शनिवार, 13 जून 2009

" नया भारत गढ़ो !" ( Swami Vivekananda and Modern India )

उन्होंने कहा था - " मनुष्य, केवल मनुष्य भर चाहिये ; बाकी सब कुछ अपने आप हो जायेगा। आवश्यकता है वीर्यवान, तेजस्वि, श्रद्धा-सम्पन्न और दृढविश्वासी निष्कपट नवयुवकों की। ऐसे सौ मिल जाएँ, तो संसार का कायाकल्प हो जाय।"  और मनुष्य निर्माण करने का अर्थ है- मनुष्य के तीन प्रमुख अवयवों '3H' -ह्रदय (Heart),मन (Mind) और शरीर(Hand)-का विकास करने वाली शिक्षा ! स्वतन्त्र भारत की राष्ट्रिय शिक्षा नीति में रोजगार प्राप्त करने वाली शिक्षा के साथ साथ यथार्थ मनुष्य बनने की शिक्षा का समावेश भी अवश्य होना चाहिये।
 

१. स्वस्थ ह्रदय के लिये दैनिक प्रार्थना : जो युवा प्रार्थना की शक्ति में विश्वास करते हैं, उन्हें प्रतिदिन ईश्वर से प्रार्थना करनी चाहिये कि ' हे जगतजननी माँ ! जैसा सोचने, बोलने से करने से मुझे अपने चरित्र का निर्माण करने में मदद मिलती हो, आप मुझे केवल वैसे ही कर्मों में संलग्न रखिये।' जो लोग पहले से प्रार्थना की प्रभावकारिता पर विश्वास नहीं करते हों, वे भी स्वयं परिक्षण कोशिश करके देख सकते हैं कि जगत-जननी जगदम्बा से ' माँ, तुम मुझे अपना अच्छा पुत्र बना दो ' की प्रार्थना करने का असर कितना शीघ्र होता है! क्योंकि प्रार्थना में अतिप्राकृतिक या पारलौकिक शक्ति जैसी कोई (supernatural) बातें नहीं होती; बल्कि प्रार्थना मानवमात्र में अन्तर्निहित अव्यक्त शक्ति को केवल जाग्रत भर कर देती है, जिसकी सहायता से मनुष्य स्वयं अपने चरित्र का निर्माण कर सकता है। 
 

२. एकाग्रता का अभ्यास एवं स्वाध्याय : मन को वशीभूत करने और बुद्दि को तीक्ष्ण बनाने में सहायता प्रदान करता है; इसके नियमित अभ्यास एवं स्वाध्याय के द्वारा 'बुद्धि' को इतना तीक्ष्ण बनाया जा सकता है कि वह मनुष्य को निरंतर विवेक-विचार पूर्वक कर्म करने के लिये ही अनुप्रेरित करती रहती है। विवेकानन्द रचनावली या साहित्य का अध्ययन करने से  हमें स्वयं के साथ जुड़ जाने में बहुत अधिक सहायता प्राप्त होती है।अतः प्रत्येक व्यक्ति को प्रतिदिन अपना कुछ समय स्वामी विवेकानन्द की रचनाओं को पढ़ने में लगाना चाहिये। प्रत्येक ब्यक्ति को प्रारम्भ में क्रमशः 'भारत और उसकी समस्यायें', 'राष्ट्र को आह्वान', 'जाति-संस्कृति और समाजवाद', 'कोलम्बो से अल्मोड़ा  भाषण', 'विवेकानन्द पत्रावली', ' विवेकानन्द साहित्य संचयन' आदि पुस्तकों को पढ़ना चाहिये।
 

३. स्वस्थ शरीर :  एक स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन का विकास संभव है। इसलिए, प्रत्येक व्यक्ति को किसी न किसी उपयुक्त व्यायाम के माध्यम से अपने शरीर को स्वस्थ और मजबूत रखने का इच्छुक होना चाहिए। महामण्डल का प्रत्येक केन्द्र अपने सदस्यों के लिये इससे सम्बन्धित सुविधाओं को संचालित करने की योजना शुरू करने पर विचार कर सकता है।
 

