बुधवार, 15 दिसंबर 2010

धर्म क्या है ? 2 G स्‍पेक्‍ट्रम ?



न्यायाधीश जी.एस. सिंघवी और न्यायाधीश ए.के. गांगुली की पीठ ने कहा, " 2G स्‍पेक्‍ट्रम के आवंटन में उचित प्रक्रिया नहीं अपनाने से सरकारी खजाने को करीब 1 लाख 76 हजार करोड़ रुपये  का नुकसान हुआ। देश के अन्य सभी घोटालों की राशि देखने पर उतनी शर्मिदगी नहीं आती कि जितनी कि आवंटन घोटाले की राशि पैदा कर रही है।"  2G घोटाले में शामिल राशि की मात्रा को देखते हुए सर्वोच्चा न्यायालय ने कहा कि अन्य सभी घोटालों की राशि मिला देने पर भी यह घोटाला उस राशि पर भारी प़डेगा। 
स्पेक्ट्रम घोटाला मामले की जेपीसी से जांच कराने की मांग पर सरकार और विपक्ष के बीच गतिरोध के चलते ही संसद का पूरा सत्र सोमवार (१३ दिसम्बर २०१०)  को समाप्त होने जा रहा है। इसी के साथ पूरे सत्र के दौरान एक भी दिन कामकाज नहीं हो पाने का देश के संसदीय इतिहास में एक रिकॉर्ड बन जाएगा।  किन्तु चाहे सत्ता पक्ष हो य़ा विपक्ष दोनों में से कोई भी पक्ष यह बता पाने में असमर्थ है किआखिर इस सुरसा के मुख के समान दिनों-दिन फैलते हुए इस 'सर्वव्यापक' भ्रष्टाचार से मुक्ति पाकर भारत माता को पुनः उसके गौरवशाली सिंहासन पर आरूढ़ किस प्रकार कराया जा सकता है?
आखिर हमारे इस विश्व के के सबसे बड़े लोकतंत्र के समक्ष यह किंकर्तव्य विमूढ़ कर देने वाली अवस्था क्यों आ गयी है ?यह इसीलिये है कि हमारी जनता ने जिनके हाथों में संसद का पक्ष और विपक्ष चलाने की जिम्मेदारी सौंपी है, उन दोनों पक्षों के शीर्ष पर बैठे नेताओं में से किसी ने भी भारत के महान देशभक्त युवा नेता ऋषि स्वामी विवेकानन्द द्वारा १०० वर्ष पूर्व ही आविष्कृत " भारत पुनर्निर्माण सूत्र " - ' Be and Make'  को समझने का प्रयास ही नहीं किया है.
आइये यहाँ हमलोग यह समझने का प्रयास करते हैं कि आखिर इस छोटे से सूत्र को समझ लेने से ही भारत माता को इस भ्रष्टाचार दुराचार के दल-दल से निकाल कर, कैसे एकबार पुनः उसे अपने गौरवशाली सिंहासन पर आरूढ़ कराया जा सकता है? अंग्रेजी के प्रसिद्ध कवि Robert Browning (१८१२-१८८९) की एक प्रसिद्ध उक्ति है- 

" Progress, man’s distinctive mark alone, 
Not God’s, and not the beasts’: 
God is, they are, 
Man partly is and wholly hopes to be."  

- " विकास करना केवल मनुष्य योनी की विशिष्ट पहचान है, यह विशिष्टता न तो देवताओं में है और न तो पशुओं में ही, क्योंकि देवता और पशु तो पहले से ही हैं (उनको पशु बनने के लिये कहना नहीं पड़ता है).किन्तु मनुष्य अभी अधुरा है, 'अंश' है, तथा वह ' पूर्ण-मनुष्य ' बन जाने की सम्भावना रखता है!" 
पशु लोग जिस अवस्था में जन्म लेते हैं, उसी अवस्था में बूढ़े होकर मर जाते हैं. परन्तु मनुष्य जिस अवस्था में जन्म लेता है, बूढ़े हो जाने तक भी वह उसी अवस्था में नहीं रहता.वह चाहे तो विद्या सीख कर अपना चारित्रिक विकास कर सकता है, और पशु-मानव से देव-मानव में उन्नत होने के बाद अपने शरीर का त्याग कर सकता है. यह ठीक है कि जन्म के समय मनुष्य अपूर्ण रहता है.
 एक अबोध शिशु के रूप में वह पैर के अंगूठे को मुख में डाल कर चूसता रहता है. किन्तु उस अवस्था में भी मनुष्य मात्र के भीतर 'पूर्णत्व' क्रमसंकुचित अवस्था में विद्यमान रहता है. यही पूर्णत्व पशुयोनियों में भी क्रमसंकुचित रहती है, किन्तु वहाँ इस पूर्णता को अभिव्यक्त करने की विद्या सीखने के लिये अनुप्रेरित करने वाला 'विवेक' सम्पन्न परिष्कृत 'अंतःकरण' नहीं रहता. 
किन्तु मनुष्य के पास वैसा एक परिष्कृत अंतःकरण है, जो अपने मिथ्या अहंकार को हटा कर शिष्य बन सकता है, तथा अपने अन्तर्यामी गुरु से श्रेय और प्रेय के बीच विवेक करना सीख लेता है. और वह विवेकी मनुष्य केवल ' प्रेय ' ( आहार, निद्रा, भय, मैथुन ) में ही लिप्त रहकर पशुओं के जैसा मर जाने को बाध्य नहीं होता. इसी विवेक के निर्देशन में, स्वयं अपने पुरुषार्थ से वह 'अंश' से ' पूर्ण ' जाता है ! 
इसी प्रकार अंश से पूर्ण-मनुष्य बन जाने का आह्वान करते हुए स्वामी विवेकानन्द ने कहा था- " Be " तथा उपाय बताया था- " Make "! अर्थात तुम ' स्वयं मनुष्य बनो तथा दूसरों को भी मनुष्य बनने में साहायता करो' | 
तथा विशेष रूप से युवाओं का आह्वान करते हुए कहा था- " चरैवेति ! चरैवेति !!"  अर्थात मनुष्य बनने और बनने का प्रयास तबतक निरन्तर करते रहो, जब तक यह चरित्र-निर्माणकारी और मनुष्य निर्माणकारी विद्या (शिक्षा) एक आन्दोलन के रूप में भारत के गाँव गाँव तक नहीं फैल जाय - तुम विश्राम मत लो !
वे कहते थे- " Arise ! Awake !! and stop not till the goal is reached ."" उठो ! जागो !! और लक्ष्य प्राप्त होने तक विश्राम मत लो !" यही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है, तथा यही भ्रष्टाचार रूपी कैंसर से छुटकारा पाने का एक मात्र उपाय है. कहा गया है-
" आहार निद्रा भय मैथुनं च सामान्यमेतत पशुर्भी नराणाम |
    एको ही तेषाम अधिको विशेषो धर्मेण हीनः पशुर्भी समानः ||"
पशु से मनुष्य में अन्तर कहाँ आता है ? मनुष्यों को एक विशेष वस्तु ईश्वर की ओर से प्राप्त है जिसको 'धर्म' कहा जाता है. यह धर्म जिस मनुष्य के जीवन में नहीं उतरा है, वह तो पशु के समान ही है. किन्तु यह 'धर्म' क्या है ? 
इसके बारे में महामण्डल के अध्यक्ष श्री नवनिहरण मुखोपाध्याय (नवनी दा) कहते है- " यदि एक लाख मनुष्यों में से एक मनुष्य भी यह समझ लेता है कि धर्म क्या है, तो बहुत कहा जायेगा. अधिकांश लोग अपने अपने मन के अनुसार सोंच कर, मनमाने ढंग से धर्म की कोई परिभाषा य़ा धारणा गढ़ लेते हैं; तथा 
' धर्मावलम्बी ' होने को ' मतावलम्बी ' होने का पर्यायवाची मान कर धर्म के नाम पर एक दूसरे के साथ लड़ते-झगड़ते रहते हैं, दंगा-फसाद करने पर भी उतारू हो जाते हैं." महाभारत में कहा गया है- 

श्रुतिर्विभिन्ना स्मृतयो विभिन्नाः,
नैको मुनिर्यस्य वचः प्रमाणम् ।
धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायां ,
महाजनो येन गतः सः पन्थाः ॥
- महाभारत
अर्थ- वेद और धर्मशास्त्र अनेक प्रकार के हैं । कोई एक ऐसा मुनि नहीं है जिसका वचन प्रमाण माना जाय । अर्थात् श्रुतियों,स्मृतियों, और मुनियों के मत भिन्न-भिन्न हैं । धर्म का तत्व अत्यंत गूढ है- वह साधारण मनुष्यों की समझ में नही आ सकता । ऐसी दशा में , महापुरूषों ने - जिस मार्ग का अनुकरण किया हो , वहीं धर्म का मार्ग है, उसी को अपनाना चाहिए ।
" धारणात धर्मः ईति आहू- स धर्म ईति निश्चयः "
धर्म उसे कहते हैं, जो हमारे मनुष्यत्व बोध को धारण करता है. अर्थात अपने आचरण और व्यवहार में जिस गुण ( श्रेय-प्रेय विवेक से उत्पन्न निःस्वार्थपरता ) को धारण करने के कारण ही हम मनुष्य कहलाने योग्य बनते हैं, उसे ही धर्म कहा जाता है. 
जब इस सर्व-श्रेष्ठ मनुष्य शरीर में जन्म हो गया जिसमे ' विवेक ' हमारी विशिष्ट पहचान (Distinctive Mark ) है, तब हमे फिर पशु जैसा जीवन न बिताकर, इस " देवदुर्लभ विवेक " को सदा जाग्रत रखते हुए, इसे बढ़ाते जाना है और 'अंश' (पशुमानव) से 'पूर्ण'(देवमानव) में रूपान्तरित हो जाने तक विश्राम नहीं लेना है.    
 धर्म को जीवन में धारण करने य़ा ' धर्मावलम्बी ' होने का अर्थ- त्रिपुण्ड धारण करना अथवा रामनामी चादर ओढ़ कर मन्दिर-मन्दिर मत्था टेकते रहना.य़ा हर शुक्रवार को मस्जिद जाकर नमाज पढ़ लेना अथवा सन्डे-सन्डे गिरिजा में जाना और - अपने अपने घर वापस आने के बाद फिर वैसा ही पशुओं जैसा जीवन जीना नहीं है. 
धार्मिक मनुष्य होने का दावा करने के बाद भी अपने स्वार्थ को पूरा करने के लिये देश की य़ा दूसरों की क्षति करने वाला पशुमानव बने रहने को धर्म नहीं कहा जाता है.इसीलिये स्वामी विवेकानन्द कहते थे- " यदि धार्मिक कर्म-कांडों में (या घुटनों की कवायद) में ही जीवन भर अटके रहने को धर्म समझते हो, तो उससे अच्छा यह होगा कि घड़ी-घन्टा को गंगाजी में बहा दो, और पण्डित-मौलवी को बंगोपसागर में डुबो दो. "
हमलोग आज जो इतने सारे मन्दिर गली-गली में देख रहे हैं, वैसा वैदिक युग में नहीं था.तब इतने अधिक मन्दिर और मूर्तियाँ नहीं हुआ करती थीं, यह सब तो बाद में आ गये हैं. पूर्व काल में भारत के लोग अपने ह्रदय-मन्दिर में ही 'भगवान' को प्रतिष्ठित करने की विद्या जानते थे, इसीलिये उन दिनों भगवान का दर्शन करने के लिये मन्दिर-मन्दिर जाने की प्रथा भी नहीं थी. सभी शरीरों को ही देवालय कहा जाता था- ' देहो देवालय प्रोक्तः '!  
सभी शरीरों के भीतर ' आदिगुरु ' (ब्रह्म) ही अन्तर्यामी होकर विराज रहे हैं, उस समय ऐसा विश्वास था कि भगवान श्रीराम अपने ह्रदय रूपी अयोध्या में ही विद्यमान हैं. सभी मनुष्यों में आदि गुरु के रूप में ब्रह्म ही विद्यमान हैं, कण-कण के भीतर श्रीराम ही रम रहे हैं, कण-कण में राम ही परिव्याप्त हैं. कोई भी वस्तु जड़ नहीं है सबकुछ चैतन्य ही है. 
 इसी बात को आज विज्ञान इस तरह कहता है- E = M (energy-matter equation ) य़ा पदार्थ (matter) भी ऊर्जा (energy) का ही रूपान्तरण है ! यह बोध किन्तु विज्ञान को भी आइन्स्टीन से पहले नहीं हुआ था.दूसरे मतावलम्बियों में भी यह बोध- (आत्मवत सर्वभूतेषु) बहुत देर के बाद, श्री रामकृष्ण परमहंसदेव के द्वारा ' सर्वधर्म समन्वय ' की साधना को सम्पन्न कर लेने के बाद ही आया था. 
 स्वामीजी कहते हैं- ' Be and Make ' ! क्या बनना है? जो हम यथार्थ में हैं, वही बनना है.जब हम मनुष्य शरीर प्राप्त कर लिये हैं तो विवेक-विचार रहित जड़ पशुओं के समान जीवन बीता कर मर नहीं जाना है, इसी जीवन में यथार्थ मनुष्य बन जाने के बाद ही इस शरीर का त्याग करना है.
किन्तु अज्ञानता वश हमलोग चरित्र-गठन की प्रक्रिया को जीवन में अपना कर - 'मनुष्य बनने और बनाने ' के बजाय, मनुष्य-निर्माण कारी शिक्षा को गाँव गाँव तक फ़ैलाने के बजाय; मनुष्य निर्माण करने के बदले मन्दिर- मस्जिद का निर्माण करने के लिये आपस में मुकदमा लड़ते हैं य़ा दंगा-फसाद करते हैं, और सोंचते हैं हम धर्म कर रहे हैं. 
मन्दिर-मस्जिद बनाने में कोई खराबी नहीं है, यदि हमलोग वहाँ से आने के बाद भी मनुष्य ही बने रहें तथा दूसरे मतावलम्बियों को भी अपने ही जैसा एक मनुष्य समझ कर उनसे घृणा नहीं करें, तथा मन,वचन, कर्म से दूसरों की थोड़ी भी क्षति पहुँचाने की चेष्टा न करें. इंग्लैण्ड में अभी केवल १६ % लोग ही चर्च में जाते हैं, बाकी बचे ८४%  धर्म क्या है इसे समझने के लिये भारत की तरफ देख रहे हैं.
क्योंकि जो व्यक्ति वास्तव में धर्म क्या है इसे जान जायेगा, फिर वह विभिन्न मतावलम्बियों से अपने के बीच कोई भेदभाव नहीं देख पायेगा. तब उसे यह ज्ञात हो जायेगा कि सभी तरह की क्षूद्र संकीर्णता, स्वार्थपरता, असम्पूर्णता को पीछे छोड़ कर पूर्ण हो जाना ही धर्मावलम्बी होना है. ' अंश ' से पूर्ण हो जाना, बिन्दु से सिन्धु बन जाना यही धर्म का सार है. 
ऐसा मनुष्य बनने और बनाने से ही मानव जाति का मंगल हो सकता है. भ्रष्टाचार, आतंकवाद, भय-भूख, आदि जितनी भी समस्यायों से आज देश जूझ रहा है, उन सबों का निराकरण  केवल मनुष्य बनने से ही हो सकता है. इसीलिये दूसरों को कोसना छोड़ कर, आइये पहले हमलोग इस मनुष्य निर्माण आन्दोलन - ' Be and Make ' से जुड़ जाएँ !           


