शनिवार, 31 जुलाई 2010

[41] " कर्तव्य निष्ठा " [अंग्रेजी कविता- 'कॉसाबियांका ' (Casabianca)]

स्वामी विवेकानन्द  की शतवार्षिकी
' रामनाम ' सुनने के लिये वेदान्त मठ जाते रहने से केष्टोदा (महामण्डल के वरिष्ट कर्मी पूजनीय उषादा) के साथ मेरी अच्छी जान-पहचान हो गयी थी।  केष्टोदा ने एक दिन कहा, " जानते हैं, स्वामी रंगनाथानान्दजी ( रामकृष्ण मठ मिशन के १३ वें अध्यक्ष ) दिल्ली से स्थानान्तरित होकर कलकाता के गोलपार्क रामकृष्ण मिशन ईन्सटिटिऊड ऑफ़ कल्चर  में आ गये हैं- और वे बड़े असाधारण वक्ता हैं!"    
मैंने कई लोगों के भाषण सुने हैं, राधाकृष्णन (सर्वपल्ली डाक्टर राधाकृष्णन, भारत के पूर्व राष्ट्रपति ) का भाषण भी सुना है.राधाकृष्णन एवं रंगनाथानान्दजी को एक एक साथ सुना है।  उनके जैसा भाषण अपने पूरे जीवन में कभी नहीं सुना है।  उनदिनों मेरी यह बिल्कुल आदत  बन गयी थी कि, ऑफिस से निकलने के बाद, जो पण्डित-व्यक्ति (विशिष्ट शिक्षाविद य़ा ज्ञानी-ध्यानी व्यक्ति) होते थे उनका भाषण होने से, उनको सुनने के लिये मैं अवश्य ही पहुँच जाता था।     
मेरी आदत यह भी थी कि, भाषण सुनने के लिये मैं अपने साथ एक डायरी और पेन लेकर जाता था, और उनके भाषण में से चुने हुए अंश को लिख लिया करता था।  जब मैंने सुना कि ऐसे एक वक्ता आये हैं, तब तो उनको सुनना ही होगा।  एक दिन गोलपार्क चला गया. वहाँ जाने पर देखता हूँ कि, Hall (सभा-भवन) पूरी तरह से ऊपर-नीचे- श्रोताओं से एकदम भरा हुआ है.वे (स्वामी रंगनाथानन्द) आकार बैठे, बैठने के बाद बोलना प्रारम्भ किये.  उनके चेहरे को देखने से कुछ समझ नहीं सका।  रीढ़ की हड्डी बिल्कुल सीधी रख कर बोलते थे।  शान्तिवाचन " सहनाववतु, सहनौ भुनक्तु ...." कहते हुए प्रारम्भ किये।  उस समय गीता के ऊपर उनका धारावाहिक प्रवचन चल रहा था।  थोड़ा सा सुनते ही देखा, अरे वाः! सचमुच ही तो, ये एक बिल्कुल अनोखे वक्ता हैं !
  इसके पहले मैंने राधाकृष्णन का भाषण सुना था, रमेशचन्द्र मजुमदार, सुनीति कुमार चटोपाध्याय, जवाहरलाल नेहरु का भाषण सुना था, कलकाता के तो अनेकों वक्ताओं को तो न केवल सुना था, बल्कि उनका स्नेह भी प्राप्त किया था. इनसब में राधाकृष्णन एवं जवाहरलाल नेहरु ये दोनों ही व्यक्ति अंग्रेजी में भाषण देने वाले अदभुत वक्ता थे।  उनके अंग्रेजी भाषण को भी सुना था. किन्तु वे जिस तरह बोल रहे थे, वैसा तो कभी सुना नहीं था।  मै तो दंग रह गया, साथ-साथ अपनी डायरी में नोट करने लगा।      
भाषण समाप्त हो जाने पर वे धीरे धीरे स्टेज से नीचे उतरे, कई लोग उनको प्रणाम करने लगे. मैं पीछे जाकर, जहाँ से हो कर वे आश्रम में प्रवेश करते, वहीं पर उनके आने की प्रतीक्षा करने लगा. वे बिल्कुल अकेले थे, मैंने प्रणाम किया।  मेरे सिर को उठाते ही हँसते हुए उन्होंने पूछा- " What is your name ? "  बतला दिया. " Good, where do you stay ? " बता दिया. उन्होंने कहा, " Do come, do come here." कह कर चले गये। 
