मंगलवार, 27 अप्रैल 2010

" महामंडल का उद्देश्य एवं कार्यपद्धति "

                                  " महामंडल का उद्देश्य एवं कार्यपद्धति "
                               (" Aims and Objects of Mahamandal  ")
' मनुष्य ' ही समाज की मूल इकाई है ! कोई परिवार, समाज या देश तभी महान हो सकता है जब उसके अधिकांश मनुष्य महान चरित्र वाले हों । राष्ट्र-निर्माण का आधारभूत तत्व ' मनुष्य ' है,  इसीलिये 'मनुष्य-निर्माण' अथवा " चरित्रवान-नागरिकों " का निर्माण करना ही, भारत-पुनर्निर्माण का मौलिक कार्य है ! समाज के कल्याण के किसी भी योजना को यदि धरातल पर उतारना हो, तो चाहे उस योजना को सरकारी स्तर पर (मनरेगा आदि ) से क्रियान्वित किया जाय य़ा किसी N.G.O. (गैर सरकारी संस्थाओं) के माध्यम से करवाया जाय, समस्त सरकारी य़ा गैर-सरकारी योजनाओं को उत्कृष्ट तरीके निष्पादित करने  का कार्य  केवल ' मनुष्यों ' के माध्यम से ही होता है!
अतः समाज-कल्याण के लिये बनाई गयी किसी भी योजना का शत-प्रतिशत (१००%) लाभ  तबतक जनसाधारण तक नहीं पहुँच सकता, जब तक उस कार्य में संलग्न तथा ऊँचे पदों पर कार्यरत, सभी मनुष्यों को अपनी मानवोचित मर्यादा का बोध न हो। श्रीरामकृष्ण कहा करते थे, 'मानहूश तो मानुष'- अर्थात जिस मनुष्य में अपनी मानवोचित गरिमा का बोध है, केवल वही 'मनुष्य' कहलाने का अधिकारी है! अतः भारत-कल्याण के लिये बनायी गयी किसी भी योजना  का समुचित लाभ ( केवल १५ % नहीं १०० % लाभ) तभी प्राप्त हो सकताहै, जब उन कार्यों में संलग्न सभी मनुष्य- ईमानदार, निष्कपट,  सेवापरायण, अनुशासित, और निःस्वार्थपर हों! 
इन गुणों को अर्जित कर लेने को ही-'मनुष्य-बनना' कहा जाता है|जब किसी व्यक्ति के चिन्तन, वचन और आचरण में, ये सभी गुण स्वाभाविक रूप से अभिव्यक्त होने लगते हैं, तब इन्हें ही उस व्यक्ति का 'चारित्रिक-गुण' भी कहा जाता है| इसीलिये, " चरित्र-निर्माण " का दूसरा नाम -" मनुष्य- निर्माण "भी है| तथा 'मनुष्य-बनने', य़ा देश के लिये ' योग्य- नागरिक' निर्माण के इस बुनियादी कार्य का प्रारम्भ - स्वयं अपने से भी किया जा सकता है, य़ा दूसरों को इन गुणों को अर्जित कर लेने के लिये प्रेरित करने से भी हो सकता है|
 अतः महामण्डल के साथ जुड़ने के पहले हमें स्वयं से पूछना चाहिये कि, कहीं हमारा उद्देश्य भी  उन वाह-वाही लूटने वाले सनकी लोगों के जैसा तो नही है; जो केवल नाम-यश पाने के लिये समाज-सेवा के कार्यों से जुड़ कर, समाचारपत्रों में अपना फोटो देखने की कमाना से समाजसेवा के कार्य करने का पाखण्ड करते हैं? यदि हमारा उद्देश्य उन लोगों के जैसा नहीं है, जो आज किसी कार्य में जुड़ते हैं और कल ही छोड़ देते हैं, तब हम भी महामण्डल का सदस्य बनकर 'मनुष्य-निर्माण' ( देश के लिये 'योग्य-नागरिक निर्माण ) के इस मौलिक कार्य का प्रारम्भ, हम स्वयं मनुष्य ' बनने 'के साथ-साथ दूसरों को भी मनुष्य 'बनाने' से कर सकते हैं. इस संगठन के साथ जुड़ कर हमलोग ' बनो और बनाओ !' अर्थात "तुम स्वयं मनुष्य बनो, और दूसरों को भी मनुष्य बनने में सहायता करो "; इस " Be and Make" को साथ-साथ चला सकते हैं | तभी तो स्वामी विवेकानन्द ने भारत के युवाओं का आह्वान करते हुए कहा था-

" बनो और बनाओ, Be and Make ! यही हमारा मूल मंत्र रहे ! "  ( वि० सा० ख० ९:३७९) इसीलिये अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल का "Motto" य़ा आदर्श-वाक्य है- " Be and Make"!   अर्थात तुम स्वयं इस देश के योग्य नागरिक (चरित्रवान-मनुष्य) बनो, और दूसरों को भी चरित्रवान -मनुष्य बनने में सहायता करो ! अतः यह स्पष्ट है कि देश के लिये 'चरित्रवान-मनुष्यों  का निर्माण करना ' ही वह लक्ष्य है, जिसे महामण्डल प्राप्त करना चाहता है|
 इसी मौलिक कार्य- ' मनुष्यनिर्माण ' का दूसरा नाम ' चरित्र -निर्माण ' भी है ! अतः भारत के गाँव-गाँव में " मनुष्य-निर्माण कारी " -  शिक्षा केन्द्रों को स्थापित करना ही महामण्डल का उद्देश्य है|   देश के पुनर्निर्माण के लिये जो कुछ भी करना प्रयोजनीय है, उन सब के ऊपर विस्तार से चर्चा कर लेने के बाद,स्वामी विवेकानन्द ने सब का निचोड़ देते हुए कहा था -  "  माना कि सरकार तुमको तुम्हारी आवश्यकता की वस्तुएं  देने को राजी भी हो जाय, पर प्राप्त होने पर उन्हें सुरक्षित और सँभालकर रखने वाले " मनुष्य "  कहाँ हैं? इसलिए पहले ( ' जन लोकपाल बिल ' लाना अच्छा है, पर लाने के पहले उसको ईमानदारी से लागु करने वाले ' चरित्रवान- जन ' का निर्माण करो! ) आदमी, मनुष्य-निर्माण करो ! हमे अभी मनुष्यों   की आवश्यकता है, और बिना श्रद्धा के 'मनुष्य' कैसे बन सकते हैं? " (८:२७०)
 " जब आपके पास ऐसे मनुष्य होंगे, जो अपना सबकुछ देश के लिये होम कर देने को तैयार हों, भीतर तक एकदम सच्चे, जब ऐसे मनुष्य उठेंगे, तो भारत प्रत्येक अर्थ में महान हो जायेगा ये ' मनुष्य ' हैं, जो देश को महान बनाते हैं ! (४:२४९)
" भारत तभी जागेगा, जब विशाल ह्रदय वाले सैकड़ों स्त्री-पुरुष भोग-विलास और सुख की सभी इच्छाओं को विसर्जित कर- मन, वचन, और शरीर से उन करोड़ो भारतवासियों के कल्याण के लिये सचेष्ट होंगे जो दरिद्रता तथा मूर्खता के अगाध सागर में निरन्तर नीचे डूबते जा रहे हैं|(६:३०७)
उन्होंने आह्वान किया था- " जो सच्चे ह्रदय से ' भारतवासियों के कल्याण ' का व्रत ले सकें तथा, इसी कार्य को अपना एकमात्र कर्तव्य समझें, ऐसे युवाओं के साथ कार्य करने में लग जाओ| भारत के युवावर्ग पर ही यह कार्य सम्पूर्ण रूप से निर्भर है|" (४:२८०)
 इसीलिये अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल के आदर्श हैं- युवा नेता स्वामी विवेकानन्द ! जिनके जन्म दिवस १२ जनवरी को भारत सरकार ने " राष्ट्रीय युवा दिवस " घोषित किया है |