सोमवार, 22 नवंबर 2010

'श्रवण-मनन-निदिध्यासन' के लिए - महामण्डल का साप्ताहिक पाठचक्र -' Study Circles'


(महामण्डल का साप्ताहिक "शैक्षिक-सत्र ")
जिस किसी भी स्थान में महामण्डल का एक केन्द्र होता है, वहाँ पर सप्ताह में कम से कम एक पाठचक्र तो अवश्य ही होता है. भले ही हम इसको एक ' पाठचक्र ' की संज्ञा देते हों, किन्तु यह केवल एक चिन्तन गोष्ठी ही नहीं है;बल्कि यह उन समस्त स्थानीय युवाओं की मिलन-स्थली भी है जो महामण्डल के सिद्धान्तों (चरित्र-निर्माण आन्दोलन के प्रचार प्रसार ) में उत्कट अभिरुचि रखते हैं| क्योंकि इसका मूख्य उद्देश्य केवल पढ़ाकू बनना और बनाना ही नहीं है.
जब वे अनूठे देश-प्रेमी युवा (जो भारत-पाकिस्तान क्रिकेट मैच में गाल पर तिरंगे का चित्र बनवाने को ही देश भक्ति नहीं समझते ) बल्कि - जो स्वामी विवेकानन्द के भारत पुनर्निर्माण मन्त्र -'तुम स्वयं मनुष्य बनो और दूसरों को भी मनुष्य बनने में साहायता करो'  को ही अपने जीवन का एकमात्र लक्ष्य निर्धारित कर चुके हैं; एक साथ इकट्ठे होते हैं, तो उनको यह अनुभव होता है कि महामण्डल के सिद्धान्तों (Be and Make आदि) को अपने जीवन में धारण करने के अभियान में वे बिल्कुल एकाकी नहीं हैं | 
वे यहाँ आकर अपने जैसे दूसरे युवा भाइयों के साथ मित्रता के इस अनूठे बन्धन को भी ह्रदय से महसूस करते हैं. प्रत्येक सप्ताह यहाँ पहुँच कर वे अपने नेता स्वामी विवेकानन्द के उत्साह-अग्नि से अपने ह्रदय को फिर से चार्ज कर लेते हैं.
महामण्डल वैसे लोगों की संस्था नहीं है- जो सन्यासी बन चुके हों य़ा जिन लोगों ने जगत का परित्याग कर दिया हो;बल्कि यह उन साधारण युवाओं के लिये है जो समाज के अन्य साधारण गृहस्थ लोगों के जैसा ही अपने घर-परिवार के बीच निवास करते हैं.
किन्तु एक अन्तर अवश्य है- वे लोग (अन्य साधारण कैरियरिस्ट युवाओं की तरह केवल अपने ही बारे में नहीं सोंचते बल्कि) मनुष्य-जीवन का अर्थ एवं अपने समाज की ज्वलंत आवश्यकताओं को समझने के लिये प्रयासरत रहते हैं, तथा उसी समझ के आलोक में अपना जीवन गठित करने के लिये कठोर परिश्रम भी करते हैं.
वे लोग भी दूसरे सामान्य युवाओं की तरह ही विद्यालय तथा महाविद्यालयों में शिक्षा ग्रहण करते हैं, तत्पश्चात अपनी जीविका चलाने के लिये किसी न किसी व्यवसाय से जुड़ जाते हैं. बावजूद इसके वे उन साधारण किस्म के युवाओं (जो महामण्डल को नहीं जानते ) की तरह नहीं होते, क्योंकि वे सामान्य कोटि के युवाओं की अपेक्षा कुछ हद तक कठिन जीवन शैली को चुनना पसन्द करते हैं. 
अपने जीवन की - ' प्रत्येक गतिविधि ' में उनको एक आदर्श का अनुसरण करना पड़ता है.अतः स्वाभाविक रूप से उनको ज़माने के प्रवाह के विरुद्ध संघर्ष करना पड़ता है.
इसीलिये उनको अपनी जीवन-यात्रा का प्रारम्भ अपने जीवन लक्ष्य (निशाना)  की स्पष्ट धारणा बनाने के बाद ही करनी चाहिये. भारत के पुनर्निर्माण के लिये राष्ट्र-व्यापी स्तर पर जैसा युवा-आन्दोलन चलाने का स्वप्न स्वामी विवेकानन्द ने देखा था, उनके उसी सपने को महामण्डल कार्यान्वित करना चाहता है- वही स्वप्न क्रमशः इन युवाओं के मन में भी बस जाना चाहिये.
यह साप्ताहिक पाठचक्र, विवेकानन्द साहित्य के अध्यन एवं बोधगम्य परिचर्चा के माध्यम से उनलोगों में  ऐसे मनोभाव को विकसित करने में सहायता करता है. साप्ताहिक पाठचक्र में क्या अध्यन करना अच्छा रहेगा, इसका चुनाव युवाओं को खुद से करना उतना आसान नहीं भी हो सकता है.इसीलिये महामण्डल पाठचक्र के लिये छोटी छोटी चुनिन्दा पुस्तिकाओं (महामण्डल का उद्देश्य और कार्यक्रम, एक युवा आन्दोलन, नेतृत्व का अर्थ एवं गुण, जीवन-गठन, चरित्र गठन, मनः संयोग आदि ) से अध्यन करने का परामर्श देता है.
ये पुस्तिकाएँ ही हमारे उद्देश्य तक ले जाने के लिये यथेस्ट हैं. हमलोगों को इन पुस्तिकाओं का गहराई से बार बार अध्यन करना चाहिये, एवं उनके मूल-विषय पर चिन्तन-मनन भी करना चाहिये. इसप्रकार उन सिद्धान्तों को हम समझ जाते हैं, तथा तब हम उनको अपने जीवन में उतार भी सकते हैं. 
इस प्रकार वे समस्त श्रेष्ठ सिद्धान्त जो स्वामी विवेकानन्द जैसे महापुरुष (सदगुरु ) के मुख से निःसृत हुई हैं,इन महामण्डल पुस्तिकाओं के माध्यम से  हमारे समक्ष सहज रूप में उपलब्ध हो जातीं हैं.किसी भी महान और कल्याणकारी ज्ञान को तीन चरणों में आत्मसात (य़ा जीवन में धारण किया) जा सकता है।
  पहला है - " श्रवण "(य़ा Study Seriously), 
दूसरा है-   " मनन "(य़ा Think deeply and freely), 
एवं तत्पश्चात " निदिध्यासन " (य़ा Apply - 'put them into practice ') 
केवल साहित्यिक ज्ञान तुमको एक पण्डित तो बना सकता है, किन्तु न तो यह तुम्हारे जीवन को बदल सकता है, और न ही किसी विशिष्ट विषय की स्पष्ट अवधारणा ही प्रदान कर सकता है. यदि हम सभी लोग, खास तौर पर वे जो पाठचक्र का नेतृत्व करना चाहते हैं, यदि स्वयं अपने दैनन्दिन जीवन में स्वामीजी की वाणी को उपरोक्त विधि (तीन चरणों में ) से आत्मसात करने के लिये गंभीरता के साथ प्रयासरत रहते हों,केवल तभी हमारा पाठचक्र पर्याप्त उत्साह एवं जीवन्त अंदाज के साथ जारी रह सकता है.
केवल इतना ही नहीं, हमारे अन्दर विकसित मनुष्योचित गुणों से प्रभावित होकर, तब बहुत से नवागन्तुक भी इस ओर आकर्षित होंगे, उनमे भी यथोचित समझदारी का विकास होगा तथा वे स्वयं भी इस कार्य (मनुष्य-निर्माण आन्दोलन) में योगदान करने के लिये स्वेच्छा से जुट जायेंगे.
पाठचक्र में चलने वाली परिचर्चा इतनी स्पष्ट होनी चाहिये कि वहाँ उपस्थित सारे युवा उसको पकड़ सकें. वहाँ पर जो कोई भी सिद्धान्त/ज्ञान/ य़ा जानकारी युवाओं के समक्ष प्रस्तुत किये जाएँ, उनका स्तर आवश्यकता से अधिक ऊँचा य़ा उनके जगत से बहुत ज्यादा अलग हट कर नहीं होना चाहिये. जो युवा पाठचक्र में आ रहे हैं, उनको यहाँ प्राप्त होने वाली नई नई जानकारियाँ इस ढंग से दी जानी चाहिये कि को वे इन नवीन विचारों ( 'मन', 'विवेक', 'श्रद्धा',अथवा अन्तर्यामी " सत्ता " सम्बन्धित ज्ञान) को अपने जीवन के अनुभवों के साथ सम्बद्ध करके समझने में सक्षम हो सकें. 
हम जानते हैं कि किसी विषय का तजुर्बा करके जो ज्ञान होता है- वही सर्वोत्तम शिक्षक है.
( Experience is the great teacher). जब वे लोग यहाँ से सीखे हुए नई नई जानकारियों (सिद्धान्तों) को प्रयोग में लायेंगे, उनको नये नये अनुभव प्राप्त होने लगेंगे;तथा वे स्वयं ही इन सिद्धान्तों कि सच्चाई के कायल हो जायेंगे. 
हमलोगों को यह कभी नहीं भूलना चाहिये कि हमलोगों का सारा फोकस (मूख्य-मुद्दा)- अपने सामान्य व्यवसाय,य़ा घर-परिवार का त्याग किये बिना,अपना सारा ध्यान अपने व्यवहारिक जीवन को सुन्दर ढंग से गठित करने पर ही केन्द्रित रखना है. समाज को आज इसी बात की आवश्यकता है, क्योंकि ज्ञान के साथ जीवन में व्यवहारिक तालमेल ही, हमें यथार्थ मनुष्य में परिणत कर देता है. 
हमें अपने सभी सदस्यों को,घर से ही अध्यन करके आने के लिये एवं परिचर्चा में सक्रिय रूप से भाग लेने के लिये प्रोत्साहित करना चाहिये. हमें अपने किसी भी सदस्य के विचारों की कभी भी उपेक्षा नहीं करनी चाहिये, बल्कि उनके समझ को बहुत ही दोस्ताना तथा सकारात्मक ढंग से क्रमशः बेहतर य़ा उत्कृष्ट बनाने का प्रयास करना चाहिये. तुम यह कभी मत भूलो कि तुम कोई ' गुरु '- नहीं हो, पाठचक्र/परिचर्चा में ' गुरु-गिरी ' करने के लिये नहीं आये हो, बल्कि तुम भी वैसे ही एक ' विद्यार्थी ' हो जैसा कोई अन्य सहभागी है.
हमारे पाठचक्र में कोई- ' सदन के नेता ' य़ा " Leader of the House " की अवधारणा नहीं है. इसीलिये पाठचक्र में किसी भी योजना का अनुशरण तो पूरी ईमानदारी के साथ करना चाहिये, किन्तु जबरन थोपे गये अनुशासन की अधिक मात्रा देकर इसे एक यांत्रिक (मशीनी) समारोह में परिणत करने से भी बचना चाहिये.नवयुवकों को ताजगी और उत्साह से भरपूर एक खिले हुए पुष्प के जैसा ह्रदय को लेकर ही अपने 'युवा नेता' विवेकानन्द के समक्ष आने एवं उनके ह्रदय के निष्काम प्रेम के स्पर्श के स्पन्दन को महसूस करने के लिये भी अनुप्रेरित करना चाहिये.
जो लोग 'शैक्षिक सत्र ' को सन्चालित करते हैं,उन्हें महामण्डल पुस्तिकाओं का गहन अध्यन न केवल इसके अभिनव विचारों को आत्मसात करने के उद्देश्य को ध्यान में रखकर करना चाहिये, वरण युवा मन के समीप पहुँचने के लिये महामण्डल के अनूठे पद्धति का भी अनुसरण करना चाहिये. हमें उनलोगों से उसी भाषा में बात करनी चाहिये जिसे वे आसानी से समझ सकते हों.' धर्म ', 'आध्यात्मिकता', 'योग','भक्ति','अद्वैत वेदान्त ' जैसे कठिन -कठिन शब्दों का अत्यधिक प्रयोग करके नवयुवकों के मन को बोझिल करने से कोई विशेष लाभ नहीं होता है.
 क्योंकि अक्सर इन सभी शब्दों का अर्थ समाज में कुछ का कुछ निकाल लिया जाता है, इसीलिये ऐसे युवाओं की संख्या बहुत ज्यादा है, जो इन बातों में तनिक भी दिलचस्पी नहीं रख सकते हैं. इनमे से कोई भी शब्द - ' यह य़ा वह ' उनकी आसन्न जरूरतें भी नहीं हैं. स्वामीजी ने एक पत्र में अपने कुछ युवा मित्रों को सम्बोधित करते हुए लिखा था- 
" Be moral , Be brave - keep your heart completely pure . 
Be strictly moral, brave unto desperation. Do not bother  
your heads with religious theories. " 
- " मेरे युवा मित्रों, तुम वीर (बहादुर और निडर ) बनो, 
नीति-परायण बनो, 
अपने ह्रदय को संपूर्णतः पवित्र रखने के लिये पाँच सदाचार 
(सत्य,अहिंसा, ब्रह्मचर्य, आस्तेय, अपरिग्रह यम-नियम आदि) 
का पालन पूरी कठोरता के साथ करो,
(यदि इस काम में कभी नैराश्य आ जाय तो- इस) 
नैराश्य का सामना पूरी निडरता के साथ करो. 
तथा अन्य प्रकार धार्मिक सिद्धान्तों (मतवादों) से -
              अपने मन को बिल्कुल ही व्याकुल य़ा परेशान मत होने दो!  "  
हमें इसी पत्र की भावना को ध्यान में रखते हुए ' शैक्षिक सत्र ' का सञ्चालन करना चाहिये.आज के युवाओं में सही दृष्टिकोण को क्रमशः विकसित होने दो. नवागन्तुक भाइयों को तुम अपनी सनक य़ा धुन दिखला कर उसको डराने य़ा चौंका देने की चेष्टा मत करो. उनलोगों की जरूरतें, योग्यता (पात्रता), और अभिरुचियों को समझने की चेष्टा करो. 
उनलोगों को पहले यह समझने दो कि वे लोग अपने " 3H " (Hand,head और heart ) अर्थात शरीर,मन और ह्रदय को कैसे विकसित कर सकते हैं. उनलोगों को मनुष्य जीवन के उद्देश्य को जानने वाला - ' एक सिद्धान्ती और (निडर) आत्मविश्वासी ' पूरी तरह से एक नीतिपरायण एवं चरित्रवान मनुष्य बनने में सहायता करो. उनलोगों को अपने देशवासियों की अकथनीय, दारुण दुर्दशा को समझ कर, उसे दूर करने के उपाय, ' त्याग और सेवा ' के प्रति समर्पित कार्यकर्ता बनने के लिये अपने जीवन से अनुप्रेरित करो.
इस प्रकार की प्रचेष्टा के द्वारा स्वामी विवेकानन्द के नेतृत्व में युवाओं का एक ऐसा राष्ट्रव्यापी बलिदानी-जत्था निर्मित हो जायेगा- जो भारत में आमूलचूल परिवर्तन ला देगा, जिसके आविर्भूत होने की भविष्यवाणी स्वामीजी ने स्वयं की थी. किन्तु जो अभी तक साकार रूप नहीं ले सका है.
(अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल की द्विभाषी सम्वाद पत्रिका " Vivek-Jivan" के नवम्बर २०१० में अंग्रेजी में प्रकाशित सम्पादकीय का हिन्दी संस्करण.)  

मंगलवार, 9 नवंबर 2010

Advice of Swami Vivekananda

(Letter of Swami Vivekananda )
{... " It is not the building that makes the home, but it is the wife that makes it, " says a Sanskrit poet, and how true it is ! The roof that affords you shelter from heat and cold and rain is not to be judged by the pillars that support it- the finest Corinthian columns though they be- but by the real spirit-pillar who is the center, the real support of the home- the woman (Letter of Swami Vivekananda: pg 75) 
य़ा श्रीः स्वयं सुक्रितिनाम भवनेषु - 
" Who is the Goddess of Fortune in the families of meritorious." 
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः
" The gods are pleased where the women are held in esteem- says the old Manu. 
त्वं स्त्री त्वं पुमानसि त्वं कुमार उत वा कुमारी - 
" Thou art the women, Thou art the man. Thou art the boy and the girl as well " (Shvetashvatar Upnishad )
सर्वशास्त्र पुरानेषु व्यासस्य वचनं ध्रुवं |
परोपकार अस्तु पुण्याय पापाय परपीडनम ||
- " Amidst all the scriptures and Puranas, know that statement of Vyasa to be true, that doing good to others conduces to merit, and doing harm to them leads to sin. "...Is there any sex-distinction in the Atman (Self) ? Out with the differentiation between man and woman - all is Atman! Give up the identification with the body, and stand up ! Say, " Asti, Asti "- Everything is ! - cherish positive thoughts. By dwelling too much upon " Nasti, Nasti " - " It is not! It is not ! " (negativism), the whole country is going to ruin ! " 
Soham, Soham, Shivoham "- " I am He ! I am He ! I am Shiva ! " What a botheration! In every soul is infinite strength, and should you turn yourselves into cats and dogs by harbouring negative thoughts ? Who dares to preach negativism? Whom do you call weak and powerless ? say " Shiivoham, Shivoham " -"- I am Shiva ! I am Shiva !"
- marriage is the truest goal for 99% of the human race, and they will live the happiest life as soon as they have learn t and are ready to abide by the eternal lesson- that we are bound to bear and forbear and that life to every one must be a compromise.
Believe me, dear Harriet (Miss Harriet Hale), perfect life is a contradiction in terms. Therefore we must always expect to find things not up to our highest ideal. Knowing this, we are bound to make the best of every thing. From what I know of you, you have the calm power which bears and forbears to a great degree, and  therefore I am safe to prophesy that your married life will be very happy.
...The best I can do in the circumstances is to quote from Kalidasa's Shakuntla, where rishi kanva gives his benediction to Shakuntla on the eve of her departure to her husbands place- " May you always enjoy the undivided love of your husband, helping him in attaining all the that is desirable in this life, and when you have seen your children's children,
and the drama of life is nearing its end, may you help each other in reaching that infinite ocean of Existence, Knowledge, and Bliss(सत्- चित्-आनन्द ); at the touch of whose waters all distinction melt away and we are all one ! }
( His letter dated 17th Sept 1896)    


मंगलवार, 2 नवंबर 2010

मनुष्य को पुनरुज्जीवित करना होगा ! (Revivification of men )