मैं जाने लगा. एक तरह से रंगनाथानान्दजी के पास प्रतिदिन जाय़ा करता था..एक दिन शाम को उनके पास गया पहुँचा, वे अपने ऑफिस के कमरे में बैठ कर कोई कार्य कर रहे थे, मुझे लगा मानो वे कुछ लिख रहे थे. उनके सामने एक कुर्सी थी, मैं उस पर जाकर बैठ गया. उन्होंने मुँह उठा कर देखा तक नहीं.
वे जो लिख रहे थे उसको लिखते हुए ही बोले- " So; Nabani, what are you going to do now? "
मेरे कुछ कहने के पहले ही कहने लगे- " Certainly you will now choose a subject for a Ph.D ! " तो जैसे वे बोल रहे थे,  उन्ही के टोन में, बल्कि थोड़ा जोर देते हुए ही कहा- " Who told you so ? "     
  वे बोले," No, no, its true you never told me that, but Bengalee boys cannot think of anything else. "  फिर मुझे कुछ कहने का अवसर दिये बिना ही बोले, " I say don't do it, do Swamiji's work."  यह सन १९६५ ई०  की बात है. किन्तु बाद में  किसी किसी को Ph.D, य़ा M.Phil करने करने के लिये कहीं कहीं पर बौद्धिक परामर्श अवश्य देना पड़ा है।  
 दूसरी ओर प्रवचन के बाद, अब वे मुझे भी अपने साथ साधु निवास की ओर ले जाने लगे. उनदिनों वहाँ के दक्षिणी गेट (जो अक्सर बन्द ही रहा करता था) के समीप एक छोटे से दोतल्ला मकान में उपरी तल्ले पर बने कुछ छोटे छोटे कमरों में साधु लोग (सन्यासीगण ) निवास करते थे. 
वहीं एक छोटी सी रसोई और भोजन-कक्ष भी था.जो ब्रह्मचारी वहाँ की सारी व्यवस्था देखते थे, उनके पास मुझे लेजाकर बोले- " He is Nabaniharan, he will often come, take care of him." उसके बाद फिर मैं जब कभी भी वहाँ जाता, तो वे मुझे वहाँ बैठा कर कुछ खाने के लिये देते थे, ऐसा अक्सर होता था। 
 स्वामी रंगनाथानान्दजी के साथ मेरा परिचय क्रमशः प्रगाढ़ होता चला गया. आत्मीयता बहुत बढ़ जाने के बाद, कहना शुरू किये- " Today don't go home stay with us. "  इसके बाद सन्यासियों के साथ मुझे भी उसी आश्रम में ठहरा देना, संध्या के बाद जब कभी साधु-ब्रह्मचारियों के लिये कोई विशेष अनुष्ठान हुआ करता उसमे भी वे मुझको अपने साथ ले जाना, उनके साथ मिलवाना बातचीत करना यह सब भी चलने लगा.
क्रमशः वहाँ के जो तत्कालीन Assistant Secretary थे- स्वामी भाष्यानन्द जी उनके साथ भी परिचय हुआ.उन्ही दिनों स्वामी विवेकानन्द  की शतवार्षिकी मानाने का अवसर उपस्थित हुआ. तब भाष्यानन्दजी मुझको कहे- " Nabani, you have to stay and work here. "  मैंने कहा " हाँ महाराज, आऊंगा, करूँगा. " उन्होंने कहा- " नहीं, तुमको यहीं पर रहना होगा. "  उस समय आयोजन में कुछ ही दिन बाकी रह गये थे. 