बाजार से चन्दा मांग कर अभावग्रस्त लोगों के बीच कुछ राहत सामग्रियों का वितरण करना - एक अच्छा कार्य है, साधारण जनता की आर्थिक उन्नति के लिये किसी योजना को लागु करना भी अच्छा कार्य है - किन्तु इन सब हलके-फुल्के सामाजिक कार्यों की अपेक्षा, वैसे युवाओं का-"जीवन-गठन "  करना और भी ज्यादा गुरुत्वपूर्ण तथा उत्कृष्ट कार्य है, जो अपने क्षुद्र स्वार्थ को भूल कर, ' भारतवासियों के कल्याण ' को ही अपना एकमात्र कर्तव्य समझेंगे| सरकारी सेवा (Government Service )में हो, य़ा निजी सेवा (N.G.O.) में, समाज में हो य़ा घर-परिवार में- जीवन के हर क्षेत्र में, इसी प्रकार के निःस्वार्थी य़ा " चरित्रवान- मनुष्यों " की आवश्यकता है !
अब (आजादी के छः दशक बाद, 2G Spectrum घोटाले, कोलगेट घोटाला के युग में )- हमलोग आसानी से इस बात को समझ सकते हैं कि आज देश को पहले चरित्रवान-मनुष्य; बनने और बनाने वाली शिक्षा की आवश्यकता है, केवल I.A.S., Doctors, Engineers, व्यापारी, नेता आदि तो बहुत से हैं, किन्तु चरित्र गठित करने वाली शिक्षा नहीं पाने के कारण उनमें से अधिकांश या तो भ्रष्टाचार में लिप्त हैं या पूरे ' चरित्र-भ्रष्ट ' या घोटालेबाज बन चुके हैं। आज के तरुण और युवा ही देश के भविष्य हैं ! यदि इनके चरित्र को सुन्दर रूप से गठित किया जायेगा, तभी देश और समाज का स्थायी कल्याण भी सम्भव हो सकेगा|  इसीलिये इस प्रकार के ' यथार्थ मनुष्यों ' का निर्माण करना, समाजसेवा के समस्त कार्यों में-सर्वश्रेष्ठ समाज-सेवा " का कार्य है! किन्तु यहाँ याद रखना चाहिये, कि ' समा-जसेवा ' करना हमारे ' जीवन का लक्ष्य ' नहीं है। बल्कि अपना चरित्र- गठन करने का -सबसे कारगर ' उपाय ' है!  यदि हमारे जीवन का उद्देश्य ' आध्यात्मिकता लाभ ' य़ा समाज की " विभिन्नताओं में अन्तर्निहित  एकत्व " की उपलब्धि करना हो, तो हमे वैसे समाज सेवा मूलक कार्यों को बार-बार करना होगा जिन्हें करते रहने से - सम्पूर्ण मानव जाति के प्रति सच्ची सहानुभूति जाग्रत होने में सहायता मिलती है|  इस तरह आध्यात्मिकता प्राप्त करने के उपाय के रूप में की गयी समाज सेवा, हमारे भीतर समग्र मानव जाति में अन्तर्निहित- ' दिव्यता य़ा एकत्व के बोध '  को जाग्रत करा देती है|
वहीं सांसारिक दृष्टि से य़ा ' नाम-यश पाने की इच्छा ' य़ा  ' स्वर्ग-प्राप्ति  की इच्छा से की गयी समाज-सेवा ' के द्वारा  चरित्र में सदगुण आने के बजाय दुर्गुण ही बढ़ते हैं| क्योंकि जब भी हम कोई अन्य समाजसेवा मूलक कार्य करते हैं, तो मन में यह विचार उठता है कि मैं दूसरों को कुछ दे रहा हूँ, अर्थात जो 'दूसरा' व्यक्ति मुझसे कुछ प्राप्त कर रहा है-  वह उपकृत हो रहा है, और 'मैं' उसका उपकार कर रहा हूँ ! मैं दाता हूँ !  यही क्षुद्र ' अहंबोध ' हमारे सेवकत्व-बोध को, अर्थात" शिव ज्ञान से जीव सेवा " करने के बोध का अपहरण कर लेते हैं|अहंबोध आते ही नाम-यश पाने की दुर्दान्त वासना जाग उठती है और हमारी आध्यात्मिकता (अद्वैत बोध) भी वहीं दम तोड़ देती है!
इस प्रकार हम यह समझ सकते हैं कि अपने जीवन में 'श्रेष्ठ आदर्श ' को धारण करने तथा तदानुरूप 'चरित्र-गठन ' करने के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये हमें भी - निःस्वार्थ भाव से समाजसेवा के कार्यों में आत्मनियोग करना ही पड़ेगा|  कर्म के रहस्य को जानकर, कर्म के पीछे अपनी दृष्टि (मनोभाव) को ठीक रखते हुए सरल और छोटे-मोटे सेवामूलक कार्यों को करते हुए ही हम यह सीख सकते हैं कि,बदले में कुछ भी पाने की अपेक्षा किये भी ' निष्काम दाता ' की भूमिका किस प्रकार ग्रहण की जाती है, साथ ही साथ आत्मविश्वास भी कैसे अर्जित हो जाता है!
 अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल के समस्त कार्यक्रमों के माध्यम से इसी लक्ष्य को पाने का प्रयास किया जाता है, तथा आज ४९ वर्षों तक इस कार्य को चलते रहने के बाद, निश्चित रूप से यह कह सकते हैं कि हमे इस प्रचेष्टा में सफलता भी  मिली है! इसका कोई बहुत विस्तृत  घोषणा  पत्र नहीं है| बहुत छोटे से रूप में गठित होकर, क्रमशः बढ़ता जा रहा है| धीरे -धीरे यह तरुणों के मन को अपनी ओर आकर्षित किया है, उनपर विजय प्राप्त किया है; विशेष तौर पर इसने ग्रामीण क्षेत्र में रहने वाले युवाओं के मन को जीता है!  उन युवाओं ने अपने मन को एक ' दुर्भेद्य-दुर्ग ' के रूप में गठित कर लिया है, जिसमे पाश्चात्य संस्कृति जन्य- ' स्वार्थपरता ' प्रविष्ट ही नहीं हो सकती, जहाँ भारत के चिर-प्राचीन आदर्श " त्याग और सेवा "  अहंबोध के द्वारा कभी आच्छादित नहीं हो पाती|
स्वामी विवेकानन्दजी भी कहा करते थे-" मैं कभी कोई योजना नहीं बनाता | योजनाये स्वयं विकसित होती जाती हैं और कार्य करती रहती हैं |मैं केवल यही कहता हूँ - जागो, जागो (मोहनिद्रा को त्याग दो!)|" महामण्डल केवल इतना ही चाहता है, स्वामीजी का यह ' जागरण-आह्वान ' देश के समस्त युवाओं के कानों में गूँज उठे! आज जब हम देश में हर किसी के प्रति, यहाँ तक कि स्वयं अपने-आप के प्रति भी विश्वास खो बैठे हैं; हमारी चिर गौरवमयी भारतमाता को पुनः प्रतिष्ठित करने के लिये, इस संकट की घड़ी में सब युवा उठ खड़े हों- परिस्थिति का सामना करें| 
विवेकानन्द युवा महामण्डल को यदि कुछ करने की भूमिका ग्रहण करनी ही हो, तो वह है- हमलोग देश के तरुणों का खोया हुआ " आत्मविश्वास " उन्हें वापस लौटा दें ! और  इस कार्य के लिये पहले उसे युवाओं के मन को इस प्रकार प्रशिक्षित करना होगा, जिससे उन सबों को अपना एक ' जीवन-