ह्रदय के ही माध्यम से ईश्वर बोलता है, 
कार्य करता है, और बुद्धि के माध्यम से तुम स्वयं| "
श्रद्धा मिल जाने से मनुष्य बड़ी तीव्र गति से विकसित होने लग‌ता है, और वह ' श्रद्धावान मनुष्य ' सत्य को प्राप्त कर लेता है|उपनिषद में कहा गया है-" ब्रह्मवित आप्नोति परम !" - ब्रह्मज्ञानी परब्रह्म को प्राप्त हो जाता है | वह परम सत्य क्या है ? वे परब्रह्म परमात्मा (ठाकुर) सत्य स्वरूप हैं|यहाँ ' सत्य ' उस नित्य सत्ता का बोधक है जो प्रत्येक वस्तु में अनुस्यूत है|वह परब्रह्म नित्य सत हैं अर्थात किसी भी काल में उनका आभाव नहीं होता, तथा वे ज्ञान स्वरूप हैं, उनमे अज्ञान का लेश भी नहीं है और वे अनन्त हैं अर्थात देश और काल की सीमा से अतीत है! " सत्यम ज्ञानम अनन्तं ब्रह्म !"जो मनुष्य उस परब्रह्म को तत्व से जान लेता है -जो मनुष्य उस परब्रह्म को तत्व से जान लेता है - ' वह ब्रह्म के साथ सब भोगों का अनुभव करता है !'  
" विपश्चिता ब्रह्मणा सह सर्वान कामान अश्नुते !"
(तैत्तरीय उपनिषद: वल्ली २: अनुवाक १)
परमात्मा को अनुभव से जानने वाला- वह ब्रह्मविद पुरुष इन्द्रियों के द्वारा बाह्य विषयों का (भोग नहीं) सदुपयोग य़ा सेवन करते हुए भी स्वयं सदा ह्रदय की गुफा में छिपे हुए परब्रह्म में ही स्थित रहता है ! इसलिए वह अपने मन को विषयों में जाने से रोक सकता है|अतः सदा सभी कर्मों से निर्लेप रहने में समर्थ ब्रह्म के जैसा बन जाता है! इस प्रकार यह श्रुति परब्रह्म के स्वरुप तथा उसके ज्ञान की महिमा को बताने वाली है !परब्रह्म को जानने वाला - ब्रह्मज्ञानी; परब्रह्म को प्राप्त हो जाता ! 
इसी उपनिषद में आगे कहा गया है- " सः अकामयत प्रजायेय बहु स्याम इति " सर्ग के (सृष्टि के पहले) आदि में ब्रह्म  अकेला था,उसे अच्छा नहीं लग रहा था, इसीलिये ने ईश्वर ने विचार किया -मैं नानारूप में उत्पन्न हो कर बहुत हो जाऊँ ! यह विचार करके उन्होंने तप किया -" सः तपः अतप्यत " -अर्थात जीवों के कर्मानुसार सृष्टि उत्पन्न करने के लिये संकल्प किया। और संकल्प करके यह जो कुछ भी देखने, सुनने और समझने आता है इस जड़-चेतनमय जगत को अपने संकल्पमय स्वरूप में गढ़ लिया;उसके बाद स्वयं भी उसमे प्रविष्ट हो गये-" तत-सृष्ट्वा तत एव अनुप्राविशत ! तत अनुप्रविश्य सत च त्यत (अमूर्त- निर्गुण Super-Consciousness ) अभवत ! " विज्ञानम च अविज्ञानम च सत्यम च अनृतम च, इदम यत किम च; तत सत्यम - चेतन और जड़ तथा, सत्यम (अस्ति-भाति-प्रिय) और अनृतम (नाम-रूप) वह सत्य-स्वरूप ब्रह्म  ही हैं ! सत्य यही है कि यह सबकुछ (मनुष्य भी) एक ही वस्तु (ब्रह्म) से उत्पन्न हुआ है!
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- " मैं पुरुष य़ा स्त्री हूँ, मैं अमुक देशवासी हूँ, यह सब कहना केवल मिथ्या है। सभी देश मेरे हैं, सारा विश्व मेरा है; ...सारा विश्व ही मानो मेरा शरीर हो गया है| किन्तु हम देखते हैं कि संसार में बहुत से लोग ये सब बातें मुख से कहने पर भी आचरण में सभी प्रकार के अपवित्र कार्य करते रहते हैं; ... जब तक अशुभ-वेग एकदम समाप्त नहीं हो जाता, जब तक पहले की अपवित्रता बिल्कुल दग्ध नहीं हो जाती, तब तक कोई भी सत्य का साक्षात्कार और उसकी उपलब्धि नहीं कर सकता| अतएव जिन लोगों ने आत्मा को प्राप्त कर लिया है, जिन्होंने सत्य का साक्षात्कार कर लिया है, उनके लिये अतीत जीवन के शुभ संस्कार, शुभ वेग ही बच रहता है| शरीर में वास करते हुए भी और अनवरत कर्म करते हुए भी वे केवल सत्कर्म ही करते हैं; उनके मुख से सब के प्रति केवल आशीर्वाद ही निकलता है, उनके हाथ केवल सत्कार्य ही करते हैं, उनका मन केवल सत्चिन्तन ही कर सकता है, उनकी उपस्थिति ही, चाहे वे कहीं भी रहे सर्वत्र मानव जाती के लिये महान आशीर्वाद होती है| " (२: ३८) 
" मान लो, समाज में कोई दोष है, तो तुम देखोगे कि फ़ौरन ही एक दल उठकर प्रतिहिंसात्मक रूप से गली-गलौज करने लगता है| कभी कभी तो ये लोग बड़े मतान्ध और कट्टर हो उठते हैं|.... जो भी मतान्ध खड़ा होकर किसी विषय के विरुद्ध लेक्चरबाजी कर सकता है, उसे अनुयायी मिल जाते हैं| तोडना सहज है, पागल भी तोड़-फोड़ कर सकता है किन्तु किसी वस्तु को गढ़ना उसके लिये बड़ा कठिन है | मान लो कोई दोष है, तो केवल गली-गलौज से तो कुछ होगा नहीं; हमें उसके जड़ तक जाके कार्य करना पड़ेगा |
"पहले तो यह जानो कि दोष (भ्रष्टाचार-या हर प्रकार के अपराध का) का कारण क्या है ? (ब्रह्मविद बनने की या चरित्र-निर्माण कर मनुष्य बनने की शिक्षा नहीं दी जाती) फिर उस कारण को दूर करो!  (Be and Make ) "ब्रह्मविद मनुष्य बनो और बनाओ" - और कार्य (भ्रष्टाचार) अपने आप ही चला जायेगा| केवल अपशब्द कहने से कोई लाभ नहीं होता,वरन उससे हानी कि सम्भावना ही अधिक होती है|
..जिसके ह्रदय में सहानुभूति थी, वे समझ गये थे कि दोषों को दूर करने के लिये उसके कारणों में पहुँचना होगा| ...वे महापुरुष संसार के समस्त नर-नारियों को अपनी सन्तान के रूप में देखते थे| ..उनका ह्रदय प्रत्येक के लिये अनन्त सहानुभूति और क्षमा से पूर्ण था- वे सदा ही सहने और क्षमा करने को प्रस्तुत रहते थे| वे जानते थे कि किस प्रकार मानव-समाज को पुनरुज्जीवित (Revivification  of men )  किया जाता है। अतएव अनन्त धैर्य के साथ धीरे धीरे किन्तु अमोघ रूप से अपनी ' संजीवनी औषधि ' का प्रयोग कर के मनुष्यों को ब्रह्मविद बनने के लिये जाग्रत करने लगे| उन्होंने किसी को गालियाँ नहीं दी, भय नहीं दिखाया पर बड़ी कृपा के साथ धीरे धीरे वे लोगों को एक एक सोपान (पशु से मनुष्य में - पशु मानव को देव-मानव में ) ऊपर उठाते गये| " (२:७०-७१)
" केवल ह्रदय (Heart) ही हमें उच्चतम भूमि में ले जाता है, जहाँ बुद्धि (Head) कभी नहीं पहुँच सकती| ..केवल बुद्धिमान, किन्तु ह्रदयशून्य मनुष्य कभी अन्तः स्फूर्त (ब्रह्मविद) नहीं बन सकता| ...यदि योग्य संस्कार किया जाय तो, ह्रदय में परिवर्तन हो सकता है और वह बुद्धि का भी अतिक्रमण कर अन्तःस्फुरण में परिवर्तित हो जाता है| अन्त में मनुष्य को बुद्धि के परे जाना ही पड़ेगा| ...ह्रदय ही अन्तिम ध्येय (सत्य) तक पहुँच सकता है|...निर्मल ह्रदय ही सत्य के प्रतिबिम्ब के लिये सर्वोत्तम दर्पण है, इसलिए यह सारी साधना ह्रदय को निर्मल करने के लिये ही है, और जब वह निर्मल हो जाता है,सारे सत्य उसी क्षण उस पर प्रतिबिम्बित हो जाते हैं|...दुःख की समस्या बुद्धि से हाल नहीं हो सकती, यह केवल ह्रदय से ही होगी| ...सर्वदा ह्रदय का ही संस्कार करो, उसे अधिकाधिक पवित्र बनाओ, क्योंकि ह्रदय के ही माध्यम से ईश्वर बोलता है, कार्य करता है, और बुद्धि के माध्यम से तुम स्वयं| " (३:१०८) 
" सत्य का स्वरूप ही ऐसा है कि जो कोई उसे देख लेता है, उसे एकदम पूरा विश्वास हो जाता है| सूर्य का अस्तित्व सिद्ध करने के लिये मशाल की जरुरत नहीं होती|  वह तो स्वयं ही प्रकाशमान है|..और तब हमारा ह्रदय जाग्रत हो उठेगा- और कहेगा, 'यह सत्य है, और यह सत्य नहीं है|...परमेश्वर के अस्तित्व का प्रमाण क्या है? - साक्षात्कार! " (३: १०९)    
" इस समस्त विश्व में एक सत वस्तु ओतप्रोत है; और वह देश, काल तथा (निमित्त ) कार्य-कारण के जाल में मानो फँसी हुई है| मनुष्य का सच्चा स्वरूप वह है, जो अनादी, अनन्त, आनन्दमय तथा नित्य मुक्त है, वही देश, काल और परिणाम के फेर में फंसा है| यही प्रत्येक वस्तु के सम्बन्ध में भी सत्य है| प्रत्येक वस्तु का परमार्थ स्वरूप वही अनन्त है|
यह विज्ञानवाद (प्रत्याय वाद ) नहीं है, इसका अर्थ यह नहीं कि विश्व का अस्तितिव ही नहीं है| इसका अस्तित्व सापेक्ष है, और सापेक्षता के सब लक्षण इसमें विद्यमान हैं| लेकिन इसकी स्वयं की कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है| यह इसलिए विद्यमान है कि इसके पीछे देश-काल-निमित्त से अतीत निरपेक्ष आद्वितीय सत्ता मौजूद है| " (३:११९)


" चेतन मन ही अचेतन का कारण है" हमारे जो लाखों पुराने चेतन विचार और चेतन कार्य थे, वे ही घनीभूत होकर प्रसुप्त हो जाने पर हमारे अचेतन विचार बन जाते हैं|हमारा उधर ख्याल ही नहीं जाता, हमे उनका ज्ञान नहीं होता, हम उन्हें भूल जाते हैं|...वे ही प्रसुप्त कारण (पाशव -भाव ) एक दिन मन के ज्ञानयुक्त क्षेत्र पर आ उठते हैं और मानवता का नाश कर देते हैं| अतएव सच्चा मनोविज्ञान (मनः संयम का अभ्यास) उनको (अचेतन मन को) चेतन मन के अधीन लाने का प्रयत्न करेगा|  
" अतएव शिक्षा का सबसे महत्व पूर्ण कार्य है, मनुष्य को उसके सच्चे स्वरुप को जानने का उपाय बताकर उसका 'Revivification' कर देना, उसे पुनरुज्जीवित कर देना, उसमें नई रूह फूँक देना या उसके मिथ्या अहंकार को मैं समझने के भ्रम को दूर कर देना ! जिससे कि वह ब्रह्मविद बनकर (अपने भाग्य का विधाता या ) अपना पूर्ण स्वामी बन जाये| अचेतन को अपने अधिकार में लाना हमारी साधना का पहला भाग है|"
 