अमेरिका से कुछ प्राचीन सन्यासीगण आये, अन्यान्य जगहों से भी सन्यासी लोग आना शुरू किये. बहुत से सन्यासी वहाँ निवास कर रहे थे. मुझको अपने साथ ले जाकर भाष्यानन्दजी ईन्टरनेशनल गेस्ट हॉउस में रहने के लिये एक कमरा ठीक कर दिये. और वहाँ का किचेन और डाइनिंग के जगह का जो व्यवस्थापक लोग थे, उनसे मेरा परिचय करवाते हुए बोले, " यह यहीं रहेगा, रोज सुबह, शाम, रात्रि में जब भी आयेगा, उस समय जो भी खाने का हो दे देना." परिचय करा कर चले गये. मैं वहीं रहने लगा.  
अब वहाँ पर कार्य शुरू हो गया.  पार्क सर्कस मैदान में जहाँ पर प्रधान अनुष्ठान होने वाला था, एक बहुत विशाल पण्डाल का निर्माण किया गया था. मेरी डिउटी वहीं पर लगायी गयी थी.किन्तु कुछ व्याख्यान कल्चर के ईन्सटिचियुट में भी होते थे. जैसे वहाँ पर मैंने स्वामी निखिलानन्दजी का व्याख्यान सुना है.और स्वामी प्रभवानन्द जी इसीलिये उनके साथ प्रति दिन मेरी थोड़ी बहुत बातचीत हो जाया करती थी. निखिलानन्द जी का भाषण सुना हूँ, उनकी लिखी पुस्तकों को पढ़ा हूँ. विशेष रूप में उनके द्वारा लिखित स्वामी विवेकानन्द की जीवनी मुझे बहुत अच्छी लगती है. इसे तो मैंने उनसे मिलने से पहले ही पढ़ लिया था. क्नितु उनको देखने एवं उनकी बातें सुनकर बहुत आनन्द हुआ.
पार्क सर्कस मयदान में निर्मित जिस बहुत बड़े पण्डाल में इतना विशाल कार्यक्रम इतने दिनों तक चलने वाला था; उसके टिकट काउन्टर को सन्चालित करने का दायित्व मुझे दिया गया था. बहुत सारे टिकट काउन्टर बनाये गये थे, टिकट बिक्री करने के लिये बहुत से लोगों को नियुक्त किया गया था.किन्तु मेरा कार्य था काउन्टर में टिकट देना, बेचे गये टिकटों का हिसाब रखना, बिक्री से आये समस्त रुपये-पैसों को संभाल कर रखना. तथा भाष्यानन्दजी, अनुष्ठान प्रारम्भ होने के पहले ही मुझको प्रति दिन गोलपार्क से अपनी गाड़ी पर लेजा कर वहाँ उतार देते थे, और सब हो जाने के बाद,  लौटते समय वे मुझे अपने साथ ही लेकर आ जाते थे. मेरे पास रुपयों से भरी एक बड़ी सी झोली (बोरी जैसी ) हुआ करती थी, जिसमे कई प्रकार के नोट, खुचरा आदि सब रखे होते थे.
एक दिन ऐसा हुआ, यह मैं सुबह के समय की बात कह रहा हूँ - निर्धारित गायक के नहीं आने के कारण, वहाँ प्रातः काल में आयोजित होने वाले कार्यक्रम में मुझे ही प्रारंभिक गीत गाना पड़ा था. उस समय तक मैंने एक दो गीत, थोड़ा-बहुत गाना  सीखा था. अतः मुझे याद है कि, प्रातः काल में उपयुक्त समय न रहने से भी, ' तुम्ही ब्रह्म रामकृष्ण '- को मैंने उदघाटन संगीत के रूप में गया था. यह एक विशेष भाग्य जैसा महसूस हुआ था।  
एक रोज रात के समय ऐसा हुआ, सारे दिन का कार्यक्रम शेष हो चुका था, सभी लोग जो जिस व्यवस्था में नियुक्त थे अपना-अपना काम समाप्त करके जा चुके थे.
और मैं भी अपने उसी टिकट काउन्टर के अन्दर था, काउंटर के लिये जो एक बहुत लम्बा सा कमरा बनाया गया था, उसके भीतर रहने से बाहर का दृश्य कुछ दिखता नहीं था. मैं अन्दर बैठ कर सोंच रहा था, भाष्यानन्दजी कब आएंगे, और मुझे ले जायेंगे ! थोड़ी देर बाद मुझे ऐसा लगा जैसे सबकुछ निस्तब्ध हो चुका है, कहीं से कोई आवाज नहीं आ रही थी; काउन्टर से बाहर निकल कर देखता हूँ , तो पूरे पण्डाल में एक भी प्राणी नहीं है और लोहे के बड़े बड़े कोलैपसिबुल गेट में विशाल विशाल ताले झूल रहे हैं.