४. समेकित बाल कल्याण योजना (Integrated child-welfare scheme): आज जो बच्चे हैं, वे ही कल किशोर या युवा के रूप विकसित होंगे ! अतः महामण्डल की सभी इकाइयों के द्वारा अपने क्षेत्र के बच्चों और युवाओं के लिए एक विस्तृत 'आत्म अनुशासन योजना' का प्रारम्भ  किया जाना चाहिये। बाल-कल्याण योजनाओं में उन बातों पर पर्याप्त  ध्यान देना होगा जो उन्हें एक स्वस्थ शरीर, ह्रदय और मन के युवा में परिवर्तित करने में सक्षम हों। समस्त महामण्डल केन्द्रों या समाज-सेवी संगठनों को अपने यहाँ बालकों के सर्वतोमुखी-विकास के लिये एक ' शिशु-विभाग' (बालक-विंग) रखना उचित होगा। बच्चों के सर्वांगीण विकास के लिये उन्हें स्वस्थ खेल-कूद, अनुशासित ड्रिल का अभ्यास, संगीत, प्रार्थना, आदि का प्रशिक्षण भी दिया जाना चाहिये। महामण्डल अपने प्रत्येक केन्द्र को बच्चों का विंग ' विवेक-वाहिनी ' का प्रारम्भ करने के लिए विस्तृत सुझाव देने के लिए तैयार है।
 

५. प्रौढ़ शिक्षा केन्द्र (Adult Education Centers): विशेष रूप से अविकसित क्षेत्रों, स्लम आदि में अशिक्षा को को दूर करने का प्रयास शुरू करना चाहिये।६. 'नि:शुल्क कोचिंग क्लासेस' (Free Coaching Classes) बहुत से बच्चे और युवा निजी ट्यूटर्स रखने का खर्च वहन नहीं कर सकते। इसलिये महामण्डल के केन्द्र यदि विद्यालय के छात्रों, विशेष रूप से जरूरतमंद छात्रों के लिये 'निःशुल्क कोचिंग क्लासेस' आरम्भ करें तो समाज की अच्छी सेवा हो सकती है।
 

७. पाठ चक्र (Study Circles) के माध्यम से 'सांस्कृतिक विरासत' (Cultural Heritage) की जानकारी: युवाओं के मन में अपने देश के प्रति  सच्चा प्रेम भारतवर्ष के उन प्राचीन-मूल्यों को समझने से ही उत्पन्न हो सकता है, जिसने हमारे देश को विश्व-गुरु के रूप में प्रतिष्ठित किया था। स्कूलों और कॉलेजों के पाठ्यक्रम इसके लिए पर्याप्त जानकारी प्रदान नहीं करते हैं, उन उच्च विचारों को बाहर से पूरा किया जाना चाहिये। अतः युवाओं के मन में हिमालय, गंगा, गीता, त्रिवेणी, काशीविश्वनाथ, राम-कृष्ण-बुद्ध-चैतन्य, ईसा, मोहम्मद आदि की शिक्षाओं के तुलनात्मक अध्यन के प्रति श्रद्धा उत्पन्न करने का प्रयत्न करना चाहिये। यह कार्य "अध्ययन सर्किलों" के माध्यम से सर्वोत्तम तरीके से किया जा सकता है। जहाँ युवाओं का एक समूह, उद्देश्य की प्राप्ति के लिये नियमित रूप से निर्धारित समय और दिन आपस में बैठकर, इस तरह के विषयों का अध्यन और पूर्ण-विवरण पर गंभीरता के साथ चिन्तन-मनन करके राष्ट्र-निर्माण 'Nation-Building'  कार्य के प्रति खुद को समर्पित करता है। हम अपने पाठ-चक्र (Study Circles) में स्वामी विवेकानन्द की रचनाओं के साथ भारतीय संस्कृति का अध्ययन शुरू कर सकते हैं।
 

८. 'संस्कृत-भाषा' ही हमें अपनी सांस्कृतिक विरासत की गहराई के भीतर प्रविष्ट करवा सकती है। संस्कृत के समृद्ध भाषा-भण्डार की सम्यक जानकारी पर्याप्त करने के लिये इस भाषा को सीखने और सिखाने का हर सम्भव प्रयास किया जाना चाहिए। प्राथमिक संस्कृत व्याकरण सिखाने एवं 'गीता' एवं 'उपनिषदों' की बुनियादी अवधारणा की शिक्षा की व्यवस्था अवश्य होनी चाहिये।
 