साधना का दूसरा सोपान है- चेतन के परे Super -Conscious (अतिचेतन ) में जाना ! जिस तरह, अचेतन चेतन के नीचे - उसके पीछे रहकर कार्य करता है, उसी तरह चेतन के ऊपर - उसके अतीत भी एक अवस्था है। जब मनुष्य इस अतिचेतन अवस्था में पहुँच जाता है, तब वह मुक्त हो जाता है, (ब्रह्म को जानकर ब्रह्मरूप हो जाता है या) ईश्वरत्व को प्राप्त हो जाता है। तब मृत्यु अमरत्व में परिणत हो जाती है, दुर्बलता असीम शक्ति बन जाती है और अज्ञान की लौह श्रृंखलाएँ मुक्ति बन जाती हैं|
अतिचेतन का यह असीम राज्य ही हमारा एकमात्र लक्ष्य है! अतएव यह स्पष्ट है कि हमे दो कार्य अवश्य ही करने होंगे| एक तो यह कि इड़ा और पिंगला के प्रवाहों का नियमन कर अचेतन कार्यों को नियमित करना; और दूसरा, इसके साथ ही साथ चेतन के भी परे चले जाना|  ग्रंथों में कहा गया है कि योगी वही है, जिसने दीर्घ काल तक चित्त की एकाग्रता का अभ्यास करके ( य़ा अनायास भगवत कृपा से भी ) इस सत्य की उपलब्धि कर ली है|अब सुषुम्ना का द्वार खुल जाता है और इस मार्ग में वह प्रवाह प्रवेश करता है, जो इसके पूर्व उसमे कभी नहीं गया था, यह धीरे धीरे विभिन्न कमल-चक्रों को खिलाता हुआ अन्त में मस्तिष्क तक पहुँच जाता है|तब योगी को अपने सत्यस्वरूप का ज्ञान हो जाता है, वह जान लेता है कि वह स्वयं परमेश्वर ही है| हममें से प्रत्येक व्यक्ति, बिना किसी अपवाद के, योग के इस अन्तिम अवस्था को प्राप्त कर सकता है| लेकिन यह अत्यन्त कठिन कार्य है|यदि मनुष्य को इस सत्य का अनुभव करना हो ...कुछ विशेष साधनाएँ भी करनी होंगी (य़ा महामण्डल का निष्ठावान कर्मी बनने से अनायास T की कृपा से भी होगा ) | महत्व तो तैयारी का ही है; दीपक जलाने में कितनी देर लगती है? केवल एक सेकंड, लेकिन उस दीपक को बनाने में कितना समय लग जाता है! " (३: १२१-१२२) 
" लोग विश्व बंधुत्व और साम्यवाद य़ा (हिन्दुवाद ) के अनुसन्धान में सारी पृथ्वी पर घूमते फिरते हैं|किन्तु जो लोग यथार्थ (महामण्डल ) कर्मी हैं और अपने ह्रदय से विश्वबंधुत्व का अनुभव करते हैं। वे लम्बी- चौड़ी बातें नहीं करते, न उस निमित्त सम्प्रदायों की रचना करते हैं; किन्तु उनके क्रिया-कलाप, गतिविधि और सारे जीवन के ऊपर ध्यान देने से यह स्पष्ट समझ में आ जायेगा कि उनके ह्रदय सचमुच ही मानव-जाति के प्रति बंधुता से परिपूर्ण है, वे सबसे प्रेम और सहानुभूति करते हैं| वे केवल बातें न बनाकर काम (कैंप-युवा प्रशिक्षण शिविर) कर दिखाते हैं- आदर्श के अनुसार जीवन व्यतीत करते हैं| सारी दुनिया लम्बी-चौड़ी बातों से परिपूर्ण है| हम चाहते हैं कि बातें बनाना कम हो, यथार्थ काम कुछ अधिक हो|" (३:१४४)
" हम सभी लोग मनुष्य तो अवश्य हैं, किन्तु क्या सभी समान हैं? निश्चय ही नहीं | कौन कहता है, हम सब समान हैं? केवल पागल | क्या हम बल, बुद्धि शरीर में समान हैं? ... बहुत्व में एकत्व का होना सृष्टि का विधान है|..पुरुष होने से तुम स्त्री से भिन्न हो, किन्तु मनुष्य होने के नाते स्त्री और पुरुष एक ही हैं|..उस ईश्वर में हम सब एक हैं, किन्तु व्यक्त जगत-प्रपंच में यह भेद अवश्य चिरकाल तक विद्यमान रहेगा| ..क्योंकि विचित्र ही जीवन की मूल भित्ति है| हमें आकारयुक्त किसने बनाया है? वैषम्य ने| सम्पूर्ण साम्यभाव होने से ही हमारा विनाश अवश्यम्भावी है|" (३:१४४-१४५)
" धर्म अनुभूति की वस्तु है - वह मुख की बात, मतवाद अथवा युक्ति मूलक कल्पना मात्र नहीं है- चाहे वह जितना भी सुन्दर हो| आत्मा की ब्रह्मस्वरुपता को जान लेना, तद्रूप हो जाना- उसका साक्षात्कार करना, यही धर्म है- वह केवल सुनने और मान लेने की चीज नहीं है| समस्त मन-प्राण विश्वास की वस्तु के साथ एक हो जायेगा| यही धर्म है| " (३:१५९)  
" मृत्यु, दुःख तथा इस संसार में मनुष्य को मिलनेवाले अनेक जोरदार- झटके केवल वही मनुष्य पार कर सकता है, जिसने सत्य जान लिया है| सत्य क्या है ? सत्य वह है, जिसमे कोई विकार उत्पन्न नहीं होता, मनुष्य की आत्मा, विश्व की आत्मा ही सत्य है|...जो अनेकता में एकमेवाद्वितीय को समझता है और उसका अपनी आत्मा में दर्शन करता है, केवल वही शाश्वत शान्ति का अधिकारी होता है, दूसरा कोई नहीं , दूसरा कोई नहीं|"  " (३:१६४-६५)
  " तुम जो जो आवश्यक समझते हो, सब रखो, यहाँ तक कि उससे अतिरिक्त वस्तुएं भी रखो- इससे कोई हानी नहीं| पर तुम्हारा प्रथम और प्रधान कर्तव्य है- सत्य को जान लेना, उसको प्रत्यक्ष कर लेना|" (२:१५२)
" सत्य को प्राप्त करने में निमिष मात्र लगता है- प्रश्न केवल जान लेने भर का है| स्वप्न टूट जाता है, उसमे कितनी देर लगती है ? एक सेकण्ड में स्वप्न का तिरोभाव हो जाता है| जब भ्रम का नाश होता है, तो उसमे कितना समय लगता है ? पलक झपकने में जितनी देर लगती है, उतनी| जब मैं सत्य को जानता हूँ, तो इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं होता कि - 'असत्य' (नाम-रूप) गायब हो जाता है| मैंने रस्सी को सर्प समझ लिया था और अब जानता हूँ कि वह रस्सी है। प्रश्न केवल आधे सेकण्ड का है। और सब कुछ हो जाता है ! तू वह है! तू वास्तविकता है ; इसे जानने में कितना समय लगता है? ईश्वर जीवन है; ईश्वर सत्य है| फिर भी इस स्वतः प्रत्यक्ष सत्य को प्राप्त करना कितना कठिन जान पड़ता है ? "
( ३:१९०) 
" जब कोई भी मनुष्य यह दावा करता है कि ' मैं सत्य को जानता हूँ|' तो मैं कहता हूँ, ' यदि तुम सत्य को जानते हो, तो तुममें आत्मनियंत्रण होना चाहिये; और यदि तुममे आत्मनियंत्रण है, तो इन (मस्तिष्क में स्थित) इन्द्रियों के नियन्त्रण करने में समर्थ बन कर सिद्ध कर दो!.. जब मैं ध्यान के लिये बैठता हूँ, तो मन में संसार के सब बुरे से बुरे विषय उभर आते हैं|मतली आने लगती है (ऐसा लगता है मानो अपना कान ऐंठ कर अपने चेहरे पार खुद ही थप्पड़ मारूँ)| मन ऐसे विचारों को क्यों सोचता है, जिन्हें मैं नहीं चाहता कि वह सोचे ? मैं मानो मन का दास हूँ|जब तक मन चंचल है और वश से बाहर है, तब तक कोई आध्यात्मिक ज्ञान संभव नहीं है| शिष्य (विद्यार्थी) को मनः संयम सीखना ही होगा| हाँ, मन का कार्य है सोचना ! पर यदि शिष्य जिन विचारों को सोचना नहीं चाहता, तो मन में वैसे विचार आने ही नहीं चाहिये! जब वह आज्ञा दे, तो मन को सोचना भी बन्द कर देना चाहिये|" (३:१९३)
" सत्य यह है : तुम चेतन हो, तुम पार्थिव (matter) नहीं हो| एक वस्तु है भ्रम (अध्यास) - इसमें एक वस्तु दूसरी जान पड़ती है| पदार्थ (शरीर,मन) को चेतन तत्व य़ा शरीर को आत्मा समझ लिया जाता है| यह बहुत बड़ा भ्रम है, इसे नष्ट होना चाहिये|" (३:१९५) 
" इस समय हमारे सामने ये सब विविधताएँ हैं और उन्हें हम देखते हैं- उन्हें हम पंचभूत कहते हैं- पृथ्वी,जल, अग्नि, वायु और आकाश| इसके परे सत्ता की अवस्था मानसिक है, और उसके परे है आध्यात्मिक। यह नहीं है कि आत्मा एक है, मन दूसरा है, आकाश उससे भिन्न है आदि आदि| सत्ता एक ही है, जो इन सभी विविधताओं में दिखाई पड़ती है।... ध्यान वह अभ्यास है जिसमे सब कुछ उस परम सत्य आत्मा में घुला दिया जाता है| पृथ्वी जल में रूपान्तरित होती है, जल वायु में, वायु आकाश में, तब मन और फिर वह मन भी विलीन हो जाता है| सब आत्मा ही है|" (४: १३६-३७)
" वेदान्त का सार है कि सत केवल एक ही है और प्रत्येक आत्मा पूर्णतया वही सत है, उस सत का अंश नहीं| ओस कि हर बून्द में 'सम्पूर्ण' सूर्य प्रतिबिम्बित होता है|...सभी नाम-रूप य़ा आभासों के पीछे एक ही सत्य है|..हमें अपने को इस दुखद स्वप्न से मुक्त करना है कि हम यह देह हैं| हमें यह ' सत्य ' जानना ही चाहिये कि 'मैं वह हूँ'|" (६:२५६-५७) 
" सत्य के लिये संस्कृत शब्द है - सत| सगुण ईश्वर (श्री रामकृष्ण परमहंस )स्वयं अपने लिये उतना ही सत्य है, जितना हम अपने लिये, इससे अधिक नहीं| ईश्वर को भी उसी प्रकार साकार भाव से देखा जा सकता है, जैसे हमें देखा जा सकता है|जब तक हम मनुष्य हैं, तब तक हमें ईश्वर का प्रयोजन है; हम जब स्वयं ब्रह्मस्वरूप हो जायेंगे तब फिर हमें ईश्वर का प्रयोजन नहीं रह जायेगा| इसीलिये श्री रामकृष्ण उस जगत-जननी को अपने समीप सदा सर्वदा वर्तमान देखते थे - वे अपने आस-पास की अन्य सभी वस्तुओं की अपेक्षा उन्हें अधिक सत्य रूप में देखते थे; किन्तु समाधी-अवस्था में उन्हें आत्मा के अतिरिक्त और किसी वस्तु का अनुभव नहीं होता था| (७:७०)      
" मेरा उपदेश किसी धर्म का विरोधी नहीं है| मैं व्यक्ति (को पुनरुज्जीवित करने) की ओर ही विशेष ध्यान देता हूँ, उसे तेजस्वी बनाने की चेष्टा करता हूँ| मैं तो यही शिक्षा देता हूँ कि प्रत्येक व्यक्ति साक्षात् ब्रह्म है, और सबको उनके इसी आन्तरिक ब्रह्म भाव के सम्बन्ध में सचेत होने के लिये आह्वान करता हूँ| जानकर हो य़ा बिना जाने, वस्तुतः यही सब धर्मों आदर्श है| " (४: २२९) 
" संसार के सभी धर्म एक ही सत्य-स्वरूप केन्द्र की विभिन्न त्रिज्याएँ (अभिव्यक्तियाँ) हैं|.. और यह केंद्रीय सत्य क्या है? वह है भीतर का ईश्वर| प्रत्येक व्यक्ति, चाहे वह कितना ही पतित हो, ईश्वर की - दिव्यत्व की अभिव्यक्ति है|दिव्यत्व पर आवरण आ जाता है, वह दृष्टि से छिप जाता है|...चिर मौन रहने के व्रत की साधना करने वाले एक स्वामीजी को एक मुसलमान ने छुरा भोंक दिया| लोग हत्यारे को खींच कर आह्ट के सामने ले गये और बोले, ' स्वामीजी आप कहें, तो हम इसे ठिकाने लगा दें|' 
...अपना व्रत अपने अन्तिम समय में यह कहने के लिये तोड़ा, ' मेरे बच्चो, तुम सब भूल में हो| यह मनुष्य साक्षात् ईश्वर है!' महान शिक्षा यह है कि सबके पीछे वही एक है| " (४: २३३) 
" मैं चाहता हूँ कि सभी व्यक्ति ऐसी दशा में आ जाएँ कि अति जघन्य पुरुष को भी देखकर उसकी बाह्य दुर्बलताओं की ओर वे दृष्टिपात न करें, बल्कि उसके ह्रदय में रहने वाले भगवान को देख सकें|
और उसकी निंदा न कर यह कह सकें- ' हे स्वप्रकाशक, ज्योतिर्मय, उठो! हे सदाशुद्धस्वरूप उठो! हे अज, अविनाशी, सर्वशक्तिमान, उठो ! आत्मस्वरूप प्रकाशित करो। तुम जिन क्षूद्र (पाशव) भावों में आबद्ध (सूकर-योनी) पड़े हो, वे तुम्हें सोहते नहीं।'अद्वैतवाद इसी श्रेष्ठतम प्रार्थना का उपदेश देता है|" (८:६२-६३)
" हम इन्द्रिय-सुख जैसी तुच्छ वस्तु के शिकार हैं, भले ही उससे हमारा सर्वनाश ही क्यों न हो| हमने यह भुला दिया है कि जीवन में और अधिक महान वस्तुएं हैं|...ईश्वर ने एक बार धरती पर वराह-अवतार लिया; उनकी एक शूकरी भी थी। कालान्तर में उनके कई शूकर संतानें हुईं|अपने परिवारवालों के बीच वे बड़े चैन से रह रहे थे। कीचड़ में लोटते हुए वे खूब मस्त थे। वे अपनी दिव्य महिमा एवं प्रभुता भूल बैठे थे। देवता लोग उनकी इस दुर्दशा को देख कर बड़े चिंतित हुए|
वे धरती पर उतर आये और उनसे शूकर-शरीर का त्याग कर देवलोक लौट चलने की विनती करने लगे| ईश्वर ने उनकी एक न सुनी और उन सब को दुत्कार दिया| वे बोले ' मैं इसी योनी में बड़ा प्रसन्न हूँ और इस रंग में भंग देखना नहीं चाहता।'कोई चारा न देख देवताओं ने प्रभु का शूकर-शरीर नष्ट कर दिया। तत्क्षण ईश्वर की दिव्य भव्यता लौट आई और वे बड़े विस्मित थे कि शूकर-स्थिति में वे प्रसन्न रहे कैसे! मानवीय आचरण भी इसी प्रकार का है|
जब कभी वे लोग निर्गुण ईश्वर (Super -Consciousness ) की चर्चा सुनते हैं, तो उनकी प्रतिक्रिया होती है कि ' मेरे व्यक्तित्व का क्या होगा? मेरा तो व्यक्तित्व ही लुप्त हो जायेगा ? ' फिर कभी ऐसा विचार मन में उठे तो उस शूकर की दशा याद कर लेना|" (९:८२) 


" जिस दिन श्री रामकृष्ण देव ने जन्म लिया है, उसी दिन से Modern India  तथा सत्ययुग का आविर्भाव हुआ है| तुम लोग सत्ययुग का उद्घाटन करो और इसी विश्वास के साथ कार्यक्षेत्र में अवतीर्ण हो| यदि श्री रामकृष्ण देव सत्य हैं, तो तुम भी सत्य हो| किन्तु तुमको यह प्रमाणित कर दिखाना होगा| " (४:३०९) " सत्यमेव जयते नानृतम - ' सत्य की ही जाय होती है, असत्य की नहीं;' तदा किं विवादें- ' तब विवाद से क्या लाभ ? '(४:३१८)                      
" एक समय ऐसा अवश्य आयेगा, जब हममे से प्रत्येक अतीत की ओर नजर डालेगा और अपने पुराने कुसंस्कारों पर हँसेगा, जो शुद्ध और नित्य आत्मा को ढके हुए थे, एवं प्रेम-मुदित मन से सत्यता में स्थित रहकर दृढ़ता के साथ बारम्बार कहेगा- मैं वही हूँ, चिरकाल वही था, और सदैव वही 'T ' रहूँगा! ...कारण, यही सत्य है और जो सत्य है, वह सनातन है, तथा सत्य ही यह शिक्षा देता है कि वह किसी व्यक्ति विशेष की सम्पत्ति नहीं है|
...इसके विरुद्ध जो तर्क दिया जाता है, वह यह कि- " मैं नित्य शुद्ध बुद्ध आनन्दस्वरूप हूँ ", इस प्रकार से मौखिक कहना तो ठीक है पर जीवन नदी के हर मोड़ (परिस्थिति) पर तो मैं इसे अपने आचरण के द्वारा दिखा नहीं पाता|" हम इस बात को स्वीकार करते हैं, आदर्श सदैव अत्यन्त कठिन होता है|प्रत्येक बालक आकाश को अपने सिर से बहुत ऊँचाई पर देखता है, पर इस कारण क्या हम आकाश कि ओर देखने की चेष्टा भी न करें? और क्या पुनः पुराने (पाशविक) संस्कारों की ओर जाने से ही क्या कुछ अच्छा हो जायेगा ? यदि हम अमृत न पा सकें, तो क्या विषपान करने से ही कल्याण होगा ? " (२: १८७-८८)
" जो मनुष्य यह जान लेता है कि ' मैं वही हूँ ', वह चिथड़ों में लिपटे रहने पर भी सुखी रहता है| उस शाश्वत तत्व में प्रवेश करो और शाश्वत शक्ति के साथ वापस आ जाओ| (मन का) दास सत्य का अन्वेषण करने जाता है और स्वतन्त्र होकर (मन का प्रभु होकर) लौटता है|" (२:२५३) 
" बालक शुक का अपने मन पर ऐसा संयम था कि बिना उनकी इच्छा के संसार की कोई वस्तु उन्हें आकृष्ट नहीं कर सकती थी| ...यदि हम भी अपने मन को प्रशिक्षित करना चाहते हैं, तो ...यह निश्चित है कि हमें अन्त में पूर्ण आत्मत्याग का लाभ होगा ही| और ज्यों ही इस कल्पित अहं का नाश हो जायेगा, त्यों ही वही संसार, जो हमे पहले अमंगल से भरा प्रतीत होता है, अब स्वर्ग स्वरूप और परमानन्द से पूर्ण प्रतीत होने लगेगा| यहाँ की हवा तक बदलकर मधुमय हो जाएगी और प्रत्येक व्यक्ति भला प्रतीत होने लगेगा| " ( ३: ६६) 
           
