सुन कर मैंने कहा, आपका व्याख्यान तो मुझे बहुत ही अच्छा लगा है, किन्तु समूचा भाषण तो याद रह नहीं पायेगा। मुझे आपके व्याख्यान को पढने की इच्छा हो रही है। विश्व - भारती के वाईस चांसलर वे अपने क्लास के लिये जितना लेक्चर लिख कर लाये थे, सम्पूर्ण नोट (प्रबन्ध) को मुझे सौंप दिये- जबकि वे मुझे पहचानते तक नहीं थे. वे बोले, " आप इसको पढने के बाद, इस नोट को डाक से भिजवा दीजियेगा। "  फिर मैंने उसे पढ़ लेने के बाद डाक से भेज दिया. इसी प्रकार से, उस तरह के कई प्रसिद्ध व्यक्तियों के साथ मेरा परिचय था। 
जिस प्रकार रमेश मजुमदार महाशय के साथ- जितना परिचय था उसी के आधार पर ' महामण्डल ' गठित हो जाने के बाद जब स्वामीजी के जन्मदिवश के उपलक्ष्य में एक शोभा-यात्रा (जुलुस) की समाप्ति के बाद सभा को आयोजित करने की बात उठी, तब किसी ने कहा, उस अवसर पर कौन से विशिष्ठ व्यक्ति लेक्चर देंगे ? तब दो-चार लोगों के नाम सामने आये. परन्तु बहुत से लोगों को वे नाम जँचे नहीं. तब मैंने कहा, क्या रमेश मजुमदार महाशय यदि व्याख्यान दें तो ठीक होगा ? सभी खुश हो गये- अरे अरे रमेश मजुमदार महाशय के बोलने से नहीं होगा ? ठीक है, तो मैं उनको कहूँगा. 
वे आयेंगे क्या ?  
मैंने कहा, मैं उम्मीद रखता हूँ कि उनको अनुरोध करने से वे आयेंगे. रमेश मजुमदार महाशय को एक फोन किया।  उधर से बोले, ' नवनी, क्या समाचार ? 'मैंने बताया, हमलोगों का स्वामी विवेकानन्द के नाम पर युवाओं के लिये  इस प्रकार का एक संघ स्थापित किया है, हमलोग मैदान ( कलकाता का मयदान - धरम-तल्ला) में स्वामीजी का जन्मदिन मनाना चाहते हैं, वहाँ पर एक सभा होगी; क्या आप उस सभा में बोलने के लिये आयेंगे ?" हाँ, निश्चय ही आऊंगा ! कब होने वाला है ? " मैंने तारीख बतला दिया। उन्होंने फिर पूछा - " मयदान में कहाँ पर होगा ?  मैंने कहा ठीक मनुमेंट के नीचे।  तो फिर आपको लाने के लिये मैं किसी को भेज दूंगा. वे बोले, ' नहीं, नहीं, किसीको भेजने की जरुरत नहीं है, ठीक मनुमेंट के नीचे  ही तो ?  मैं खुद वहाँ पहुँच जाऊंगा! '  वे स्वयम वहाँ आये और व्याख्यान देकर चले गये- इसी तरह का परिचय था। किन्तु मैदान ( धरमतल्ला मैदान ) में स्वामीजी का जन्मदिन आयोजित करने का अनोखा विचार (हसरत, अरमान) पहले पहल स्वामी रंगनाथानान्दजी के मन में आया था। 
एक दिन उन्होंने मुझसे कहा- " Nabani, bring Swami Vivekananda to maidan ! "  वहाँ पर केवल राजनीतिक मीटिंग होते हुए ही लोगों ने देखा है, तुम वहाँ पर स्वामीजी को ले आओ ! 
    वहाँ उपस्थित जनसमुदाय के बीच स्वामीजी की वाणी को सुनाओ ! तब से शुरू होकर आज तक, कितने ही वर्ष बीत चुके हैं- वह ' आम-सभा ' जिसमे उपस्थित व्यक्ति सचमुच लाभ उठा सकते हैं, वहाँ होता चला आ रहा है।  किन्तु हाल-फ़िलहाल में, एक-दो वर्षों से, वह सभा धरमतल्ला में न होकर हेदुआ में ( स्वामीजी के घर के निकट ) आयोजित होती है।
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Interview with R.C. Majumdar: 
The history may repeat itself but great historians like Dr. R.C. Mazumdar are rarely born again. Just before he passed away in 1980, I met with him at his residence in Calcutta. Excerpts from the interview.-- Jyotsna Kamat : (Interview conducted on  April 29, 1979/Article First Published: May 1980 in Mallige Monthly.This Web Page Last Updated: June 15,2010)
Ramesh Chandra Majumdar was born in 1888 in East Bengal (present day Bangladesh) in the village of Khandarapara of Faridapur District. His talent knew no bounds, like the Padma (Podda) river that flows there. The story of this famous historian is also interesting. In East Bengal, there are rivers, lakes, and streams everywhere, and children grow up with water. In Majumdar's house, even to go from one room to another, he had to walk in ankleful of water! When it poured, the whole house was flooded. When he was an infant, one day he was about to be swept away in the floods in the night. "Somehow my aunt was woken up, and I am alive today to tell you my story." -- He laughed.