दर्शन ' प्राप्त हो | ताकि वे अपने जीवन की समस्त समस्याओं का समाधान स्वयं करने में सक्षम हों, कर्तव्य सचेतन एवं कर्तव्य पालन में समर्थ ' विवेक-सम्पन्न नागरिक के रूप में गठित हो कर ' अपने व्यक्तिगत जीवन में 'उच्चतर -सार्थकता ' को प्राप्त कर सकें| अतः  ' आत्मविश्वास की प्राप्ति '  एवं 
'चरित्र -निर्माण' की व्यावहारिक पद्धति से युवाओं का परिचय करा देना ही युवा महामण्डल का मूल कार्य है| 
महामण्डल के जितने भी कार्यक्रम हैं, वे इसी लक्ष्य की दिशा में परिचालित होती हैं |अतएव व्यष्टि -मानव के ' जीवन-गठन ' एवं ' चरित्र-गठन ' के माध्यम से श्रेष्ठतर समाज का निर्माण करना ही महामण्डल का उद्देश्य है | स्वामीजी की वह विख्यात उक्ति है- "मनुष्य-निर्माण और चरित्र-गठन  ही मेरे समस्त उपदेशों का सार है |" " संसार को जो चाहिये, वह है व्यक्तियों के माध्यम से विचार शक्ति| मेरे गुरुदेव कहा करते थे, तुम स्वयं अपने कमल के फूल (ह्रदय) को खिलने में सहायता क्यों नहीं देते ? भ्रमर तब अपने आप ही आयेंगे, हमें तीन वस्तुओं(3H)-  की आवश्यकता है, अनुभव करने के लिये ह्रदय (Heart) की, कल्पना करने के लिये मस्तिष्क (Head) की, और काम करने के लिये हाथ (Hand) की |हम मस्तिष्क, ह्रदय और हाथों के ऐसे ही सुसमन्वित विकास को पाना चाहते हैं | " (३:२७१)
व्यष्टि-मानव यदि समष्टिगत प्रयत्न के द्वारा इस लक्ष्य को प्राप्त करने में निरन्तर लगा रहे तो समाज का बहुत बड़ा भाग उत्तरोत्तर प्रभावित होने के लिये बाध्य है | परन्तु, यह कार्य (3H-निर्माण) कोई पाँच वर्ष य़ा पच्चीस-वर्ष के निश्चित मियाद में पूरा हो जाने वाला कार्य नहीं है| यह तो पीढ़ी दर पीढ़ी तक चलने वाला कार्य है ; एक पीढ़ी के बाद दूसरी पीढ़ी आकर इस कार्य को अपने हाथों में लेगी, और यह कार्य चलता रहेगा| इस कार्य में जुड़ने से पहले यह भी समझ लेना चाहिये कि समय के अनन्त प्रवाह में ऐसा कोई क्षण नहीं आयेगा, जब हमलोग गर्व से पुकार कर यह कह सकेंगे कि ' बस, अब हमलोगों का कार्य समाप्त होता है, हमने अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लिया- यह रहा आपके सपनों का त्रुटि-रहित समाज !' क्योंकि ऐसा होना अवास्तविक है !
अतएव,
जो लोग अपना ' जीवन-व्रत ' समझकर  इस कार्य में आत्मनियोग करेंगे, उन्हें उन्हें जीवन पर्यन्त संग्राम करने के लिये प्रस्तुत रहना होगा| और विदा लेते समय इस कार्य का दायित्व उन हाथों में सौंप देना होगा जो इस कार्य में अनुगामी बन कर,  दूसरी पीढ़ी के युवाओं को भी इस कार्य में जुड़ने के लिये प्रशिक्षित करने में समर्थ होंगे। हमलोगों के देश की अवस्था किसी से छिपी हुई नहीं है, देशवासियों की दुर्दशा से आज सभी लोग परिचित हैं | इस अवस्था को सँभालने के लिये, सरकारी तंत्र, गणतंत्र, तथा असंख्य ' मतवाद ' हैं, किन्तु, पिछले ६७ वर्षों में  इन सबके क्रिया-कलापों को देख-सुन लेने के बाद, इतना तो समझ में आ ही रहा है कि, किसी भी दल, सरकार य़ा NGO की कार्य-सूचि में ' चरित्र-निर्माण ' य़ा (3H-निर्माण) का कार्य शामिल नहीं है! इस सबसे बुनियादी एवं ' अनिवार्य कार्य ' के ऊपर किसी का ध्यान नहीं है, इसे देखते हुए महामण्डल ने इस कार्य को करने का बीड़ा स्वयं उठा लिया है।
हमलोग अभी तक " चरित्रवान- मनुष्य " नहीं बन सके हैं, एक मात्र इसी कमी के कारण -
अंतिम आदमी को सुखी बनाने की सारी कोशिशें, भारत को एक महान और निरापद राष्ट्र के सारे प्रयत्न, भारतवासियों की दुःख-वेदना में कमी लाने के सारे प्रयास, सब कुछ व्यर्थ सिद्ध हो रहा है |   यथार्थ मनुष्य बनने के लिये- ' शरीर, मन और ह्रदय ' तीनों का सुसमन्वित विकास करने हेतु - " चरित्र-निर्माण की निष्काम समाजसेवा पद्धति " के ऊपर गहन चिन्तन करने से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि,' मनुष्य-निर्माण' का कार्य जितना आधिभौतिक (मटिरीअलिस्टिक) है, उससे कहीं ज्यादा आध्यात्मिक (spiritualistic) है !
 क्योंकि मनुष्य-निर्माण का कार्य केवल उसके बाहरी आवरण, ' शरीर और मन ' को प्रशिक्षित करने पर ही नहीं, वरन उसके भीतर (ह्रदय) के परिवर्तन पर निर्भर करता है! किन्तु धर्म के प्रचलित अर्थ में महामण्डल कोई ' धार्मिक संगठन ' बिल्कुल नहीं है !
क्योंकि महामण्डल केवल तरुणों (किशोर) या युवाओं का संगठन है| उनमे से सभी लोग प्रचलित ढंग से पूजा-पाठ करने के विधि-अनुष्ठानों का पालन करने के इक्षुक नहीं भी हो सकते हैं| इसीलिये महामण्डल अपने सदस्यों को मन्दिर, मस्जिद य़ा गिरजाघर जाने के लिये कभी बाध्य नहीं करता | अथवा किसी प्रकार के प्रचलित धार्मिक पूजा-अनुष्ठान आदि का पालन करने के लिये वह अपने सदस्यों को कभी अनुप्रेरित य़ा उत्साहित भी नहीं करता|किन्तु बिना किसी अपवाद के सभी तरुणों में एक योग्य नागरिक (Enlightened Citizen) के रूप में अपना जीवन गठित करने का आग्रह अवश्य  रहता है|  बिना जाति -धर्म का भेद किये लगभग सभी तरुण अपने वतन से (भारत माता से) इतना प्रेम करते हैं कि उसका गौरव बढ़ाने तथा अपने देशवासियों के कल्याण के लिये अपने समग्र जीवन को भी उत्सर्ग कर देने से भी पीछे नहीं हटतेमाखनलाल चतुर्वेदी (१८८९-१९६८) की एक प्रसिद्द कविता 'पुष्प की अभिलाषा ' में तरुणों के हृदय का उद्गार इस प्रकार व्यक्त हुआ है - 
चाह नहीं मैं सुरबाला के
गहनों में गूथा जाऊँ !
चाह नहीं प्रेमी माला मे
बिंध प्यारी को ललचाऊँ !
चाह नहीं सम्राटों के
शव पर हे हरि डाला जाऊँ !
 चाह नहीं देवों के सिर पर
चढूँ - भाग्य पर इतराऊँ !
मुझे तोड़ लेना बनमाली
  उस पथ पर तुम देना फेंक |
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने
    जिस पथ जाएँ वीर अनेक ||