                             
आगे कहते है- " मनुष्य चाहता है सत्य, वह सत्य का स्वयं अनुभव करना चाहता है; और जब वह सत्य कि धारणा कर लेता है, सत्य का साक्षात्कार कर लेता है, ह्रदय के अन्तरतम प्रदेश में उसका अनुभव कर लेता है, वेद कहते हैंतभी उसके सारे सन्देह दूर होते हैं, सारा तमोजाल छिन्न-भिन्न हो जाता है, और सारी वक्रता सीधी हो जाती है|"  (१:३८) 
स्वामीजी कहते हैं - " हम जो दुःख भोगते हैं, वह अज्ञान से, सत्य और असत्य के अविवेक से उत्पन्न होता है|...एकमात्र आत्मा ही सत्य है, पर हम यह भूल गये हैं| शरीर एक मिथ्या स्वप्न मात्र है, पर हम सोचते हैं कि हम शरीर हैं| यह अविवेक ही दुःख का कारण है| " (१:२०१)
" जब कोई प्रथम बार मृगतृष्णा को देखता है, तो वह उसे सत्य मानने कि भूल करता है,और उसमे (नाम-रूप में) अपनी प्यास बुझाने का निष्फल प्रयास करता है, पर बाद में (तृष्णा और बढ़ जाती है ) वह समझ पाता है कि वह मृगतृष्णा थी| किन्तु जब कभी उसके बाद भविष्य में वह उसे देखता है, तो स्पष्ट वास्तविकता होते हुए भी यह विचार सदैव उसके सामने आता है कि वह मृगतृष्णा देख रहा है| एक जीवन्मुक्त के लिये यही हाल माया के संसार का है |" (१:२८७)
" मेरे बच्चों को सबसे पहले वीर बनना चाहिये, किसी भी कारण से (लालच वश) तनिक भी समझौता न करो|(अपने को शरीर मन इन्द्रियों का गुलाम मत समझो) सर्वोच्च सत्य - " मैं वह हूँ ! " की मुक्त रूप से घोषणा कर दो|..यदि तुम लालच य़ा प्रलोभनों को ठुकरा कर सत्य के सेवक बनोगे, तो तुममे ऐसी दैवी-शक्ति आ जाएगी, जिसके सामने लोग तुम से उन बातों को कहते डरेंगे, जिन्हें तुम सत्य नहीं समझते |" (१:३२७       
(चैतन्यात सर्वम उत्पन्नम!) वही एक ' वस्तु ' हर किसी में अनुस्यूत है!'पूरा स पक्षीभूत्वा प्राविशत!' पुराकाल में (अर्थात सृष्टि के पहले) वही ब्रह्म वस्तु सभी कुछ के भीतर किसी पक्षी के रूप से प्रविष्ट थे| यहाँ प्रविष्ट होने का अर्थ लौकिक रूप में जैसे बाहर से भीतर प्रविष्ट हुआ जाता है, वैसा नहीं है | बल्कि सब कुछ उसी से निर्मित हुआ है ! वह वस्तु ही एकमात्र वस्तु है ! किन्तु उस वस्तु को इन्द्रियों से नहीं अनुभूति के द्वारा जाना जाना जाता है; और आजका विज्ञान भी ठीक यही बात कहता है| केवल आज कह रहा है सो नहीं, बहुत दिनों से विज्ञान ऐसा ही कहता चला आ रहा है! एक ही वस्तु से सब कुछ अस्तित्व में आया है| जैसा Big Bang में कहा गया है- महाकाश में एक बहुत बड़ा Explosion  (विस्फोट) हुआ था, एक समय में बहुत बड़ी घटना घटी जिसके फलस्वरूप इस विश्व-ब्रह्माण्ड कि सृष्टि हुई !
।।इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्य: स सुपर्णो गरुत्मान्।
एकं सद् विप्रा बहुधा वदंत्यग्नि यमं मातरिश्वानमाहु: ।।
- ऋग्वेद (1-164-43)
भावार्थ : जिसे लोग इन्द्र, मित्र, वरुण आदि कहते हैं, वह सत्ता केवल एक ही है; ऋषि लोग उसे भिन्न-भिन्न नामों से पुकारते हैं।
 उपनिषदों के अनुसार ब्रह्म [ब्रह्मा नहीं] ही परम तत्व है। ब्रह्म ही जगत का सार है, जगत की आत्मा है और विश्व का आधार है। इसी से विश्व की उत्पत्ति होती है और नष्ट होने पर विश्व उसी में विलीन हो जाता है।
 श्लाकार्धेन प्रवक्ष्यामि यदुक्तं ग्रंथ कोटिभ:।
ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापर:।।
अर्थात् जो अनेक ग्रंथों में लिखा है, उसे मैं आधे श्लोक में यहां कह रहा हूं। ब्रह्म सत्य है, जगत मिथ्या है तथा जीव ब्रह्म ही है, कोई अन्य नहीं। सत्य का अर्थ है- जिसका तीनों कालों में बाध नहीं होता अर्थात् जो था, जो है और जो रहेगा। इस दृष्टि से जगत् ब्रह्म-सापेक्ष है।जो था, जो है और जो सदैव रहेगा- वही तो ब्रह्म है। 'जगत मिथ्या '-यहां मिथ्या शब्द असत् से भिन्न है। मिथ्या शब्द यहां प्रतीति होनेवाली वस्तु सत्य सी लगती है जबकि वह प्रतीति क्षण में नहीं। यही मिथ्यात्व है। इसमें संस्कारों तथा उसके परिणाम स्वरूप स्मृति की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। संसार के अस्तित्व को स्वीकार करने पर ही जीव है। संसार की संसार के रूप में प्रतीति के नष्ट होते ही ‘जीव’ का अस्तित्व समाप्त हो जाता है। यह ऐसे ही है जैसे जागने पर स्वप्नकाल के द्रष्टा और दृश्य का को लोप हो जाता है। इस दृष्टि से जगत् ब्रह्म-सापेक्ष है। ब्रह्म को जगत् के होने या न होने से कोई अंतर नहीं पड़ता। जिस प्रकार आभूषण के न रहने पर भी स्वर्ण की सत्ता निरपेक्ष भाव से रहती है, उसी प्रकार सृष्टि से पूर्व भी सत्य था। दूसरे शब्दों में, ब्रह्म का अस्तित्व सदैव रहता है।श्रुति का वचन है-'सदेव सोम्येदग्रमासीत्' अर्थात् हे सौम्य ! सृष्टि से पूर्व सत्य ही था।
भौतिक विज्ञानी आइंसटीन के नियम के अनुसार इसे पूरे ब्रह्मांड में द्रव्य या ऊर्जा है। यह दोनों भी आपस में परिवर्तनशील हैं अर्थात् जो द्रव्य या ठोस पदार्थ हमें दिखते हैं; वे भी ऊर्जा से निर्मित हैं और सभी ठोस पदार्थ अंतत: ऊर्जा में ही परिवर्तित हो जाते हैं। अत: इस पूरे ब्राह्मंड में ऊर्जा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। अध्यात्म विज्ञान में यही ऊर्जा ब्रह्म है।

खगोल विज्ञानियों के अनुसार ब्रह्मांड की उत्पत्ति पूर्ण ऊर्जा एवं धूल के कणों में महाविस्फोट से हुई है। कालांतर में इसी से आकाशगंगाएं, नक्षत्र, तारे एवं ग्रह आदि बने। सूर्य के विखंडन से संपूर्ण सौरमंडल अस्तित्व में आया। अध्यात्म विज्ञानी इस सृष्टि की उत्पत्ति नाद से मानते हैं जबकि खगोल विज्ञानी विस्फोटक से मानते हैं अर्थात् सभी ग्रहों या पृथ्वी पर जो कुछ भी जड़-चेतन तत्त्व है; वह सूर्य या ब्रह्मांड के मूल तत्त्व से ही बना है। परन्तु नाम-रूप में भिन्नता होने पर भी मूल तत्त्व एक ही है और वह ब्रह्म है। दर्शन शास्त्रों में ब्रह्म के संदर्भ में 'एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति' कहा गया है। 
सत्य क्या है ? असत्य क्या है ? सत्य वह है जिसमें कभी कोई परिवर्तन न हो जैसा पहले था वैसा अब भी है और आगे भी वैसा हे रहेगा | असत्य वह है जो बनता बिगड़ता है | संत महात्माओं ने जगत नाशवान कहा है, मनुष्य का शरीर नाशवान है, शरीर के सम्बन्धी भी नाशवान है, सम्बंधित पदार्थ भी नाशवान हैं | जो कुछ हम इन आखों से देखतें हैं, कानों से सुनतें हैं और इन्द्रियों के द्वारा जो कुछ भी हम अनुभव करतें हैं, मन की पहुँच जहाँ तक है वह सब मिथ्या है अर्थात नाशवान है |

गो गोचर जहं लगि मन जाई |
सो सब माया जनेउ भाई ||

केवल राम नाम सत्य है, बाकी सब मिथ्या है | राम नाम सत्य है ऐसा कहा गया है इसमें गूढ़ रहस्य है नाम दो प्रकार का होता है |
१. वर्णात्मक नाम
२. ध्वन्यात्मक नाम
वर्णात्मक नाम वह है जो वाणी द्वारा बोला जा सके और लिखने पढने में आये,

" लिखन और पढ़न में आया, उसे वर्णात्मक गाया "
वर्णात्मक नाम जैसे - राम, कृष्ण, अल्ला, खुदा, गोद, गोविन्द, गोपाल आदि | अब यह सोचना चाहिए की जब कोई भाषा नहीं थी, कोई वर्णमाला नहीं थी, कागज, स्याही नहीं थी, कोई मनुष्य नहीं था, चौरासी लाख योनियाँ नहीं थी, कोई देवी-देवता नहीं थे, ब्रहमा, विष्णु, महेश नहीं थे, कोई अवतार नहीं था, कोई पैगम्बर नहीं थे, कोई तीर्थकर नहीं थे, स्वर्ग, नर्क, पाताल नहीं था, तीन लोक चौदह भुवन नहीं थे | तब परमात्मा का क्या स्वरुप था ? रचना की उत्पत्ति कैसे हुई ? यह सब हाल घट के अन्दर देखने और समझने के लिए सत्य मार्ग की आवशयकता है, अभी तक वर्णात्मक नाम के बारे में जो थोड़ा बताया गया है इससे परे ध्वन्यात्मक नाम है | जो परम प्रकाश रूप है यह वाणी द्वारा नहीं बोला जा सकता, और न लिखने पढ़ने में आ सकता है |
यह नाम मनुष्य शरीर के घट के अन्दर है | संत महात्माओं ने इसी परम प्रकाश रूप ध्वन्यात्मक नाम की महिमा गाई है लोगों ने इसे वर्णात्मक तक ही सीमित रखा |
 


श्री गुरु पद नख मनि गन जोती |
सुमिरत दिव्य दुष्टि हियँ होती ||


पहले गुरु चरण घट में प्रगट हों उनके नखों के प्रकाश से दिव्य दुष्टि प्राप्त होगी जिससे राम नाम रुपी हीरा घट के अन्दर दिखाई देगा, जो परम प्रकाश रूप है | नाम की महिमा तीनों लोकों में कोई नहीं जानता, केवल संत नाम की महिमा जानते हैं |

यह नाम विदेह है भाषा रहित है मन इन्द्रियों से परे है इसे सार नाम या सार शब्द भी कहतें हैं कुल रचना की उत्पत्ति इसी से हुई है | मिलौनी की रचना जड़ और चेतन तथा निर्मल चैतन्य रचना सब नाम से ही हुई है |
" शब्द ने रची त्रिलोकी सारी, शब्द से माया फैली भारी "
यह नाम सगुण और निर्गुण दोनों से बड़ा है गोस्वामी जी ने कहा है |
अगुन सगुन दुई ब्रह्म सरूपा |
अकथ अगाध अनादि अनूपा ||



यह नाम ध्वन्यात्मक है और रूप उसका परम प्रकाश रूप है यह चेतन का आदि भण्डार है | कुल रचना की उत्पत्ति इसी से हुई | संतों ने इसी नाम की महिमा गाई है | जिनको घट का भेद नहीं मिला, क्योंकि उनको पूरे गुरु नहीं मिले इसी लिए वर्णात्मक तक ही सीमित रह गये और नाम का परिचय नहि मिला | आप लोग यदि सत्य मार्ग के बारे में जानना चाहतें हैं | सच्चे परमार्थी जीव हैं तो सभी प्रकार की टेक छोड़कर  संत सतगुरु वक़्त की शरण लें | सभी मनुष्यों के अन्तर का सत्य मार्ग एक हे है इसीलिए सभी से आपस में प्रेम व सदभाव रखना चाहिये |
  
" जांति पातिं पूछे नहि कोई,
हरी का भजै सो हरि का होई "

बुधवार, 20 अक्तूबर 2010

" लब पे आती है दुआ बन के तमन्ना मेरी "


॥ श्री नन्द जी ॥
दोहा:-
कोई वस्तु अनित्य नहीं, रहत सदा ही नित्य ।
रूपान्तर ह्वै जात है, कैसे भई अनित्य ॥१॥
जैसे नैना बन्द करि, देखो कहूँ न कोय ।
वैसे हरि को खेल यह, हर दम ऐसै होय ॥२॥
जब जानौ तुम ध्यान को, देखौ सर्गुन खेल ।
जब पहुँचो तुम लय दशा, वहां न खेल न मेल ॥३॥ 
========
डाक्टर मोहम्मद इक़बाल 
लब पे आती है दुआ बनके तमन्ना मेरी,
ज़िन्दगी शमअ की सूरत हो ख़ुदाया मेरी।
दूर   दुनिया  का  - मेरे दम अँधेरा हो जाये,
हर जगह मेरे चमकने से उजाला हो जाये।
हो मेरा काम ग़रीबों की हिमायत करना
दर्द-मंदों से-  ज़इफ़ों से मोहब्बत करना !
मेरे अल्लाह बुराई से बचाना मुझको;
नेक जो राह हो उस राह पे चलाना मुझको।


शब्दार्थ :शमा की सूरत=दीपक की भाँति; ज़ीनत=शोभा; इल्म की शमा=ज्ञान का दीपक; ज़ईफ़ों=बूढ़े लोगों
(जीनत = शोभा, श्रृंगार की वस्तु, इल्म= ज्ञान, हिमायत= सहानुभूति, जईफ= दुर्बल, पददलित )    


नया शिवाला 
 सच कह दूँ ऐ ब्रह्मण गर तूँ बुरा न माने,
तेरे सनम कदों के बुत हो गये पुराने.


अपनों से बैर रखना तूने बुतों से सीखा,
जंग-ओ- जदल सिखाया वाइज़ को भी खुदा ने,


तंग आके आखिर में मैंने दैर-ओ-हरम को छोड़ा,
वाइज़  का वाज़ छोड़ा, छोड़े तेरे फ़साने, 

पत्थर की मूर्तियों में समझा है तू खुदा है,
खाक-ए-वतन का मुझ को हर ज़र्रा देवता है.

आ गैरत के परदे इक बार फिर उठा दें,
बिछड़ों को फिर मिला दें, नक़्शे दूरी मिटा दें.
 
सूनी पड़ी हुई है मुद्दत से दिल की बस्ती,
आ इक नया शिवाला इस देश में बना दें।

दुनिया के तीर्थों से ऊँचा हो अपना तीरथ 
दामन-ए-आसमां से इस का कलश मिला दें.
 
हर सुबह मिल के गायें मन्तर वो मीठे मीठे, 
सारे पुजारियों को मय प्रीत की पिला दें.

शक्ति भी शान्ति भी भक्तों के गीत में है,
धरती के वासियों की मुक्ति प्रीत में है. खुली आँखों से ध्यान 

तराना-ए-हिन्द

सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा,
हम बुलबुलें हैं उसकी ये गुलसिताँ हमारा।

ग़ुरबत में हों अगर हम रहता है दिल वतन में
समझो वहीं हमें भी दिल हो जहाँ हमारा

पर्बत वो सब से ऊँचा हमसाया आसमाँ का
वो सन्तरी हमारा वो पासबाँ हमारा

गोदी में खेलती हैं जिसकी हज़ारों नदियाँ
गुलशन है जिस के दम से रश्क-ए-जिनाँ हमारा

ऐ आब-ए-रूद-ए-गंगा, वो दिन है याद तुझ को
उतरा तेरे किनारे जब कारवाँ हमारा

मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना
हिन्दी हैं हम, वतन है हिन्दोस्ताँ हमारा

यूनान-ओ-मिस्र-ओ-रोमा सब मिट गये जहाँ से,
अब तक मगर है बाक़ी नाम-ओ-निशाँ हमारा।

कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी,
सदियों रहा है दुश्मन दौर-ए-ज़माँ हमारा।

'इक़बाल' कोई महरम अपना नहीं जहाँ में
मालूम क्या किसी को दर्द-ए-निहाँ हमारा।



अटल बिहारी वाजपेयी
" यक्ष प्रश्न "
 जो कल थे,
वे आज नहीं हैं।
जो आज हैं,
वे कल नहीं होंगे।

होने, न होने का क्रम,
इसी तरह चलता रहेगा,
हम हैं, हम रहेंगे,
यह भ्रम भी सदा पलता रहेगा।


सत्य क्या है?
होना या न होना?
या दोनों ही सत्य हैं?
जो है, उसका होना सत्य है,
जो नहीं है, उसका न होना सत्य है।
मुझे लगता है कि
होना-न-होना एक ही सत्य के
दो आयाम हैं,
शेष सब समझ का फेर,
बुद्धि के व्यायाम हैं।
किन्तु न होने के बाद क्या होता है,
यह प्रश्न अनुत्तरित है।


प्रत्येक नया नचिकेता,
इस प्रश्न की खोज में लगा है।
सभी साधकों को इस प्रश्न ने ठगा है।
शायद यह प्रश्न, प्रश्न ही रहेगा।
यदि कुछ प्रश्न अनुत्तरित रहें
तो इसमें बुराई क्या है?
हाँ, खोज का सिलसिला न रुके,
धर्म की अनुभूति,
विज्ञान का अनुसंधान,
एक दिन, अवश्य ही
रुद्ध द्वार खोलेगा।
प्रश्न पूछने के बजाय
यक्ष स्वयं उत्तर बोलेगा।

शेख सादी
हर शै में देख लीजै उसका ही नूर है ।
तिल भर नहीं है खाली हर दम हुजूर है ॥६॥
है सब में सब से न्यारा मानो वचन हमारा ।
श्री कौशिला का प्यारा, यशुमति कहै दुलारा ॥७॥
कहते खुदा हैं उसको- खुद आने वाला जानो ।
     है फिक्र सब की उसको खुद खाने वाला जानो ॥८॥
जिसका है नाम सुनिये उसका है रूप गुनिये ।
सूरति शब्द में लागै तब तन मन हरि में पागै ॥९॥
देखैं हम रूप हर दम कहने की क्या रहै गम ।
धुनि रोम रोम जारी छूटै जगत से यारी ॥१०॥
कहते हैं शेखसादी मुरशिद के पास जाओ ।
तन मन से प्रेम कीजै तब इसका भेद पाओ ॥११॥



 ॥ श्री नाभा जी ॥
दोहा:-
रा रकार रघुनाथ जी, मा मकार महरानि ।
आखिर दोनों एक हैं, रूप राशि गुनखानि ॥१॥

॥ श्री निजामुद्दीन औलिया ॥
शेर:-
यह राम कृष्ण प्यारे आँखों के मेरे तारे ।
क्या खेल हैं पसारे औ रहते सब से न्यारे ॥१॥

