बुधवार, 12 मई 2010

खेलकूद से मन में शक्ति और साहस आता है [21 A 1st edition left]]

स्कूल के दिनों में यह जो नित्य खेल-कूद का अभ्यास बन गया था, उससे मुझे अनुभव हुआ है कि लाठी खेलने से (मन में )साहस (का गुण) बहुत बढ़ जाता है| जब लाठी पकड़ता, तो हमलोग ' हाड़ोयार लाठी-खेल ' के स्टाइल में लाठी का खेल, खेलते थे! (जिस प्रकार बिहार में ' गयवाली -लाठी 'खेलने का स्टाइल होता है|) इसमें लाठी की लम्बाई उतनी ही होती है,जितनी जमीन पर सीधे खड़े हो कर हाथ को ऊँचा उठाने से,जहाँ तक हाथ की ऊँचाई जाती है |
 लाठी की लम्बाई भी उतनी ही करीब - ' एक पोरसा ' भर रखी जाती है| उस तरह की लाठी जब हाथ में पकड़ लेता तो, उस लाठी को लगातार एक-घन्टा- डेढ़-घन्टा तक धून सकने में समर्थ था| लाठी-खेलने के अलावा, छूरीबाजी का खेल, तलवार-बाजी का खेल,और जिमनेस्टिक्स करना भी बहुत पसन्द था|

शायद इसी खेल-कूद का नियमित अभ्यास करते रहने के कारण, से कई बार गिर पड़ा हूँ, किन्तु फिर अपने को तुरन्त ही संभाल लेने में ही समर्थ भी हो जाता हूँ! बहुत अधिक उम्र बीत जाने के बाद भी बगीचे में फूल तोड़ने के लिये जाया करता था,और ७० वर्ष का होने बाद भी पेंड़ से गिर पड़ा हूँ,दीवाल के ऊपर से गिर पड़ा हूँ ! 
उस समय घर बहुत पुराना हो चला था | अत्यधिक पुराना होने के कारण, दूसरे तल्ले का छत एक जगह से बहुत अधिक टूट-फुट गया था, वहाँ का छत धंस कर बिल्कुल गड्ढा जैसा बन गया था| उस जगह बहुत लम्बा लम्बा घांस उग आया था, उसके ऊपर एक अपराजिता (फूल) की लता (लत्तर) भी चढ़ गयी थी|

 एक दिन पौ फटने से पहले ही हाथ में एक लाठी (डाली को झुका कर फूल तोड़ने के लिये)और एक फूल इकट्ठा कर रखने के लिये एक फूलों की टोकरी (जिस हाथ में लटकाया जा सकता है) लेकर अपराजिता का फूल तोड़ने के लिये दुतल्ले की छत पर जा पहुँचा| वहाँ ढेर सारे अपराजिता को देख कर, उन सब को तोड़ लेने के लोभ वश - जैसे ही अपना पैर बढाया तो, एक पैर सीधा गड्ढे के भीतर घुस गया | उस समय दूसरे तल्ले पर मेरे सिवा और कोई भी नहीं था|
  किन्तु प्रतीत होता है कि बचपन से ही खेल-कूद (लाठी आदि खेलने) का अभ्यास रहने के कारण, मन में (विपरीत परिस्थितियों में भी उसका सामना करने का ) साहस भरा रहता है, और साथ ही साथ किस वक्त क्या करना उचित होगा उसका होश भी बना रहता है| 
इसीलिये जैसे ही मेरा एक पैर गड्ढे में भीतर तक धंस गया, मैं समझ गया कि अब उस पैर को ऊपर खींचने का कोई उपाय नहीं है !  अभी अगर दूसरे पैर को भी गड्ढे में नहीं डाला तो ऊपर ही अटका रह जायेगा; अब किस प्रकार बचा जाय? बस उसी क्षण बुद्धि ने तुरन्त निर्णय ले लिया, और मैंने तत्काल अपना दूसरा पैर भी उसी गड्ढे में डाल दिया| 
मैं उस समय भी सचेतन भाव से देख रहा था कि,शरीर  घुटना तक तो नीचे जा चुका है, अब समझ में आ गया कि छत के गड्ढे की चौड़ाई कितनी है,जिसमे  शरीर गिरने वाला है| जब कमर तक अन्दर घुंस गया, तब समझ में आया कि यदि दोनों हाथों को तुरत समेट नहीं लिया तो चोट लग जाएगी, बस मैंने दोनों हाथ की कोहनी को बिल्कुल अपने शरीर से सटा लिया! 
और हाथों में फूल चुन कर रखने वाली टोकरी और लाठी के समेत -उन सब को लिये-दिये मैं दूसरे तल्ले की छत से पहले तल्ले के फर्श पर- ' धड़ाम ' से जा गिरा! 
उस समय भी ठीक से पौ नहीं फटा था, घर के सभी लोग नींद से उठे नहीं थे| जोर से आवाज हुआ| उस समय तो एकदम टुटा-फूटा पुराना सा घर था, एक भाई उठ गया था, वह जल्दी जल्दी ऊपर से नीचे उतरा और कहने लगा- " क्या हुआ? क्या हुआ ? एक बहुत जोर का आवाज हुआ है! "
मैंने कहा - " कौन, कहाँ क्या हुआ है? " ' नहीं, नहीं, बहुत जोर, धड़ाम से कुछ गिरने का आवाज हुआ है|' मैंने कहा, ' वह कोई खास बात नहीं है, मैं ही दूसरे तल्ले से सीधा एक तल्ले पर(लैंड कर गया) उतर पड़ा हूँ !" 
तो इस प्रकार हम समझ सकते हैं कि अच्छी तरह से खेल-कूद करने के चलते, साहस भी बढ़ता है, और शक्ति भी बढती है! केवल शरीर की शक्ति ही नहीं बढती, मन की शक्ति भी बढती है|