यदि 'सच्ची देश-भक्ति' के ऊपर गहराई से विचार किया जाय तो यह बात स्पष्ट हो जाती है की, स्वाधीनता संग्राम में देश के लिये केवल फांसी के फंदे पर झूल जाना ही देश-भक्ति नहीं है, बल्कि एकमात्र अपने ,
'देश और देशवासिओं के कल्याण के उद्देश्य से जीवन धारण करना ' भी सच्ची देश-भक्ति है! और सच्ची आध्यात्मिकता भी देशवासियों की सेवा-' शिव-ज्ञान ' से करने में ही सन्निहित है| स्वामी
विवेकानन्द कहते हैं, " यह जगत भगवान का विराट रूप है; एवं उसकी पूजा का अर्थ है- उसकी सेवा;  वास्तव में आध्यात्मिक कर्म इसीका नाम है, निरर्थक विधि -उपासना के प्रपंच का नहीं|"...कहीं ठाकुरजी वस्त्र बदल रहे हैं, तो कहीं भोजन अथवा और कुछ (१२ रुपया चम्मच का दूध गणेश जी पी रहे हैं ) कर रहे हैं जिसका ठीक ठीक तातपर्य भी हम नहीं समझ पाते,.. किन्तु दूसरी ओर जीवित ठाकुर भोजन, विद्या और चिकत्सा के बिना मरे जा रहे हैं ! " (३:२९९) 
देशवासियों की निःस्वार्थ सेवा करने से ही तरुणों का हृदय परिवर्तित हो जाता है, और वे 'पूर्णतर मनुष्यत्व' अर्जित करने, तथा अपने अन्तर्निहित ब्रह्मत्व को अभिव्यक्त करने में समर्थ बन जाते हैं । स्वामी विवेकानन्द के उपदेशों को स्मरण कराते हुए महामण्डल सबों को कहता है-  " धर्म का रहस्य - तत्व को जान लेने में नहीं, वरन उस तत्व-ज्ञान को आचरण में उतार लेने में निहित है ! भला बनना तथा भलाई करना " Be good and do good" - अर्थात स्वयं एक चरित्रवान मनुष्य बनना और दूसरों को भी चरित्रवान मनुष्य बनने में सहायता करना - इस 'BE AND MAKE' में ही समग्र धर्म निहित है | एक ही वाक्य में कहें तो, ' मनुष्य स्वयं अपने यथार्थ स्वरूप में क्या है ?  इस तथ्य को अपने अनुभव से जान लेना ही वेदान्त का लक्ष्य है। "  (निष्काम कर्म, भक्ति, ज्ञान और राजयोग इस सत्य की अनुभूति के चार मार्ग हैं !)
जब  कोई व्यक्ति अपरोक्षानुभूति द्वारा अपने यथार्थ स्वरूप को जान लेता है, अथवा आत्मसाक्षात्कार कर लेता है तो वह क्या देखता है ? यहाँ स्वामी जी की वाणी को ही पुनः उद्धृत करते हुए कहना पड़ता है,वह देख पाता है कि-" मनुष्य एक असीम वृत्त  है, जिसकी परिधि कहीं भी नहीं है, लेकिन जिसका केन्द्र एक स्थान में निश्चित है |और परमेश्वर एक ऐसा असीम वृत्त है, जिसकी परिधि कहीं भी नहीं है, परन्तु जिसका केन्द्र सर्वत्र है। वह सब हाथों से काम करता है, सब आँखों के द्वारा देखता है, सब पैरों के द्वारा चलता है, सब शरीरों द्वारा साँस लेता है, सब जीवों में वास करता है, सब मुखों द्वारा बोलता है और सब मस्तिष्क द्वारा विचार करता है | " (३:११९) मनुष्य भी यह जान लेता है कि अपने को केन्द्र मान कर अपने चारों ओर ह्रदय की परिधि (ह्रदयवत्ता की त्रिज्या ) को विकसित करते हुए, वह अनन्त दूरी पर  रहने वाले मनुष्यों (पराय ) को भी अपना बना सकता है ! इस प्रकार उसका ह्रदय विकसित हो जाता है, उसका प्रभाव क्षेत्र प्रसारित होता है, और वह यथार्थ ' मनुष्य ' में परिणत हो जाता है | इसी को इश्वराभिमुखी पथ-परिक्रमा कहते हैं | किन्तु प्रश्न उठ सकता है कि, क्या भारत के सभी ' जन ' अपनी स्वार्थपरता, हिंसा, लोभ, असंयम, तथा क्षुद्र अहंबोध से परिपूर्ण अपने पाशविक आवरण को भेद कर सीधा- ' ईश्वर के साथ एकत्व ' की अनुभूति कर लेंगे ?' ईश्वरत्व ' में उपनीत हो जाना इतना आसन नहीं है। अतः आचरण में अन्तर्निहित ' पशुत्व ' का अतिक्रमण कर के ' मनुष्यत्व ' अर्जित करना प्रथम सोपान है| हमलोग अभी इसी प्रथम सोपान की ओर अग्रसर हो रहे हैं|
 कह सकते हैं कि, अभी हमारी सीमा यहीं तक - ' मनुष्यत्व ' अर्जित करने तक ही है |  मनुष्य बनना पड़ता है, केवल मनुष्य का ढांचा प्राप्त हो जाने से ही कोई मनुष्य नहीं हो जाता| अतएव  जीवन में पूर्णता प्राप्त करने के अन्य जितने संभाव्य मार्ग (चार योग ) हो सकते हैं, उन सब पर चर्चा किये बिना, महामण्डल तरुणों से केवल उसी मार्ग की चर्चा करना चाहता है, जो  उन तरुणों के लिये समझने में आसान और  उपयोगी है |तरुणों के लिये उपयोगी केवल ' कर्म-मार्ग ' के ऊपर ही चर्चा करना चाहता है| महामण्डल जाति, भाषा, धर्म य़ा मतवाद के आधार पर तरुणों में कोई भेद-भाव नहीं करता|जीवन में जो कुछ भी मूल्यवान है, उन्हें एक ' महान- उद्देश्य ' को पाने के लिये त्याग देने में समर्थ होना भी तो आध्यात्मिक शक्ति है| यहाँ महामण्डल का वह 'महान - उद्देश्य ' है देश एवं करोड़ो देश-वासियों का कल्याण !
निःस्वार्थ भाव से देशवासियों के  कल्याण के लिये थोड़ा सा भी कुछ करने से, ह्रदय में सिंह का सा बल और हाथों में और अधिक कर्म करने की शक्ति प्राप्त प्राप्त होती है| महामण्डल के समस्त कार्यक्रमों के माध्यम से इसी प्रकार की 'समाज-सेवा' की जाती है, अर्थात तरुणों के चरित्र-निर्माण करने का प्रयास किया जाता है । इसीलिये ' भारत के कल्याण ' के लिये अपना और देश के तरुणों का ' चरित्र-निर्माण ' में निरन्तर लगे रहना,  महामण्डल का लक्ष्य नहीं बल्कि लक्ष्य तक पहुँचने का उपाय है | इसीलिये महामण्डल तरुणों के साथ,
वेदव्यास के शब्दों में केवल कर्म वाले धर्म की ही चर्चा करता है:-
श्रूयतां धर्म सर्वस्वं श्रुत्वा चाप्यवधार्यताम् ।
आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् ॥
अर्थ- धर्म का सर्वस्व क्या है, सुनो और सुनकर उस पर चलो ! अपने को जो अच्छा न लगे, वैसा आचरण दूसरे के साथ नही करना चाहिये। महाभारत में ही कहा गया है -
                                   