॥ श्री उपनन्द जी ॥
छन्द:-
नाम रूप लीला धाम चारों नित्य जानिये ।
सर्व शक्तिमान को अनित्य कैसे मानिये ॥१॥
===================================


























शुक्रवार, 8 अक्तूबर 2010

[59]" वे ही जीवित हैं, जो दूसरों के लिये जीते हैं "

 " वे ही जीवित हैं, जो दूसरों के लिये जीते हैं " 
....बाकी के मनुष्य तो मृतक से भी गये गुजरे हैं, तो फिर पत्थर बन चुके ह्रदय में दूसरों के प्रति सहानुभूति जाग्रत करने की चेष्टा करने का उपाय क्या है ?
 सबसे सहज उपाय है, स्वामीजी की ओर देखना. मानव-मात्र के दुःख को दूर करने के प्रति स्वामीजी के ह्रदय में कैसी तड़प थी ! सभी जाति-धर्म के मनुष्यों के लिये उनके ह्रदय में कैसी संवेदना थी! यदि छात्र जीवन के समय से ही परम-देशभक्त स्वामी विवेकानन्द के जीवन को ही " युवा- आदर्श " के रूप हमलोगों के समक्ष रखा जाय, और हमलोग उनकी जीवनी को ध्यानपूर्वक पढ़-सुन कर, चिन्तन- मनन करके स्वामीजी के जीवन को ही अपने ध्यान की वस्तु बना लें, तब हमलोगों का ह्रदय स्वतः ही विस्तृत हो जायेगा.
  जब हमलोग सागर  से प्रेम करने में सक्षम हो जायेंगे तो हमलोग स्वाभाविक रूप से सभी प्रकार के लहरों से भी प्रेम करने में समर्थ हो जायेंगे.तब हमलोगों का ह्रदय भी इतना विस्तृत हो जायेगा कि उसमे सबों के लिये (सभी तरह के मनुष्यों के लिये ) थोड़ा भी स्थान अवश्य रहेगा, और दूसरों का दुःख हमलोग को बिल्कुल अपने दुःख के जैसा महसूस होगा. और तब हमलोग अपनी शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, य़ा बौद्धिक - जहाँ पर जैसी शक्ति लगानी हो, हम सभी लोग अपनी पूरी शक्ति लगाकर, अपना ' सर्वस्व न्योछावर करके भी ' दूसरे मनुष्यों के दुःख को दूर करने की चेष्टा करने में समर्थ बन जायेंगे. 
अपने ह्रदय को सागर जितना विस्तृत कर पाने सक्षम बन जाने को ही- " मनुष्य बनना " कहते हैं.
जिस किसी भी देश में इस प्रकार के ' विशाल-ह्रदय मनुष्य ' निर्मित कर लिये जाते हैं, वे उस देश के जो नीचे पड़े हुए मनुष्य हैं, अवहेलित हैं, अज्ञानी हैं, निन्दित हैं, शोषित हैं, अनाहार में दीन बिताते हैं, जो अशिक्षा के अँधेरे में डूबे हुए हैं, जिनकी ओर नजर उठाकर देखने की भी फुर्सत किसी को नहीं है, उनलोगों को पुनः अपने पैरों पर खड़े होने का सामर्थ्य प्रदान कर सकते हैं.  
फिर यदि वे लोग भी अपने पैरों पर खड़ा होकर, रीढ़ की हड्डी को सीधी रखते हुए, अपने सिर को ऊँचा उठा कर अपने देशवासियों की ओर देख सके-  जो उनके सहोदर हैं, और बिल्कुल उसी अवस्था में हैं जिस अवस्था में वह पहले स्वयं भी थे, तब वे उनके हित को भी अपने ह्रदय से बिल्कुल अपना हित जैसा महसूस करने में सक्षम हो जाते हैं. और तब वे (देशवासियों के उन्नति के लिये योजना में भ्रष्टाचार नहीं करते बल्कि ) अपनी पूरी शक्ति समस्त देश-वासियों को ऊँचा उठाने के उनके विकास योजनाओं में लगा देते हैं- स्वामीजी इसी लिये (ऐसे ही मनुष्यों का निर्माण करने के लिये)  तो आये थे ! 
स्वामीजी मानव-मात्र की मुक्ति के लिये धरती पर आये थे. किन्तु स्वामीजी के अनुसार मुक्ति का अर्थ केवल वनों-जंगलों में जाकर तपस्या करना नहीं है, केवल ईश्वर ईश्वर करके इधर-उधर भ्रमण करना नहीं है, केवल तीर्थाटन करते रहना ही नहीं है, य़ा केवल किसी मन्दिर,मस्जिद गिरजा में जाकर पूजा कर लेना ही नहीं है. 
स्वामीजी ने कहा था- " मनुष्य ही सबसे बड़ा देवमन्दिर है ! " स्वामीजी की इसी विशेषता को स्पष्ट करते हुए मैं उडिषा में घटित एक घटना का उल्लेख पहले भी कई बार कर चुका हूँ, उसी  प्रसंग को पुनः पुनः दुहराने में थोड़ा संकोच भी होता है पर पता नहीं क्यों इस घटना की पुनरुक्ति होती ही रहती है.  एक बार उडिषा में किसी स्थान पर एक व्याख्यान-सभा हो रही थी, कई वक्ता लोग आये थे, दो-चार सन्यासी भी थे, उडिषा के विशिष्ठ गणमान्य व्यक्ति लोग थे, प्रोफ़ेसर लोग भी थे, वहाँ पर मुझे बोलने के लिये कहे, तो बोला था. बोलते समय मैंने एक बात कही थी-         
    " I believe that a second person like Swami Vivekananda was never born in human history. "
"-मेरा  दृढ विश्वास यह है कि, मानवसभ्यता के इतिहास में स्वामी विवेकानन्द के जैसा और कोई दूसरा व्यक्ति आज तक नहीं जन्मा है !" 
सभा समाप्त होने के बाद युवाओं का एक दल, जिन्हें देखने से लग रहा था कि वे लोग कॉलेज के छात्र होंगे, सबों ने मुझे घेर लिया, और घेर कर बहुत उत्साहपूर्वक बोले, ' अदभुत, अदभुत, आपकी वक्तृता सुन कर हमलोगों को बहुत अच्छा लगा है." उनलोगों में से ही एक लड़का आगे आकर बहुत विनम्रतापूर्वक बोला- " किन्तु एक बात है महाशय . " मैंने कहा- ' बोलो भाई. ' तब उसने कहा कि अभी, अभी अपने भाषण में आपने जो एक बात कहा कि -" स्वामी विवेकानन्द जैसा और कोई दूसरा मनुष्य इस पृथ्वी परआज तक पृथ्वी पर जन्म नहीं ग्रहण किये हैं"
- क्या ऐसा कहना ठीक है ? 
मैंने कहा- ' भाई मुझे जो बात सही लगती है, मैं केवल वही बात कहता हूँ. ऐसा कहने के पीछे मेरा अन्य कोई उद्देश्य नहीं है, य़ा मन में अन्य कोई भाव रख कर मैंने वैसा नहीं कहा है. ' 
तब उस लड़के ने बताया - " आप बुरा मत मानियेगा, हमलोगों के यहाँ एक सन्यासी हैं,  जो बिल्कुल स्वामी विवेकानन्द कि तरह ही लगते हैं. यदि आप उनसे मिलना चाहें तोकल सुबह मैं आपको उनसे मिलवा वापस भी ला सकता हूँ, वे यहाँ से बहुत ज्यादा दूर पर नहीं रहते है. "
तब मैंने पूछा कि ," उनमे कौन कौन सी विशेषताएं हैं? " तब वह उनकी एक एक विशेषता गिनवाने लगा. " वे एक गैरिक वस्त्रधारी सन्यासी हैं, वे महाविद्वान हैं, कोई विद्या ऐसी नही है जिसे वे नहीं  जानते हों,उनके पास जाने वाला कोई भी व्यक्ति यह नहीं कह सकता कि वे क्या जानते हैं और क्या नही जानते हैं. जिस किसी भी विषय में उनके साथ कोई चर्चा करना चाहता हो, उसी से उस विषय के सम्बन्ध में यथासंभव कह देते हैं. और उनके उत्तर को सुन कर समझा जा सकता है कि वे उस विषय के बारे में जानते हैं. सम्पूर्ण शास्त्रों के ज्ञाता हैं, वेद-वेदान्त आदि समस्त शास्त्र उनके मुख में ही है. उनके त्याग का भाव असाधारण है. कभी किसी से कुछ लेना नहीं चाहते हैं. यदि कोई उनको खाने को दे देता है तो खाते हैं, नहीं देने से बिना खाए ही रह जाते हैं. बिल्कुल असाधारण मनुष्य हैं ! " मैंने जानना चाहा कि - " वे रहते कहाँ हैं ?
" उसने कहा यहाँ से अधिक दूर नहीं है. पास में ही एक जंगल है, उसी में वे एक कुटिया बना कर रहते हैं. एक घंटे में ही वहाँ पहुँचा जा सकता है, बस दो घन्टा के भीतर ही हमलोग वहाँ से वापस लौट सकते हैं." मैंने ( हाथ जोड़ कर ) कहा- " भाई , मैं तुम्हारे कहने पर (तुम्हारा दिल रखने के लिये) इतना भले मान सकता हूँ कि विद्या, त्याग, तितिक्षा आदि युक्त किसी सन्यासी के रूप में, वे स्वामी विवेकानन्द से थोड़ा भी कम नहीं हों, य़ा स्वामीजी में इसके अतिरिक्त भी जितने सारे गुण थे, सभी बे सब भी एक जैसे ही हों, पर इतने सारे गुण होने पर भी चूँकि वे अभी तक जंगल में ही बैठे हुए हैं यह जान लेने के बाद अब मैं उनसे मिलने की जरुरत नहीं समझता. क्योंकि हिमालय में बैठ कर बाकी जीवन बीता देने की प्रबल ईच्छा रहने पर भी स्वामीजी जंगल में बैठे नहीं रह सके. 
अपने शिष्य के साथ वार्तालाप करते हुए वे कहते हैं : -
" मैं क्या अपने शेष बचे जीवन को हिमालय की किसी कन्दरा में बैठ कर 
ध्यान में लीन रहते हुए नहीं बीता सकता हूँ रे !
किन्तु वैसा मैं कर नहीं सकता;
जहाँ देश के इतने लोग, इतने दुःख में पड़े किल-बिल कर रहे हों, 
वहीं मैं (स्वार्थी होकर ) ध्यान में बैठा  रहूँगा ?
  - ऐसा करना मेरे लिये कदापि सम्भव नहीं है ."
  ' इसीलिये भाई, मैं यह स्वीकार नहीं कर पा रहा हूँ कि ये साधु भी बिल्कुल स्वामी विवेकानन्द के ही जैसे एक और व्यक्ति हैं;  इसीलिये इस विवाद का भंजन करने के लिये मुझे वहाँ जाने की कोई आवश्यकता भी प्रतीत नहीं होती है.'
" मैं स्वामीजी को सबसे अनूठा व्यक्ति मानता हूँ- यह बात मैं किसी के मुख से सुन कर य़ा पुस्तक से पढ़ कर नहीं कहता हूँ, यह मेरे ह्रदय की बात है, मेरे अपने अन्तर में मुझे स्वामीजी ऐसे ही दिखाई देते हैं, यह मेरे अनुभव की बात है,  मैं अधिक पड़ता-लिखता नहीं हूँ, मैं ज्यादा कुछ जानता भी नहीं हूँ. अपने ह्रदय के स्पन्दनों के बीच में स्वामीजी के विशाल ह्रदय की धडकनों का थोड़ा सा परिचय  प्राप्त हुआ है. अतः उसी ह्रदय की भाषा में कह सकता हूँ कि-  " स्वामी विवेकानन्द के जैसा मेरे ह्रदय को छू लेने वाला कोई दूसरा व्यक्ति मुझे आज तक कहीं नहीं मिला है, इसलिए कहता हूँ कि उनके जैसा और कोई दूसरा व्यक्ति अभी तक पृथ्वी पर जन्म ग्रहण नहीं लिये हैं! "
{निम्न लिखत पत्र में स्वामीजी के ह्रदय की एक झलक देखी जा सकती है :- 
Swami Vivekananda's letter to 
 His Highness the Maharaja of Mysore (23 June 1894).

(स्वामी विवेकानन्द द्वारा मैसूर के महाराज को २३जुन १८९४ को लिखा पत्र.) 

" Our duty to the Masses of India  "  

" मातृभूमि के प्रति हमारा कर्तव्य "