उसदिन टिकटें भी प्रचूर बिकी थीं. रुपयों से भरी एक लम्बी सी बोरी और बचे हुए टिकटों के अंश को लेकर उस समय मैं जाता भी तो कहाँ ? भय किस चिड़िया का नाम है, इस तरह की कोई चीज कभी महसूस हुई हो मुझे याद नहीं है. ठीक है, अब यहाँ से निकलने नहीं सकूँगा, अब आज तो जाना होगा नहीं, किन्तु इस ' बोरी ' को कहाँ रखूं ? बहुत निरिक्षण-परिक्षण कर के यही तय किया कि रुपयों से भरी इस झोली को लेकर मंच के ऊपर चढ़ा जाय और इसी के ऊपर सिर रख कर सो लिया जाय ! सो भी गया. भोजन तो दूर कि बात, पीने के लिये पानी भी नहीं था. सुबह में उठ कर देखता हूँ कि, गेट खोल कर कुछ लोग आये हैं और सब कुछ की सफाई हो रही है. मैं उस बोरी को लेकर, किसी प्रकार खींचते हुए एक ट्राम पर चढ़ गया, और मौलाली चला आया.
  निकट में ही सूरमहाशय के एक मकान में, स्वामीजी का शतवार्षिकी ऑफिस था.स्वामी सम्बुद्धानन्दजी जो ठाकुर और माँ के विश्वव्यापी शतवार्षिकी कमिटी के सचिव थे, उन्ही के ऊपर इसका दायित्व भी दिया गया था. उनके साथ मेरा बहुत पुराना परिचय था.
 वे उस समय शिमला मोहल्ला के एक भक्त के घर में रहते हुए, स्वामीजी का सिमला वाला पुश्तैनी मकान को बेलुड़ मठ के अधीन लाने के दायित्व का पालन कर रहे थे. तब से लेकर कितने वर्ष बीत जाने के बाद अभी हाल ही में तो स्वामीजी के पुश्तैनी मकान को नये ढंग से सजा-सवांर कर  नया रूप दिया जा सका है. उनकी आदत थी, जाते ही एक डायरी रखते थे, उसको खोलकर नाम लिखते थे कौन आया है.
और मुझसे कहा करते थे :- 
" नबनीहरण मुखोपाध्याय | एदिके आये, देख, हात टा तूले, देख ! 
देख मसल टा देख हातेर, पाएर मसल टा देख, 
घूषी मार, घुषी मार
स्वामीजी बोले छिलेन, ' Muscles of Iron, nerves of steel '
- मेरे ही जैसा, तुझे भी अपना शरीर  हृष्ट-पुष्ट बनाना होगा समझे ?  
उनका चेहरा बिल्कुल विशाल था. स्वामीजी की बातों को अनोखे ढंग से कहा करते थे. उनके ऊपर इतने बड़े अनुष्ठान का पुरा दायित्व दिया गया है, किन्तु उनके चेहरे पर व्यस्तता का एक भी चिन्ह नहीं था. सुबह का सारा कार्य समाप्त कर के शान्त हो कर चुपचाप बैठे थे. जिस समय पर जो कार्य करना होता था, ठीक उसी समय पर निबटा लेते थे. तो वहाँ पर मुझे प्रविष्ट होते देख कर कहते हैं- " नवनी, तुम अभी यहाँ क्यों आये हो ? " मैंने कहा, " महाराज, कल के बचे हुए इन टिकटों को लेकर आया हूँ." वे बोले, " यह तो पहले तुम नहीं लाते नहीं थे ! "
तब मैंने उनको जैसे सारी बातें सुनाई, वे व्यस्त होकर दूसरों को बोले, " पहले उसको खिलाओ, उसके बाद कुछ दूसरा काम होगा- इसने तो सारी रात से कुछ खाया नहीं है !"