                                     सर्वेषां यः सुहृनित्यं सर्वेषां च हिते रताः ।
                                     कर्मणा मनसा वाचा स धर्म वेद जाजले ॥


अर्थ--अर्थात हे जाजले ! धर्म को केवल उसने ही जाना है, कि जो कर्म से , मन से और वाणी से सबका हित (अपने-पराये का भेद देखे बिना) करने में लगा हुआ है और सभी का नित्य स्नेही-बन्धु (हिताकांक्षी)  है।
महामण्डल के पास न तो प्रचूर धन-बल है न जन-बल है, किन्तु इसकी चिन्ता भी उसे तब तक नहीं है, जबतक उसकी दृष्टि के सामने उसका वास्तविक लक्ष्य - ' भारत का कल्याण ' बिल्कुल सुस्पष्ट है! तथा थोड़ी ही संख्या में सही, पर उसके साथ ऐसे युवा संलग्न हैं जो, यह अच्छी तरह से जान चुके हैं कि देश के कल्याण का एकमात्र उपाय है- 'चरित्र -निर्माण '!  आज भी सम्पूर्ण भारत वर्ष में बहुत बड़ी संख्या में ऐसे युवा भरे पड़े हैं, जो ईमानदार, निष्ठावान, परिश्रमी, देशभक्त, जिज्ञासु, निःस्वार्थपर, त्यागव्रती, तेजस्वी एवं साहसी हैं! महामण्डल का कार्य केवल उन्हें संगठित करना है, और अपनी मोहनिद्रा को त्याग कर इस मनुष्य-निर्माण कारी आन्दोलन से जुड़ जाने कि लिये अनुप्रेरित करना है|  

महामण्डल कुछ चुने हुए तथाकथित ' गणमान्य (VIP) ' लोगों का संगठन नहीं है| यह उन समस्त तरुणों के लिये है जो देश से प्यार करते है, अपने देश-वासियों से प्यार करते हैं, साथ ही साथ जो स्वयं से भी प्यार करते हैं| महामण्डल उन युवाओं का संगठन है, जो कर्मोद्दीपना से भरपूर एक गौरव-पूर्ण जीवन जीना चाहते हैं, और साथ ही अपने तथा राष्ट्रिय जीवन में गौरव कि परिपूर्णता प्राप्त करने के इक्षुक हैं ! यह संगठन उन सभी लोगों का है, वे चाहे जिस स्थान में रहते हो, जिस किसी भी धर्म को मानते हों, य़ा वे चाहे नास्तिक ही क्यों न हों ! महामण्डल के सदस्यों को ना तो अपना घर-परिवार छोड़ना होता है, न ही स्वभाविक रूप में प्राप्त आजीविका का भी त्याग नहीं करना होता, उन्हें केवल अपना अतिरिक्त समय देना होता है, थोड़ी शक्ति लगानी पडती है एवं यदि संभव हुआ तो इसके कार्यक्रमों को सफल करने में थोड़ा अर्थ देना पड़ सकता है| एक प्रबुद्ध नागरिक का सुसमन्वित चरित्र कहने से जो समझा जाता है, अपना वैसा ही सुन्दर चरित्र गठित करने में सहायक पाँच कार्यों- ' प्रार्थना, मनः संयोग, शारीरिक व्यायाम, स्वाध्याय, विवेक-प्रयोग' का नियमित अभ्यास पूरे अध्यवसाय के साथ करने को अनुप्रेरित किया जाता है। 
इन दिनों साधारण य़ा असाधारण सभी तरह के मनुष्य गली-नुक्कड़ पर खड़े होकर अक्सर ये बातें करते हैं कि-भारत कि वर्तमान अवस्था में परिवर्तन लाने के इस निकम्मी सरकार को तुरन्त बदल देना होगा!  कोई- कोई यह सुझाव भी देते हैं कि प्रजातन्त्र के वर्तमान स्वरूप को ही बदल देने के लिये इसके संविधान में संसोधन कर लोकपाल बिल तो लागु करना ही होगा। किन्तु लोकपाल का उत्तरदायित्व उठाने के लिये य़ा सरकार को सही ढंग से चलाने के लिये, और भी अधिक योग्य, ईमानदार, चरित्रवान मनुष्य 'जन' चाहिये - वे कहाँ से आयेंगे ?  ' आम आदमी' में उन सच्चरित्र मनुष्यों का निर्माण करने कि जिम्मेदारी कौन उठाएगा ? उनका निर्माण कैसे होता है, यह कौन बतायेगा और करके दिखायेगा ? जो लोग बाहें चढाते हुए, गणतान्त्रिक व्यवस्था में क्रान्तिकारी परिवर्तन लाने के लिये संघर्ष-रत रहने (अन्नाहजारे के साथ जंतर-मंतर पर बैठ कर आमरण-अनशन करने) का दावा किया करते हैं, वे सभी किन्तु इस सबसे अनिवार्य कार्य के ऊपर कोई योजना नहीं बनाते, और इस असली कार्य को ही भूले रहते हैं।
इसीलिये महामण्डल अभी से उतने बड़े बड़े परिवर्तनों को लाने की तरफ ध्यान दिये बिना, सबों के द्वारा परित्यक्त इस ' चरित्र-निर्माण ' के कार्य को करने का उत्तरदायित्व अपने कन्धों पर उठा लेना चाहता है! क्योंकि इस प्रथम-करनीय कार्य को पूरा किये बिना- बाद वाले बड़े-बड़े परिवर्तन कभी संभव नहीं है| अतः महामण्डल पूरी विनम्रता के साथ यह स्वीकार करता है कि उसके कार्य क्षेत्र कि सीमा य़ा उसकी उड़ान बस यहीं तक है ! इसलिए राजनीति के साथ महामण्डल का कोई सम्बन्ध नहीं है; जो सर्वदा 