किन्तु मन की शक्ति को बढ़ाने के लिये अन्य जो चीज अत्यन्त आवश्यक है, वह आन्तरिक जीवन की वस्तु है|उस वस्तु को एक शब्द में " आध्यात्मिकता " कहा जाता है, किन्तु उसका सही अर्थ हममें से प्रायः कोई भी समझ नहीं पाते हैं| हमलोग केवल शरीर ही नहीं हैं! शरीर के भीतर एक वस्तु है, जिसको आत्मवस्तु कहते हैं, ' आत्मा ' कहते हैं| वह क्या है ? - कोई नहीं  जानता| उसको हाथ से पकड़ा नहीं जा सकता|किन्तु समस्त शक्तियों का मूल वही है! सब कुछ उसी से निकला है| वही यह विश्वब्रह्माण्ड बन गया है!यह समस्त जगत ब्रह्ममय है! एवं उसी ब्रह्म का (सामान्यतम किछू )थोड़ा सा भी अंश प्रत्येक के भीतर में है! किस प्रकार है ? - वह कोई भी बतला नहीं सकता|  किन्तु वह आत्मा ही- समस्त सृष्टि का मूल है,समस्त शक्ति का मूल है, समस्त साहस का मूल है |  आत्मा ही समस्त
 ( भालोबासा ) य़ा मानवीय ' प्रेम'  ( प्रणय य़ा मुहब्बत का मूल है )और ईश्वर के प्रति - ' प्रेम ' के मूल में भी वही है| - सभी को अपना बना कर - सभी के भीतर उसी (आत्म-वस्तु ) को देखना है, सभी के भीतर स्वयं (य़ा आत्मा) को देख कर उससे प्रेम कर पाने समर्थ होना ही आध्यात्मिकता है! किन्तु इसी भाव (हृदयवत्ता) को - दूसरों को 'निःस्वार्थ प्रेम करने की शक्ति ' य़ा " आध्यात्मिकता " को हमलोगों ने कम उम्र से ही क्रमशः अपने घर में रह कर ही प्राप्त किया है, अपने शिक्षक महाशयों के जीवन और आचरण को देख कर सीखा है!

हमलोगों के बंगला के शिक्षक सतीश मास्टरमहाशय का जीवन कितना आसाधारण था, (देखें JNKHP - ) पण्डित महाशय का कितना असाधारण जीवन था! उनलोगों को देखने मात्र से ह्रदय में श्रद्धा-भक्ति जाग्रत हो जाती थी ! आजकल हमलोग शिक्षकों के प्रति भक्ति करना भूल गये हैं !
सबों से निःस्वार्थ प्रेम करने की शक्ति को ही आध्यात्मिकता कहते हैं !
        

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