बुधवार, 14 जुलाई 2010

[35] " श्री रामकृष्ण परमहंसदेव को अवतार वरिष्ठ क्यों कहते हैं ?

नवगोपाल घोष के नवनिर्मित गृह में श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव की (अमेरिका से लाये गये) छवि को आसान पर बैठा कर पूजा करते समय,स्वामी विवेकानन्द उनके लिये ' स्वतःस्फूर्त प्रणाम-मन्त्र ' की रचना करते हुए कहते हैं :
 ॐ स्थापकाय च धर्मस्य सर्वधर्मस्वरूपिणे |
   अवतारवरिष्ठाय   रामकृष्णाय ते  नमः || 
परमहंसदेव के लिये स्वामीजी के द्वारा दिये गये इस विशेषण 
'अवतारवरिष्ठ' को सुनने से मन में कुछ प्रश्न उठने शुरू हो जाते हैं, जो बिल्कुल स्वाभाविक हैं. क्योंकि पहले हमने तो स्वयं ठाकुर (परमहंसदेव जी) के मुख से (वचनामृत में) सुना है कि सारे धर्म समान हैं,आदि आदि !
 सभी धर्मों के अनुयायी ' अवतार ' के रूप में किसी न किसी व्यक्ति के आविर्भूत होने का दावा करते हैं. अब यदि उन सबों के बीच श्रीरामकृष्ण को यदि 'अवतारवरिष्ठ '- कहा जाय, तो सभी धर्म के अनुयायियों के मन कई प्रकार के प्रश्न,सन्देह,तर्क आदि का उठना बिल्कुल स्वाभाविक है.किन्तु इस प्रश्न का समाधान है. गीता के चौथे अध्याय के सातवें श्लोक में श्रीकृष्ण ने कहा है-
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत |
    अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम || 
--हे भारत (अर्जुन), जब जब धर्म की कमी और अधर्म की वृद्धि होती है तब तब मैं शरीर धारण कर अवतीर्ण होता हूँ. (अन्य सभी लोग भले-बुरे कर्म के अनुसार जन्म ग्रहण करते हैं, किन्तु मैं कर्म के वश में नहीं हूँ. केवल संसार के कल्याण का संकल्प लेकर अपनी त्रिगुणात्मिका माया की सहायता से 'तदा आत्मानं सृजामि अहं ' मैं अपने को सृष्टि करता हूँ ' अर्थात मनुष्य-देह धारण कर संसार में आविर्भूत होता हूँ !) 
सर्वशक्तिमान भगवान का जीव-जगत के कल्याण के लिये मनुष्यदेह धारण कर आविर्भूत होना संसार के आध्यात्मिक इतिहास में एक बहुत बड़ी घटना है. काल के प्रभाव से जब संसार पाप के भार से आक्रान्त होता है, तब वे मानो अपने कर्तव्य पालन के उद्देश्य से धर्म की ग्लानि दूर करने संसार में अवतीर्ण होते हैं.धर्म के प्रसार में जो विघ्न सामने आते हैं वे उन्हें विभिन्न प्रकार से दूर करके धर्म के प्रवाह को बाधा-रहित कर देते हैं. प्रत्येक युग में ऐसा ही होता आया है. 
किन्तु हमे ऐसा नहीं मान लेना चाहिये कि प्रत्येक युग में धर्म-संस्थापन का कार्य केवल (राक्षसों य़ा) पापियों का वध कर के ही करना पड़ता है.किस उपाय से धर्म को संस्थापित करना होगा- इसे श्रीभगवान अच्छी तरह जानते हैं. ...प्रत्येक अवतार के धर्मसंस्थापन की पद्धति विभिन्न प्रकार की होती है -- देश,काल और प्रयोजन के अनुसार कार्य-प्रणाली बदल जाति है.