Childhood Memoirs

"In those days, there were neither buses nor trains; there were not even the roads. So learning swimming was inevitable. No need for fuel, no need to stand in the line (in 1980 when this interview was held, there was fuel shortage in India and it was common to stand in a queue for hours to purchase kerosene or petrol), just jump into the water and swim to the destination! When we went to school we used to make rafts from the banana tree stamps or hollow palm logs to stay dry. There were palm leaves to write upon, but in my school, we preferred banana leaves as they were available in plenty. We used sharp bamboo sticks to write on them. There were no girls in my class. Probably helping boys to focus on learning." He winked and laughed.

R.C. Majumdar 1888 - 1980
"The girls were married when very young. It was believed that an educated woman is bad for husband's longevity and education was not offered to them. (see also: Women of India section at this site) They taught us using textbooks written by Ishwar Chandra Vidyasagar. When I graduated after learning in Dhaka and Calcutta,Vice-Chancellor . 
"I was encouraged by Ashutosh Mukherji to take up graduate studies and was ranked 1st to the university. In those days, the most attractive job was that of a deputy magistrate. I had gotten through the preliminary interviews, but just as I was to leave for the final interview to complete the process, my wife fell ill, and I could not go. My life changed completely because of this. 
I became a teacher instead. I took to research, and got a doctorate. When the University of Dhaka was started in 1921, I became its first professor. Even in those days, they paid me 1000 Rupees of salary a month with servants, house, and a car. Eventually I became the vice-chancellor of the university.
In those days, the teachers and professors earned that position through merit and the students respected them as well as loved them. However, there were problems. It was the time when Gandhi's ideology was taking the country by storm.
During the Saraswati pooja (campus festivities) in the campus, some students and faculty wanted to involve the Harijans (low caste Indians a.k.a. the untouchables). But another student body opposed the move and ambushed me in my office. I patiently waited till their anger subsided, and quietly said  that I was ashamed of my students for opposing such a novel idea.
This did the trick, and the students now wanted to go one step ahead, and wanted to share a meal with the untouchables! I wonder how many educationists wield this type of influence today."

Comprehensive History of India

"Dr. K M Munshi liked my work on ancient Bengal and asked me to work on a comprehensive volume on Indian history. He introduced me to many great scholars. In my seventy years of career that work was to become a great achievement. Dr. Munshi was also a great researcher and historian, and I truly enjoyed working with him.
We did have our differences, but he always let me prevail. Since I could not ignore his opinion, I had to include both view points often contradicting each other, in several places. It took 35 years to complete all the volumes! I was happy that it was completed before Munshiji breathed his last."
"Munshi believed that a government sponsored institution can never document history in a honest manner. I realized this truth in the later years.  
The federal government built an editorial board to document India's freedom struggle with me as the chief editor.
I discovered that other fellow historians were so eager to write history glorifying their friends in politics that I had to get out.
We should not write corrupted history, however bitter the proceedings may be. Many countries have the tradition of changing history as their leaders change. 
We should not let India become one of those. History should be written based on sound proof and reasoning and not focused around famous personalities."
Unambiguous Roots
"As new and more information is becoming available about Indian history, do you think we can expect some changes in what we have believed as our history?"-- I asked pointing to advances in carbon dating technology, satellite imagery and new findings during excavations.
"Indian history is based on strong foundation and I do not think its fundamentals will ever be altered. New information will only confirm what we have believed" -- said he.
"I have been greatly influenced by Ramakrishna Paramahamsa and Swami Vivekananda. I distinctly remember seeing Swami Vivekananda in a public meeting."Two of my best friends became Sanyasis. The first one Madhavanand went on to become the president of the Ramakrishna mission and another, became its vice president. 
When I went to Chicago in 1968, I went to the library where Vivekananda had spoken and retrieved his lectures. They gave me all kinds of cooperation.Even The Chicago Daily Tribune helped me by retrieving their archival microfilms. I do not know when such a day will come in our country where libraries assist the researchers."
Few months after this interview, On February 11, 1980 Dr. R. C. Majumdar passed away. He was 92.  He was great scholar and a genius. His contribution to our nation and Indian history is unparalleled.
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