Shri Narayana bless you and yours. Through your Highness' kind help it has been possible for me to come to this country. Since then, I have become well known here, and the hospitable people of this country have supplied all my wants. It is a wonderful country and this is a wonderful nation in many respects ...
 महाराज, 
श्री नारायण आपका और आपके कुटुम्ब का मंगल करें. आपके द्वारा दी गयी उदार साहायता से ही मेरा इस देश में आना सम्भव हुआ है. यहाँ आने के बाद से यहाँ के लोग मुझे अच्छी तरह से जानने लगे हैं, और इस देश के अतिथिपरायण निवासियों ने मेरे सारे आभाव दूर कर दिये हैं.यह एक अदभुत देश है और यह जाति भी कई बातों में एक अदभुत जाति है.......
  Nowhere on earth have women so many privileges as in America. They are slowly taking everything into their hands; and, strange to say, the number of cultured women is much greater than that of cultured men ... they require more spiritual civilization, and we, more material.
 अमेरिका की महिलाओं को जितने अधिकार प्राप्त हैं, उतने दुनिया भर में और कहीं की महिलाओं को नहीं. धीरे धीरे वे सब कुछ अपने अधिकार में करती जा रही हैं, और आश्चर्य की बात तो यह है कि शिक्षित पुरुषों की अपेक्षा यहाँ शिक्षित स्त्रियों की संख्या कहीं अधिक है....धर्म के विषय में यहाँ के लोग य़ा तो कपटी होते हैं य़ा मतान्ध; विवेकी लोग धर्मों में व्याप्त कुसंस्कार से उब चुके हैं और नये प्रकाश के लिये भारत की ओर देख रहे हैं.....मेरा निष्कर्ष यह है कि उन्हें और भी अधिक आध्यात्मिक सभ्यता को अपनाने की आवश्यकता है और हमें अभी कुछ और भी अधिक भौतिकवादी सभ्यता  नजदीक से जानने की.  
The one thing that is at the root of all evils in India is the condition of the poor. The poor in the West are devils; compared to them ours are angels, and it is therefore so much easier to raise our poor. 
भारतवर्ष के सभी अनर्थों की जड़ है- गरीबों की दुर्दशा. पाश्चात्य देशों के गरीब तो निरे दानव हैं, उनकी तुलना में हमारे यहाँ के गरीब देवता हैं. इसीलिये हमारे गरीबों की उन्नति करना सहज है. 
 The only service to be done for our lower classes is :-
to give them education to develop 
their lost individuality. (i.e . firm faith in their own Self)That is the great task between 
our
" People and Princes "
(modern highly educated and highly paid youth of India ). 
 Up to now, nothing has been done in that direction.
अपने निम्न वर्ग के लोगों के प्रति हमारा एक मात्र कर्तव्य है- उनको शिक्षा देना, उनमे उनकी खोई हुई जातीय विशिष्टता ( आत्म-श्रद्धा ) का विकास करना. हमारे देश की आमजनता के प्रति हमारे  देश के(उच्च शिक्षा प्राप्त, उच्च पद पर आसीन अधिकारीयों) राजकुमारों (युवाओं)के सम्मुख यही एक बहुत बड़ा काम पड़ा हुआ है. अब तक इस दिशा में कुछ भी काम नहीं हुआ है. 
Priest-power and foreign conquest have trodden them down for centuries, and at last, the poor of India have forgotten that they are human beings. They are to be given ideas 
(self-respect, self-confidence ...24 Qualities of   character given in mahamandal's chart) 
their eyes are to be opened to what is going on in the world around them; and then 
(After becoming men of character) 
they will work out the own salvation.
पुरोहितों की शक्ति और विदेशी विजेतागाण सदियों से उन्हें कुचलते रहे हैं, जिसके फलसवरूप भारत के गरीब बेचारे भूल गये हैं कि वे भी मनुष्य हैं.उनमे अच्छे-अच्छे भाव (आत्म-श्रद्धा, आत्मविश्वास,...आदि चरित्र के २४ गुण जो महामण्डल के चरित्र-निर्माणकारी तालिका में दिये हुए हैं) भरने होंगे; उनके चारों ओर आस-पास की दुनिया में कहाँ क्या हो रहा है, इस सम्बन्ध में उनकी आँखें खोल देनी होंगी; इसके बाद (चरित्रवान मनुष्य बन जाने के बाद) फिर वे अपना उद्धार अपने आप कर लेंगे.        
Every nation, every man, and every woman 
must work out their own salvation. 
Give them ideas 
(4 Mahavakya of Veda and Mental -Concentration ) 
- that is the only help they (masses of India )require, 
and then the rest must follow as the effect. 
प्रत्येक जाति के,प्रत्येक स्त्री-पुरुष को अपना उद्धार स्वयं ही करना होगा.उनको अच्छे अच्छे विचार दो  (४ महावाक्य सुना दो और मनः संयोग कराना सीखा दो) उन्हें (भारतवर्ष के जनसाधारण को) बस उसी  एक साहायता की जरुरत है, इसके फलस्वरूप बाकी सब कुछ (मेरा भारत महान बनाने का सपना) अपने आप ही हो जायेगा.      
Ours is to put the chemicals together, the crystallization comes in the law of nature. Our duty is to put ideas into their heads, they will do the rest. 
That is what is to be done in India. I could not accomplish it in India, and that was the reason of my coming to this country.
हमें केवल रासायनिक पदार्थों को (3H - Hand , Head, Heart य़ा स्थूल, सूक्ष्म, अतिसूक्ष्म) को इकठ्ठा भर कर देना है, क्रिस्टलीकरण (चरित्र-गठन य़ा रवा बंध जाना) तो प्राकृतिक नियमों (Law of Association) से ही साधित हो जायेगा. हमारा कर्तव्य है, उनके दिमागों में विचार भर देना- बाकी वे स्वयं कर लेंगे. भारत में बस इतना ही काम करना है..भारत में इसे मैं कार्य रूप में परिणत न कर सका, और यही कारण था कि मैं इस देश में आया. 
The great difficulty in the way of educating the poor is this. Supposing even your highness opens a free school in every village, still it would do no good, for the poverty in India is such, that the poor boys would rather go to help their fathers in the fields, or otherwise try to make a living, than come to the school. If the poor boy cannot come to education, education must go to him. 
गरीबों को शिक्षा देने में मूख्य बाधा यह है- मान लीजिये महाराज, आपने हर एक गाँव में एक निःशुल्क पाठशाला खोल दी, तो भी इससे कुछ काम न होगा, क्योंकि भारत में गरीबी ऐसी है कि गरीब लड़के पाठशाला में आने के बजाये खेतों में अपने माता-पिता को मदद देने य़ा किसी दूसरे उपाय से रोटी कमाने जायेंगे.इसीलिये अगर पहाड़ मुहम्मद के पास न  आये, तो मुहम्मद को ही पहाड़ के पास जाना पड़ेगा. अगर गरीब लड़का शिक्षा ग्रहण करने के लिये न आ सके,तो शिक्षा को ही उसके पास जाना पड़ेगा.  
(- अर्थात गाँव-गाँव में युवा चरित्र-निर्माणकारी शिविर आयोजित करना होगा ) 
There are thousands of single-minded, self-sacrificing Sanyasins in our country, going from village to village, teaching religion. If some of them can be organized as teachers of secular things also, they will go from place to place, from door to door, not only preaching, but teaching also.
हमारे देश में हजारों एकनिष्ठ और त्यागी साधु (देश-प्रेमी स्त्री-पुरुष ठाकुर-माँ-स्वामीजी के गृहस्थ भक्त आदि) हैं, जो गाँव गाँव में धर्म की शिक्षा देते फिरते हैं. यदि उनमे से कुछ लोगों को सांसारिक विषयों के शिक्षकों के रूप में (महामण्डल के नेता का प्रशिक्षण देकर) संगठित किया जा सके तो गाँव गाँव, दरवाजे दरवाजे पर जाकर वे केवल धर्मशिक्षा(आत्म-श्रद्धा जगाने की शिक्षा ) ही नहीं देंगे, बल्कि धन कमाने की शिक्षा भी दिया करेंगे.    
Suppose two of these men go to a village in the evening with a camera, a globe, some maps, etc. By telling stories about different nations, they can give the poor a hundred times more information through the ear than they can get in a lifetime through books.
मानलीजिये कि इनमे से दो व्यक्ति (महामण्डल य़ा सारदा नारी संगठन में प्रशिक्षित दो नेता) शाम को साथ में एक मैजिक लैंटर्न, एक ग्लोब, और कुछ नक्शे आदि लेकर किसी गाँव (आज २०१० में जानिबीगहा के महामण्डल चालित स्कूल में लैपटॉप लेकर जाते हैं) में जाते हैं. वे अपढ़ लोगों को गणित, ज्योतिष, और भूगोल की बहुत कुछ शिक्षा दे सकते हैं.वे गरीब पुस्तकों से जीवन भर में जितनी जानकारी पा सकेंगे, उससे सौगुनी अधिक वे उन्हें बातचीत के माध्यम से विभिन्न देशों के बारे में कहानियाँ सुनाकर दे सकते है.      
This requires an organization, which again means money. Men enough there are in India to work out this plan, but alas! they have no money. lt is very difficult to set a wheel in motion; but when once set, it goes on with increasing velocity. After seeking help in my own country & failing to get any sympathy from the rich, I came over to this country through your Highness' aid.
इसके लिये एक संगठन की आवश्यकता है, जो पुनः धन पर निर्भर करता है. इस योजना को कार्यरूप में परिणत करने के लिये भारत में मनुष्य तो बहुत हैं, पर हाय ! वे निर्धन हैं. एक चक्र को चलाना बड़ा कठिन काम है, पर अगर एक बार वह गतिशील हुआ कि वह क्रमशः अधिकाधिक वेग से चलने लगता है.अपने देश में साहायता पाने का प्रयत्न करने के बाद जब मैंने धनिकों से कुछ भी सहानुभूति न पायी, तब मैं, महाराज, आपकी साहायता से इस देश में आ गया.  
The Americans do not care a bit whether the poor of India die or live. And why should they, when our own people never think of anything but their own selfish ends?
अमेरिका वासियों को इस बात की कुछ भी परवाह नहीं कि भारत के गरीब जियें य़ा मरें. और भला वे परवाह भी क्यों करने लगें, जब कि हमारे अपने देशवासी (सरकारी नौकरी से रिटायर्ड हो जाने के बाद भी) सिवाय अपने स्वार्थ की बातों के और किसी की चिन्ता नहीं करते ?  
My noble Prince, this life is short, the vanities of the world are transient, but they alone live who live for others, the rest are more dead than alive.  
महामना राजन, आप इतना तो समझ ही लीजिये कि- यह जीवन क्षणस्थायी है, संसार के भोग-विलास की सामग्रियाँ भी क्षणभंगुर हैं. (इस जगत में जो लोग आपको जीवित दिखायी दे रहे हैं,उनमे से)  यथार्थ रूप से वही जीवित है जो दूसरों का हितसाधन करने कि ईच्छा से जीवन धारण करता है,(जैसे निर्विकल्प- समाधि में जाने के बाद भी ठाकुर की आज्ञां से स्वामीजी बटवृक्ष बन करदूसरों को छाया देने के लिये जीवन धारण किये थे.)बाकी लोगों का जीना तो मरने ही के बराबर है. (जो रिटायर्ड होने के बाद भी केवल अपने ही भविष्य की चिन्ता में जीते हैं, उनका जीवन ? )     
One such high, noble-minded and royal son of India as your Highness can do much more towards raising India on her feet again and thus leave a name to posterity which shall be worshipped. That the Lord may make your noble heart feel intensely for the suffering millions of India, sunk in ignorance, is the prayer of -- Vivekananda.
महाराज, आप जैसे एक उन्नत, महामना भारत का राजपुत्र  भारत को फिर से अपने पैरों पर खड़ा कर देने के लिये बहुत कुछ कर सकते हैं.और इस तरह भावी वंशजों के लिये एक ऐसा नाम छोड़ जा सकते हैं, जिसकी वे पूजा करें. प्रभु (ठाकुर) आपके महान ह्रदय में भारत के उन लाखों नर-नारियों के लिये गहरी संवेदना पैदा कर दें, जो अज्ञात में गड़े हुए दुःख झेल रहे हैं- यही मेरी प्रार्थना है. 
Source: Complete Works of Swami Vivekananda ( Vol: 4: page 361)
(हिन्दी वि० सा० ख० २: ३६८)}
ऐसे देश प्रेमी स्वामी विवेकानन्द को अपने ' ह्रदय का धन ' समझ कर - उन्हें देश के युवाओं के समक्ष एक युवा-आदर्श के रूप में प्रस्तुत करना होगा, एवं उन सबों के जीवन में भी स्वामी विवेकानन्द प्रति अनन्य श्रद्धा-भक्ति को प्रतिष्ठित करना होगा ! उनको भी अन्य किसी तथाकथित राजनीतिक नेताओं की तरह ( जिनको हमलोग स्वयं तो अपने ह्रदय का धन नहीं समझते किन्तु दूसरों को दिखाने के लिये दीवार पर लटका देते हैं.) एक और युवा आदर्श के रूप में प्रस्तुत कर देने से नहीं होगा. युवाओं के ह्रदय में भारत माँ के लिये - स्वामीजी के जैसा ही उत्साह चाहिये, वैसा ही आग्रह चाहिये, वही प्रेम चाहिये, वही स्नेह चाहिये; हमलोगों को स्वामीजी की पूजा नहीं करनी होगी, स्वामीजी की स्तुति नहीं करनी होगी, केवल स्वामीजी को अपने ह्रदय से प्रेम करना होगा. इसलिए मुझे क्या महसूस होता है, जानते हो भाई ?
यही कि-
" ठाकुर आमार बाबा, माँ सारदा आमार माँ, आर स्वामी विवेकानन्द आमार बड़ दादा " 
" ठाकुर मेरे बाबूजी हैं, माँ सारदा मेरी माँ हैं, और स्वामी विवेकानन्द मेरे बड़े भैया हैं ! "
 कोई भी व्यक्ति अपने बाबूजी -माँ- भैया का सबसे अधिक आदर करता है, सबसे ज्यादा प्रेम करता है, और करना भी चाहिये. और यदि सचमुच बिल्कुल अपने माँ-बप  तरह ही " ठाकुर- माँ " - किसी के बाबूजी-माँ हों ; और स्वामीजी से बड़े भैया की तरह कोई व्यक्ति प्रेम करता हो क्या उसके जीवन में फिर किसी भी चीज का आभाव हो सकता है ? क्या फिर उसे अपनी विद्या, बल, शक्ति को, प्रेरणा को, हृदयवत्ता को मनुष्य की सेवा में अपने जीवन को उत्सर्ग कर देने की कामना को दृढ़ता से ह्रदय में बैठा लेने में और कोई असुविधा हो सकती है ! अशिक्षा के अन्धकार में डूबे  हुए मनुष्यों को यदि ऊपर उठाना हो तो ठाकुर-माँ-स्वामीजी को अपना ह्रदय-धन बना कर ह्रदय में बैठा लेना होगा; और भारत का  समस्त युवा वर्ग ऐसा करने में सक्षम हैं ! पर हो सकता है कि सभी युवा उनको अपना ह्रदय-धन न बना सकें, किन्तु अगर उनका एक छोटा सा प्रबुद्ध युवा- दल भी ऐसा कर ले तो उतने से ही काम हो जायेगा.
एक critical number Chemistry - में बहुत बार प्रयोग में आता है, that critical number of young people must come.केमिस्ट्री में एक क्रिटिकल नम्बर (गुणगुणग्य-संख्या ) को अक्सर प्रयोग में लाया जाता है, जब युवा समुदाय में से भी उसी प्रकार एक क्रिटिकल नम्बर (जब पर्याप्त संख्या में - इस अर्जेन्टली नीडेड य़ा अत्यन्त आवश्यक गुणगुणग्य संख्या वाले ) में चरित्र-सम्पन्न युवाओं का निर्माण कार्य पूरा हो जायेगा  -  तब जो युवा जीवन के जोश में अपने जीवन के उद्देश्य को भूल कर कूमार्ग में पड़ जाते हैं, वे लोग इन गुणगुणग्य-संख्या वाले युवाओं को प्रलोभनों का दबाव देकर, उनकी शक्ति को अस्वीकार करके समाज के ऊपर उन्हें अपना प्रभाव डालने से विरत नहीं  कर सकेंगे. और इस छोटे से गुणगुणग्य-संख्या (क्रिटिकल नम्बर में उपलब्ध) प्रबुद्ध युवा नेतृत्व के मार्गदर्शन में समस्त समाज इसी प्रकार चरित्र-निर्माण के पथ पर आगे बढ़ता जायेगा !
 इस प्रकार के समस्त कार्यों में भीड़ जाने के कारण, शुरू शुरू में मेरे विरुद्ध भी अनेक अभियोग लगाये थे.मुझे महामण्डल के कार्य से मैं जब भी बाहर जाना पड़ता तो मैं छुट्टी का दरखास्त देकर ही जाया करता था.पर आने के बाद देखता हूँ कि मेरी छुट्टी नामंजूर कर दी गयी है; और तात्कालिक सजा के रूप में मेरा इन्क्रीमेन्ट तथा  मेरा कन्फर्मेशन भी रोक दिया गया है. तथा अन्य कोई सजा दी जा सकती है य़ा नहीं, इसपर भी विचार किया जा रहा है.
इन सब कार्यों के जो प्रधान ऑफिसर थे उनके पास जब मेरा अभियोग पहुँचा तो,  उन्होंने मुझे अपने ऑफिस में बुलवाया. उनका ऑफिस में दबदबा कुछ ऐसा था कि उनके कमरे में जाने पर कोई ऑफिसर भी उनके सामने चेयर पर नहीं बैठते थे, खड़े रहकर ही सभी अपनी बात कहते थे. इधर मेरे अन्दर एक बहुत बड़ा दोष यह था, जिसे बताना उचित होगा य़ा नहीं, नहीं जानता; परन्तु मैं केवल अपने शिक्षक महाशयों को ही ' सर ' कहा करता था; उनको सम्बोधित करने की रीति ही यह थी इसीलिये कहता था. शिक्षकों के अलावा किसी अन्य को मैंने अपने जीवन भर में कभी 'सर ' कह कर सम्बोधित नहीं किया है.नौकरी करने गया हूँ इसीलिये मुझे ' सर ' कहना ही होगा, ऐसी कोई मजबूरी मेरे साथ नहीं थी, मैंने कभी नहीं कहा. जिस कमरे में प्रविष्ट होने में सभी डरते थे, मेरे जाते ही वे बोले- ' बैठिये '. वे किन्तु सायंस कालेज के प्राध्यापक थे. मुझसे बोले, " आपको एक कार्य दिया जाये तो क्या आप उसे कर सकेंगे ? " मैंने कहा कि, " क्या कार्य करना है, यह जाने बिना मैं उसे कर पाउँगा य़ा नहीं कहना सम्भव नहीं है. " " नहीं , नहीं , वह तो बिल्कुल ठीक बात है, वह तो आप एकदम ठीक ही कह रहे हैं. " इतना कहने के बाद जो कार्य करने को कहे उसको पश्चिम बंगला सरकार कम से कम २० वर्षों से तो कर नहीं पायी थी.किन्तु होना उचित था.
मैंने कहा कि, '  न करने के लायक तो कोई कारण मुझे दिखाई नहीं दे रहा है, किन्तु इसको करने में ये ये चीजें लगेंगी तथा  इस कार्य के लिये मुझे दो व्यक्ति और चाहिये, तथा वे वैसे ही व्यक्ति होने चाहिये जिनके नाम मैं सुझाऊंगा.' " कहिये आप को कौन कौन से दो व्यक्ति चाहिये ? " पर जब मैंने एक आदमी का नाम सुझाया तो बोले, " उसकी बात कहते हैं, he is an unwilling horse, जब मैं उसके द्वारा कोई काम नहीं करवा पता हूँ तो आप कैसे करवा लीजियेगा ? "
मैंने कहा कि " यहाँ पर कौन व्यक्ति क्या काम कर सकता है, उन सब को मैं पहचानता हूँ, जानता हूँ. काम करवाने का तरीका मैं जानता हूँ, पर उसके नहीं रहने पर मैं यह कार्य कर नहीं पाउँगा. "" ठीक है हो जायेगा. "
उसीके बाद ऐसा हुआ कि जहाँ मेरी नौकरी जाने की बातें हो रहीं थीं वहीं ऐसा हुआ कि जिस कमरे में मेरा ऑफिस था उसके ही ठीक दूसरी तरफ, कोरिडोर के उस तरफ उनके ऑफिस का कमरा था. एक दीन मैं अपने ऑफिस में बैठ कर काम कर रहा था, काम अधिक होने पर मैं छौ -साढ़े छौ बजे तक भी काम करता था. ऑफिस के दूसरे सभी लोग निकाल गये थे. वे अपने ऑफिस में काम कर रहे थे और मैं अपने ऑफिस में काम कर रहा था. हठात मेरे कमरे कि बत्ती बुझ गयी.
मेरे मुँह से निकल गया, ' कौन है रे ? ' वे जल्दी जल्दी पर्दा हटा कर कहते हैं, " ओह, आप अभी तक काम कर रहे हैं, उठिए उठिए काम बन्द कर दीजिये, मेरे साथ चलिए अभी और काम नहीं करना होगा. " कह कर अपनी गाड़ी में बैठा कर मुझे अद्वैत आश्रम के गेट पर उतार दिये. क्योंकि ऑफिस का काम ख़त्म करने के बाद, महामण्डल का काम करने के लिये मुझे रोज शाम को वहीं जाना पड़ता था.(शायद इस बात को वे जान चुके थे). 
ऑफिस के काम की अवहेलना मैंने कभी नहीं की है. इसलिए मुझे यह बहुत अच्छी तरह से ज्ञात है कि, निष्ठा पूर्वक काम करने से तथा  ईमानदार रहने से मनुष्य को कभी हानी नहीं उठानी पड़ती. किन्तु जीवन में कितनी ही तरह की समस्याएं तो आती ही रहीं हैं, और उनमे से सभी को तो कहा भी नहीं जा सकता. अपनी आखों के सामने मैंने कितने ही असत काम होते देखा है. फिर भी मैं अपने को यथासाध्य निष्ठापूर्वक ही करता आया हूँ. एकबार किसी इन्स्पेक्सन में गया था, मुझे धमकी मिली- " आप का खून हो जायेगा, संभल जाइये ! " मेरा खून तो नहीं हुआ, उनकी कुछ दुर्बुद्धि का खून जरुर हो गया. इसलिए जिस किसी भी काम को चाहे वह व्यापार हो य़ा नौकरी - यदि निष्ठा के साथ की जाये, काम में ईमानदारी रखी जाये तो जो कोई भी चेष्टा सफल होती है.
बेलुड मठ तो खूब ही जाया करता था. संसारी के साथ सन्यासी का एक बहुत बड़ा अन्तर क्या होता है, वहाँ जाते जाते मुझे यह अच्छी तरह समझ में आ गया था. मैंने यह अच्छी तरह से जान लिया था कि संसारी लोग बिना किसी प्रत्याशा के प्रेम नहीं कर सकते हैं, वहीं सन्यासी लोग बदले में कुछ पाने की आशा किये बिना ही प्यार कर सकते हैं, इस तथ्य का मुझे अच्छा अनुभव हुआ था. तथा मुझे ऐसा भी महसूस हुआ है कि जो लोग ठाकुर-माँ- स्वामीजी का काम करते हैं उनको वे लोग दूसरों की अपेक्षा थोड़ा अधिक ही प्यार करते हैं. विरेश्वरानन्दजी महाराज, गम्भिरानान्दजी महाराज, भूतेशानान्दजी महाराज, अभयानन्दजी महाराज (भरत महाराज ), इनलोगों ने मुझे जितना प्रेम और स्नेह दिया है उसको मैं बोल कर समझा नहीं सकता; क्योंकि मुझे यह भी महसूस होता है की प्रेम अनुभव करने की वस्तु है, मुख से कह कर उसका इजहार करने की जरुरत नहीं है. 
बहुत बार इनका प्यार ऐसा महसूस हुआ है जैसे, कोई पिता अपने प्यार को बाहर प्रकट किये बिना अपने सन्तान को ह्रदय से प्यार करता है. बहिः प्रकाश व्यतिरिक्त जिस प्रकार पिता का प्यार अपने सन्तान के प्रति होता है, मानो वे लोग भी ठीक उसी प्रकार प्रेम करते थे, पूर्व में वर्णित कई घटनाओं से यह तथ्य और भी स्पष्ट हो जाता है.
एक दीन सुबह के समय बेलुड मठ गया हूँ. उस समय भूतेशानन्दजी महाराज प्रेसिडेन्ट थे. बैठक खाने में भक्तों के साथ प्रसंग कर रहे थे. मेरे जाते ही अन्दर जाने का दरवाजा बन्द हो गया. सेवक महाराज उनका सुनने का यन्त्र खोल कर भक्तों को गंगा की दिशा में स्थित दरवाजे से बाहर जाने के लिये कहे. अधिकांश भक्त लोग उठने  लगे थे.मुझको देखते ही महाराज बोले- " की नवनी, एसेछ ? "  ( क्या नवनी, आ गये ? )
 फिर कुछ प्रिय भक्तों की ओर देखते हुए कहते हैं-
" स्वामीजी बलेछिलेन, ठाकुरेर आविर्भावेर सँगे सँगे सत्य युग आरम्भ हयेछे.कई बापू !
मारामारी- काटाकाटी कत कि हच्छे ! "
"- स्वामीजी ने कहा था, ठाकुर के आविर्भूत होने के साथ ही साथ
सत्य युग आरम्भ हो गया है, पर कहाँ भाई !
संसार भर में कितना मारा-मारी, काटा-कटी कितना क्या क्या हो रहा है ! " 
उसी बीच में किसी अहमक कि तरह मैंने कह दिया- 
" यह जो गंगा बहती जा रही है, इसमें इतना ज्वार-भाटा खेलता है.
भाटा समाप्त होते समय पानी की गति बहुत बढ़ जाति है, 
कितु उसके पहले से ही ज्वार का जल नीचे से बहता रहता है,
ऊपर से वह दिखायी नहीं पड़ता. "
उनके (स्वामी भूतेशानन्दजी के ) मुखमंडल पर वही वात्सल्य पूर्ण हँसी प्रस्फुटित हो गयी- बोले- " नवनी ठीक बलछे. एई जे विवेकानन्द युव महामण्डल - एटा कि सत्ययुगेर लक्षन नय ? " " नवनी ठीक कहता है, यह जो विवेकानन्द युवा महामण्डल चल रहा है, क्या यह सत्य युग का लक्षण नहीं है ? "
एकदिन भरत महाराज के पास गया हूँ, कहते हैं-
" तोमादेर ' विवेक-जीवन ' आमार काछे आसे, आमि एकटू एकटू देखी. 
अनेक जायगाय युवकदेर ' कथामृत ' पड़िये पड़िये माथा खाच्छे. 
तोमराई ठीक काज करछ, स्वामीजीर कथा शोनाच्छ . " 
" - तुमलोगों का ' विवेक-जीवन ' (महामण्डल की मासिक संवाद-पत्रिका )
मेरे पास आता रहता है, मैं उसे थोड़ा-बहुत देखता भी हूँ . 
बहुत से स्थानों पर युवाओं को " वचनामृत " 
(श्रीरामकृष्ण-वचनामृत) पढ़ा पढ़ा कर उनका माथा खाता है,
तुमलोग युवाओं को स्वामीजी की वाणी सुनाते हो, तुम्ही लोग सही काम कर रहे हो ! "
महामण्डल के उडिषा राज्य शाखा कि ओर से लगातार चार वर्षों तक विभिन्न स्थानों पर स्वामी रंगनाथानन्दजी की वक्तृता का आयोजन किया गया था. कितने दिनों तक प्रति दिन चार-पाँच जगहों पर उनका भाषण होता था. प्रत्येक बार मुझको भी जाने के लिये कहते थे. किसी जगह पर महाराज पहले बोलते थे उनके बाद मैं बोलता था. कहीं पर वे कहते- " तुम पहले बोलो मैं बाद में बोलूँगा " प्रत्येक जगह पर प्रचूर श्रोता एकत्र होते थे. सभा का पण्डाल के बाहर भी इतनी भीड़ (दो-तीन हजार लोग) इकट्ठी हो जाति थी कि पण्डाल से कुछ दूरी पर ही गाड़ी खड़ी कर देनी पड़ती थी.
किसी स्थान पर सभापतित्व करने की जिम्मेवारी सुप्रीम कोर्ट के मूख्य न्यायधीश की थी. अन्तिम क्षणों में सूचना मिली वे  नहीं आ सकेंगे. हठात उनलोगों ने न जाने क्या सोंच कर सभापतित्व करने के लिये मेरा नाम प्रस्तावित कर दिया, रंगनाथानन्दजी को बताया तो, उन्होंने कहा- ' very good .' 
सभापति के भाषण को पहले ही देते हुए, मैंने कहा- ' महाराज के भाषण को अन्त में सुनने पर आपलोग उनके उपदेश के भाव को अधिक देर तक अपने दिमाग में बैठा सकेंगे, इसीलिये सभापति का भाषण उनसे पहले ही हो गया है.
एक ग्राम की ओर चलते समय रास्ते में लोग पैर धो रहे थे, माला पहना रहे थे. इतना अधिक माला पहना दिया कि गले में अँट नहीं रहा था. हमदोनों ही लोग बीच बीच में कितने हार को गले से खींच कर फेंक रहे थे और कितने ही लोग उनको लूटने के लपकते थे. मंच पर एक तरफ खड़े होकर महाराज वक्तृता दे रहे थे, मैं बीच में बैठा हुआ था, हठात श्रोताओं के बीच से, उनके सर को इधर उधर हटाते हुए एक व्यक्ति मंच पर चढ़ कर मेरे सामने साष्टांग सो गया और दोनों पैरों को पकड़ कर रोने लगा. महाराज जिस प्रकार वक्तृता दे रहे थे, मेरी ओर जरा सा एक नजर देखे और बिना रुके बोलते ही रहे. दूसरे लोग आये और उस व्यक्ति को उठाकर ले गये. बाद में जब महाराज ने उस व्यक्ति उस प्रकार रोने का कारण जानना चाहा तो बताया गया कि वह व्यक्ति चाहता था कि मैं माँ के सम्बन्ध में कुछ कहूँ .
महाराज ने मुझे माँ के सम्बन्ध एक घन्टा तक बोलने को कहा और खुद अगली सभा के लिये चल पड़े, तथा सभा की समाप्ति के पश्चात् मुझे वहाँ नहीं जाकर उसके बाद वाली सभा में जाने का आदेश दिया. मुझे वैसा ही करना पड़ा. एक स्थान पर जाने के पहले हम दोनों को बिठाकर विभिन्न उपचार से पूजा करने के बाद आरती किया. (नर-नारायण repeats ?) मनुष्य के मन में क्या-क्या भावनाएं आ सकती हैं ! इन सबको रंगनाथानन्दजी ने बहुत सहज भाव से ग्रहण किया, मैं भी उनका अनुसरण करता चला गया. वे भी कितने अदभुत मनुष्य थे ! उनका प्रेम पाकर के मुझे ऐसा प्रतीत होता था- क्या पिता पुत्र को इस प्रकार प्रेम कर सकते हैं ? एवं यह भी मेरे मन में ऐसा ख्याल भी आता है कि, (पिता-पुत्र य़ा नर-नारायण के बीच जो स्नेह होता है ) वैसा स्नेह सदैव किसी न किसी को प्राप्त होता रहेगा !
इसके बहुत बाद में जब भरत महाराज बहुत अस्वस्थ होने सेवा प्रतिष्ठान में रहरहे थे. यह खबर मुझे दूसरों से प्राप्त हुई थी. अक्सर किसी को भी उनसे मिलने की अनुमति मिलती नहीं थी. मेरा मन बेचैन हो रहा था. हठात एक दिन दोपहर के समय मेरे दसवें तल्ले पर स्थित ऑफिस के कक्ष में, जयराम महाराज (स्वामी स्मरणानन्दजी, वर्तमान समय में मठ के भाईस प्रेसिडेन्ट ) आकर हाजिर होगये. और बोले " भरत महाराज को देखने के लिये सेवा प्रतिष्ठान जा रहा हूँ. आपके ऑफिस के सामने गुजरते समय मन में आया आपसे भी मिलता चलूँ. " मैंने पूछा - " क्या आप मुझे भी अपने साथ ले चलेंगे ? " उन्होंने कहा- ' चलिए '. मैं फाइलों को संभल कर रख दिया और उनके साथ हो लिया. उनके साथ जा रहा था, इसीलिये रास्ते में किसीने हमें टोका-टाकी नहीं किया.
लिफ्ट से सेवा-प्रतिष्ठान के चौथे तल्ले पर चढ़ कर दक्षिण की ओर वाले अन्तिम केबिन में महाराज आँखों को मूंद कर चुचाप सोये हुए थे. केबिन के अन्दर उनके बिछावन के समीप खड़े होकर हमदोनों उनको देख  रहे थे. वहाँ पर अकेले " मन्टू बाबू " {जिन्होंने बहुत वर्षों तक मठ में भरत महाराज की सेवा-सुश्रुषा (देख-भाल) आदि की थी} ही खड़े थे. सभी लोग चुप-चाप थे. जयराम महाराज ने मन्टू बाबू से पूछा, " हम लोग जो यहाँ आये हैं क्या महाराज इस बात को समझ सके हैं ? " मन्टू बाबू ने थोड़ा कर्कश स्वर में कहा- " मैं यह कैसे बता सकता हूँ ? " 
जयराम महाराज इतने शान्त स्वाभाव के थे, की कर्कश स्वर में उत्तर न देकर उन्होंने मुझसे कहा- " आप यहीं ठहरिये, मैं किसी व्यक्ति के साथ मिल कर शीघ्र ही आ रहा हूँ."
इधर मन्टू बाबू को भी थोड़ा अफ़सोस हो रहा था कि, सन्यासी से उस प्रकार बोल दिये ! उन्होंने शान्त भाव से मुझसे कहा- " रात्रि के समय एक दरी बिछा कर फर्श पर सोना पड़ता है, और सारे दिन सन्यासी लोग, डाक्टर, नर्स, भक्त लोग आते रहते हैं, कई तरह के प्रश्न पूछते हैं, साबुन को जितना सम्भव होता है उत्तर देता हूँ. कुछ ही दिन पहले पती और पत्नी दोनों आये थे, वे लोग महाराज के पास बीच बीच में मठ में आया करते थे. वे ट्रेन से बहुत दूर से आये थे. इस कमरे में तो कोई आ नहीं  सकते थे, कमरे के बाहर से ही पूछ रहे थे, " हमलोग महाराज को देखने के लिये आये हैं, क्या महाराज इस बात को जान रहे हैं ? " महाराज तो आँखे मूंद कर सोये हुए थे.
हठात महाराज कहते हैं- " उनलोगों से पूछो कि, विवाह के रात्रि में पती-पत्नी आपस में सात-सात वचन एकदूसरे को देते हैं; वे वचन उनको अब भी याद हैं य़ा सब भूल गये हैं ? " जैसे ही मन्टू बाबू ने महाराज कि बात उनलोगों से कहा, वे दोनों जोर जोर से रोने लगे और दरवाजे की चौखट पर सर रगड़ने लगे. उसके बाद धीरे धीरे उठे और हाथ जोड़ कर बोले- " हमलोग तलाक लेने के लिये कोर्ट जा रहे थे, फिर सोंचे कि एक बार महाराज को प्रणाम करके जाना चाहिये. नहीं , अब तलाक नहीं लेंगे. " 
वैसे तो स्वामीजी की समस्त वाणी मन्त्र के जैसी ( वेदों के ४ महावाक्यों के जैसी) ही हैं- जिसका मनन करने ' त्राण ' (भवसागर से तर जाते हैं ) होता है, फिर भी उनका एक उपदेश - जिसने इस जीवन नदी को सदा (सागर से मिलने जाने के पथ पर ) चलते रहने को प्रेरित किया है-
वह उपदेश है : 
" They alone live who live for others, 
the rest are more dead than alive. " 