वहाँ से जब गोलपार्क लौटा तो मुझको देखते ही भाष्यानन्दजी महाराज ने अपने सिर तक दोनों हाथों को उठा कर कहा, " Oh, what have I done ! " ( अरे, यह मैंने क्या कर डाला ! ) 
मैंने कहा, " महाराज ऐसा कुछ नहीं हुआ है, इतने कार्य में व्यस्त रहने के कारण एक दिन भूल गये तो क्या हो गया, - मुझे थोड़ी भी परेशानी नहीं हुई. एक रात नहीं खाने से, एक रात अच्छी तरह से ना सो पाने से क्या होता है ? कुछ भी फर्क नहीं पड़ता. "                  
वे कहने लगे, " फिर तुमने क्या किया " मैंने कहा- " महाराज, सारे रुपये मैंने सम्बुद्धानन्द महाराज के पास जमा करवा दिये हैं."  वे निश्चिन्त हुए, बोले- " अच्छा, अच्छा, बैठो ! "
और मुझे एक बहुत सुन्दर अभिज्ञता हुई। बहुत अच्छा अनुभव रहा। मैंने अपने अनुभव से जाना कि कार्य करते समय कितना निश्चिन्त होकर रहा जा सकता है ! किसी कठिन से कठिन  परिस्थिति में घिर जाने से भी, 'मनुष्य' में भय का नामो-निशान नहीं रहेगा ! किसी भी आभाव में पड़ने से भी कष्टबोध नहीं होगा; जो भी दायित्व सौप दिया गया हो, उसको सम्पूर्णतया पालन करना होगा। उस अंग्रेजी कविता 'कॉसाबियांका ' (Casabianca^*)  में वर्णित वीर बालक की गाथा के जैसा कर्तव्यनिष्ठ होना होगा; कवि कहता है -