' घोड़े के आगे गाड़ी रखते हैं ' !
स्वामीजी ने कहा है-" उदाहरण के लिये कर्म-प्रक्रिया को ही लो| हम गरीबों को आराम देकर उनकी भलाई करने का प्रयत्न करते हैं| हमें दुःख के मूल कारण का भी ज्ञान नहीं है ! यह तो सागर को बाल्टी से खाली करने के बराबर है |" (४:१६१) ट्रकों के ऊपर- ' मेरा भारत महान ' लिख देने से ही भारत महान नहीं बन जाता| कोई भी देश तब महान बनता है, जब वहाँ के मनुष्य (नागरिक) महान होते हैं! वास्तविक प्रयोजनीयता क्या है- गहन चिन्तन करके पहले उसको जान लेना चाहिये | फिर उस प्रयोजनीयता - ' यथार्थ मनुष्यों का निर्माण ' के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये ' चरित्र-निर्माण की पद्धति ' को सीख कर उसे अपने आचरण में उतारना चाहिये । यदि एक बड़ा परिवर्तन लाकर, भारत वर्ष को पुनः उसकी उचाईयों पर ले जाना चाहते हों, उसे एक ' महान- राष्ट्र ' बनाना चाहते हों तो उसका एक मात्र उपाय यही है !
महामण्डल की पुस्तिका " चरित्र के गुण " का अध्यन कर, उन गुणों को अभ्यास के द्वारा अपने जीवन और आचरण में उतार कर आत्मसात कर लेना होगा| दैनन्दिन जीवन में कोई भी कार्य करने के पहले 'विवेक-प्रयोग ' की शक्ति अर्जित करने समर्थ बनाने वाली शिक्षा को ही वास्तविक शिक्षा कहते हैं| अतः वास्तविक ' शिक्षित -मनुष्य ' (केवल डिग्रीधारी नहीं )  कहने से जो अर्थ निकलता है, वैसे मनुष्यों का निर्माण करना ही महामण्डल का उद्देश्य है !
यह स्वाभाविक है कि इस कार्य में समय तो लगेगा| ' अमृत-मन्थन ' करने के समान- निरन्तर, बिना विश्राम लिये कठोर परिश्रम किये बिना-  केवल बैठ कर सोचते रहने से ही, रातों-रात किसी बड़े क्रान्तिकारी परिवर्तन को रूपायित नहीं किया जा सकता| स्वामीजी कहते हैं, " सभी आधुनिक सुधारक युरोप के "विनाशात्मक -सुधार की नकल " करना चाहते है,   (धरणा देने या आमरण-अनशन करने से देश की मूल आवश्यकता-' चरित्रवान मनुष्य ' का निर्माण नहीं हो सकता, ऐसे ' चरित्रवान-जन ' कहाँ से आयेंगे जो 'जन-लोकपाल ' बिल को पूरी ईमानदारी से लागु करे ? ) इससे न कभी किसी की भलाई हुई है और न होगी| हमारे यहाँ के सुधारक - शंकर, रामानुज, मध्व, चैतन्य- हुए हैं|ये महान सुधारक थे, जो  सदा राष्ट्र-निर्माता रहे और उन्होंने अपने समय की परिस्थिति के अनुसार राष्ट्र-निर्माण किया (उन्होंने इसकेलिए कभी आमरण अनशन या धरणा-सत्याग्रह नहीं किया )| यह काम करने की हमारी (भारत की) विशिष्ट विधि है !" (४:२५६)
 " मेरा ध्येय निर्माण है, विनाश नहीं ! ..संक्षेप में वह योजना है : वेदांती आदर्शों (ठोस चरित्र निर्माण) को सन्त और पापी, ज्ञानी और मूर्ख, ब्रह्मण और चंडाल के नित्यप्रति के व्यावहारिक जीवन में प्रतिष्ठित करना | " (४:२५६)
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " यदि किसी कार्य को जड़ से आरम्भ करना हो तो कोई भी यथार्थ प्रगति धीर गति से होने को बाध्य है |" कोई कोई बुद्धिजीवी ( किसी दार्शनिक का सा चेहरा बनाकर ) अपने हिसाब से बड़ा ही सूक्ष्म प्रश्न उठाते हुए कहते है-" क्या इतने बड़ी जनसंख्या वाले देश के समस्त मनुष्यों का चरित्र-निर्माण कभी संभव है?" ठीक है- वैसा करना संभव नहीं ही है, तो आप के पास क्या विकल्प है, जरा वही बता दीजिये ?  यही न कि- ' यथा पूर्वं तथा परम '! अर्थात अब कुछ नहीं हो सकता, बोल कर हाथ पर हाथ धरे बैठे रहें और " Dooms Day " का इंतजार करे ? इस प्रकार सोचने से क्या किसी भी समस्या का समाधान होगा ?
किन्तु यदि संघ-बद्ध होकर थोड़े से लोग भी स्वयं को और साथ-साथ दूसरों को भी- मनुष्य बनाने के प्रयत्न में लगे रहें तो कोई न कोई तरुण अवश्य ही यथार्थ-मनुष्य के रूप में उन्नत हो सकेगा|क्रमशः ऐसे मनुष्यों की संख्या में वृद्धि होती रहेगी जिसके साथ-साथ उसी के अनुपात में समाज भी परिवर्तित होने को बाध्य हो जायेगा | स्वामी विवेकानन्द ने उदहारण देते हुए कहा था- " जब हम विश्व-इतिहास का मनन करते हैं, तो पाते हैं कि जब जब किसी राष्ट्र में ऐसे लोगों की संख्या में वृद्धि हुई है, तब तब उस राष्ट्र का अभ्युदय हुआ है; और जैसे ही कोई राष्ट्र अपनी अन्तः-प्रकृति का अन्वेषण करना वह छोड़ देता है, वैसे ही उस राष्ट्र का पतन होने लगता है |भले ही उपयोगितावादी लोग इस चेष्टा (मनुष्य-निर्माण) को कितना भी अर्थहीन प्रयास कहते रहें |" (२:१९८) उनका सिद्धान्त बिल्कुल स्पष्ट था - " हमें उस समय तक ठहरना होगा, जब तक कि लोग शिक्षित (चरित्रवान) न हो जाएँ, जब तक वे अपनी आवश्यकताओं को न समझने लगें और अपनी समस्याओं को स्वयं ही हल करने में समर्थ न हो जाएँ ! " (४:२५४)
शिक्षा के सम्बन्ध में भी स्वामीजी अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करते हुए कहते हैं- " जिस विद्या ( ' मनः संयम ' अर्थात मन को एकाग्र करने की विद्या ) का अभ्यास करने से, इच्छा-शक्ति के प्रवाह को शक्तिशाली बनाकर, उसे इस प्रकार संयमित कर लिया जाता है जिससे वह ' फलप्रसविनी-शक्ति ' के रूप में रूपान्तरित हो जाती है, उस (मनः संयोग की)  विद्या के अभ्यास को ही - ' शिक्षा ' कहते हैं !"(७: ३५९)  किन्तु  इस शिक्षा को पर्षद एवं विश्वविद्यालय के अनुदान पर राज्य-संपोषित विद्यालय और कॉलेज की स्थापना करने से ही नहीं दी जा सकती | प्रतिष्ठित शिक्षालयों की संख्या तो इतनी हैं, जिसे गिना भी नही जा सकता, इसके अलावा एक से एक बड़े बड़े नामी-गिरामी विद्यालय, प्रतिदिन खुलते भी जा रहे हैं| स्वामी जी कहते हैं- " जन समुदाय के दुःख-कष्ट में सहभागी बनने के लिये अपने भोग-विलास को त्याग देने की भावना का विकास अभी तक हमारे देशवासियों के ह्रदय को वेध नहीं सका है |" तरुण समुदाय के प्राणों में इस बोध-शक्ति को जाग्रत करा देना होगा| अपने देश के सभी युवाओं के द्वार-द्वार तक इस शिक्षा (मन को एकाग्र करने की विद्या) का वहन करके ले जाना होगा ' यदि पहाड़ मुहम्मद तक नहीं आता तो मुहम्मद को ही पहाड़ के पास जाना होगा'-  यही है महामण्डल का कार्य !
एक प्रश्न और है जिसे हमलोगों को अक्सर सुनना पड़ता है, कुछ लोग पूछते हैं- " आप लोगों का उद्देश्य तो महान है, आपकी परिकल्पना भी प्रशंसनीय हैं, किन्तु इस कार्य को धरातल पर उतारने के लिये आपकी पद्धति क्या है ? आप इस कार्य को पूरा करने के लिये किस प्रकार अग्रसर होना चाहते हैं ? इसके  उत्तर में हमलोगों को यही कहना पड़ता है कि, प्राचीन काल में हमलोगों के ऋषियों ने मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माण की जिस पद्धति का अविष्कार किया था, और वर्तमान युग के द्रष्टा- स्वामी विवेकानन्द ने उस पद्धति को जितना सरल बना कर हमें समझाया है, वह पद्धति पूरी तरह से विज्ञानसम्मत है | वही पथ महामण्डल का भी है |
आधुनिक मनोविज्ञान की व्याख्या भी मानो उसी मनःसंयोग विद्या की एक क्षीण प्रतिध्वनी है| उस पद्धति को संक्षेप में इस प्रकार कहा जा सकता है : पहले श्रवण, उसके बाद मनन के द्वारा चरित्र के गुणों की स्पष्ट-धारणा को अपने अवचेतन मन स्थापित करना, उसके बाद उनका सुरक्षण, अभिचालन, एवं अभिलेषण य़ा इच्छा शक्ति के द्वारा उन समस्त गुणों को स्थायी छाप य़ा संस्कार में परिणत करना होता है |
इसके बाद - ' श्रेय-प्रेय ' के विवेक-विचार को सीख कर, लालच को थोड़ा काम करते हुए, मन को वश में रखने के माध्यम से बार-बार इस तरह के कर्मों का अनुष्ठान करना, जिनके भीतर उन गुणों के भाव प्रतिफलित हो जाएँ| इसमें ह्रदय की भी एक भूमिका है |क्योंकि नियन्त्रित ह्रदय-आवेग, समग्र चरित्र-निर्माण की प्रक्रिया को ही सरस बना देती है|इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि, चरित्र-निर्माण की सम्पूर्ण प्रक्रिया में - पहले श्रेय-प्रेय का 'विवेक' को जीवन में अंगीकार कर लेना सीखना (ज्ञान-योग) है, मन को वश में रखने य़ा मन को एकाग्र करने का अभ्यास(राज-योग)है, एवं नियन्त्रित ह्रदय आवेग (भक्ति-योग) है, एवं पूर्व-निर्धारित सुचिन्तित उद्देश्य - ' भारत का कल्याण ' के लिये निःस्वार्थ कर्म करना (कर्म-योग) है| इन चारों के सुसमन्वित अभ्यास से चरित्र-गठन किया जाता है |
महामण्डल के कार्यक्रमों को इस प्रकार निर्धारित किया गया है कि, इसमें सम्मिलत प्रत्येक सदस्य को इन चारों योग मार्गों का अनुसरण करने का अवसर प्राप्त हो जाता है| महामण्डल का मनुष्य-निर्माण कारी कार्यक्रम उपर्युक्त योग-प्रणाली के अनुरूप चार धाराओं में यथाक्रम, बँटी हुई है- पाठचक्र, मनः संयोग, प्रार्थना, एवं समाज-सेवा| समाज-सेवा महामण्डल का उद्देश्य नहीं है, बल्कि चरित्र-गठन का उपाय मात्र है|