" - यथार्थ रूप में वे ही जीवित हैं, जो दूसरों के लिये जीते हैं, 
बाकी लोग तो मृतक (मुर्दा) से भी अधम हैं. " 
( स्वामीजी का यह कथन कितना सत्य है इसका प्रमाण है मेरी यह जीवन नदी जो अपने हर नये मोड़ पर कितने ही ऐसे जीवित लोगों का अनुभव संजोय है ! ) 
जीवन नदीर बाँके बाँके, कतई देखा शोना होल - 
अतल प्रानेर सागर ह'ते, किसेर ध्वनी बोझा गेल ?
कालेर बेलाये रेखा रेखे, एबार जाबार समय एल ;
भेसे जाबार एल पाला, विस्मरनेर अतल तले || 
उस परा-वाणी को समझ कर कवि ह्रदय गा उठता है- 
जीवन नदी के हर मोड़ पर - कितना कुछ देखने सुनने का अवसर मिला - 
किन्तु प्राण-सागर की असीम गहराई (नाभि) से ऊपर उठती हुई 
(वह नाम-धुन : परा-मध्यमा-पश्यन्ति वैखरी वाणी) वह ध्वनि किसकी है ?- 
( वह परा वाणी " शब्द-ब्रह्म "  ॐ कार की गूँज है- )
बात समझ में आयी ?     
काल के कपाल पर स्मृति-चिन्हों को बनाते -बनाते, अब मेरा खेल ख़त्म हुआ; विस्मृति की असीम गहराई (महा-आनन्द ) में बह जाने का समय आ गया है !!  
महाकवि अज्ञेय की कविता है-   




हम नदी के साथ-साथ
सागर की ओर गए
पर नदी सागर में मिली
हम छोर रहे:

नारियल के खड़े तने हमें
लहरों से अलगाते रहे
बालू के ढूहों से जहाँ-तहाँ चिपटे
रंग-बिरंग तृण-फूल-शूल
हमारा मन उलझाते रहे

नदी की नाव
न जाने कब खुल गई
नदी ही सागर में घुल गई
हमारी ही गाँठ न खुली
दीठ न धुली

हम फिर, लौट कर फिर गली-गली
अपनी पुरानी अस्ति की टोह में भरमाते रहे।

" हरिः ॐ तत सत "

(Definition of Critical :- urgently needed; absolutely necessary Example: critical medical supplies|vital for a healthy society|of vital interest)