९.ह्रदय का विस्तार करने हेतु शिव-ज्ञान से जीव सेवा - स्थानीय चिकित्सा कर्मियों और प्रशिक्षित कर्मियों के सहयोग से होम्योपैथी दवाओं का वितरण, टीकाकरण और बाल कल्याण सहित अन्य कार्य भी जरूरत है और परिस्थितियों के अनुसार किए जा सकते हैं। निर्धन बच्चों के लिए दूध का नि: शुल्क वितरण, खाद्य वस्तुओं, कपड़े, किताबों, आदि से बहुत मदद की जा सकती है। लावारिश या जररूरतमन्दों के शवों का समय पर निस्तारण कर देना भी एक महान सेवा हो सकती है।
 

१०.'रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त साहित्य पुस्तकालय' जहाँ भी संभव हो एक सार्वजानिक पुस्तकालय मुख्य रूप 'Ramakrishna-Vivekananda' Vedanta  literature". की पुस्तकों के साथ शुरू करना चाहिये। स्कूल और कॉलेज के छात्रों के लिए बुक बैंक (पाठ बुक लाइब्रेरी) शुरू करने की संभावना का भी पता लगाया जा सकता है। कार्यक्रम सम्बंधित सारे सुझाव केवल परामर्श हैं, सुविधा के अनुसार ही लेने चाहिये।




 

                                               समर्पित कार्यकर्ता
                                        (DEDICATED WORKERS)
इस तरह के कार्यक्रमों के माध्यम से ऐसे समर्पित कार्यकर्ता सामने आने लगेंगे, जो स्वामी विवेकानन्द की शिक्षाओं का पालन करके बेहतर नागरिक बनने और एक बेहतर समाज का निर्माण करने (Be and Make) के लिए दूसरों की मदद करने का प्रयास करेंगे। लिहाजा विचारों का आदान प्रदान करने  और काम के विभिन्न तरीकों को देखने के समय वे हमेशा स्वयं से पहले 'समाज की सेवा' करने की चिन्ता करेंगे।
किसी केन्द्र के सदस्य न केवल स्वयं को इस प्रकार अपने ह्रदय का विस्तार करने वाले समाज सेवा में संलग्न रखेंगे,बल्कि दूसरों  को भी उसी प्रकार अपने नाम-यश की चिंता को छोड़ कर निःस्वार्थ तरीके से समाज-सेवा करने के लिये उत्साहित करते रहेंगे। और इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये निकट के दूसरे केन्द्रों पर आयोजित कार्यक्रमों में भाग लेकर विचारों का आदान-प्रदान करते हुए मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षा के प्रचार-प्रसार के नये नये गतिविधियों को भी आविष्कृत कर सकेंगे। इस प्रकार धीरे-धीरे महामण्डल के विभिन्न केन्द्रों में कार्यरत सभी सदस्यों के बीच एक सच्चे भाईचारे (true brotherhood) का विकास भी होता रहेगा।  
                                 महामण्डल की अवधारणा का प्रचार-प्रसार
                                        (DIFFUSION OF THE IDEA)
किसी केन्द्र के सभी सदस्यों को दूसरे इलाके में रहने वाले अपने मित्रों से संपर्क करके उन्हें भी इसी ढंग से एक पाठ-चक्र अपने क्षेत्र में स्थापित करने के लिये प्रोत्साहित करना चाहिये। यदि कोई संगठन इसी अवधारणा पर कार्य करता हो, तो उन्हें भी महामण्डल के साथ जोड़ने की चेष्टा करनी चाहिये। तथा महामण्डल के केन्द्रीय-कार्यालय के साथ संपर्क में रहते हुए इस ' मनुष्य बनो और बनाओ ' आन्दोलन को भारत के गाँव गाँव तक पहुंचा देने के लिये यथा-सम्भव प्रयत्न करना चाहिये। इसके लिये विभिन्न विद्यालय, महाविद्यालय के परिचित छात्रों, शिक्षकों और प्राध्यापकों को इस 'चरित्र-निर्माण द्वारा राष्ट्र-निर्माण ' या ( Man-making and Nation- building activity) की अभिनव अवधारणा के साथ जोड़ने के लिये व्यक्तिगत तौर से सम्पर्क करना बहुत लाभदायक सिद्ध होगा। उन्हें उस क्षेत्र में कार्यरत पाठ-चक्र से जुड़ने या अपने इलाके में नये पाठ -चक्र खोलने के लिये प्रोत्साहित करना चाहिये। 

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