इसीलिये महामण्डल के कार्यों का परिमाप करते समय, समाज-सेवा के परिमाण को मानदण्ड बनाना ठीक नहीं होगा|  बल्कि यह देखना होगा कि उन कार्यों का सम्पादन करते समय उस महामण्डल-कर्मी का दृष्टिकोण कैसा है, वह शिव-ज्ञान से निष्काम जीव-सेवा कर रहा है,य़ा नाम-यश पाने के लोभ से कर रहा है ? इस प्रकार सेवा-कर्मी का सही मनोभाव के साथ लक्ष्य प्राप्ति हेतु स्वाध्याय, विवेक-शक्ति,एवं हृदयवत्ता की त्रिज्या के विस्तार से प्रेम की परिधि के विस्तार, तथा मन पर नियन्त्रण करने की शक्ति कितनी बढ़ी है, यही सब विचारणीय हैं|
महामण्डल के सभी केन्द्र अपने अपने क्षेत्र में  इस प्रकार के परिवेश की रचना कर देता है, जिससे वहाँ के तरुण महामण्डल के उद्देश्य के अनुरूप अपना चरित्र गठन का अभ्यास करने में सक्षम हो सकें| महामण्डल के केन्द्र ग्रामों में य़ा शहरों में कहीं भी स्थापित किये जा सकते हैं|इस समय देश के १२ राज्यों में महामण्डल के ३५० केन्द्र हैं| इन केन्द्रों को किसी विद्यालय के एक कमरे में, बरामदे में, किसी पेंड़ की छाया में, य़ा खेल के मैदान में - य़ा जहाँ कही भी तरुण लोग एकत्र होते हों, वही पर स्थापित किया जा सकता है । वहाँ पर वे अपने शरीर को स्वस्थ सबल रखने के लिये व्यायाम करते हैं,ज्ञान को बढ़ाने तथा बुद्धि को तीक्ष्ण करने के में उपयोगी अध्यन-चर्चा किया करते हैं,फिर विशाल समुद्र के जैसा जिनका ह्रदय था, उन्ही स्वामी विवेकानन्द के जीवन और उपदेशों का पाठ करते हैं, तथा अपने अपने ह्रदय की प्रसारता को बढ़ाने के लिये, मनुष्य की सेवा करने के लिये उनके दिये निर्देशों को कार्य में उतार देने की चेष्टा करते हैं| ' Be and Make ' के माध्यम से ' 3H-निर्माण ' की यह पद्धति कितनी ज्यादा कारगर है, इस बात पर कोई तब तक विश्वास नहीं कर सकता जब तक वह स्वयं इसी प्रणाली का अनुसरण के फलस्वरूप यह नहीं अनुभव कर लेता का कि उसका ह्रदय कितना विशाल हो गया है!
युवा महामण्डल के ही जैसा, बच्चों के लिये एक अलग ' शिशु-विभाग ' भी है,जिसमे उन्ही अभ्यासों को सहजतर तरीके से किया जाता है| कई जगह पर महामण्डल के केन्द्रों में - दातव्य चिकित्सालय, कोचिंग-क्लास, प्रौढ़ शिक्षा केन्द्र, शिशु पाठशाला, छात्रावास, पुस्तकालय-सह-वाचनालय, पौष्टिक आहार वितरण आदि कार्य भी समाज-सेवा के रूप में चलाये जाते हैं| इसके अतिरिक्त जरुरत पड़ने पर, अपने अपने क्षेत्र में प्राकृतिक आपदा से पीड़ित लोगों के लिये राहत-कार्य, कृषक, दिन-छात्रों, तथा अभावग्रस्त लोगों को सामयिक सहायता एवं इसी प्रकार के और भी  कई कार्यक्रम चालये जाते हैं|
 किन्तु समाज सेवा के इन समस्त कार्यों को करते समय उनका मनोभाव यही रहता है कि, 'नर- देह में नारायण की सेवा ' करने का जो सूयोग मिला है, उसे पूजा के भाव से करना है|तथा इसी भावना को जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में विकसित करना हमारा उद्देश्य है|ये लोग प्रति वर्ष जरुरतमन्द रोगियों के लिये रक्त-दान करते हैं| इस प्रकार वे उन समस्त कार्यों को करते हैं, जिसके माध्यम से मांस-पेशियों को बलिष्ठ बनाने, मस्तिष्क को प्रखर करने, और ह्रदय को प्रसारित करने में सहायता मिलती हो|   मनुष्य-निर्माण एवं चरित्र-गठन की पद्धति को सभी तरुण सही ढंग से समझ पाने में समर्थ हों, इसके लिये, अखिल भारतीय-स्तर पर,राज्य-स्तर पर, जिला स्तर पर, य़ा स्थानीय-स्तर पर भी प्रति वर्ष युवा प्रशिक्षण शिविर आयोजित किये जाते हैं|
 मन को एकाग्र करने की पद्धति, चरित्र-निर्माण की पद्धति एवं चरित्र के गुण, ' नेति से इति 'आदि विषयों को स्पष्ट रूप से समझा दिया जाता है|यहाँ बताये जाने वाले निर्देशों को आग्रही तरुण लोग अपने अपने नोटबुक में उतार लेते हैं, तथा अपने चरित्र के गुणों में वृद्धि के प्रतिशत को तालिका बद्ध करके स्वयं अपना मूल्यांकन य़ा ' आत्म-मूल्यांकन तालिका ' को भरना सिखाया जाता है|  बाद में सभी तरुण व्यक्तिगत स्तर पर अपने चरित्र के गुणों में मानांक में प्रतिशत की वृद्धि को देख कर स्वयं ही उत्साह से भर उठते हैं|
 देश के विभिन्न प्रान्तों से आये, विभिन्न भाषा-भाषी युवा समुदाय, जब एक ही उद्देश्य को प्राप्त करने के लिये, छः दिनों तक एक ही साथ वास करते हैं, सामूहिक क्रिया-कलाप एवं पारस्परिक प्रेमपूर्ण व्यवहार से, उनके भीतर सहिष्णुता, सहयोग की भावना, एकात्म-बोध, एवं राष्ट्रिय एकता की भावना जागृत होती है|  शिविर के सभी कार्यक्रम उन्हें एक कर्तव्यपरायण, देशभक्त, निःस्वार्थी एवं त्यागी उन्नततर नागरिक में परिणत होने में सहायक सिद्ध होते हैं | इस प्रकार इस प्रशिक्षण-शिविर के माध्यम से  तरुण लोग मवोचित भाव से विभूषित, सेवा के लिये तत्पर, एवं उदार जीवन दृष्टि सम्पन्न - प्रबुद्ध नागरिक में परिणत हो जाते हैं !
राष्ट्र की सेवा सही ढंग से कर पाने में समर्थ होने के लिये पहले योग्यता अर्जन करना कितना आवश्यक है, इसे युवाओं को ठीक तरीके समझ लेना होगा | अपना सुन्दर चरित्र गढ़ लेना ही सबसे बड़ी समाज-सेवा है ! देश-सेवा की योग्यता-अर्जन करने के माध्यम से, य़ा प्रबुद्ध-नागरिकता अर्जित करने के माध्यम से ही तरुण लोग सामाजिक समस्याओं का समाधान करने एवं समाज के अनिष्ट को रोकने में समर्थ हो सकते हैं| समाज के अन्य सभी वर्ग के लोगों का यह पुनीत कर्तव्य है कि, वे इन तरुणों को अपना चरित्र-गठन करने के प्रयास में हर संभव सहायता करें|महामण्डल का अपने लिये निर्वाचित कर्म-क्षेत्र बस यहीं तक है । भारत को महान बनाने के लिये, जो सबसे अनिवार्य कार्य है, वह है तरुणों के लिये उपयुक्त शिक्षा की व्यवस्था लागु करना|शिक्षा-पद्धति को ऐसा होना चाहिये जिसे तरुण लोग शरीर-मन -ह्रदय, हर दृष्टि(3H Head ,hand and Heart ) से विकसित हो उठें|
प्रत्येक तरुण में पूर्णत्व का विकास ही शिक्षा का उद्देश्य होना चाहिये | तरुणों के तीनों अवयवों का सुसमन्वित विकास कराकर, प्रत्येक युवा को योग्य नागरिक में परिणत करना ही शिक्षा का उद्देश्य है, और आज इसी शिक्षा की आवश्यकता है । किन्तु हमारे विद्यालयों के लिये जो शिक्षा व्यवस्था अभी प्रचलित है, उसमे चरित्र-निर्माण य़ा मनुष्य-निर्माण की कोई चर्चा ही नहीं है |  इस दृष्टि से देखने पर महामण्डल के सारे कार्यक्रम प्रचलित शिक्षा-व्यवस्था की परिपूरक हैं ! और चूँकि महामण्डल के समस्त कार्यक्रमों में समाज-सेवा का भाव अनिवार्य रूप से अन्तर्निहित रहता है, इसीलिये जिन राज्यों के जिन-जिन जिलों में महामण्डल के केन्द्र क्रियाशील हैं, वहाँ का समाज इनकी सेवाओं से अवश्य लाभान्वित होता है |
 तथा जो लोग महामण्डल में योगदान करते हैं, उन निष्ठावान कर्मियों को महामण्डल जो सेवाएं प्रदान करता है, वही तो सर्वश्रेष्ठ समाज-सेवा है ! क्योंकि यही एकमात्र वैसा कार्य है - जो समाज की दशा में वास्तविक परिवर्तन लाने में समर्थ है| इस प्रकार हम कह सकते हैं कि, महामण्डल कोई संस्था ही नहीं वरन एक धीमी-गति से चलने वाला एक विशेष प्रकार का आन्दोलन है | यदि देश के युवा वर्ग का एक बड़ा हिस्सा इस आन्दोलन से जुड़ जाएँ तो इसमें कोई सन्देह नहीं कि यह आन्दोलन, निश्चित रूप से  समाज की पत्नोंमुख दिशा को उन्नति की दिशा में, भ्रष्टाचार की दिशा से सदाचार की दिशा में ले ही जायेगा |
विगत ४९ वर्षों से इसके कार्यों की प्रगति तथा सफलताओं के प्रत्यक्ष प्रमाण को देख कर यह आशा क्रमशः बढती जा रही है, तथा इस आन्दोलन से जुड़े पुराने निष्ठावान कर्मियों की आशा अब तो दृढ विश्वास में परिणत हो चुकी है ! चरित्रवान मनुष्यों का निर्माण कर के, समाज के हर क्षेत्र में इसी प्रकार के मनुष्यों को प्रविष्ट कर देना है-  किन्तु यह कार्य दूसरों के ऊपर जासूसी करने के लिये नहीं है, य़ा राजनीति करके सत्ता का सुख संग्रहित करने के लिये भी नहीं है | इस आन्दोलन से जुड़े रहने का एकमात्र कारण यही है कि - इस कार्य (चरित्र-निर्माण ) को छोड़ कर अन्य किसी भी उपाय से समाज कि चरम-समस्या, भ्रष्टाचार कि समस्या का निदान होना संभव नहीं है ! धन्यवाद-रहित इस कार्य को सफलता पूर्वक सन्चालित कर पाने में सक्षम होकर ही महामण्डल संतुष्ट है!
अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामंडल का संक्षिप्त परिचय :