The boy stood on the burning deck
Whence all but he had fled;
The flame that lit the battle's wreck
Shone round him o'er the dead.
  
जहाज में आग लग गई है, लेकिन उस वीर बालक के पिता ने जिस पद का दायित्व सँभालने की आज्ञा दी है , उसे उस पद के दायित्व का पालन करना ही होगा। उसको जहाँ पर खड़े रहने को कहा गया है- उसको वहीं पर खड़ा रहना होगा. आग के डर से भागना नहीं होगा. यदि हम ऐसा कर लिये (अपने कर्तव्य से उन्मत्तप्रेम कर लिए) , तो इस में ही महाआनन्द है !  

[^* अंग्रेजी कविता- 'कॉसाबियांका ' (Casabianca) is a poem in English, It is about the true story of a boy who was obedient enough to wait for his father's ordersyoung Casabianca refuses to desert his post without orders from his father. not knowing that his father is no longer alive. 
 

{उस समय ईशारउड ( Isherwood ) भी वहीं ठहरे थे. सुबह के समय में जब Break-fast करने के लिये, ईन्टरनेशनल गेस्ट हॉउस जाता था, तब स्वामी प्रभवानंदजी, ईशारउड (Isherwood) एवं मैं एक ही टेबल पर बैठते थे!

 Christopher Isherwood

Born at Wyberslegh Hall, High Lane, Cheshire in North West England, Isherwood spent his childhood in various towns where his father, a Lieutenant-Colonel in the British Army, was stationed. After his father was killed in the First World War, he settled with his mother in London and at Wyberslegh.
After visiting New York on their way back to Britain, Auden and Isherwood decided in January 1939 to emigrate to the United States. Their emigration happened just months before Britain entered the Second World War, and exposed them to charges that they lacked patriotism and commitment to the war effort. After a few months with Auden in New York, Isherwood settled in Hollywood, California.
He met Gerald Heard, the mystic-historian who founded his own monastery at Trabuco Canyon that was eventually gifted to the Vedanta Society of Southern California. Through Heard, who was the first to discover Swami Prabhavananda and Vedanta, 

Isherwood joined an extraordinary band of mystic explorers that included Aldous Huxley, Bertrand Russell, Chris Wood (Heard's lifelong friend), John Yale and J. Krishnamurti. He embraced Vedanta, and, together with Swami Prabhavananda, he produced several Hindu scriptural translations, Vedanta essays, the biography Ramakrishna and His Disciples, novels, plays and screenplays, all imbued with the themes and character of Vedanta and the Upanishadic quest. Through Huxley, Isherwood befriended the Russian composer Igor Stravinsky.

In 1931 he met Jean Ross, the inspiration for his fictional character Sally Bowles. He also met Gerald Hamilton, the inspiration for the fictional Mr. Norris. In September 1931 the poet William Plomer introduced him to E. M. Forster.
They became close and Forster served as his mentor. Isherwood's second novel, The Memorial (1932), was another story of conflict between mother and son, based closely on his own family history.
After leaving Berlin in 1933, he moved around Europe, and lived in Copenhagen, Sintra, and elsewhere. He collaborated on three plays with Auden: The Dog Beneath the Skin (1935), The Ascent of F6 (1936), and On the Frontier (1939). 
Isherwood wrote a lightly fictionalized autobiographical account of his childhood and youth, Lions and Shadows (1938), using the title of an abandoned novel. Auden and Isherwood traveled to China in 1938 to gather material for their book on the Sino-Japanese War called Journey to a War (1939).
On Valentine's Day 1953, at the age of 48, he met teen-aged Don Bachardy among a group of friends on the beach at Santa Monica. Reports of Bachardy's age at the time vary, but Bachardy later said " at the time I was, probably, 16." Despite the age difference, this meeting began a partnership that, though interrupted by affairs and separations, continued until the end of Isherwood's life.
During the early months of their affair, Isherwood finished–and Bachardy typed–the novel on which he had worked for some years, The World in the Evening (1954). Isherwood also taught a course on modern English literature at Los Angeles State College (now California State University, Los Angeles) for several years during the 1950s and early 1960s.The more than 30-year age difference between Isherwood and Bachardy raised eyebrows at the time, but the two became a well-known and well-established couple in Southern Californian society with many Hollywood friends.} Swami Prabhavananda Founder of the Vedanta Society of Southern California Swami Prabhavananda was one of the pioneer swamis sent to America by the direct disciples of Ramakrishna to build on the work started by Swami Vivekananda at the turn of the century.

The swami was born in India on December 26, 1893. In 1914, after graduating from Calcutta University, he joined the Ramakrishna Order of India and was initiated by Swami Brahmananda, a direct disciple of Sri Ramakrishna.

In 1923, Swami Prabhavananda came to the United States. After two years as assistant minister of the Vedanta Society of San Francisco, he established the Vedanta Society of Portland. In December 1929, he came to Los Angeles where he founded the Vedanta Society of Southern California the following year.
Under the able care of the swami, the Society grew into one of the largest Vedanta Societies in the West, with monasteries in Hollywood and Trabuco Canyon and convents in Hollywood and Santa Barbara.
Swami Prabhavananda was a man of letters as well as a man of God. He wrote and translated a number of books with the object of making the spiritual classics of India available and understandable to Western readers. He was assisted on several of the projects by Christopher Isherwood or Frederick Manchester.

His comprehensive knowledge of philosophy and religion attracted such disciples as Aldous Huxley and Gerald Heard. His publications, which include the Bhagavad-Gita, The Upanishads, Breath of the Eternal, How to Know God: The Yoga Aphorisms of Pantanjali, The Eternal Companion, and The Sermon on the Mount According to Vedanta, continue to this day to capture interest and draw people to the Vedanta philosophy.

Swami Prabhavananda passed away on the bicentennial of America's independence, July 4th 1976, fitting for one who gave so much of his life to this country.}


     
 

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