वर्तमान युग में भगवान श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव ने अपनी साधना और आध्यात्मिक शक्ति के द्वारा पृथ्वी पर विद्यमान सभी धर्मों की ग्लानि को दूर किया है. साथ ही धर्म के संस्थापन के लिये अत्यन्त करुणा करके इसबार उन्होंने अनेक पापियों का पाप-भार अपने ऊपर ले कर उनको भी धर्मात्मा बनने का मौका दिया है, और अपनी भूल को सुधार कर साधु यथार्थ मनुष्य बनने की शिक्षा दी है; उसी प्रकार साधु पुरुषों के साधन-मार्ग के विघ्न को दूर कर उन्हें साधु बनाया है. 
" स यत प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते "  
--अर्थात वे अपने जीवन द्वारा जिसे प्रमाणित करते हैं लोग उसी का अनुसरण करते हैं. 
केवल धर्मग्रन्थ से काम नहीं चलता. आदर्श जीवन कैसा होता है- उसे जी कर भी दिखाना होता है. उनके जीवनादर्श से शिक्षा पाकर लोग धर्ममार्ग का अनुसरण करते हैं.(टीका- स्वामी अपूर्वानन्द)} (गीता ४: ७ के) उपरोक्त श्लोक का उच्चारण यदि हमलोग इस प्रकार करें --
यदा ही सर्वधर्मानाम ग्लानिर्वभूव भारत |
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं ससर्ज सः ||
-- हे भारतवासी, जब पृथ्वी के समस्त धर्म अधोपतित हो गये थे एवं उसके साथ 'अभ्युत्थानमधर्मस्य '  अधर्म का भी अभ्युत्थान हो गया था; तब उस विकट परिस्थिति में ' उन्होंने '(अद्वैत ब्रह्म परमहंसदेव ने) स्वयं को सृष्ट किया था !
जब एक एक (अलग अलग)  देश का धर्म पतित हुआ था, तब उसको उठाने के लिये एक एक अवतार आये थे.किन्तु जब सम्पूर्ण पृथ्वी के धर्म अधोपतित हो गये एवं समग्र पृथ्वी में- ' अधर्म का अभ्युत्थान ' हो गया तब ' धर्म-वस्तु ' का ही नवोत्थान करने के लिये उन्होंने (परमहंसदेवजी) स्वयं की सृष्टि की थी. इसीलिये श्रीरामकृष्ण अवतार वरिष्ठ हैं !-इसीलिये वे अवतारवरिष्ठ हैं.
 " अवतारवरिष्ठस्तत रामकृष्णो हि केवलः।
          इतिहासपुराणेषू समः कोअपि न विद्यते।।"   
जब से सृष्टि बनी है, तब से लेकर आज तक मानव इतिहास में 
"परमहंसदेव" (ठाकुर) के जैसा (त्यागी) दूसरा कोई नहीं हुआ है. किसी भी देश य़ा किसी भी धर्म का पुराण क्यों न हो - किसी भी पुराण में, " श्रीरामोकृष्णो " के जैसा और कोई नहीं हुआ.
ऐसा कहना - किसी को छोटा करना य़ा बड़ा करना नहीं है, किसी के साथ तर्क-कुतर्क य़ा झगड़े में पड़ने की कोई जरुरत नहीं है. स्वामीजी ने उस दिन क्या सोंच कर ठाकुर को (परमहंसदेवजी को)'अवतारवरिष्ठ' कहा होगा- यह तो केवल स्वामीजी जानते होंगे.किन्तु ठंढे दिमाग से (पूर्वाग्रह से रहित होकर) यदि हम चिन्तन-मनन करें तो हमलोग इस विशेषण " अवतारवरिष्ठ " को - अत्यन्त आनन्द के साथ ग्रहन कर सकते हैं.एवं यह घोषणा भी कर सकते हैं कि, सम्पूर्ण जगत के मानव-समाज के परित्राण के लिये वर्तमान युग में उपाय - एकमात्र श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव से ही प्राप्त किया जा सकता है. एवं उनके उपदेश- स्वामी विवेकानन्द के जीवन में जिस प्रकार उक्त, व्यक्त,  और प्रचारित तथा आचरित हुए हैं, उनका थोड़ा भी अनुसरण करने से अपने जीवन भी उतार सकते हैं|               

   
       



         
 

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