उद्देश्य : भारत का कल्याण

उपाय : चरित्र निर्माण

 आदर्श : स्वामी विवेकानन्द
 
        आदर्श वाक्य : Be and Make!

स्वामी विवेकानन्द के उपदेश -"अतएव, पहले - ' मनुष्य ' उत्पन्न करो|"  (८:२७०) का तात्पर्य  ऐसे ही चरित्रवान मनुष्यों का निर्माण करने से है |उनके इस परामर्श पर हम भारत वासियों ने अभीतक ठीक से कर्ण-पात नहीं किया है|किन्तु उनके इसी वाणी में - ' आमूल क्रान्तिकारी-परिवर्तन 'य़ा ' Total Revolution '(सम्पूर्ण क्रांति) का बीज निहित है |
सत्ता और सम्पत्ति के लालच में लीन गोपनीय राजदूतों (Informer ) के सुखकर स्वप्न बाद में कहीं खो न जाये, इसी डर से नवीन भारत के इस जननायक के गले में केवल एक ' हिन्दू -सन्यासी ' का तगमा(लेबल) लगा कर,  भारत कि आम जनता से दूर हटाने का प्रयास करना छोड़ कर आइये, हमलोग इसी चरित्र-निर्माण कार्य में कूद पड़ें, एवं मनुष्य-निर्माण के इस आन्दोलन को, एक प्रान्त से दूसरे प्रान्त में फैलाते हुए सम्पूर्ण राष्ट्र के कोने-कोने तक पंहुचा दें!

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(अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल की पुस्तिका - ' एकटी युव आन्दोलन ' के एक अध्याय,
' महामण्डलेर लक्ष्य उ कर्मधारा ' का भावानुवाद |) 
  
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स्वामी विवेकानन्द ने कहा था- " मैं यहाँ मनुष्य-जाति में एक ऐसा वर्ग उत्पन्न करूँगा, जो ईश्वर में अंतःकरण से विश्वास करेगा और संसार की परवाह नहीं करेगा| यह कार्य मन्द, अति मन्द, गति से होगा|" (४:२८४)

" जिसके मन में साहस तथा ह्रदय में प्यार है,वही मेरा साथी बने- मुझे और किसी की आवश्यकता नहीं है।...हम सब कुछ कर सकते हैं और करेंगे; जिनका सौभाग्य है, वे गर्जना करते हुए हमारे साथ निकल आयेंगे,  और जो भाग्यहीन हैं, वे बिल्ली की तरह एक कोने में बैठ कर म्याऊँ-म्याऊँ करते  रहेंगे ! "(४:३०६)

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